कुमायुं का घुघतिया त्यौहार- कौवे को क्यों खिलाए जाते हैं पकवान!

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परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

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 सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने के पुण्य अवसर पर भारत, नेपाल समेत विभिन्न देशों में मकर संक्रांति पर्व मनाया जाता है।

संक्रांति को  कुमायुं में उत्तरैण तथा गढ़वाल में मकरैणी भी कहा जाता है। इस पर्व को घुघुतिया, पुस्योड़िया, मकरैण, मकरैणी, उतरैणी, उतरैण, घोल्डा, घ्वौला, चुन्या त्यार, खिचड़ी संगंराद आदि नामों से भी जाना जाता है। इस अवसर पर नदियों, गाड-गदनों तथा पंदारों में प्रात: स्नान करने की परंपरा भी है। वैसे इस पर्व को भले ही अलग-अलग नामों से पुकारा जाता हो। परंतु इस पर्व पर बनने वाले व्यंजन व त्यौहार का स्वरूप पूरे उत्तराखंड में लगभग एक समान ही है। उत्तरैण के मौके पर कुमायुं में गुड़ मिश्रित आटे के खिलौने, तलवार, डमरू आदि के साथ घुघुतों को फूल और फलों की माला में पिरोकर बच्चे गले में डालकर कौवों को आमंत्रित करते हैं। वे यह भी कहते हैं–

– काले कौवा काले, घुघुती माला खाले।

 ले कौवा बड़, मैंके दिजा सुनौंक घोड़।

गढ़वाल में इसे घोल्डिये त्यौहार के नाम से भी जाना जाता है।इस अवसर पर भी गुड मिश्रित आटे से बनाए जाने वाले पकवानों को धुरड यानी पहाड़ी हिरण या मृग के आकार का बनाकर पकाया जाता है । इसके बाद बच्चों के हाथों में देकर इन घुरडों को मारने का अभिनय करते हुए छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़कर खाया जाता है । गढ़वाल के कुछ क्षेत्रों में इसे चुन्या त्यार भी कहा जाता है। इस दिन दाल,चावल ,झंगोरा आदि सात अनाजों को पीसकर उससे एक विशेष प्रकार का व्यंजन बनाया जाता है, जिसे चुन्या कहते हैं। मकर संक्रांति के दिन उड़द की खिचड़ी के अनाज का दान करना व उड़द की खिचड़ी खाना सर्वोत्तम माना जाता है। इसीलिए इसे खिचड़ी त्यौहार भी कहा जाता है। घुघुतिया त्यौहार संभवत: संसार का ऐसा पहला त्यौहार है जो कि एक पक्षी कौवे  को समर्पित है और  इतने अलग-अलग नामों से जाना जाता है।

उत्तरायणी पर्व का उत्तराखंड में ऐतिहासिक महत्व भी है। इसी दिन कुमायुं केसरी बद्रीदत्त पांडे के नेतृत्व में हजारों लोगों ने बागेश्वर में सरयू –गोमती के तट पर 14 जनवरी 1921 को उत्तराखंड की कुप्रथा कुली बेगार को समाप्त करने की शपथ ली। उत्तराखंड के कुमायुं और गढ़वाल में कुली-बेगार कुप्रथा को समाप्त करने के लिए बद्रीदत्त पांडे और अनुसूया प्रसाद बहुगुणा के नेतृत्व में जनआंदोलन  चलाया गया था। उस दिन बागेश्वर में लोगों ने बेगार प्रथा से संबंधित रजिस्टरों को फाड़कर सरयू नदी में प्रवाहित कर इस प्रथा का हमेशा के लिए अंत कर दिया था। अपने साथ कुली रजिस्टर लेकर पहुंचे प्रधानों ने शंख ध्वनि और भारत माता की जयकारों के साथ उन्हें फाड़कर पहाड़ की सरयू और गोमती के संगम में प्रवाहित कर दिया था। इसके बाद अंग्रेजों ने इस कुप्रथा को हमेशा के लिए समाप्त कर दिया था।

मकर संक्रांति पर घुघुतिया त्यौहार  (Ghughatiya tyohar)कब से और क्यों मनाया जाने लगा, इस बारे में कई कथाएं प्रचलित हैं। सबसे अधिक प्रचलित कथा कुमायुं के चंद नरेश को लेकर है। कहा जाता है कि  नरेश कल्याण चंद की कोई संतान नहीं थी। इसलिए उन्होंने मकर संक्रांति के पर्व पर बागेश्वर जाकर सरयू और गोमती के पवित्र संगम पर स्नान कर भगवान बागनाथ यानी भगवान शिव के मंदिर बागेश्वर में पूजा कर पुत्र प्राप्ति के लिए प्रार्थना की। अगले मकर संक्रांति में उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हो गई । राजकुमार के नाम निर्भय चंद्र रखा गया, परंतु रानी उसे प्यार से घुगुती कहती थी। राजकुमार निर्भय के गले में मोती की एक माला हमेशा रहा करती थी जिसमें धुगरू लगे थे।जब कभी वह वह रोने लगता या जिद करने लगता तो रानी उसे चुप कराने के लिए कहती  कि -अरे घुघुती चुप हो जा, नहीं तो तेरी यह प्यारी सी माला को मैं कव्वे को दे दूंगी। इसके बाद वह जोर जोर से चिल्लाती कि -ओ कव्वे आ जा,  घुगुति की माला खा जा। इस पर राजकुमार डर से चुप हो जाता। कई बार कभी कौवे सच में ही आ जाते थे। राजकुमार उनको देखकर खुश हो जाता और रानी उन कौवों को कुछ पकवान खाने को दे देती ।

चंद नरेश के एक दुष्ट मंत्री  राज्य को हड़पने की सोचता रहता था।  इसलिए एक दिन उसने राजकुमार निर्भयचंद का अपहरण कर दिया। वह राजकुमार को उठाकर जंगल की तरफ चल दिया। परंतु,  इस घटना को उसके साथ खेलने वाले एक कव्वे ने देख लिया और वह कौवा जोर-जोर से कांव-कांव करके चिल्लाने लगा । उसकी आवाज सुनकर और भी कौवे वहां पर एकत्रित होकर जोर-जोर से चिल्लाने लगे। राजकुमार ने अपने गले की माला उतारकर अपने हाथ में रखी थी और एक कौवे ने झपटकर उसकी माला उसके हाथ से ले ली। कव्वा सीधे राजमहल की तरफ उड़ गया। कौवे के मुंह में राजकुमार की माला देखकर और राजकुमार को वहां ना पाकर सभी लोग घबरा गए। कौवा माला को लेकर कभी इधर घूमता कभी उधर घूमता और कभी जोर-जोर से चिल्लाने लगता। चंद नरेश की समझ में आ गया कि राजकुमार किसी संकट में है। वह कौवे के पीछे पीछे जंगल की तरफ चले गए । जहां मंत्री डर के मारे राजकुमार को छोड़कर भाग चुका था ।इस तरह मंत्री ने जहां राजकुमार को छुपाया था, उसका भेद एक कौवे ने कांव-कांव कर बता दिया। इससे खुश होकर राजा ने कौवों को मीठा खिलाने की परंपरा शुरू की। रानी भी अपने पुत्र को पाकर बहुत प्रसन्न हुई और मकर संक्रांति पर पकवान बना कर उन्हें खिलाने लगी। चंद नरेश ने  राजकुमार के जन्मदिन के अवसर पर कौवों को बुलाकर पकवान खिलाने की यह परंपरा उन्होंने राज्य भर में आरंभ कर दी। इस तरह घुघतिया त्यौहार मनाया जाने लगा।

एक अन्य कथा भी है। बहुत पुरानी बात है। एक राजा को ज्योतिषियों ने बताया कि उस पर मारक ग्रह दशा है। यदि वह मकर संक्रांति के दिन बच्चों के हाथ से कौओं को घुघुतों यानी घुघूती यानी फाख्ता पक्षी  का भोजन कराए तो ग्रह दशा का निराकरण हो जाएगा।  इसके बाद राजा ने आटे के प्रतीकात्मक घुघुते तलवाकर बच्चों से कौवों को खिलाए।

एक कथा और भी है। किसी गांव में एक धनी व्यक्ति रहता था। परंतु वह  किसी के दुख-सुख में काम नहीं आता था।वह  न कोई दान भी नहीं देता था। वह कृपण के नाम से प्रसिद्ध था। एक बार वह गम्भीर रूप से बीमार पड़ गया। उपचार कराने के लिए दूर-दूर से वैद्य बुलाए गए, किन्तु वह ठीक नहीं हो पाया। एक दिन अचानक गांव में एक साधु आया। उस व्यक्ति के घर वालों ने साधु से रोगी को आशीर्वाद देने और उसे स्वस्थ कर देने का अनुरोध किया। – इस पर तब साधु ने कहा कि एक युक्ति है। यदि इसके अनुसार काम किया जाए, तो रोगी ठीक हो सकता है। परिवार वालों के  अनुनय-विनय पर साधु ने कहा कि कल मकर संक्रांति का पर्व है। आज एक उत्सव मनाकर गांव के सभी लोगों को भोजन कराइए। कल सुबह स्नानादि करके गांव के सभी बच्चों को पकवानों का उपहार दें। जब वे बच्चे काले कौवों को बुलाएंगे, तो रोगी ठीक हो जाएगा।। उसके परिजनों ने वैसा ही किया। इसके बाद वह व्यक्ति ठीक हो गया। तब से घुघुतिया त्यौहार मनाया जाने लगा। यह थी घुघतिया त्यौहार की गाथा। ==================== 

 

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