परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा
हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली
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मकर संक्रांति (Makar Sankranti)के दिन से सूर्य देव उत्तरायण होते हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शनिदेव मकर राशि के स्वामी हैं और इस दिन भगवान सूर्यदेव अपने पुत्र शनि से मिलने स्वयं उनके घर जाते हैं। इस दिन से पूस माह समाप्त होता है और माघ माह प्रारंभ हो जाता है। इसलिए इसे मकर संक्रान्ति के नाम से जाना जाता है।
पौराणिक तौर पर इस बारे में कई कथाएं प्रचलित हैं। कहा जाता है कि माता पार्वती गंगा रूप धारण कर अवतिरत हुई और मकर संक्रांति के दिन मकर संक्रान्ति (Makar Sankranti)के दिन ही हिमालय पुत्री गंगाजी महाराजा भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम में पहुंची थी। तभी राजा सगर के मृत पुत्रों को गंगा का स्पर्श हुआ, तो उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई।शास्त्रों में उत्तरायण को प्रकाश का समय माना गया है और इसे देवताओं का समय भी कहा जाता है। इस समय देवताओं की शक्तियां काफी बढ़ जाती हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने उत्तरायण का महत्व बताते हुए कहा है कि जो व्यक्ति इस काल में दिन के उजाला व शुक्ल पक्ष में प्राण त्यागता है, वह मोक्ष प्राप्त करता है। इसलिए पितामह भीष्म ने भी प्राण त्यागने के लिए उत्तरायण की प्रतीक्षा की। पितामह भीष्म को इच्छा मृत्यु का वरदान था। महाभारत के युद्ध में जब उन्हें अर्जुन ने बाणों से छलनी किया तब सूर्य देव दक्षिणायन थे। तब पितामह ने बाणों की शैय्या पर लेटे रहकर उत्तरायण का इंतजार किया था और मकर संक्रान्ति के दिन सूर्य देव के उत्तरायण होने पर अपने प्राण त्यागे थे।
वास्तव में सूर्य की दो स्थितियां होती हैं उत्तरायण और दक्षिणायण। सूर्य देव जब उत्तर दिशा की ओर मकर राशि से मिथुन राशि तक भ्रमण करते हैं तो उसे उत्तरायण कहते हैं। जब सूर्य देव दक्षिण दिशा की ओर कर्क राशि से धनु राशि तक का भ्रमण करते हैं तो उसे दक्षिणायण कहा जाता है।उत्तरायण में दिन बड़े और रात छोटी होती हैं, जबकि दक्षिणायण में रात बड़ी व दिन छोटे होते हैं। उत्तरायण और दक्षिणायण, दोनों की अवधि छह-छह माह की होती है।
मकर संक्रान्ति (Makar Sankranti)भारत व नेपाल का प्रमुख पर्व है। नेपाल माघे संक्रान्ति या माघी संक्रान्ति या खिचड़ी संगरांद के तौर पर मनाया जाता है। इनके अलावा बांग्लादेश में पौष संक्रान्ति, थाईलैण्ड में सोंगकरन, लाओस में पिमालाओ, म्यांमार में थिंयान, कम्बोडिया में मोहा संगक्रान, तथा श्री लंका में पोंगल व उझवर तिरुनल के नाम से मनाया जाता है। भारत के विभिन्न राज्यों में यह पर्व अलग-अलग नामों ने मनाया जाता है। उत्तराखंड में मकरैण, उत्तरैण कहा जाता है। इस दिन उत्तराखंड में घुघतिया त्यौहार भी मनाया जाता है। कश्मीर में शिशुर सेंक्रात जम्मू में उत्तरैन और माघी संगरांद के नाम से प्रसिद्ध है। हिमाचल प्रदेश, हरियाणा व पंजाब में माघी साजी कहा जाता है। असम में भोगाली बिहु, उत्तर प्रदेश और बिहार में खिचड़ी संक्रांति, पश्चिम बंगाल में पौष संक्रान्ति, तमिलनाडु में पोंगल, कर्नाटक में मकर संक्रमण, गुजरात में उत्तरायण कहते हैं। केरल तथा आंध्र प्रदेश में संक्रांति ही कहते हैं। हिंदी भाषी क्षेत्रों में अधिकतर जगह मकर संक्रिंत ही कहा जाता है।
मकर संक्रांति (Makar Sankranti) के पर्व पर हर घर में कई तरह के पकवान बनाए जाते हैं । इनमें खिचड़ी प्रमुख है। इसलिए इस पर्व को कई जगह खिचड़ी का पर्व या खिचड़ी संगरांद (Makar Sankranti) भी कहा जाता है। इसके अलावा इस अवसर पर तिल-गुड़ के पकवानों के साथ ही दही-चूड़ा और खिचड़ी खाने का भी विशेष महत्व है।
इस अवसर पर खिचड़ी खाने को लेकर कई मान्यताएं प्रचलन में हैं। एक तो यह है कि चावल को चंद्रमा का प्रतीक, उड़द दाल को शनि तथा हरी सब्जियों का संबंध बुध से माना जाता है। माना जाता है कि मकर संक्रांति के दिन खिचड़ी खाने से राशि में ग्रहों की स्थिति मजबूत होती है। दूसरी मान्यता यह है कि योगी बाबा गोरखनाथ ने इस व्यंजन को खिचड़ी का नाम दिया। खिचड़ी को खाकर ही योगी के शिष्यों ने मुसलिम आक्रांता खिलजी के आतंक से मुक्ति दिलाने में सफलता पाई। इसके बाद से ही गोरखपुर के गोरक्षधाम में मकर संक्रांति पर विजय दर्शन पर्व के रूप में मनाया जाने लगा। वहां खिचड़ी बनाई जाती है।कहा जाता है कि खिलजी के आक्रमण के दौरान नाथ योगियों के पास खाने के लिए कुछ नहीं होता था। आक्रमण के चलते योगियों के पास भोजन बनाने का समय भी नहीं रहता था। अपने धर्म व भूमि को बचाने के लिए वे संघर्ष करते रहते थे और अक्सर भूखे रह जाते थे। इस पर बाबा गोरखनाथ ने इस समस्या का हल निकालने की सोची। उन्होंने दाल, चावल और सब्जी को एक साथ पकाने की सलाह दी, ताकि ज्यादा समय भी न लगे और भोजन भी तैयार हो जाए। यह नया व्यंजन सभी को बहुत पसंद आया। संक्रांति के अवसर पर उत्तरप्रदेश के गोरखपुर में बाबा गोरखनाथ मंदिर में खिचड़ी का भोग चढ़ता है और कई दिनों तक चलने वाला खिचड़ी मेला भी यहां लगता है।
इसी तरह तिल को खाने को लेकर भी पौराणिक मान्यता के अनुसार शनिदेव का अपने पिता सूर्यदेव से बैर था। वह बैर इसलिए था कि शनि देव ने अपने पिता को पहली पत्नी संज्ञा के बीच भेदभाव करता पाया था। वह शनिदेव की मां थीं। इससे नाराज होकर शनि ने पिता को ही कुष्ठरोग का श्राप दे डाला। रोगमुक्त होने पर सूर्यदेव ने शनि के घर यानी कुंभराशि को जला दिया। परंतु बाद में अपने पुत्र को कष्ट में देखकर उन्हें पश्चाताप हुआ और उन्होंने कुंभ राशि में देखा तो वहां तिल के अलावा सब कुछ जल चुका था। शनि देव ने तिल से ही सूर्यदेव को भोग लगाया, जिसके बाद शनि को दोबारा उनका वैभव मिल गया। इसलिए तब से मकर संक्रांति के दिन तिल खाने और दान करने का महत्व है।इसी तरह ज्योतिष में काले तिल का संबन्ध शनिदेव से माना गया है और गुड़ का संबन्ध सूर्यदेव से माना गया है। चूंकि संक्रान्ति के दिन सूर्यदेव शनि के घर मकर राशि में जाते हैं, ऐसे में काले तिल और गुड़ से बने लड्डू सूर्य और शनि के मधुर संबन्ध का प्रतीक माना जाता है। ज्योतिष में सूर्य और शनि दोनों ही ग्रहों को सशक्त माना गया है। इसलिए जब काले तिल और गुड़ के लड्डुओं को दान किया जाता है और इन्हें प्रसाद रूप में खाया जाता है, तो इससे शनिदेव और सूर्यदेव दोनों ही प्रसन्न होते हैं और उनकी कृपा से घर में सुख समृद्धि आती है।
अंत में एक और बात । लोक मान्यता भले ही यह हो कि मकर संक्रान्ति के दिन से सूर्य देव उत्तरायण होते हैं, परंतु वैज्ञानिक तौर पर सूर्य देव हर साल 22 दिसंबर से उत्तरायण हो जाते हैं। 22 दिसंबर की दोपहर को सूर्यदेव मकर रेखा के ठीक ऊपर होते हैं। मकर रेखा सूर्यदेव की दक्षिण की लक्ष्मण रेखा है। इसी दिन उत्तरी गोलार्द्ध में सबसे लंबी रात होती है। इसके अगले दिन यानी 23 दिसंबर से दिन धीरे धीरे बड़े होने लगते हैं। यह क्रम 21 जून तक जलता है। 21 जून से सूर्यदेव का दक्षिणायण प्रारंभ हो जाता है। यह था मकर संक्रांति (Makar Sankranti) के अवसर पर खिचड़ी और गुड़ –तिल खाने का इतिहास। जै हिमालय, जै भारत।
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