दिल्ली में होगा अब वह काम जो दो दशक में भी नहीं कर पाई उत्तराखंड सरकार

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गढ़वाली, कुमायुंनी और जौनसारी भाषाओं का मानक तय  करने कवायद

दिल्ली गढ़वाली, कुमायुंनी और जौनसारी अकादमी की पहल

परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

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मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश चंद्र लखेड़ा। उत्तराखंड की तीन प्रमुख भाषाओं, गढ़वाली, कुमायुंनी और जौनसारी का मानक स्वरूप तय करने को लेकर जो कार्य उत्तराखंड सरकार को करना चाहिए था, उसे अब दिल्ली में किया जा रहा है। दिल्ली में नव गठित गढ़वाली, कुमायुंनी और जौनसारी अकादमी ने इन भाषाओं का मानक स्वरूप तय करने की पहल की है। इसके लिए २६ मार्च २०२२ से दो दिवसीय कार्यशाला का आयोजन किया गया। इस बार का मुद्दा यही है।

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मानक तय करने का मामला यह है कि गढ़वाली, कुमायुंनी और जौनसारी भाषाओं का एक ऐसा स्वरूप तय किया जाए जिससे इनको लिखने में एकरूप दिखे। अलग-लग क्षेत्रों में इनको बोलने का अलग-अलग स्वरूप है।  लोग बोलें, भले ही अपनी भाषा, परंतु लिखने में एक समानता हो। जिस तरह से भारतेंदु हरिश्चंद्र ने  आज की हिंदी का मानत तय किया।

गढ़वाली, कुमायुंनी और जौनसारी का मानक तय होने पर ही इनकी संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने का रास्ता खुलेगा। इस अनुसूची में अभी 22 भाषाएं शामिल हैं। किसी  भी भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल करने से उस भाषा को एक राष्ट्रीय पहचान मिलती है। उसके माध्यम से सरकारी प्रतियोगी परीक्षाएं दी जा सकती हैं। उस भाषा में एनसीईआरटी की पुस्तकें उपलब्ध हो जाती हैं। चुने प्रतिनिधि संसद व विधानसभा में उस भाषा में शपथ ले सकते हैं, अपनी बात रख सकते हैं।  स्कूल और कॉलेज की किताबें उस भाषा में उपलब्ध हो जाती  है। उस भाषा के साहित्यकारों को सरकारी तौर पर प्रोत्साहित किया जा सकता है। साहित्य अकादमी व ज्ञानपीठ जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों के लिए नामांकित किए जाते हैं। सरकारी तौर पर भी उस भाषा के विकास के लिए अनुदान मिलता है। इससे वह भाषा और लोकप्रिय होने लगती है।

उत्तराखंड की दो प्रमुख भाषाओं गढ़वाली और कुमायुंनी का लगभग एक हजार साल पुराना इतिहास है। गढ़वाल के पंवार राजवंश में गढ़वाली और कुमायुं के चंद राजवंश के शासन में  कुमायुंनी राजभाषाएं रही हैं।  तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी से पहले सहारनपुर से लेकर हिमाचल प्रदेश तक फैले गढ़वाल राज्य में सरकारी कामकाज के लिए गढ़वाली भाषा का ही प्रयोग होता था। देवप्रयाग मंदिर में महाराज जगत पाल का वर्ष १३३५ का दानपत्र लेख, देवलगढ़ में अजयपाल का पंद्रहवीं सदी का लेख, बदरीनाथ आदि स्थानों में मिले शिलालेख और ताम्रपत्र गढ़वाली भाषा के समृद्ध और प्राचीनतम होने के प्रमाण हैं। इसी प्रकार कुमायुं के चंद शासन काल के समय भी राजाज्ञा कुमायुंनी में ही ताम्रपत्रों पर लिखी जाती थी। इसके बावजूद उत्तराखंड राज्य की आधिकारिक और कामकाज की भाषा हिंदी है। हिंदी के अस्तित्व में आने से पहले कुमायुंनी के आदि कवि गुमानी पंत का साहित्य उपलब्ध है। परंतु, दुख की मात है कि  गढ़वाली, कुमायुंनी और जौनसारी को प्रदेश में दूसरी राजभाषा का दर्जा तक नहीं मिल पाया है।

उत्तराखंड राज्य का गठन नौ नवंबर २००० को  हुआ। तब से प्रदेश में इन भाषाओं को लेकर अलग-अलग अकादमियां भी नहीं बनीं। जबकि पंजाबी आदि की अकादमी है। गढ़वाली, कुमायुंनी और जौनसारी के लिए एक राज्य भाषा संस्थान बनाया, परंतु वह एक निष्क्रिय संस्था जैसी है। गढ़वाली, कुमायुंनी और जौनसारी का मानक स्वरूप तय करने का काम उत्तराखंड में होना चाहिए था। परंतु अब यह काम दिल्ली गढ़वाली, कुमायुंनी और जौनसारी अकादमी कर रही है।

गढ़वाली भाषा गढ़वाल मंडल के सातों​ जिले पौड़ी, टिहरी, चमोली, रुद्रप्रयाग, उत्तरकाशी, देहरादून और हरिद्वार के कुछ क्षेत्र में बोली जाती है। भाषाविद ग्रियर्सन ने गढ़वाली के कई रूप  माने हैं। इनमें श्रीनगरी, नागपुरिया, बधाणी, दसौल्या, राठी, टिहरियाली, सलाणी, माझ- कुमैय्या(दुसांध की भाषा) हैं। इनके साथ ही गढ़वाली के अन्य रूप में बंगाणी, रंवाई (रवाल्टी), जौनपुरिया, जाड़, रांग, गंगाड़ी, मार्छा (भोटिया) भी शामिल हैं। इस तरह १५ स्वरूप हैं। गढ़वाली भाषाविद डा. गोविंद चातक ने श्रीनगर और उसके आसपास बोली जाने वाली भाषा श्रीगनरी को आदर्श गढ़वाली कहा था।  इसलिए इसे ही लगभग सभी साहित्यकार मानकरूप में लेते हैं।

इसी तरह कुमायुंनी भाषा कुमायुं  मंडल के छह जिलों नैनीताल, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, बागेश्वर, चंपावत और उधमसिंह नगर में बोली जाती है। कुमायुंनी की लगभग दस उप बोलियां मानीा जाती हैं। इन्हें पूर्वी और पश्चिमी दो वर्गों में बांटा गया है। पूर्वी कुमायुंनी में कुमैया, सोर्याली, अस्कोटी तथा सीराली हैं, जबकि पश्चिमी कुमायुंनी में खसपर्जिया, चौगर्खिया, गंगोली, दनपुरिया, पछाईं और रोचोभैंसी शामिल हैं। कुमायुं क्षेत्र में ही भोटिया, राजी, थारू और बोक्सा जनजातियां भी रहती हैं, इनकी भी अपनी बोलियां हैं।

इसी तरह जौनसारी भाषा गढ़वाल मंडल के जौनसार बावर तथा आसपास के क्षेत्रों में बोली जाती है। देहरादून जिले के पश्चिमी पर्वतीय क्षेत्र को जौनसार भाबर कहा जाता है। यह भाषा मुख्य रूप से तीन तहसीलों चकराता, कालसी और त्यूनी में बोली जाती है। इस क्षेत्र की सीमाएं टिहरी ओर उत्तरकाशी से लगी हुई हैं और इसलिए इन जिलों के कुछ हिस्सों में भी जौनसारी बोली जाती है। जार्ज ग्रियर्सन ने इसे पश्चिमी पहाड़ी की बोली कहा था। यानी उन्होंने इसे हिमाचल प्रदेश की बोलियों के ज्यादा निकट बताया था।

अब आठवीं अनुसूची के बारे में जान लेते हैं। इस संविधान की आठवीं अनुसूची में निम्नलिखित 22 भाषाएं शामिल हैं। इनमें असमिया, बांग्ला, गुजराती, हिंदी, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, ओडिया, पंजाबी, संस्कृत, सिंधी, तमिल, तेलुगू, उर्दू, बोडो, संथाली, मैथिली और डोगरी। इन भाषाओं में से 14 भाषाओं को संविधान के प्रारंभ में ही शामिल कर लिया गया था। इसके बाद समय-समय पर बाकी भाषाओं का शामिल किया जाता रहा। अब  भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में ३८ अन्य भाषाओं को शामिल करने की मांग है। इनमें अवधी, अंगिका, बुन्देली,बंजारा, बज्जिका,भोजपुरी, भोटी, भोटीया, छत्तीसगढ़ी, धक्ती, गढ़वाली, गोंडी, कोरकु, गोजरी, हो, कच्छी कामतापुरी, कार्बी, खासी, कोडावा, कबरक, कुमायुंनी, कुराक, कुड़माली, लेप्चा, लिंबू, मिज़ो मगही, मुंडारी, नागपुरी, निकोबारी, हिमाचली पालि, राजस्थानी, कोशली / सम्बलपुरी, शौरसेनी, सराइकी, टेनयीडी, तुलू भाषा शामिल हैं।

इसके अलावा भारत सरकार ने संविधान की आठवीं अनुसूची में सूचीबद्ध भाषाओं में से छह भाषाओं को ‘शास्त्रीय भाषा’ का दर्जा पदिया है। इनमें संस्कृत, तमिल, कन्नड़,  तेलुगू, मलयालम  और ओडिया शामिल हैं।

दिल्ली की गढ़वाली, कुमायुंनी और जौनसारी भाषा अकादमी के सचिव जीतराम भट्ट की अध्यक्षता में २६ मार्च २०२२ को आयोजित इस दो दिवसीय कार्यशाला में जौनसारी भाषा के लिए रमेश चंद्र जोशी व खजान दास शर्मा, कुमायुंनी के लिए पूरण चंद्र कांडपाल, रघुवर दत्त शर्मा और गिरीश चंद्र बिष्ट तथा गढ़वाली के लिए मदन मोहन डुकलाण, दिनेश ध्यानी और मैं डा. हरीश चंद्र लखेड़ा शामिल हुए। यह कार्य अब सतत चलता रहेगा।

यह था गढ़वाली, कुमायुंनी और जौनसारी भाषाओं का मानक स्वरूप तय करने को लेकर दिल्ली में एक पहल। यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। वीडियो अच्छी लगे तो शेयर भी अवश्य कीजिएगा। इसके टाइटल सांग – हम पहाड़ा औंला– को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है।  इसी चैनल में है। हमारे सहयोगी चैनल – संपादकीय न्यूज—को भी देखते रहना। अगली वीडियो की प्रतीक्षा कीजिए। तब तक जै हिमालय, जै भारत।

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