मकरैण का गिंदी कौथिग – राजस्थान की माटी की स्मृतियों से जुड़ा अनूठा खेल

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परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

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उत्तराखंड में मेलों की समृद्ध परंपरा रही है। प्राचीन समय में संचार और परिवहन की आज जैसी ऐसी सुविधाएं  नहीं थीं। ऐसे में विषम भौगोलिक परिवेश में दूर- दराज के स्थानों पर रहने वाले रिश्तेदारों और  मित्रों से  मिलने के लिए मेले और त्यौहार सबसे बेहतर  साधन थे। गिंदी का मेला (gindi  ka mela) इन मेलों में अदभुद है। गिंदी का मेला– मकर संक्रांति के अवसर पर उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जिले की कई नदियों के किनारे  पर आयोजित होते हैं। उत्तराखंड में मकर संक्रांति को मकरैण या खिचड़ी सगरांद व उत्तरैण के नाम से जाना जाता है। मकर संक्रांति को गढ़वाल में मकरैण तथा कमायुं में उत्तरैण कहा जाता है। गढ़वाल में खिचडिय़ा संक्रांति के रूप में इस दिन उड़द की खिचड़ी बनाई जाती है तथा ब्राह्मणों को चावल और उड़द की दाल दान दी जाती है। इसी दिन पौड़ी गढ़वाल में लंबे समय से अलग-अलग क्षेत्रों में गिंदी मेले का आयोजन करने की प्रथा जारी है।  जबकि कुमायुं मंडल में मकर संक्रांति को घुघुतिया त्योहार के रूप में भी मनाया जाता है। इस दिन बच्चे कौओं को ‘काले कौवा काले घुघुति माला खा ले’ कह कर आटे से बने घुघते यानी पकवान खिलाते हैं।

जैसा कि आप भी जानते हैं कि मकर संक्रांति भारत, नेपाल समेत कई देशों का प्रमुख पर्व है। पौष मास में जब सूर्य देव  धनु राशि  से मकर राशि में प्रवेश करते हैं, तब यह पर्व मनाया जाता है। यह भी कह सकते हैं कि इस दिन से सूर्यदेव उत्तरायण होते हैं। मुख्यत: यह त्योहार मुख्यत: जनवरी की 14 या 15 तिथि को ही पड़ता है।  इसी दिन पौड़ी जिले के दक्षिणी हिस्से में कई नदियों के किनारे -गिन्दी का मेला (gindi  ka mela)—का आयोजन किया जाता है।  स्थानीय भाषा में इसे गिन्दी कौथिग कहा जाता है। गिंदी यानी गेंद। यह बताना आवश्यक है कि गढ़वाली में गेंद को गिंदी कहते हैं। चूंकि इस मेले के खेल में गेंद का प्रयोग किया जाता है, इसलिए इसे गिंदी का मेला कहते हैं। पहाड़ों में इन मेलों की अपनी विशिष्टता और महत्व है। माघ माह के प्रारंभ में पूरे क्षेत्र में इस तरह के कई मेलों का आयोजन होता है, परंतु थलनदी और डंडामंडी के — गिन्दी का मेला -(gindi  ka mela)- पूरे क्षेत्र में सबसे प्रसिद्ध है, इनको देखने के लिए दूर-दूर लोग आते हैं। ये मेले बहादुरी, आनन्द, साहस और प्रतिस्पर्धा के प्रतीक हैं। नदी के आर-पार के दो क्षेत्रों के कई गांवों की दो टीमों में बांटकर मैदान में एक विशिष्ट प्रकार की गेंद से खेल खेला जाता है। इस खेल में, प्रत्येक टीम गेंद को अपनी तरफ खींचने की कोशिश करती है और जीतने वाले लोग ढोल-दमाउ बजा कर नृत्य करते हुए गेंद अपने साथ ले जाते हैं।

गिंदी का मेला -(gindi  ka mela)- के बारे में विस्तार से बताने से पहले इसके इतिहास का उल्लेख कर लेता हूं। गढ़वाल में इस खेल का आयोजन का श्रेय राजस्थान से उत्तराखंड आए लोगों को जाता है। धर्मांध मुसलिम आक्रांताओं के कहर से अपने धर्म व परिजनों को बचाने के लिए राजस्थान से भी बड़ी संख्या में लोग हिमालय की शरण में आते रहे हैं। इसलिए वीरों की भूमि राजस्थान का उत्तराखंड की संस्कृति पर खासा प्रभाव रहा है। राजस्थानी संस्कृति का समूचे हिमालयी क्षेत्र की भाषा, संस्कृति और समाज पर प्रभाव आज भी देखा जा सकता है। हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड के साथ ही पड़ोसी देश नेपाल में भी इसमें शामिल है। हिमालय की ढलानों में  देश के अन्य भागों की तरह राजस्थान से भी आकर बड़ी सख्या में लोग पहाड़ में बसे। धर्माटन के तौर पर आए लोगों के अलावा मैदानों में मुसलिम आक्रांताओं के अत्याचारों से त्रस्त लोग भी  यहां बसे।

उत्तराखंड के पौड़ी जिले का गिंदी मेला (gindi  ka mela) भी राजस्थान की माटी की स्मृतियों से जुड़ा है। इस मेले की खासियत यह है कि पौड़ी जिले की अजमेर और उदयपुर पट्टियों के निवासियों के बीच ऐसा अनोखा खेल खेला जाता है, जिसमें चमड़े की 20 किलो की गेंद को खींच कर अपने क्षेत्र में ले जाना होता है। जो भी पक्ष  गेंद को खींच कर अपने पाले में ले जाता है उसे विजयी घोषित कर लिया जाता है। गेंद को गढवाली में गिंदी कहते हैं, इसलिए इस मेले का नाम गिंदी का मेला पड़ गया। गढ़वाल ही नहीं, यह पूरे विश्व का अनोखा मेला है, जिसमें गेंद को खींच कर अपने क्षेत्र में ले जाने की प्रतिस्पर्धा होती है।  इसी विशेषता व ऐतिहासिक महत्व को देखते हुए उत्तराखंड सरकार इस मेले को राज्य मेला घोषित कर चुकी है।

अजमेर और उदयपुर, जैसा कि नाम से ही स्पष्ट हो जाता है कि इन नामों का सीधा संबंध राजस्थान से है। सदियों पहले से  मुसलिमों की धर्मांधता से परेशान होकर राजस्थान से बड़ी संख्या में आए लोग उत्तराखंड में  बसे। ये लोग जब यहां बसे तो अपने पुरखों की पवित्र भूमि के नाम पर यहां भी अजमेर और उदयपुर नाम रख दिए। पौड़ी जिले की उदयपुर और अजमेर पट्टियों को गढ़वाली में उदेपुर और अजमीर भी कहा जाता हैं। इन पट्टियों की विभाजन रेखा थल नदी है। इस नदी के किनारे ही  गिंदी का मेला (gindi  ka mela)खेला जाना शुरू हुआ। इसके बाद यहां से प्रेरणा लेकर अब गिंदी के मेले और भी कई स्थानों पर लगते हैं। इनमें कण्वाश्रम के निकट मवाकोट, डाडामंडी,  किमसार, देवीखेत,यमकेश्वर, त्योडों, ताल, कुनाव, दालमीकेत, व कटघर के गिंदी के मेले प्रमुख हैं। लेकिन इन सभी मेलों की उत्पत्ति थलनदी से ही मानी गई है। आज  उदयपुर और अजमेर  कई पट्टियों में विभक्त हैं।हर एक के साथ ये नाम जुड़े हैं। अब तो कई अन्य क्षेत्रों में गंदी के मेले होने लगे हैं। सतपुली के पास बिलखेत, सांगुड़ा में भी यह मेला होता है।त्याडो और किमसार में विवाहित और अविवाहितों के बीज यह खेल खेला जाता है। जैसा कि मैंने पहले भी बताया कि  गिंदी का मेला हर साल मकर संक्रांति के दिन लगता है। जिस तरह मकर संक्रांति के दिन पंजाब में लोहड़ी और दक्षिण भारत में पोंगल आदि नाम से मनाया जाता है, उसी दिन उत्तराखंड में लोग गंगा समेत विभिन्न नदियों में स्नान करते हैं और फिर वहां लगे मेलों का आनंद लेते हैं। गिंदी का मेला (gindi  ka mela) की इसी कड़ी का मेला है।

गिंदी के खेल(gindi  ka mela) को लेकर कई तरह की मान्यताएं जनमानस में प्रचलित हैं। इनमें ऐतिहासिक मान्यता यह है कि यह खेल उदयपुर और अजमेर पट्टियों की देन है। कहा जाता है कि राजस्थान में रहते हुए उदयपुर और अजमेर के योद्धाओं में हमेशा संघर्ष होता रहता था। जब वे लोग गढ़वाल में आए तो यहां भी प्रतिष्पर्धा जारी रही। गढ़वाल में उन्होंने अपने-अपने पैत्रिक स्थानों के नाम पर अजमेर व उदयपुर पट्टियों की स्थापना की। गढ़वाल की भौगोलिक परिस्थितियां ऐसी थी कि यहां इनमें आपसी युद्ध की गुंजाइश लगभग समाप्त हो गई। अपने बाहुबल का परिचय देने के लिए इन योद्धाओं ने मल्ल युद्ध के तौर पर गेंद को खींचने के लिए गिंदी का खेल शुरू कर दिया। इस खेल के कई सदियों से खेलने के प्रमाण हैं।

इस खेल को लेकर लोककथा भी प्रचलित है। कहा जाता है कि अजमेर पट्टी के नाली गांव के जमींदार परिवार की बेटी का विवाह उदयपुर पट्टी के कस्याली गांव में हुआ था। उसका नाम गिदोरी था। शादी के कुछ दिन बाद ही गिदोरी की अपने पति से अनबन हो गई और वह अपने मायके लौट आई। मकर संक्रांति के दिन उसकी ससुराल वाले उसे लेने उदयपुर पहुंचे। लेकिन मायके वालों ने गिदोरी को भेजने से मना कर कर दिया। थल नदी के मैदान में दोनों पक्षों में गिदोरी को लेकर खींचातानी होने लगी।  दोनों गांवों के लोग गिदोरी को अपने-अपने साथ ले जाने के लिए उसे खींचने लगे। इस संघर्ष और छीना झपटी में गिदोरी की मौत हो गई। तब से थलनदी में दोनों पट्टियों के लोगों में गेंद के लिए संघर्ष होता है। गिदोरी की याद में दोनों पट्टियों के बीच गिदी के खेल की शुरुआत हुई।

एक पौराणिक मान्यता यह है कि इस दिन कृष्ण भगवान ने कालिंदी नदी में कालिया नाग को नथा था। मकर संक्रांति का कौथिग श्रीकृष्ण भगवान को याद करने के लिए लगाया जाता है। कालिया नाग को नथने की स्मृति में गेंदी का खेल खेला जाने लगा। एक अन्य कथा के अनुसार इस मेले का संबन्ध महाभारत काल से है। कहा जाता है कि पांडवों ने अपने अज्ञातवास का कुछ समय यहां की महाब गढ़ी में व्यतीत किया। कौरव सेना उन्हें ढूंढती हुई यहां पहुंच गई थी। कौरवों ने पांडवों को थलनदी के किनारे देख लिया था। इस पर थलनदी के किनारे पांडवों और कौरवों में घमासान मल्लयुद्ध हुआ। इस के बाद यहां मेला लगने लगा।

डाडामंडी के गिंदी के मेले में शामिल होने का मुझे भी शौभाग्य प्राप्त है। जहयरीखाल, डिग्री कॉलेज लैंसडोन में बीएससी करते हुए मैं इस मेले में गया था। डाडामंडी, कोटद्वार के निकट है। वहां बलगाढ़ नदी के पूर्वी तट पर गिंदी का खेल खेला जाता है। डाडामंडी गिंदी के मेले की शुरुआत बौंठा गांव के छवाण राम तिवाड़ी ने सन् 1877 में की थी। कहा जाता है कि कारोबारी छवाण राम की तीन पत्नियों में से एक का मायका डबरालस्यूं में  था। वह हर साल मकरैण पर थल नदी के गिंदी मेला जाती थी। एक बार छवाण राम भी गिंदी मेला देखने गए। उन्हें मेला इतना पसंद आया कि अगले साल से ही मकरैण को उन्होंने डाडामंडी में भी गिंदी मेले का आयोजन शुरू कर दिया। तब से यह मेला लग रहा है।  यहां भरपूर और लंगूरी पट्टियों के बीच खेल होता है। यहां तीन दिन का मेला लगता है। छोटी गिंदी, गिंदी और विदाई।

अब इस गेंद को लेकर बताता हूं। मान्यता है जिन पट्टियों में  गिंदी के खेल आयोजित होता हैं, वहां मकर संक्रांति से दो-तीन दिन पूर्व अचानक किसी जानवर की मौत हो जाती है।  गेंद यानी गिंदी को बनाने के लिए उसी जानवर की खाल का प्रयोग  किया  जाता है। गेंद को जंगल में पैदा होने वाले गदोरी या गंदोड़ा के  फल को मृत जानवर के चमड़े के बीच सिलकर तैयार किया  जाता है। अब मुख्यत: बकरी के चमड़े से ही गेंद बनाई जाती है। यह चपटी सी गेंद लगभग 20 किलो वजन की होगी है। इसका व्यास  12 से  14 इंच होता है।
मकर संक्रांति के दिन दोपहर बाद दोनों क्षेत्रों के लोग निर्धारित स्थान पर ढोल-दमाऊ तथा नगाड़े बजाते हुये अपने-अपने क्षेत्र की ध्वजा और गिंदी  को लेकर नदी के किनारे पहले से तय स्थान पर जाते हैं।यह खुला मैदान या खेत हो सकता है। वहां गिंदी की पूजा-अर्चना होती है। खेल शुरू होने से पहले पांडव नृत्य भी किया जाता है। उसके बाद गिंदी को हवा में उछालने के बाद दोनों पक्षों में उसे अपने-अपने क्षेत्र में ले जाने के लिए सघर्ष शुरू हो जाता है। इस खेल में खिलाडियों की संख्या निश्चित नहीं होती है। विशेष नियम भी नहीं होते हैं।  यह एक तरह से  मल्लयुद्ध ही है। दो क्षेत्रों-पट्टियों के खिलाड़ियों के बीच गेंद को अपने-अपने क्षेत्र में ले जाने की प्रतिष्पर्धा है। यह खेल एक तरह से रग्बी खेल से मिलता है। परंतु रग्बी में खिलाडियों की संख्या तय होती है। नियम भी हैं। यह खेल 19वीं सदी में इंग्लैंड में आया। आज रग्बी पूर्वी भारत में भी खेला जाता है।

मेले में आए बच्चे, नौजवान, महिलाएं, बुजुर्ग अपने-अपने क्षेत्र के खिलाडिय़ों का उत्साहवर्धन करते रहते हैं। लगभग 3 या 4 घंटे के संघर्ष के एक क्षेत्र के खिलाड़ी गेंद को अपने क्षेत्र की तरफ फेंकने में सफल हो जाते हैं। फिर उस क्षेत्र को विजयी घोषित कर दिया जाता है। जीतने वाली टीम गेंद को अपने साथ ले जाती है। अगले साल वही पक्ष नयी गेंद बनाकर लाता है।इस तरह यह  गिंदी का मेला (gindi  ka mela)गढ़वाल में राजस्थान से आए लोगों के वंशजों ने विकसित किया। उत्तराखंड सरकार थल मेले को राज्य मेला घोषित कर चुकी है, लेकिन अब आवश्यकता है कि – गिंदी का मेला – को लेकर देश-दुनिया को जानकारी दी जाए। ताकि विश्वभर में इसे महत्व मिल सके।

यह था  मकरैण पर होने वाले गिंदी के मेला का इतिहास । 

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