ब्राह्मण विहीन होते जा रहे हैं उत्तराखंड के गांव

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उत्तराखंड में भूतहा क्यों हो रहे हैं ब्राह्मणों के गांव ? 

परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

इस बार उत्तराखंड की एक गंभीर समस्या पर बात करने जा  हूं।  यह समस्या है पलायन। वैसे तो पलायन पर बहुत पहले से बात होती रही है, परंतु इस  बार गंभीर समस्य यह है कि उत्तराखंड के गांव अब ब्राह्मण विहीन होते जा रहे हैं। सबसे अधिक भुतहा गांव ब्राह्मणों के हैं।  (Brahmins of Uttarakhand & Palayan)यह तो धन्य हैं उत्तराखंड के जजमान यानी क्षत्रिय,  जिनके कारण अभी गांव आबाद हैं। अन्यथा बामणों ने तो जैसे सोच ही लिया है कि पढ़े- लिखते ही अपने पुरखों के गांव को हमेशा के लिए छोड़ देना है। इस महा पाप में मैं भी शामिल हूं।  यह मैं ब्राह्मणों को कोई दोष नहीं दे रहा हूं। यह मजबूरी है कि पढ़ लिखने के बाद वहां सम्मानजनक रोजगार के अवसर पैदा  नहीं हो पाए।

आप भी जानते हैं कि उत्तराखंड राज्य के बनने के इन २२ सालों के बाद भी पलायन कम होने की बजाए बढ़ा है। यह खुद उत्तराखंड सरकार के गठित पलायन आयोग की रिपोर्ट कह चुकी है। परंतु मैं जो बात बताने जा रहा हूं वह और भी गंभीर है। इस बात को सरकारी तौर पर बताया नहीं गया। पलायन आयोग की रिपोर्ट में पलायन को लेकर हालांकि जातिवार उल्लेख नहीं किया गया, परंतु  सरकार भी जानती है कि उत्तराखंड में जो पलायन हुआ है वह सबसे अधिक ब्राह्मणों के गांवों से हुआ है।  

कुछ साल पहले यहां दिल्ली  स्थित उत्तराखंड सदन में वहां के एक मुख्यमंत्री के साथ बैठा था। बैठक में हम दो ही थे। उत्तराखंड के मुद्दों पर बात शुरू होने पर पलायन पर बात आ गई। उन्होंने कहा कि अधिकतर वे गांव खाली हुए हैं जहां ब्राह्मण रहते हैं। मैंने पूछा कि इसका कारण क्या है? तो उनका उत्तर था कि ब्राह्मणों में अधिकतर लोग पढ़-लिख गए हैं इसलिए गांव छोड़ गए हैं।

पहाड़ की यह कटु सच्चाई है कि उत्तराखंड में जो भी उच्च शिक्षा ले रहा है वह पहाड़ छोड़ दे रहा है। इसमें मैं भी शामिल हूं। इसके बाद मैंने अपने गांव व आसपास के गांवों पर दृष्टि घुमाई तो उन मुख्यमंत्री की बात सही साबित होती दिखाई दी। पौड़ी जिले के रिखणीखाल ब्लॉक के तहत मेरे गांव के आसपास के ब्राह्मणों के अधिकतर गांवों में बच्चे, महिलाएं व बुजुर्ग ही रह गए हैं। अधिकतर घरों में ताले लगे हैं। जबकि क्षत्रियों के गांव अब भी आबाद हैं। यह बहुत अच्छी बात है। हालांकि क्षत्रियों में भी जो पढ़ लिख जा रहे हैं वे भी गांव छोड़ दे रहे हैं। परंतु उनमें यह भी है कि उन्होंने अपने गांवों से उस तरह से संबंध नहीं तोड़े हैं, जैसा कि ब्राह्मणों ने किया है।  (Brahmins of Uttarakhand & Palayan)

 वास्तव में सरकार की ओर से दो रुपए किलो चावल आटा देने से अब पहाड़ में खेती भी खत्म हो गई है। इससे सामाजिक तानाबाना भी ढह गया। ब्राह्मणों के पुश्तैनी कार्य भी बंद हो गए हैं। ब्राह्मण पशुपालन व खेती करने से कतराते रहे हैं।  ऐसे में उनके सामने शिक्षा प्राप्त करना और रोजगार पाना ही उनका एक मात्र लक्ष्य रह गया है।शहरों में आकर इतना पैसा भी नहीं कमा पाते कि गांव के घर को भी देख सकें।  इसलिए ब्राह्मणों के गांव भुतहा  बन रहे हैं । यदि ऐसा ही जारी रहा तो एक दिन ऐसा आएगा कि पहाड़ में शादी –ब्याह  से लेकर अंतिम संस्कार जैसे धार्मिक अनुष्ठानों के लिए भी ब्राह्मण नहीं मिलेंगे।  (Brahmins of Uttarakhand & Palayan)

अब प्रश्न यह है कि उत्तराखंड राज्य बनने से पहले तो हम लोग संयुक्त उत्तर प्रदेश सरकार को कटघरे में खड़ा करते थे, परंतु अब तो राज्य बने २२ साल हो चुके हैं। अब किसको जवाबदेह ठहराएं? देहरादून में बैठी सरकार की प्राथमिकता में पहाड़ के गांव क्यों नहीं हैं? पलायन आयोग की रिपोर्ट कहा है्? उस की सिफारिशों पर अमल क्यों नहीं हुआ?

उत्तराखंड सरकार ने 17 सितंबर 2017 में पलायन आयोग का गठन किया था और आयोग ने साल 2018 में सरकार को अपनी पहली रिपोर्ट सौंपी थी।  आयोग की पहली रिपोर्ट के अनुसार 2011 में उत्तराखंड के कुल 16,793 गांवों में से 1034 गांव खाली हो चुके थे। जबकि साल 2018 आते-आते 1734 गांव खाली हो चुके थे।  राज्य में 405 गांव ऐसे थे, जहां 10 से भी कम लोग रह रहे थे। 565 गांव ऐसे पाए गए, जहां एक दशक के दौरान आबादी में 50 फीसदी से अधिक कमी आई थी। आयोग ने पलायन की समस्या, पलायन की वजह और रोकने के उपाय समेत अन्य पहलुओं को लेकर करीब 84 पन्नों की रिपोर्ट तैयार की थी। इस में प्रदेश के करीब 1000 गांवों को भूतहा घोषित किया गया था। रिपोर्ट के अनुसार साल 2001 और 2011 की जनगणना के आंकड़ों की तुलना करने पर अल्मोड़ा और पौड़ी गढ़वाल जिलों में नकारात्मक जनसंख्या वृद्धि दर्ज की गई।  अर्थात यहां की जनसंख्या बढ़ने की बजाए घट गई थी। रिपोर्ट के अनुसार पलायन की सबसे बड़ी वजह रोजगार है। इस कारण  50.16 फीसदी लोग पलायन कर गए। इसके बाद अच्छी  शिक्षा के लिए 15.21 फीसदी, स्वास्थ्य सेवाओं में कमी के कारण 8.83 फीसदी लोगों ने पलायन किया।  जंगली जानवरों से तंग आकर पलायन और कृषि उत्पादन में कमी होना भी पलायन की एक बड़ी वजह पाई गई।

रिपोर्ट के अनुसार, उत्तराखंड में इन 10 सालों में जितना भी पलायन हुआ है, उनमें सबसे अधिक 26 से 35 साल के युवाओं की संख्या है। बेहतर शिक्षा और रोजगार की तलाश में इस उम्र के 42.25 प्रतिशत  युवा अपना गांव छोड़कर नजदीकी कस्बों, जिला मुख्यालयों, दूसरे जिलों, राज्य या देश से बाहर चले गए थे। है। इसके अलावा 25 साल से कम उम्र वाले 28.66% और 35 साल से अधिक उम्र वाले 29% लोग भी गांव से पलायन कर चुके  थे। यह बात तो इसलिए बता रहा हूं कि आप लोग भी जानें कि उत्तराखंड सरकार ने इस पलायन को लेकर क्या क्या किया। जाहिर है इसका उत्तरा नकारात्मक ही मिलेगा। 

2001 की जनगणना अवधि के दौरान देश में ज्यादा आर्थिक लाभ वाले शहरों या दूसरे इलाकों में काम करने के लिए 14 करोड़ 40 लाख लोगों ने प्रवास किया। स्वतंत्र भारत की प्रथम जनगणना 1951 में ग्रामीण एवं शहरी आबादी का अनुपात 83 प्रतिशत एवं 17 प्रतिशत था। 50 वर्ष बाद 2001 की जनगणना में ग्रामीण एवं शहरी जनसंख्या का प्रतिशत 74 एवं 26 प्रतिशत हो गया। इन आंकड़ों के देखने पर साफ है कि ग्रामीण लोगों का शहरों की ओर पलायन तेजी से बढ़ रहा है। गांवों से शहरों की ओर पलायन का सिलसिला कोई नया मसला नहीं है। गांवों में कृषि भूमि के लगातार कम होते जाने, आबादी बढ़ने और प्राकृतिक आपदाओं के चलते रोजी-रोटी की तलाश में ग्रामीणों को शहरों-कस्बों की ओर मुंह करना पड़ा। गांवों में बुनियादी सुविधाओं की कमी भी पलायन का एक दूसरा बड़ा कारण है। गांवों में रोजगार और शिक्षा के साथ-साथ बिजली, आवास, सड़क, संचार, स्वच्छता जैसी बुनियादी सुविधाएं शहरों की तुलना में बेहद कम है। इन बुनियादी कमियों के साथ-साथ गांवों में भेदभावपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के चलते शोषण और उत्पीड़न से तंग आकर भी बहुत से लोग शहरों का रुख कर लेते हैं। परंतु उत्तराखंड से पलायन इसलिए भी गंभीर मुद्दा है कि यह चीन की सीमा से जुड़ा है और यहां रोहिंग्या मुसलमान बस रहे हैं। इसके अलावा उत्तराखंड राज्य इसीलए बना था कि पलायन की रुकेगा। परंतु मामला और बिगड़ गया।

परंतु मैं बात कर रहा था ब्राह्मणों के गांवों की। ब्राह्मणों ने यदि उच्च शिक्षा प्राप्त की है तो यह उनका दोष तो नहीं है। इसकी दोषी उत्तराखंड की निक्कम सरकारें हैं जो उच्च शिक्षा प्राप्त युवकों को रोजगार उपलब्ध नहीं कर पा रही हैं।

शहरों में रह रहे उत्तराखंडी यदि अपने गांव जाते हो तो मेरी बात पर गौर  करना कि आखिरकार अधिकतर ब्राह्मणों के गांव भुतवा क्यों हो गए हैं।  (Brahmins of Uttarakhand & Palayan) उत्तराखंड के ब्राह्मणों को सोचना होगा कि आखिरकार वे गांव लौट क्यों नहीं रहे हैं। 

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