कुमायुंनी बामणों का इतिहास

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कैसे बने कुमायुंनी ब्राह्मणों के जाति संज्ञानाम

परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

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गढ़वाल (Garhwal) के ब्राह्मणों और जजमानों के बाद अब कुमायुं के ब्राह्मणों (Brahmins of Kumaon)के इतिहास पर यह लेख है।  इसके बाद कुमायुं के जजमानों के बारे में लिखूंगा।   मैं  पहले ही साफ कर देता हूं कि मेरा उद्देश्य इतिहास की जानकारी देना  मात्र है। किसी को भी महिमामंडित करने का मेरा उद्देश्य नहीं है। यह एक इतिहास है, जिसे पहाड़ के लोगों ने जिया। किताबों में सिमटी इस जानकारी को नयी तकनीक से लोगों के सामने रखना ही मेरा एक मात्र उद्देश्य है। इस वीडियो का मुख्य आधार कुमायुं केसरी बद्रीदत्त पांडे की पुस्तक- कुमाऊं का इतिहास,  हिमालयी इतिहासकार एटकिंसन और प्रसिद्ध  साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन के संदर्भ तथा कुमायुं के लोगों से एकत्रित जानकारी है।।

कुमायुं की प्राचीन जातियों में कोलीय व मुंड लोग शामिल हैं। माना जाता है कि ये लोग ही यहां प्राचीन समय से रह रहे हैं। इनके साथ ही किरात, नाग, राजी, थारु, बोक्सा, भोटिया, हूण, के साथ ही खस शामिल हैं। इनमें सबसे प्रभावशाली व सशक्त खस रहे हैं। कोलीय व मुंड के बाद यहां नाग और फिर किरात आए। इनके बाद खस आए और उन्होंने हिमालय की ढलानों को लहलहाते खेतों में बदल दिया, आबाद कर दिया। उत्तरी सीमाओं से मंगोल मूल के लोग आते रहे।  बाद में मैदानों से वैदिक आर्य आए व अन्य भी आते रहे। इन सभी ने मिलकर  आज का कुमायुंनी समाज बनाया। (Brahmins of Kumaon)

आप सभी जानते हैं कि कत्यूरी शासन तक कमायुं और गढ़वाल एक ही प्रशासनिक इकाई के तहत थे। कुमायुं में चंदों और गढ़वाल में पंवारों के उदय के बाद ही ये पूरी तरह के अलग-अलग इकाइयों में बंट गए। कत्यूरी शासन के पतन के बाद  कुमायुं में चंद शासन करने लगे। चंद झूसी या कन्नौज यानी मैदानी क्षेत्र से आए क्षत्रिय थे । चंदों के साथ मैदानी क्षेत्रों से बड़ी संख्या में ब्राह्मण व क्षत्रिय समेत विभिन्न जातियों के लोग आए। कत्यूरी शासन खत्म हो जाने से यहां के खस राजों का शासन भी खत्म हो गया। यहां  जब मैदानों से आए वैदिक क्षत्रियों ने सत्ता पर कब्जा किया तो उनके साथ आए बहुत से ब्राह्मण (Brahmins of Kumaon) भी शासन में प्रमुख पदों पर असीन हो गए।  इन्होंने खुद को दूसरे ब्राह्मणों से श्रेष्ठ घोषित कर दिया था। इसी तरह कुमायुं की सोर घाटी और नेपाल के डोटी क्षेत्र कभी चंदों के पास तो कभी डोटी राजाओं के शासन में रहते रहे। इसलिए कुमायुं में गढ़वाल तथा नेपाल के सीमावर्ती क्षेत्रों की जातियों के सरनेम वाले लोग बड़ी संख्या में मिलते हैं। इसके अलावा मैदानों ने आए ब्राह्मण व क्षत्रिय भी यहां बड़ी संख्या में हैं।

कुमायुं का पौराणिक नाम मानसखंड है।  मानसखंड यानी  यानी कैलाश पर्वत और मानसरोवर तक का क्षेत्र कभी कुमायुं का हिस्सा था। मैदानी क्षेत्रों के धार्मिक प्रवृति के लोग कैलाश-मानसरोवर के दर्शनों के  लिए  यहां कूर्मांचल आते रहे और अधिकतर यहीं के होकर रह जाते थे। इसके अलावा यहां के राजपरिवारों के आग्रह पर भी ब्राह्मण यहां बसते रहे। कई ब्राह्मण  व क्षत्रिय मैदानी क्षेत्र में मुस्लिम आक्रांताओं के कट्टरपन  व धर्मांधता से बचने के लिए भी हिमालय की शरण में आए। वैदिक सभ्यता के विकास के साथ ही रामायण काल और महाभारतकाल में भी यहां ब्राह्मण आ चुके थे। खस राजाओं के शासन में भी उनके पुरोहित ब्राह्मण ही थे।

अब कुमायुंनी बामणों (Brahmins of Kumaon) के बारे में बताता हूं। कुमायुं में  ब्राह्मण समाज आमतौर पर ठुल धोती यानी बड़ी धोती और नन धोती यानी छोटी धोती में विभक्त है।  कुमायुं में ब्राह्मणों में भेद भात पकाने को लेकर नहीं, बल्कि खेतों में हल जोतने को लेकर रहा है। चंद  नरेशों के शासनकाल में मैदानों से आए ब्राह्मणों को राजदरबार में बड़े पद मिले। वे मंत्री, पुरोहित, दीवान,  अधिकारी, रसोइया आदि थे और अपने खेतों में हल नहीं लगाते थे। राज दरबार के उच्च पदों पर आसीन इन ब्राह्मणों ने खुद को श्रेष्ठ घोषित कर लिया और जो ब्राह्मण खेतों में हल जोतते थे, उनको कमतर मानने लगे।  संभवत: नन धोती इसलिए कहा गया होगा कि हल चलाते समय मिट्टी से अपनी धोती को बचाने के लिए उसे ऊपर मोड़ना पड़ता है।

 यही कुमायुंनी बामणों (Brahmins of Kumaon) में यही भेद है।खेतों में हल नहीं लगाने वाले ढुल धोती यानी बड़ी धोती के ब्राह्मण कहलाए। जबकि खेतों में हल लगाने वाले बामणों को नन धोती कहा गया। कुमायुं में ईसाई मिशनरी के लालच से कुछ ब्राह्मण परिवार ईसाई भी बने थे। ये अधिकतर बड़ी धोती के ब्राह्मण थे। इनमें पाकिस्तान के प्रथम प्रधानमंत्री लियाकत अली खान की पत्नी शीला आइरीन पंत उर्फ रआना लियाकत अली खान भी प्रमुख हैं। वह फर्स्ट लेडी ऑफ पाकिस्तान बनी थी। इस कड़ी में अगला नाम विक्टर मोहन जोशी  हैं। ढुल धोती और नन धोती के बामणों में लंबे समय तक रोटी-बेटी के रिश्ते भी नहीं होते थे। हालांकि समय बदलने के साथ अब यह भेद भी धीरे-धीरे समाप्त होने लगा है। परंतु यह गति बहुत ही धीमी है।

कुमायुं के ब्राह्मण (Brahmins of Kumaon) मुख्यत: तीन  श्रेणियों में बंटे हैं। कुछ लोग चार श्रेणियां बताते हैं। एक वे हैं जो मैदानी क्षेत्रों से आए थे और चंद राजाओं के शासन में उच्च पदों पर थे। जिनको ढुल धोती कहा गया। दूसरे वे ब्राह्मण थे जो मैदानी क्षेत्रों से ही आए थे लेकिन राजदरबार तक पहुंच नहीं होने के कारण वे ब्राह्मण की वृति करते रहे, अपने खेत जोतते रहे। तीसरी श्रेणी खस ब्राह्मणों की थी। आज खस ब्राह्मणों की अलग से कोई पहचान नहीं रह गई है। वैसे पूरे उत्तराखंड में यहां के कोई भी खस अपने को खस कहलाना पसंद नहीं करते हैं। ये नन धोती के बामण कहे गए। कत्यूरी समेत सभी खसों की सत्ता जाते ही  ये खस ब्राह्मण भी राजदरबार से दूर हो गए। वे भी सामान्यजन की तरह जीवन जीते रहे।

कुमायुं में प्राचीन काल से ब्राह्मण रहते आए हैं। महाभारत काल में भी थे। कुलिंद और कत्यूरियों के शासन में यहां ब्राह्मण थे। माना जाता है कि कुमायुं में  मैदानों से छठी से आठवीं शताब्दी से ब्राह्मण बड़ी संख्या में आने लगे थे।  अधिकतर दक्षिण व पूर्वी भारत से आए।  इनके अलावा कुमायुं में कई ब्राह्मण जातियां नेपाल से भी आईं। जबकि नेपाल में माना जाता है  कि वहां ओली, पंत, जोशी, अधिकारी, पांडे आदि  ब्राह्मण जातियां  कुमायुं मंडल से  गई हैं। कहा जाता है कि नेपाल के ब्राह्मणों में लगभग 10 प्रतिशत पंत हैं।

 कुमायुं केसरी बद्रीनाथ पांडे अपनी पुस्तक — कुमाऊं का इतिहास– में लिखते हैं कि कूर्मांचल में ब्राह्मणों (Brahmins of Kumaon) के अनेक श्रणियां पाई जाती हैं। ब्राह्मणों की मुख्यत: चार  श्रेणियां हैं। इनमें से पहली व दूसरी श्रेणी के ब्राह्मण कत्यूरी  तथा चंद राजाओं के समय में यहां आकर बसे। तीसरी श्रेणी में  कुछ तो यहां मध्यकाल के खस-राजपूतों के समय के रहने वाले हैं । इनका आचार व्यवहार पहली दो श्रेणी के ब्राह्मणों से कुछ भिन्न है। कुछ ब्राह्मण पंजाब, नेपाल तथा गढ़वाल से भी यहां आए।  पांडे जी यह भी लिखते हैं कि काली कुमायुं के राजाओं के समय ब्राह्मणों के चार भेद थे। चार चौथानी, पंचबिड़िया, खतीमन या खटकाला और कुलेमन। काली कुमायुं क्षेत्र चंपावत का है, जहां से चंद राजाओं ने अपना शासन शुरू किया। कहा जाता है कि कुमायुं में चंद नरेश रूद्र चंद ने गढ़वाल में सरोला ब्राह्मणों की तरह अपने राज्य में चौथानी ब्राह्मणों की प्रथा बनाई।  इनमें  झाड़ के जोशी, सिमल्टिया पांडे, देवलिया पांडे तथा मंडलिया पांडे – ये चार ब्राह्मण परिवार चौथानी कहलाए। कुछ कुमायुं के बिष्ट ब्राह्मणों को भी इस समूह में बताते हैं। इस तरह इन चौथानी ब्राह्मणों में जोशी, पांडे, और बिष्ट ब्राह्मण शामिल किए गए। पंत और तिवारी बाद में शामिल किए गए। इस श्रेणी में उप्रेती, कांडपाल, लोहनी, पाठक, अवस्थी समेत कई जातियां भी शामिल हैं। बाद में यह संख्या बढ़ती चली  गई। कुमायुं में बहुत से ऐसी  ब्राह्मण जातियां हैं, जो मैदानों से आई और अपने सरनेम वही रहे। चंद राजाओं के दरबार में ज्योतिष का काम देखने वाले कई ब्राह्मणों को जोशी कहा गया, भले ही वह पहले किसी भी सरनेम का रहा हो। इसी तरह कुछ मामलों में पांडे एक उपाधि के दौर पर  भी दी जाती रही।  बहुत से ऐसे ब्राह्मण हैं जिनका जाति संज्ञानाम उनके गांवों के नाम पर पड़ा। ब्राह्मणों एक श्रेणी वह भी है जो की खसों और वैदिक ब्राह्मणों के मिलन से पैदा हुई। (Brahmins of Kumaon)

बड़ी धोती के ब्राह्मणों को लेकर यह बताना आवश्यक है कि सभी जोशी, पांडे आदि बड़ी धोती के ब्राह्मण नहीं हैं। अलग-अलग गोत्र के जोशियों, पंतों व पांडे में एक ही सरनेम के बामणों में शादी भी हो जाती है। चंद नरेश रुद्र चंद ने चौथानी ब्राह्मणों के नीचे पचबिड़िये  व तिथानी तथा तिथानी के नीचे हलिये या पितलिये ब्राह्मणों के वर्ग भी बनाये। रूपचंद्र का शासनकाल १५६४ से १५९७  माना जाता है। उन्होंने इसी तरह की और भी कई श्रेणियां बनाई थीं। इसके तहत गुरु, पुरोहित, वैद्य, पौराणिक, सईस, बखरिया, राजकोली, पहरी, बाजदार, बजनिया, टम्टा आदि पद निर्धारित किए गए। रुद्र चंद्र ने नए सिरे से सामाजिक व्यवस्था स्थापित की और इसके लिए उसने धर्म निर्णायक नाम की पुस्तक लिखवाई। इस पुस्तक में उसने ब्राह्मणों के गोत्र व उनके पारस्परिक संबंधों का विवरण शामिल किया गया।

अब बामणों के बारे मे जानकारी देता हूं। पांडे, पंत, जोशी व तिवाड़ी पाठक, लोहानी, अवस्थी आदि से शुरू करता हूं। पंत, पांड़े, जोशी की कुछ शाखाओं को लेकर कहा जाता है कि वे महाराष्ट्र, गुजरात से सीधे कुमायुं आने की बजाए नेपाल के रास्ते यहां पहुंची। कुमायुं की तरह महाराष्ट्र में भी पंत, सावरकर, रानाडे आदि जातियां चितपावन ब्राह्मण कहलाती हैं जो मूलतः पश्चिमी एशिया से आई ब्राह्मण जातियां मानी जाती हैं।

कुमायुं के प्रमुख ब्राह्मण जतियां (Brahmins of Kumaon)इस तरह हैं।

जोशी- ज्योतिष का ज्ञान रखने वालों को ज्योतिषी या जोशी कहा जाता था। पुराने ताम्र पत्रों में इनको जोइशी लिखा गया है। कुमायुं में जोशी ज्यादातर कान्यकुब्ज हैं। कुमायुं में कुछ जोशी कई शताब्दियों तक राजनीतिक सत्ता का आनंद लेते रहे।  इनमें अधिकतर झिजाड़ और दान्या से थे।बाद में कुछ  गली के जोशी व चीनाखान के जोशी भी इस क्षेत्र में सक्रिय रहे। गढ़वाल के अधिकतर जोशी स्वयं को कुमायुं मूल का बताते हैं। कुमायुं के जोशी विभिन्न गोत्रों के  हैं। वास्तव में चंद राजाओं के समय प्रकांड ज्योतिषियों को जोशी कहा जाने लगा। इस तरह विभिन्न  कुल व गोत्रों के लोग जोशी कहलाए।

झिजाड़ के जोशी- पंडित सुधानिधि चौबे के वंशज हैं। वे कन्याकुब्ज ब्राह्मण हैं। पं. सुधानिधि चौबे उन्नाव के निकट द्योदियाखेड़ा के निवासी थे। उन्होंने कुंवर सोम चंद की कुंडली देखकर कहा था कि वे शीघ्र ही वह एक राजा बनेंगे। सोम चंद ने कुमायुं का राज पाने पर उन्हें अपना वज़ीर बनाया। उन्हें चम्पावत के निकट सेलाखोला ग्राम जागीर के रूप में प्रदान किया गया। उन्हें सेलाखोला का जोशी कहा जाता था। जब उनके पुत्र श्री नरोत्तम जोशी और श्री विष्णु दास अल्मोड़ा के पास झिजाड़  या झुसियार गांव में बस गए, तो उन्हें झिजाड़ का जोशी भी कहा जाता था।

दन्या के जोशी-  ये श्री निवास द्विवेदी के वंशज हैं। वे प्रयागराज के निकट जयराज मकाऊ के निवासी थे। उपमन्यु गोत्र के हैं।  14वीं सदी में राजा थोहर चंद के शासनकाल में काली कुमायुं आए थे। राजा ने उनके काम से बहुत खुश होकर उन्हें पांडे की उपाधि दी और उन्हें चौथनी ब्राह्मणों में शामिल किया।

गल्ली के जोशी-

अंगरीश गोत्र के दो भाई  श्री नाथूराज और श्री विजय राज ज्योतिषाचार्य थे। कन्नौज से कत्यूरी राजा के शासनकाल में कत्यूर क्षेत्र में आए। उन्हें शाही ज्योतिषी नियुक्त किया गया और उन्हें जागीर के रूप में ग्राम सेधु या सेनु दिया गया।

मेरंग के जोशी-

मणकोटी राजा के समय डोटी इलाके के पीउठणा स्थान से  श्री हरि शर्मा गंगोली आए। कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं।ज्योतिष में प्रवीण होने पर पोखरी गांव मिला। इसलिए  मेरंग या पोखरी के जोशी कहलाए।

लटौला जोशी-

पंडित रुद्र चंद पंत के अनुसार कन्नौज के  श्री शशि शर्मा चंद राजाओं के समय काली कुमायुं आए। जबकि पं. रामदत्त दुबे के अनुसार श्री पचारद दुबे शुक्ल बदरीनाथ यात्रा पर आए थे। लाटौला गांव की जागीर मिलनेसे लटौला जोशी कहलाए। जबकि पं रुद्र चंद पंत के अनुसार श्री शशि शर्मा  विद्वान थे, परंतु उनकी आवाज तुतलाती थी। इसलिए उनको लाटो कहते थे। इसलिए लटौला जोशी कहलाए।

शिल्वाल जोशी-

चंद नरेश सोमचंद के समय कन्नौज के निकट  असनी गांव के भारद्वाज गोत्री श्री लंकराज द्विवेदी तीर्थयात्रा पर कुमायुं आए थे। शिलग्राम की जागीर मिलने पर शिल्वाल जोशी कहलाए।

इन जोशियों की संतानें जब विभिन्न क्षेत्रों में बसी तो वहां के जोशी कहलाए। शिल्वाल जोशियों के कुछ वंशज  बाद में सैंज के जोशी और मकड़ी व खेर्द के जोशी कहलाए।

चीनाखान के जोशी-

पं. लीलानंद के समय की वंशावली के अनुसार राजा ज्ञानचंद के  दरबार में श्री हरू व श्री बरु नाम के दो ज्योतिषी बंधु थे। उनके वंशज चीनाखान में बसने से चीनाखान के जोशी कहलाए।

पंत-

भारद्वाज गोत्र क पंत- पंडित जयदेव पंत कोंकण क्षेत्र से तीर्थ यात्रा पर आए थे। वे १०वीं  सदी मे चंद राजवंश के दौरान आए। वे गंगोली के मनकोटी राजा के दरबार में गए। राजा ने ऊन्हें रिखाड़ी की जागीर दी। बाद में उप्रेतियों के उप्रेत्यड़ा या उप्रड़ा की जागीर भी दी। उनके वंशजों में चार तरहके पंत हुए। एक बंधु उप्रेतियों के  संबंधी हो गए। राजा ने उप्रितयोंसे संबंध नहीं रखने को कहा, पर वे नहीं माने, हट करते रहे।  इसलिए हटवाल कहलाए। यह भी कहा जाता है कि दरबार से बाहर हाट में रहने से हटवाल कहलाए।

पाराशरी पंत-  पं दिनकर राव पंत पाराशर गोत्र के अपने साले पंडित जयदेव पंत के साथ आए। मनकोटि नरेश ने उन्हें जोग्युड़ा गांव जागीर के रूप में दे दिया। उनके वंशज उन्हें कलशिला, पिपलेट, चितगल और गंगोली के अन्य गांवों में रहते हैं। कुछ लोग इनके प्रथम पुरुष का नाम श्री नीलमणि पंत भी बताते हैं।

वशिष्ठ गोत्री पंत- इनके पूर्वज भी महाराष्ट्र से आए थे और बलना और कुर्कोली में बसे  हैं।

श्रम पंत- इस कुल के वंशज अल्मोड़ा, उपराडा, कुणालता, बरसायत, बारांव, जाजुत, मलेरा, अघर, छखता और मलौंज गांवों में रहते हैं।

शिर नाथ पंत-  इस कुल के वंशज तिलारी, पांडेखोला और अग्रौन गांवों में रहते हैं।

नाथू पंत – इस कुल के वंशज दुमलेखेत, खुंट, ज्योली और सितौली गांवों में रहते हैं.

भव दास या भौदास पंत-  इस वंश के वंशज पाली, स्यूनारकोट, गरौन, भटगांव, धनौली और खंतोली गांवों में रहते हैं।

वत्स भार्गव गोत्री पंत-  इनके मूल पुरुष श्री ब्रह्म पांडे थे। वे कांगडा से आए। राजा संसार चंद के वैद्य बने। इनके चार पुत्र हुए। १-श्री बद्री, २- श्री कालधर, ३-श्री दशरथ और ४- श्री देवकीनंदन।

बद्री- नायल या परकोट में बसे। उनके वंशजों को परकोटी पांडे या नायल के पांडे कहा जाता है।

कालधर के वंशज सीरा में वैद्य रहे।

दशरथ – उनके वंशज वैद्य के नाम से प्रसिद्ध हैं और अनूपशहर में बसे।

देवकी नंदन के वंशज राजा के पुरोहित थे और मजेड़ा में रहते थे।

सिमलतिया पांडे-

कश्यप गोत्र के श्री हरिहर पांडे कन्नौज के राजा सोम चंद के साथ राए।हालांकि कुछ लोग इनको कन्नौज से आया बताते हैं। राजा ने उन्हें अपना गुरु बनाया और उन्हें रासीपुला गांव की जागीर दी। जिसे बाद में सिमलतिया नाम दिया गया।

कश्यप गोत्र पांडे-

ये बरखोरा के पांडे भी कहे जाते हैं। ये कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं। इनके प्रथम पुरुष  श्री महती, कन्नौज से आए। वे अपने दो बेटों सिंह और नृसिंह के साथ काठगोदाम के पास बटोखरी में बस गए। राजा ने उन्हें अपना पुरोहित बनाया। नृसिंह के वंशज बैराती, भटकोट, गिवाड़, खरगोली और पीपलटांडा में बस गए। सिन्हा के वंशज पांडेघों, सिलौटी, बड़ाखेती, नाहन और नेपाल में बस गए। इनके वंशज नेपाल में भी राजगुरु रहे।

भारद्वाज गोत्र पांडे –

इनके प्रथम पुरुष श्री बल्लभ पांडे उपाध्याय कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। कन्नौज के खोर गांव से चंद राजाओं के समय कुमायुं आए। बाद में राजा ने उन्हें राजगुरु के रूप में नियुक्त किया और उन्हें पांडिया को पाटिया ग्रामर को जागीर भी कहा। उसके वंशज बाद में पटिया, कसून, पिलिख, बरेली, अनूपशहर, मेरठ, पटेलखेत, ओकली, बालदघाट और भगुती में बस गए।

कहा जाता है कि श्री बल्लभ पांडे के वंशजों की एक शाखा हवन के लिए लोहे को लकड़ी में बदलने में प्रसिद्ध थी। इसलिए उन्हें लोहानी कहा जाता था।  दूसरी शाखा वेदों में निपुण थी और उन्हें कांडपाल कहा जाता था। लोहानी और कांडपाल लोहना, कांडे, कोटा, कुमालता, लछमपुर, थापला, कांताली, भेटा, पनेरगाँव, भरकोट, खादी, बंटगल, काफड़ा, कोटलगाँव, तालुका, मनार, अल्मोड़ा और अन्य गांवों में बसे हैं।

पांडे – पांडे वास्तव में चंद राजाओं के समय ब्राह्मणों को दी जाने वाली सम्माजनक पदवी थी।

मांडलिया पांडे – खरकोटा के एक सारस्वत ब्राह्मण श्री चतुर्भुज पांडे काली कुमाटुं आए। वे राजा सोमचंद के समय कुमायुं आए। मंडलिया या क्षेत्रीय अधिकारी बनाकर मनाली गांव को जागीर दी गई। उनके वंशज काली कुमायुं और अल्मोड़ा में रहते हैं।

देवलिया पांडे- एटकिंसन के अनुसार गौतम गोत्र पांडे हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा से राजा थेहर चंद के शासनकाल में आए । ये पांडे खोला, चामी, हाट और छाचर में रहते हैं।

कुलेटा पांडे- ये लोग चंद राजओं के समय रानी के गुरु थे। इसलिए गुरुराणी कहलाए।

गुरेला पांडे- ये चंद राजाओं के समय रानी के पुरोहित थे।

त्रिपाठी-

इनको तिवारी भी कहा जाता है। कुछ लोग इनको त्रिवेदी भी कहते हैं। ये  गुजरात से कुमायुं आए। गौतम गोत्र के हैं। पंडित श्री चंद तिवारी अपने पुत्र पंडित सुखदेव तिवारी के साथ वे अमलाबाद, बड़नगर, गुजरात से आए थे। वे  चंद नरेश उद्यान चंद के दरबार में आए। राजा  ने पिता की बजाए पुत्र को ज्यादा तबज्जो दी। श्री चंद तिवारी नाराज हो गए और अल्मोड़ा चले गए। उस क्षेत्र में कत्यूरों का राज था। श्री चंद तिवारी के ज्योतिष से राजा प्रसन्न हो गया। उन्हें अल्मोड़ा में जागीर दी। उनके वंशज अल्मोड़ा के तिवारी कहलाए। उनके वंशजों को अलग-अलग समय के दौरान अलग-अलग राजा जागीर देते रहे।

 

लोहानी – 

यह लोहुमी से निकला शब्द है। इन्हें लोहांजू भी कहा जाता है। मान्यता है कि लोहानियों के प्रथम पुरुष प्रसिद्ध ज्योतिषी व कर्मकांडी थे। चौहान राजा ने उन्हें अपना राजपुरोहित बना दिया। राजा के यज्ञ में अन्य ब्राह्मण उन राजपुरोहित की परीक्षा लेना चाहते थे। उन्होंने लकड़ी के बजाय हवन कुंड में लोहे की छड़ें रख दीं। राजपुरोहित ने अपने मंत्रों से भश्म कर दिया। इस पर राजा ने उन्हें लोह (लोहा) + होमी (भस्म) = लोहुमी की उपाधि दी ।  चौहान राजा ने लोहुमी राजपुरोहित को उपहार देने का फैसला किया। राजपुरोहित ने अल्मोड़ा जिले के पास कद्दू के बीज उगाने के लिए जगह मांगी।राजा ने हां कर दी। राजपुरोहित के उगाए कद्दू के बीज से लताएं सात गांवों  तक फैल गईं। उन सात  गांवों के समूह को सतरल्ली कहा जाता है। वहां लोहानी बसे हैं। अल्मोड़ा जिले के एक संग्रहालय में रखे ताम्र पत्र या तांबे की चादर में ‘लोहुमी’ शीर्षक और सतरली के उपहार की पूरी कहानी का उल्लेख मिलता है।

उप्रेती- सारस्वत ब्राह्मण हैं। इस समुदाय के लोग कमायुं के साथ ही गढ़वाल और सिक्किम के साथ ही नेपाल में भी पाए जाते हैं।  पंडित रूद्र दत्त पंत लिखते हैं कि  कत्यूरी राजा के समय नेपाल के डोटी के चौकी गांव से श्री  शंभू शर्मा काली कुमायुं आए।   वे कनौजिया ब्राह्मण  थे। प्रेती या पेती गांव में बसने से उप्रेती कहलाए। हालांकि पं. रामदत्त ज्योतिर्विद  लिखते हैं कि  द्रविड़ देश के वाजपेयी महाराष्ट्र ब्राह्मण श्री शिवप्रसाद मणकोटी राजा के समय आए। राजा ने उनको उपरेड़ा गांव दिया ।  इसलिए उप्रेती कहलाए। उप्रेती भी कई तरह के हैं। बद्रीदत्त पांडे की पुस्तक कुमाऊ का इतिहास- के अनुसार उप्रेती मूल रूप से पश्चिमी भारत क्षेत्र के महाराष्ट्र राज्य के निवासी थे। वे १२ वीं शताब्दी में इस्लामी आक्रमण के कारण कुमायुं आए। बाद में अल्मोड़ा जिले से अन्य ब्राह्मणों के साथ नेपाल गए।

भट्ट-  हिमालय के प्रसिद्ध इतिहासकार एटकिंसन के अनुसार भट्ट लोग भारद्वाज, उपमन्यु, विश्वमित्र व कश्यप गोत्री हैं। कुछ लोग कहते हैं कि वे भट्टाचार्य थे। चंद राजाओं के समय आए। कुछ लोग कहते हैं कि चंद राजाओं  के समय दो भाई आए थे। राजा के यहां काम करने लगे। जस गांव में बसे उसी नाम से पुकारे गए। जैसे कि बडुवा, कपोली, धनकोटा, डालाकोटी, मठपाल आदि। ये लोग आपस में विवाह कर लेते हैं। कुछ भट्ट महाभट्ट का काम भी करते हैं।  कहा जाता है की विशाड़ के भट्ट ब्राह्मणों के मूल पुरुष श्री विश्वकर्मा दक्षिण द्रविड से आए। बम राजाओं के के समय सोर में आए।  वे इन राजाओं के पुरोहित समेत विभिन्न पदों पर रहे। इनके अलावा और भट्ट भी हैं जो कि  राजा भीमचंद के समय आए। बनारस से आए परंतु दक्षिण के हैं।  बिसोत के भट्ट  कहते हैं कि वे काशी से आए।

मिश्र या वैद्य-  उपमन्यु गोत्री श्रीनिवास  द्विवेदी प्रयाग राज से कालमी कुमायुं आए।

कोठारी – श्री सूर्य दीक्षित कोठारी नागर ब्राह्मण मालाबार के कोठार नगर से आए। गंगोली के मनकोटी राजा ने इनको कोठी या कुठार यानी भंडार का रक्षक बनाया। इसलिए यह कोठयाली  या कोठारी कहलाए। हालांकि पं. राम जगदीश ज्योतिष वेद  का कहना है कि कोठारी लोग दक्षिण के कोंकण  के किरार गांव से आए हैं । ये पंत भी कहलाते हैं।

इनके साथ ही  विष्ट, ड्डया, पाटणी, कुलेटा, गुरुल, रस्यारा, ये सभी एक ही तरह के ब्राह्मण माने जाते थे।

दड्या बिष्ट-  श्री देवनिधि सारस्वत ब्राह्मण  कुवंर सोम चंद के समय काली कुमायुं आए। राजा न इनको अपना कारदार  बनाया। इनको बिष्ट का पद मला।

पाटणी- काली कुमायुं के राजाओं ने इनको काली पार डोटी के राजाओं के यहां बतौर राजदूत भेजा। पार व तारणी से पाटणी कहलाए।

रस्यारा- ये राजा के यहां रसोई  बनाते थे। इनको पांडे का पद नहीं मिला।

सौंज के सौंज्याल बिष्ट- श्री चंद्रधर सारस्वत ब्राह्मण  चंद राजा सोमचंद के साथ आए ।  राजा ने उनको विशिष्ट यानी बिष्ट का पद दिया।

उपाध्याय- उपाध्याय- काली पार नेपाल से आए ब्राह्मण हैं। इनके पूर्वज वेदपाठी व कर्मकांडी ब्राह्मण थे।

सोर में खोली के उपाध्याय व सौंज के सौंज्याल बिष्ट एक ही तरह के ब्राह्मण हैं । अध्यापक होने से उपाध्याय कहलाए ।

पाठक- श्रीजनार्दन शर्मा सारस्वत ब्राह्मण थानेसर कुरुक्षेत्र से मणिकोटि राजा के यहां गंगोली में आए । राजा ने कालका देवी के मंदिर में पाठ करने को नियुक्त किया। इसलिए पाठक कहलाए। पठक्यूड़ा इनका गांव है।  दसौली, कराला,ज्योलि में भी दूसरे पाठक हैं।  हालांकि एटकिंशन लिखते हैं कि कश्यपगोत्री पाठकों के मूल पुरुष श्री कमला कर थे। वे अवध के सरनाल पाली गांव से आए थे। मणकोटी राजा के यहां रहे। इसी तरह शांडिल्य गोत्र के  पाठकों के मूल पुरुष श्री जनार्दन थे। वे थानेसर से आए थे।  पत्याल घराने के पाठक पाली में रहते हैं ।

 

अवस्थी अथवा ओस्ती- ये  लोग अस्कोट के रजवार उछलपाल के समय यहां आए। इनके मूल पुरुष  पंडित विद्यापति अवस्थी  थे।  पं. रुद्रदत्त पंत इनको कनौजिया ब्राह्मण बताते हैं , जबकि कुछ ठनको मैथिल ब्राह्मण कहते हैं। ये लोग राजाओं के गुरु, दीवान लेखक, कारबारी, पुजारी व रसोईया थे। कहा जाता है कि कन्नौज क्षेत्र के दो भाई कैलाश- मानसरोवर यात्रा पर आए थे। लौटते समय राजा ने उन्हें अपने यहां बसने का आग्रह किया था।

 

 

झा या ओझा – पं. रुद्रदत्त पंत के अनुसार श्री रामा ओझा मैथिल ब्राह्मण चंद राज्य के समय आए। उनकी संतानों को राजा ने डीडीहाट के निकट अस्कोट गांव में देवी की पूजा के लिए पुजारी रखा था। हालांकि पं. रामदत्त के अनुसार ओझा तिरहुत या मिथिला से नेपाल डोटी होते हुए अस्कोट पहुंचे।

 

अधिकारी-  भट्ट वंश के श्री जैराम व श्री पाराशर दो भाई मेवाड़ से कुमायुं आए।  पहले कत्यूरी राजाओं कारदार थे। रंगतल गांव में बसने से रंगतली कहलाए। रंगतली को जाति को चंद राजा  ने अपना कारदार बनाया। तराई में अधिकारी होने से अधिकारी कहलाए।

 

भाट- श्री कालीशरण राय उर्फ भाट, ज्वालामुखी से काली कुमायुं आए।

 

दुर्गापाल या दुगाल- ये भारद्वाज गोत्र के हैं। कहाजाता है कि  कत्यूर राजाओं के समय कन्नौज से आए। दुर्गा देवी के पुजारी थे। कोई कहता है कि दुर्ग यानी किलेके रक्षक थे। इसलिए दर्गापाल कहलाए।

मठपाल या मढ़पाल-  ये भारद्वाज गोत्र के हैं। काह जाता है कि वे दक्षिण से आए। ज्योतिष में प्रवीण थे। राजा ने घुसिला गांव की जागीर दी। इनमें से कुछ जोशी हो गए बाकी भट्ट रहे। राजा त्रिमलचंद ने द्वारहाट के बदरीनाथ मंदिर की पूजा का दायित्व दिया। मठ के अधिकारी होने से मठपाल कहलाए।

वैष्णव- खैरागढ़ के महंत सेवादास को  राजा ने वैष्णव मंदिरों की पूजा करने के लिए बुलाया  था। ये अब भी पुजारी हैं ।

जागेश्वर के पंडे- ये बडुवा कहे जाते हैं । परंतु ये अपने को भट्ट कहते हैं। कहा जाता है कि ये लोग राजा उद्यान चंद के समय बनारस से आए । परंतु ज्यादा यह प्रचलित है कि ये दक्षिण के भट्टों के वंशज हैं।  आदि शंकराचार्य के साथ आए उन जंगमों में शामिल हैं, जन्हेंमंदिर-मठों के पुजारी रखा गया। भट्ट ने पहाड़ की ब्राह्मण कन्या से ववाह कर लिया। उनके वंशज वटुक या बड़ुआ कहलाए।

मंटनिया- ये दक्षिण से आए। मनटांग गांव में बसने से मंटनिया कहलाए।

दुमका- ये पाली पछाऊं के रहने वाले हैं।

पनेरू- ये राजा सोमचंद के समय आए।

इनके अलावा भी कई ब्राह्मण जातियां हैं। पं. रूद्रदत्त पंत के अनुसार कुमायुं में बहुत से ब्राह्मण पुराने ब्राह्मण कहे जाते हैं। इनके वंश अक्सर गांव के नाम से है। राज्यों के समय बाजार को हाट कहते थे। जैसे द्वाराहाट, सेलीहाट, गांवहाट, सीतलाहाट, गंगोलीहाट आदि। इनके पुराने निवासी हटवाल भी कहे जाते थे।

इसी तरह चहज गांव के पुराने ब्राह्मण चहजी या चौदसी कहलाते थे। ये ज्योतिष का काम भी  करते थे, इसलिए जोशी भी कहे जाते हैं । गुराण गांव के गुराणी, छिमी गांव के छिम्बाल, मंटना के मंटनिया, कपोला के कपोली, दुर्ग गांव के दुर्गापाल, बनौली के बनौला, सन गांव के सनवाल कहलाए। इस तरह के बहुत से गांव हैं।  बगड़वाल, सेलाकोटी, मनौली, नेउली, रैगनी,  पवनै,  शिवनै, जनकंडिया, गहत्याड़ी, चौसाल, कफड़िया, धरवाल, मुनगली, मतैली, नयाल, अधै, कनौणिया, बटौला, चमड्याल, बेलाल, सती, खत्या, मनकुन्या, मनोली, अगरवाल, चिनाल, खोनिया, सुनाल आदि हैं।

पं. रामदत्त ज्योतिर्विद लिखते हैं कि ग्राम व वृति नाम स भी अनेक जातियां यहां हैं। जैसे कि पूजा करने वाले पुजारी, भक्ति करने वाले भक्त, दरबार में हरी कीर्तन के वाले हरबोला,  फूल देने वाले फुलारा, मठ की रक्षा करने वाले मठपाल, दुर्ग या मंदिर के रक्षक दुर्गापाल,  रानी को मंत्र देने से गुरुरानी, बेल देकर आशीर्वाद देने वाले बेलवाल आदि हैं। इस प्रकार तीन सौ से अधिक जातियों में ब्राह्मण विभक्त हैं।

कई तो पंत और पांडों की की संतान हैं । कई तो अपने देश से अकेले आकर यहां बसे। इनमें से कुछ इस तरह हैं। इनमें कपिलाश्रमी, दुर्गापाल, मठपाल, भक्त ये सभी खुद को  गल्ली के जोशी के वंशज बताते हैं । हैड़िया, पढ़लानी खुद को  सिल्वाल जोशी की संताने बताते हैं। सती, सुनाल, बिजरौला, ये ब्रजवासी ब्राह्मण हैं। कनवाल,ल्वेसाली, खुद को त्रिपाठी के वंशज बताते हैं।  बिलवाल, कैनी खुद को पाठक बताते हैं। गुनी (गुणवंत) उपरिया तथा पाली पछाऊं से आए दुमका, सुयाल, बलूटिया व डोन्याल बमेठा खुद को त्रिपाठी बताते हैं।

हिमालयी इतिहासकार एटकिंसन ने  हिमालयन गजेटियर में कुमायुं के 250 ब्राह्मण जातियों  की सूची तैयार  की थी। इनमें से अधिकतर अपने खेतों में हल जोतते थे। वे अपने गांवों के नाम से पुकारे जाते थे।  कुमायुं केसरी बद्रीनाथ पांडे अपनी पुस्तक — कुमाऊं का इतिहास– में लिखते हैं कि पं. परुषराम सकनौली से उन्हें एक कागज मिला था। जिसे  राजा रुद्रचंद्र के समय का बताया जाता है। इसमें लिखा है कि  राजा रुद्र चंद के समय पर परिषद बैठी थी। उसमें सभी ब्राह्मणों की सूची तैयार की गई थी। इसके तहत  सभी कुमायुंनी ब्राह्मणों को तीन श्रेणियों में बांटा गया है। पांडे जी की पुस्तक में  दी गई ब्राह्मणों की सूची में 150 जातियों का उल्लेख किया गया है।

पुस्तक में कहा गया है कि पंडित गंगाधर उप्रेती ने भी ब्राह्मणों को लेकर अपनी राय दी थी। पं. उप्रेजी की जानकारी के अनुसार गल्ली के जोशी, कान्यकुब्ज ब्राह्मण हैं, वे कन्नौज से आए। झिजाड़ के जोशी चौबे थे प्रयाग से आए। लटोली के जोशी, ज्योतिषी थे और कन्नौज से आए। पोखरी के जोशी नेपाल से आए। दन्या के जोशी, प्रयाग से आए। सिलवाल के जोशी कन्नौज से आए थे। चीनाखान, धूरा के जोशी व दफौट के जोशी कन्नौज से आए। मसमोली के जोशी दक्षिण से आए।  खटकीनी के जोशी कन्नौज से आए थे। बाड़बे के जोशी झांसी से आए। पैठाण के जोशी, गौड़ हैं और झांसी से आए। चहज के जोशी कान्यकुब्ज हैं और कन्नौज सेआए। नगीला के जोशी  उपाध्याय हैं और झांसी से आए थे । दैना और रैलकोट के जोशी नेपाल से आए।  पंतों में हटवाल पंत व भट्ट हैं और बनारस से आए थे।  उपराड़ा, जोग्यूड़ा आदि के पंत दक्षिण से आए थे।  आगो व सांगड़ी, पंत कान्यकुब्ज है और नेपाल से आए थे । उप्रेती  दक्षिण से आए। थे अल्मोड़ा के त्रिपाठी गुजरात से आए। अल्मोड़ा के कर्नाटक, दक्षिण से आए। पांडे ब्राह्मणों में बरखोला के पांडे कान्यकुब्ज हैं और कन्नौज से आए। देवली व पारकोटी के पांडे पंजाब से आए।  मझेड़ा पांडे, उपाध्याय हैं नेपाल से आए थे। सिमलटाना पांडे कान्यकुब्ज हैं, झूसी से आए। रसयारा पांडे कान्यकुब्ज हैं और झांसी से आए। पाटिया पांडे, उपाध्याय हैं, बांदा से आए थे बयाला पांडे, भट्ट हैं और  बनारस से आए। बेलकोट, गडोली व सूपी के पांडे, कान्यकुब्ज हैं और कन्नौज से आए। लेजम के पांडे दक्षिण से आए। फटक्यूड़ा के पाठक, कान्यकुब्ज हैं और कन्नौज से आए। दसौली पाठक भट्ट हैं और कन्नौज से आए। पुनेठा, पाठक कान्यकुब्ज हैं और  झांसी से आए। सीरा तथा अनूपशहर के  वैद्य, उपाध्याय हैं व  नेपाल से आए।

कुमायुं में बिष्ट ब्राह्मण भी हैं। डड्या बिष्ट, उपाध्याय हैं और झांसी से आए। गड़ेरा बिष्ट उपाध्याय हैं और  कन्नौज से आए।  पाटनी , मिश्र  हैं और मध्य प्रदेश से आए ।  उपाध्याय खोली आदि  गौड़ हैं और झांसी से आए । खेती  उपाध्यय  नेपाल से आए।  कुलेठी, भट्ट हैं और दक्षिण से आए। संगेठा कान्यकुब्ज हैं और कन्नौज से आए। डमठा, गोरिया व गुरेला,भट्ट हैं व दक्षिण से आए।  ओझा उपाध्याय हैं व नेपाल से आए। ओस्ती, मिश्र हैं और  मैथिल, पटना से आए। लोहानी, उपाध्याय हैं बांदा से आए ।  कन्याल, थपलिया व पनेरू,  उपाध्याय  हैं और बांदा से आए। कोठारी भट्ट  हैं व दक्षिण से आए। गातौड़ी, गौड़ हैं और झांसी से आए। वसैल पांडे झूसी से आए।  भट्ट, बनारस से आए। गुराणी भट्ट हैं व नेपाल से आए। हरीबोला, उपाध्याय हैं और दक्षिण से आए थे।

पंडित गंगा प्रसाद उप्रेती की इसी सूची में अन्य ब्राह्मणों का भी उल्लेख किया गया है। दुगाल,भट्ट हैं और दक्षिणसे आए। दुमका भट्ट हैं, नेपाल से आए।  मनटणियां,  उपाध्याय हैं, नेपाल से  आए। कपुली भट्ट हैं, नेपाल से आए। पुंडोला और जखोली  मिश्र हैं  और कन्नौज से आए।  चरम्याल, जोशी हैं  आगरा से आए।  कापड़ी भट्ट हैं बनारस से आए।  बगोली गौड़ हैं, झांसी से आए। गोठलिया जोशी हैं, गढ़वाल से आए। धोणिया, तेवाड़ी हैं दक्षिण से आए। बलिया जोशी हैं कन्नौज से आए।  बटगली, भट्ट हैं, बनारस से आए। कन्याल, कन्नौज से आए। शरणी, तेवाड़ी हैं, गुजरात से आए। नैण, पाठक हैं, कन्नौज से आए।   बुघाणी, बसगाई व कबड़वाल, गढ़वाल से आए। उपाध्याय झूंसी से आए। बिनवाल, पूर्व से आए। सेलिया, व सुयाल अवध से आए । चौथिया, बागोरिया व घरियाल नेपाल से आए। घिल्डियाल गढ़वाल से आए।  करगेती, पीलीभीत से आए।  कनेली, मनसुली, व स्यूरी व करसिया, कन्नौज से आए।  कठौलिया, असवाड़ा,व  चौनाल, तेवाड़ी हैं गुजरात से आए। बसोटी, धौलखनी व धुगत्याल, मिश्र हैं और कन्नौज से आए।

कन्याणी और धुरकी, भट्ट हैं, बनारस से आए। सिटौला, बसौला, डिंगरिया, चौनिया,जिमखोला, मिश्र हैं, रोहिलखंड से आए। विमली, बगौनिया, मिश्र हैं, दक्षिण से आए। डालाकोटी, रतखनिया, नैनवाल, नौलिया,सैलिया,स्यूरिया, मिश्र हैं और कन्नौज सेआए।    सिलफोटी,व गुनी मिश्र हैं और नेपाल से आए।  फुलेरा यह भी बनारस से आए।  कनेली, नौरियाल,भम्वाल, कुलेठा, मिश्र हैं,दक्षिण से आए।टकवाल,  मिश्र है, नेपाल से आए। चंदोला गढ़वाल से आए। नौगाईं मिश्र हैं, बनारस से आए। खरख्वाल, नदोलिया, रमक, करगेती,मिश्र हैं नेपाल से आए। लौकोटी व पडलिया, मिश्र हैं, नेपाल से आए। कश्मीरी मिश्र हैं, पंजाब से आए हैं। दड़म्वाल मिश्र हैं, गढ़वाल से आए।   कनसेरी हतेली, मन्यूटिया व गड़मोलिया मिश्र हैं, गढ़वाल से आए। कुमया मिश्र , नेपाल से आए। कुकरेती मिश्र हैं, गढ़वाल से आए।  ग्वाल कोटी कन्नौज से आए। डूंगरियाल और नौटियाल गढ़वाल से आए।रतखनियां, तलड़िया, घनेला, डढुला नेपाल से आए।

मश्याल, बदायूं से आए। सती, नेपाल से आए। सौलिया, नागाई, गरवाल, रुवाली वरतोला, कन्नौज से आए। डोलिया भट्ट, अवध से आए। इजटा, कन्नौज से आए।  मध्योली, नेपाल  से आए। गड़ियाल, अधोइ व गुनी,  बिहार से आए।   बिनवाल, कन्नौज से आए। मनौलिया,अवध से आए।  नौलिया, कन्नौज से आए। खराल, चित्रकूट से आए।  मश्र्वोलिया, कन्नौज से आए। गड़ियूड़ा  झांसी से आए।  अनरौला बनारस से आए। चौड़ियाल, रैगुणी, पचोलिया, धसकोड़ी, नेपाल से आए। औलिया, सुनौली, बैने, नेपाल से आए। किमाड़ी, कन्नौज से आए। बड़ुआ बनारस से आए। गौली कन्नौज से आए। गोताड़ी झांसी से आए। बगोली, नेपाल से आए। बाराकोटी, कन्नौज से आए। बेलवाल, दक्षिण से आए। चिल्वाल, झूसी से आए। बजखेती नेपाल से आए। बालसुणी, बुघाणा गढ़वाल से आए। खाली, बरतोला व चौलेटा, नेपाल से आए। बेड़िया, कर्नाटक से आए। गोलनासेटी, बनारस से आए।  क्केराला, बनारस से आए। डुंगराकोटी, झांसी से आए।  अटवाल अग्निहोत्री हैं लखनऊ से आए । भाट बनारस से आए।  दंतोलिया , उपाध्याय हैं,  नेपाल से आए। पचौली, संगवाल व मुराड़ी नेपाल से आए।

 चौल्या, मथुरा से आए। गडियूड़ा, बनारस से आए। पपनै, बनारस से आए। रिखाड़ी,बास्ते व मुनगली  नेपाल से आए। सनवाल, दक्षिण से आए। कपुली, बनारस से आए। चंदोला, गढ़वाल से आए।  सुल्याल जोशी, कन्नौज से आए।  धनखोला, बनारस से आए। बगड़वाल, हटवाल, चहजी व चौड़ासी  दक्षिण से आए।  चमरवाल, आगरा से आए।  औली पांडे हैं कन्नौज से आए। मेलकनियां, उपाध्याय हैं,  झांसी से आए। छिमवाल, चौबे हैं, झांसी से आए। गरबाल, कन्नौज से आए।   सती, कन्नौज से आए।  छतगुली, ओझा हैं, पटना से आए। बमनपुरी, गढ़वाल से आए। मठवाल, दक्षिण से आए।  दुमका, उपाध्याय हैं, नेपाल से आए। मनरिया,  व बचखेती, दक्षिण से आए। बड़सीची, झांसी से आए। कापड़ी, बनारस से आए। कोटगाड़ा, गढ़मौलिया, थप्लयाल, नगीला, बुधाणी, बारोकाटी, डंगवाल,पतड़िया, हिंगचुड़िया, व कपकोटी, नेपाल से आए। नौरगी व चपड़वाल, जोशी हैं, दक्षिण से आए।  विष्टाल, बनारस से आए।

भट्ट, बनारस व नेपाल से आए।  छिंबवाल नेगी भी ब्राह्मण  हैं। वे चौबे हैं, झांसी से आए। छुपका, आदि गौड़ हैं, जनकपुर से आए।  पडौला, नेपाल से आए। अनरणी, उपाध्याय हैं, जनकपुर से आए। मौतोड़ी, जोशी हैं, नेपाल से आए। बगौली गौड़ हैं, झांसी से आए।  इस तरह हम देखते हैं कुमायुं में बहुत सी जातियां हैं जो है नेपाल आई। जबकि गढ़वाल से लखेड़ा, चंदोला, सती, ममगाईं,  नौटियाल, बहुगुणा समेत कई जातियां यहां आई। इसके अलावा बहुत सी जातियां, महाराष्ट्र, गुजरात, राजस्थान व दक्षिणी राज्यों से भी आईं। उत्तर प्रदेश, बिहार से भी  बहुत से लोग यहां आए। इनमें कन्नौज, झूसी, बनारस, झांसी, कन्नौज आदि प्रमुख हैं।

यह कुमायुं के ब्राह्मणों (Brahmins of Kumaon)का इतिहास है, जो मुझे उपलब्ध हो पाया। इसमें विभिन्न विद्वानों के अलग-अलग मत भी देखने को मिले हैं। इनमें जो भी अंतर दिखाई देता है, वह  विभिन्न स्रोतों से मिली जानकारी के कारण ही दिखता है। इसलिए इसे अंतिम सत्य न मानकर अपनी जाति व कुल को लेकर स्वयं भी जानकारी जुटाने का प्रयास कीजिएगा।

यह  कुमायुं के ब्राह्मणों  (Brahmins of Kumaon)का इतिहास ।

 

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 जै हिमालय, जै भारत। मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश चंद्र लखेड़ा इस बार कुमायुंनी बामणों के इतिहास पर बात करूंगा। जब तक मैं आगे की जानकारी दूं, तब तक इस हिमालयी लोग चैनल     (https://www.youtube.com/channel/UCY2jUIebYsne4nX09a1aUfQ )

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