गढ़वाली भारत के उत्तराखण्ड राज्य में बोली जाने वाली एक प्रमुख भाषा है।    गढ़वाली बोली का क्षेत्र प्रधान रूप से गढ़वाल में होने के कारण यह नाम पड़ा है।     पहले इस क्षेत्र के नाम केदारखंड, उत्तराखंड आदि थे।    यहाँ बहुत से गढ़ों के कारण, मध्ययुग में लोग इसे ‘गढ़वाल’ कहने लगे।     ग्रियर्सन के भाषा- सर्वेक्षण के अनुसार इसके बोलने वालों की संख्या 6,70,824 के लगभग थी।    यह गढ़वाल तथा उसके आसपास टेहरी, अल्मोड़ा, देहरादून उत्तरी भाग, सहारनपुर उत्तरी भाग), बिजनौर उत्तरी भाग तथा मुरादाबाद उत्तरी भाग आदि के कुछ भागों में बोली जाती है।     गढ़वाली की बहुत – सी उपबोलियाँ विकसित हो गई हैं, प्रमुख श्रीनगरिया, राठी, लोहब्या, बधानी, दसौलया, माँज- कुमैया, नागपुरिया, सलानी तथा टेहरी हैं।     ‘श्रीनगरिया’ ‘गढ़वाली’ का परिनिष्ठित रूप है। गढ़वाली में साहित्य प्राय: नहीं के बराबर है, किंतु लोक- साहित्य प्रचुर मात्रा में है। इसके लिए नागरी लिपि का प्रयोग होता है।

गढ़वाल समुदाय एक विश्त्रित परिचय
गढ़वाल क्षेत्र

वर्तमान गढ़वाल में बाहरी लोगों के बस जाने के कारण विभिन्न धर्म एवं जाति के लोग रहते हैं। व्यापक रुप में इन्हें निम्नवत् वर्गीकृत किया जा सकता है-
1. कोल या कोल्ता या डोम

…कोल या कोल्ता को द्रविड़ उत्पत्ति का माना जा सकता है। कोल या कोल्ता लोगों का रंग काला होता है, ये पहले गढ़वाल के जंगलों में रहते थे और वहीं शिकार एवं भोजन की तलाश करते थे। वर्तमान में ये जंगलों को छोटे – छोटे टुकड़ों में काटकर खेती करने लगे हैं और वहीं बस गये हैं। ये दानव, भूत-पिशाच, नाग और नरसिंह की पूजा करते हैं।
ये लोग अनुसूचित जाति के अंतर्गत आते हैं। परंपरागत रुप से मोची, बढ़ई, झाड़ू मारने वाला, बुनकर, लुहार आदि का काम करते हैं। यद्यपि स्वतंत्रता के बाद सरकारी सेवा और राजनीति सहित विभिन्न व्यवसायों एवं कार्यों में प्रतिनिधित्व का अच्छा खासा अवसर इन्हें मिला है।
2. राजपूत
गढ़वाल के राजपूतों को आर्य उत्पत्ति का माना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि ये लोग या तो दक्षिण या हिमाचल प्रदेश से सटे भागों से आए, जहां ये लोग कश्मीर के रास्ते हिन्दूकुश से आए। गढ़वाल में बसने वाले राजपूत मुसलमानों/मुगलों के आक्रमण से बचने के लिए राजस्थान से भागकर भी आए हैं। ये लोग उस समय गढ़वाल में रहने वाले कोल, कोल्ता और डॉम से युद्ध कर उन्हें परास्त किया। शुरु में राजपूतों ने नए तकनीक से कृषि की शुरुआत की। बाद में इन लोगों ने अलग पेशा अपनाया। इन लोगों नें कई राजाओं के सेना में भारी संख्या में प्रवेश लिय़ा।
वर्तमान में राजपूत प्रायः व्यवसायों एवं कार्यों में देखा जा सकता है जैसे- कृषि, व्यवसाय, सरकारी सेवा आदि। कई गढ़वाली राजपूत भारतीय सशस्त्र बल खासकर सेना में भर्ती हैं।
3. ब्राह्मण
ऐसा माना जाता है कि यहां रहने वाले ब्राह्मण पहले पुजारी थे जो मैदानी भाग से आए थे या गढ़वाल के धार्मिक स्थानों को देखने आए थे।
भारत के मैदानी भागों में शासन कर रहे मुस्लिम आक्रमणकारियों से बचने के लिए राजपूत और ब्राह्मण दोनों गढ़वाल की घाटियों में घुस गए। उन लोगों ने गांव एवं कॉलोनी की स्थापना की और उनका नाम उसी स्थान के आधार पर रखा जहां से वो लोग आए थे। कुछ उदाहरण निम्नांकित है—
अ) अजमेरपट्टी औऱ उदयपुर पट्टी, एवं
आ) तेलंगाना के आधार पर तेलंगी
अन्य स्थितियों में, लोगों ने अपना कुलनाम वही रखा या अपना नाम भी उस स्थान के अनुसार रखा जहां से वो लोग आए थे। कुछ उदाहरण हैं –
अ) मैसूर (कर्नाटक) के आधार पर कर्नाटक औऱ तेलंग एवं
आ) राजस्थान एवं महाराष्ट्र के रावत औऱ जोशी
4. जनजाति
गढ़वाल की जनजातियां ऊपरी भागों में रहती हैं जैसे – उत्तरी प्रदेश। उनमें से कुछ की उत्पत्ति मंगोलिया से है जो खानाबदोश या अर्द्ध-खानाबदोश की तरह जीवन जीते हैं। यद्यपि आजकल इन लोगों ने स्थिर जीवन जीना शुरु कर दिया है और पशुपालन, कृषि, व्यापार एवं अन्य व्यवसायों से जुड़ गया है। गढ़वाल के प्रमुख जनजातियों के नाम निम्नवत् हैं –
अ) जौन्सर-बावर का जौन्सरी
आ) उत्तरकाशी के जाढ़
इ) चमोली के मारचस
ई) वन गुजरभोटिया
भोटिया व्यवसायी एवं पर्वतीय होते हैं। उत्तरांचल के भोटिया के बारे में कहा जाता है कि उनकी उत्पत्ति राजपूत से है जो कुमाऊं एवं गढवाल से आए और ऊंची घाटियों में बस गए। भोटिया तिब्बत सीमा पर पूरब में नेपाल से पश्चिम में उत्तरकाशी तक है।
जो बद्रीनाथ के निकट मानापास और नितिपास के निकट रहते हैं उसे क्रमशः टोलचास औऱ मरचास कहते हैं। उंटाधूरा के पास जोहरी औऱ सौकस रहते हैं। जौहर के दक्षिण में भोटिया या जेठोरा भोटिया हैं जो खेतिहर हैं। भोटिया नंदा देवी, पंचा चुली आदि के शिखर की पूजा करता है और जिनका झुकाव हिन्दूत्व की ओर है, वो गबला (मौसम का देवता), रुनिया और सुनिया देवता (जो पशुओं को बीमारियों से बचाते हैं) और सिधुआ तथा बिधुआ देवता (जो खोये हुए पशुओं को ढूढने में मदद करता है) की पूजा करते हैं।
जाढ़
जाढ़ एक जनजातीय समुदाय है जो उत्तरकाशी जनपद के ठंढे सूखे स्थानों पर रहते हैं। नेलंग एवं जढंग – दोनों गांव लगभग 3400 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। जाड़े के दिनों मे पूरा समुदाय इस ऊंचे जगह से चले जाते हैं। कुछ परिवार यहीं वापस बस जाते हैं जिन्हें डुंडा कहते हैं जबकि बांकी ऋषिकेश के जंगलों के आसपास चले जाते हैं।
पास सटे हिमाचल प्रदेश एवं उत्तरकाशी के अन्य भागों में बसे लोगों के साथ इस समुदाय के लोगों का बहुत ही अच्छा सामाजिक और आर्थिक संबंध होता है। इस जाति के प्रायः लोग अपने को उच्च जाति के मानते हैं और बुनने का काम कोल पर छोड़ते हैं जिन्हें नीचे जाति का समझा जाता है।
जाढ मंगोल निवासी के लक्षण होते हैं और तिब्बती भाषा बोलते हैं। वो गढवाली और पौरी भी बोलते है।
जौन्सारी
देहरादून के आधा उत्तरी भाग को बावर कहते हैं और वहां रहने वाले लोगों को जौंसारी कहते हैं। वो अपने आप को आर्य का शुद्ध वंशज मानते हैं। इस क्षेत्र का संबंध काफी पुराने संस्कृति से है जो उत्तरी भारत में फैला था खासकर भारतीय इतिहास के वेदिक, महायान, कुषाण और गुप्त काल में।
ये लोग कुछ अलग रीति रिवाज को आज भी मानते हैं जो किसी भी पड़ोसी (गढ़वाल, कुमाऊं, हिमाचल प्रदेश) से अलग है। यहां तक की इनकी वास्तुकला भी अद्वितीय है जिसमें लकडियों का इस्तेमाल बड़े ही आकर्षक रुप में होता है।
जौन्सारी का सबसे प्रमुख उत्सव माघ मेला है। उत्सव के दौरान ये लोग ठल्का या लोहिया पहनते हैं जो एक लंबा कोट होता है। ठंगल चुस्त पायजामे की तरह होता है। दिगवा या टोपी एक पारंपरिक पोशाक है जो सिर पर पहना जाता है, यह ऊन का बना होता है। महिलाएं घागरा, कुरती और धोत पहनती है साथ ही ढेर सारे आभूषण भी पहनती है।
जौन्सारी अब भी बहुपति रिवाज अपनाती है जो महाभारत काल में पांडवों ने किया था जिनके पास एक साझा पत्नी थी द्रौपदी।
वन गुजर
यह खानाबदोश मुस्लिम की एक जनजाति है, इनके बारे में कहा जाता है कि ये लोग सिरमौर की राजकुमारी के दहेज के साथ गढ़वाल आए। ये जनजाति कश्मीर से हिमालय तक , हिमाचल प्रदेश से गढ़वाल तक फैले हैं। वे अभी भी कई उन सांस्कृतिक रश्मों को मानते हैं जो इस्लाम धर्म अपनाने से पहले मानते थे। ये शुद्ध शाकाहारी होते हैं, मुख्यतः अनाजों के साथ दूध के उत्पादों का इस्तेमाल करते हैं।
ये एक जगह से दुसरे जगह घूमने वाले होते हैं। ये गर्मियों में अपनी भैंस एवं गाय के झुंडों के साथ ऊंची पहाड़ों के चारागाह पर चले जाते हैं और जाड़े में नीचे के जंगलों में वापस चले आते हैं। तीर्थयात्रा वाले मौसम में खपत होनेवाले दूध का बहुत हिस्सा इन्हीं लोगों द्वारा दिया जाता है। ये लोग जंगली विद्या में निपुण होते हैं।
सभी जनजातीय समुदायों के पास जड़ी-बूटी एवं पारंपरिक दवाओं का बहुत ज्यादा ज्ञान होता है। गढ़वाल में रहनेवाले विभिन्न धर्म एवं सम्प्रदाय के लोगों का प्रतिशत नीचे दिया गया है –
वर्ग
/जाति/सम्प्रदाय
कुल
का प्रतिशत
बाहर
से आया ब्राह्मण
10
खासी
ब्राह्मण
13
ठाकुर
राजपूत
15
खासी
राजपूत
23
कोल
या डोम
25
अन्य
14
कुल
100
गढ़वाल की भाषा
गढ़वाल में बोली जानेवाली सबसे प्रमुख भाषा गढ़वाली है। यह हिमालय के केन्द्रीय पहाड़ी हिस्से में बोली जानी वाली भाषाओं मे एक है। इसी वर्ग की भाषा हिमाचल प्रदेश के पूर्वी भाग और गढवाल में बोली जाती है। इसके अलावा, गढ़वाली के अन्तर्गत कई बोलियां है जो मुख्य भाषा से भिन्न है।
अ) जौन्सार-बाबर औऱ क्षेत्रीय निवासियों की जौन्सारी भाषा
आ) मारचस का मारची या भोटिया बोली
इ) उत्तरकाशी के भागों में जाढ़ी
ई) टेहरी के भागों में सैलानी
बोली पर अन्य भाषाओं का प्रभाव –
गढवाली भाषा इंडो आर्यन भाषा वर्ग के अंतर्गत आता है जबकि उत्तरी भाग में रहने वाला भूटिया तिब्बत-बर्मा वाली भाषा बोलता है जो अन्य गढ़वाली और तिब्बतन बोली के लिए सुबोध नहीं है। गढ़वाली की निकटतम भाषा कुमाउनी या कुमाउनी से सटे पूर्वी पहाड़ी केन्द्रीय उपसमूह है जिसका विस्तार हिमाचल प्रदेश से नेपाल तक है। उत्तरांचल के विभिन्न स्थानों पर कुमाउनी की तरह गढ़वाली में भी कई क्षेत्रीय बोलियां शामिल है। गढ़वाली भाषा के लिए देवनागरी लिपि का इस्तेमाल होता है। गढ़वाली के अन्तर्गत कई बोलियां है जो मुख्य भाषा से भिन्न है— जौन्सार-बाबर औऱ क्षेत्रीय निवासियों की जौन्सारी भाषा –मारचस का मारची या भोटिया बोली –उत्तरकाशी के भागों में जाढ़ी –टेहरी के भागों में सैलानी। गढ़वाली भाषा पर अन्य कई भाषाओं का प्रभाव है।
गढवाल के दक्षिणी भाग में तिब्बत और चीन का भोटिया बोली, संस्कृत या हिन्दी या अन्य हिन्दुस्तानी भाषा बोली जाती है।
गढवाल के पूर्वी भाग में कुमाउनी और नेपाली भाषा बोली जाती है।
हिमाचल प्रदेश से सटे भागों में पश्चिमी पहाड़ी भाषा बोली जाती है।
गढ़वाली भाषा पर इन सभी भाषा एवं बोलियों का प्रभाव देखा जाता है क्योंकि विभिन्न भाषा भाषी के लोग जो एक सीमा से दुसरे सीमा में आवाजाही करते हैं, यहां बस गए हैं। दुसरी तरफ गढ़वाल के निवासी भी उन दुसरे क्षेत्रों में जाते हैं जो वहां की भाषा से प्रभावित हो गए हैं और धीरे-धीरे आपस में हिलमिल गए है।
गढ़वाली की उत्पत्ति
ऐसा माना जाता है कि गढ़वाली की उत्पत्ति निम्नलिखित श्रोतों से हुई है –
अ) सौरसेनी प्राकृत, जो राजस्थानी और बृजभाषा का उद्गम श्रोत भी माना जाता है
आ) पश्चिमी या केन्द्रीय पहाड़ी भाषा
इ) संस्कृत या इसका बदला स्वरुप
ऐतिहासिक वर्णन
गढ़वाल का ऐतिहासिक रिकॉर्ड 6 ठी शताब्दी से उपलब्ध है। कुछ पुराने रिकॉर्ड भी हैं जैसे गोपेश्वर में त्रिशूल, पांडुकेश्वर में ललितसुर। सिरोली में नरवामन लिपि, राजा कंकपाल गढ़वाल के इतिहास औऱ संस्कृति को प्रमाणिक बनाते हैं।
कुछ इतिहासकार मानते हैं कि यह भूमि आर्यों की जन्मभूमि है। ऐसा कहा जाता है कि लगभग 300 ई.पू. खासा कश्मीर, नेपाल और कुमाऊं के रास्ते गढ़वाल पर आक्रमण किया। अपनी सुरक्षा के लिए छोटे-छोटे किला बनाकर रहते थे जिसे गढ़ी कहा जाता था। बाद में खासा स्थानीय शासकों को हराकर किलों पर अपना आधिपत्य जमा लिया।
खासा के बाद, क्षत्रियों ने इस क्षेत्र पर आक्रमण किया और खासा को परास्त कर अपना साम्राज्य स्थापित किया। फिर सैकड़ों किलों को संगठित कर बावन गढ़ी का की स्थापना की। क्षत्रिय के सेनापति कंटुरा वासुदेव ने गढ़वाल के उत्तरी सीमा पर अपना साम्राज्य स्थापित किया औऱ जोशीमठ में राजधानी की स्थापना की। इस तरह गढ़वाल में कत्युरा राजवंश की नींव पड़ी। उनका साम्राज्य गढ़वाल मे वर्षों तक चला। कत्युरी राजवंश के काल में आदि गुरु शंकराचार्य गढ़वाल का भ्रमण किया और जोशीमठ की स्थापना की जो शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार प्रमुख पीठों में से एक है। अन्य तीन पीठ द्वारिका, पूरी और श्रृंगरी में स्थापित हैं। उन्होने भगवान बदरीनाथ की प्रतिमा बदरीनाथ में पुनः स्थापित किया। एक कथानक के अनुसार बदरीनाथ की यह प्रतिमा नारद कुंड में छिपा हुआ था।
पं. हरिकृष्ण के अनुसार रातुरी राजा भानुप्रताप गढ़वाल में पंवार राजवंश का प्रथम शासक था जिन्होंने चानपुर-गढ़ी को अपनी राजधानी के रुप में स्थापित किया। गढ़वाल के बावन गढ़ों में यह सबसे शक्तिशाली गढ़ था।
8 सितंबर 1803 के दिन आया विनाशकारी भूकंप ने गढ़वाल राज्य के आर्थिक और प्रशासनिक ढ़ांचा को कमजोर कर दिया। इस परिस्थिति का लाभ उठाकर अमर सिंह थोपा और हैस्टीडल चंतुरिया के नेतृत्व में गोरखा ने गढ़वाल पर आक्रमण कर दिया। फिर उन लोगों ने आधा गढ़वाल पर अपना आधिपत्य़ जमा लिया। 1804 से 1815 तक यह क्षेत्र गोरखा शासन के अधीन रहा।
पंवार वंश के राजा सुदर्शन शाह ब्रिटिश की सहायता से गोरखों को हराया और राजधानी श्रीनगर सहित अलकनंदा तथा मंदाकिनी के पूर्वी भाग को ब्रिटिश गढ़वाल में मिला दिया। उसी समय से यह क्षेत्र ब्रिटिश गढ़वाल के नाम से जाना जाने लगा औऱ राजधानी श्रीनगर के बदले टेहरी में स्थापित किया गया। शुरु में ब्रिटिश शासकों नें इन क्षेत्रों को देहरादून और सहारनपुर के अंतर्गत रखा लेकिन बाद में ब्रिटिशों ने इस क्षेत्र में एक नए जनपद की स्थापना की जिसका नाम पौडी  रखा।
(साभार — धर्म सिंह के ब्लॉग से )

1 COMMENT

  1. Thank you for an excellent presentation
    On Garhwali
    Sir, it is mentioned in the article that”गढ़वाली में साहित्य नहीं के बराबर है,किन्तु लोक साहित्य प्रचुर मात्रा में हैं”
    The very contributors to Folk literature ,I. very humbly believe, could change the perspective My tiny experience in reading literature ,I have often noticed it takes far more to create folk literature than writing on general literatureor so called Toral literature.I have just checked in thenlist of various languages recognised by Sāhityā Akademi,New Delhi.(2
    016).I did not find name of Garwali language in it.I do not have the latest list and I hope I would be proved incorrect when I go for it on Monday.
    A position for Garwali and Kumouni literature could strengthen the very matrix of Himali Stature nationally
    vande Bharat Mataram dr Mani Kumar Shara 13062021

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