आज भी दांत से काट कर देते हैं 64 बकरी या भेड़ों की बलि

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नेपाल के मस्टो यानी कुल देवता 
परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा
हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

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आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि नेपाल ( Nepal)के खस  (Khas)अपने मस्टो को 64 बकरी या भेड़ों की बलि देते हैं। जिंदा बकरी व भेड़ का रक्त पीते हैं। नेपाल में वैदिक आर्य और खस आर्य, किरात, मगर, लिंबू, समेत आर्य और मंगोल मूल के लोग रहते हैं। वे सभी अलग-अलग तरीकों से अपने देवता की पूजा करते हैं । मस्टो खसों के देवता हैं। वैसे तो तिब्बत, चीन के खीरी प्रांत, पहाड़ी सिंजा क्षेत्र और भारत में उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू व कश्मीर में खस रहते हैं। परंतु मस्टो देवता अब मुख्यत: नेपाल के खस बहुल क्षेत्रों में ही पूजे जाते हैं। विशेषतौर पर नेपाल के मस्तो देवता को कर्णाली प्रांत का सबसे लोकप्रिय ग्राम देवता माना जाता है। नेपाल के अलावा भारत में भी पूर्वोत्तर के कई राज्यों के खस भी मस्तो देवता की पूजा करते हैं। मस्टो का अर्थ खस भाषा में देवता ही होता है। इनको मस्टो, मष्टो, मस्तो, माष्टा या मश्तो, मस्त, मष्ट (Masto)आदि नाम से भी जाना जाता है। जौनसार के महासू देवता और मस्टो देवता के नाम में काफी समानता है।
नेपाल के खस लोक देवता मस्टो की उत्पति को लेकर कई मान्यताएं हैं एक लोक मान्यता के अनुसार मस्टो देवता वास्तव में पुराणों में वर्णित असुर तारकासुर ही हैं। वज्रांग नामक दैत्य का पुत्र तारकासुर असुरों का अधिपति था। देवताओं पर विजय प्राप्त करने के लिए उसने घोर तपस्या की। उसके पिता का नाम वज्रांग या बजरंग और माता का नाम बरंगी था। वह भगवान शिव का परम भक्त था। उसके शिवपुत्र के अतिरिक्त अन्य किसी भी व्यक्ति से नहीं मारे जा सकने का भगवान महादेव  (Shiv) से वरदान प्राप्त कर लिया था। अंतत: वह भगवान शिव के पुत्र कार्तिकेय के हाथों मारा गया। इसके बाद तारकासुर भगवान शिव का एक गण बन गया। असुरों की मांजा दिति के वंशज अबेदिक तड़कासुर या तारकसुर जब भगवान भोलेनाथ का गण बन गया तो लोग उसे तड़कासुर गणक मष्ट या मश्तो देवता के तौर पर पूजने लगे। ताड़कासुर गण वास्तव में प्राचीन खस समुदाय से जुड़ा है। यह गण विभिन्न रूपों में पूजा जाता है। एक अन्य मान्यता के अनुसार मस्टो देवता की उत्पति भगवान भोले नाथ के क्षेत्र कैलाश मानसरोवर से हुई। इस तरह मस्टो देवता को लेकर सुदूर पश्चिमी प्रांत और कर्णाली प्रांतों में अलग-अलग जगहों पर मश्ता की उत्पत्ति के बारे में अलग-अलग कथाएं हैं। लोग मष्टा या मस्टो देवता को भूमि की माता, संपूर्ण सृष्टि का रचयिता, खस जाति के प्रमुख देवता, पथ-प्रदर्शक, अनुगामी, पालनकर्ता के रूप में पूजते हैं। मष्टदेवता खस जाति के इष्टकुल देवता हैं। माना जाता है कि कभी उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमायुं में भी खसों के शासन काल में मष्टदेवता की पूजा की जाती है।
खसों के विभिन्न कुलों के लोग मष्टो देवता को मानते हैं। इन मस्तो को 12 भाई और नवदुर्गा भवानी 9 वाहिनी कहा जाता है। हालांकी मस्तो के कई क्षेत्रों में 13 नाम भी सामने आते हैं। एक लामा बिष्णु भी हैं, जो कि मस्टो के मामा हैं। मस्टो के 12 स्वरूप इस तरह से हैं। 1. बुडो मष्टो 2. थार्प मष्टो 3. गुरो मष्टो 4. दाह्रे वा खप्पर मष्टो 5. दूधेसिल्टो मष्टो 6. बाबिरो मष्टो 7. बान्नी मष्टो 8. कवा मष्टो 9. लुमाल मष्टो 10. पुवाले मष्टो 11. बारपेलो मष्टो 12. ढंढार मष्टो अथवा आदि मस्टो हैं। इसे आदि बारा कहा जाता है । सृष्टि के रचयिता को बुडो मष्टो कहा जाता है। सब से पहले प्रकट होने के कारणइनको बडा भाई भी कहा जाता है। धन का स्वामी तथा यश कृति फैलाने वाला ढंढार वा आदि मष्टो को ही छोटा भाई होने से भाई राजा भी कहते हैं। इसी तरह लामा जिष्णु, घटाल, लाखुरो, कालसी, भागेश्वर, हेङ्गरो, नाग नगिनी देखि अन्य देवताहरू,देवीहरू,पूर्वज आदि को अठार लाडेरो कहते हैं। एक मान्यता के अनुसार लामा जिष्णु इन सभी मस्टो के मामा हैं।
प्राचीन शास्त्रों के अनुसार 12 भाइयों के नाम मष्ट/मश्तो : 1. थारपू मष्ट या थारप मष्टा, या खपर द्यौ यानी ईश्वर, २. बविरामष्ट, 3. कुमाष्टा, ४. बुदुमस्थ, 5. कलाशिलामष्ट, 6. गग्धशिलामष्ट दू, 7. मतेश्वरमष्ट, 8. छन्नमष्ट, 9. कंदमाष्ट, 10. विनायकमस्थ, 11. तालिगोथिमष्ट, 12. लिउदिमाष्ट हैं। कई जगह 15 मश्तो भी प्रचलन में हैं। स्थान के आधार पर उनके नाम और संख्या भिन्न हो जाती है। कई जगह मस्टो इस तरह हैं। 1- बुद्धमस्तो , 2- कलामस्तो , 3- बोम्मास्तो, 4- थापमस्तो, 5- वबीरामस्तो, 6- लिउदिमस्तो, 7- कमलमस्तो, 8- सीमामस्तो , 9- रुमालमस्तो 10-धंडरमस्तो, 11- दुसापनिमस्तो, 12- दधिसीतालमस्तो, 13- दरेमस्तो, 14- कुर्मीमस्तो, 15- अद्यमस्तो हैं।
यह भी मान्यता है कि मष्टा देवता की उत्पत्ति ‘बन्नी मष्टा फट, धनर लूट’ कहावत से मिलती है। चूंकि ये दोनों स्थान बझांग जिले में हैं, इसलिए ये मष्ट देवता के निवास के रूप में बताए जाते हैं। मस्ट देवता की विभिन्न रूपों में पूजा की जाती है। जैसा की पहले ही बताया गया है कि देवता मष्ट की 12 शाखाएं पाई जाती हैं। बजंग छबीस में, पश्चिमी नेपाल की लोक भाषा में बरहा अंगले मश्तो या बरहाभाई मष्टा का नाम स्थान के अनुसार बदलता रहता है।जुमला में, पांडुसेरा को आपी मश्तो, खपर मश्तो, वाविरो मश्तो, काला मश्तो, धनदार मश्तो, कावा मश्तो, मंडली मश्तो, डेड मश्तो, दहरे मश्तो के नाम से जाना जाता है। कई जगह धनदार मश्तो सबसे बड़े मश्तो माने जाते हैं। कहा जाता है कि बन्नी मश्तो की उत्पत्ति पहले बजंग में हुई और फिर धनदार मश्तो में। लेकिन यह भी कहा जाता है कि धनदार और बानी मश्तो एक ही हैं।गुरु मश्तो और विजय मश्तो भाई माने जाते हैं। गुरु मश्तो मूल रूप से हुमला जिले के सोरुदरा गांव के रहने वाले हैं। जुमला के कालीकोट वर में माष्टा को पांडव का अवतार भी माना जाता है। खपर मश्तो को इंद्र का पुत्र भी कहा जाता है। चूंकि मष्टा के भक्त की वाणी को दिव्य माना जाता है, इसलिए वाणी को स्थानीय भाषा में समझाने और स्थानीय भाषा में पूछे गए प्रश्नों को मष्टा तक पहुंचाने के लिए धामी की आवश्यकता होती है। पश्चिमी नेपाल की खस संस्कृति पर मस्तो का गहरा प्रभाव पड़ा है। माना जाता है कि वर्ष 1356 में पृथ्वी मल्ल के कथन में गोसाई शब्द को मश्तो के साथ जोड़ा जा सकता है।

मस्टो की नौ भवानी इस तरह हैं। प्राचीनकाल से खस जनजाति में मान्यता है कि सर्वशक्ति स्वरूपिणी,सर्वव्यापी, सर्वज्ञाता जगतमाता ने प्रथम सृष्टि रचना में नौ बहनों के रूप में 12 भाइयों की सहायता कर सृष्टि संचालन करने हेतु अपना नौ रूप का विस्तार किया। ये नौ भुवानी कुल बहनें इस तरह हैं। 1-वृन्दावाशिनी अथवा बुडी बोज्यु जिनको बड़ी बहिन भी कहा जाता है । 2- कालिका वा कनकसुन्दरी, 3- बड़ी मालिका वा त्रिपुरासुन्दरी, 4-बन्दालनी, 5- दुंगेल्नी वा दुलेल्नी वा ठिङ्गग्याल्नी, 6- हिमालिनी, 7- पुगेल्नी, 8-खेसमालिनी तथा 9-जलपा। इन नौ भुवानी को पहाड़ों, मधेसों एवं हिमालय में विचरण करने वाली, वनकी बूढ़ी बोज्यु तथा अनेकों गुण, रूप तथा नाम से पूजा जाता है। तथा माता का भक्तों में नौ भुवानी का भिन्न-भिन्न रूप एवं विभिन्न नाम प्रचलित हैं।
मस्टो देवता की मूर्ति काष्ट यानी लकड़ी से बनी होती है। खस भाषा मे मंदिर को माडो अथवा माण्डु बोला जाता है। माना जाता है कि नेपाल की राजधानी काठमांडु शब्द की उत्पत्ति भी मांडु हुई। काठमांडु भी एक ही पेड के काठ से बनी हुई है। मस्टो पूजा के लिए विशेष तीन प्रकारका धर्म गुरुों की आवश्यकता होती है। 1.मूल धामी-धामी तथा माडोका प्रमुख पुजारी। 2.पाली अथवा ढाङ्गरी अथवा जुथारे – पाली। 3. भडारे / खाबा- ढाङ्गरी माडो में भोग / बलि देने तकका कार्यभार निभाते है। मस्टो की पूजा तांत्रिक और वैदिक दोनों विधियों के अनुसार पूर्णिमा के दिन, भाद्र अनंत चतुर्दशी और मंगसीर व जेठ की पूर्णिमा के दिन की जाती है। कहा जाता है कि दुधेमाश्तो ने एक बूढ़ी औरत का दूध निकाल कर पी लिया था। इसलिए इसे दुधेमाश्तो कहा जाता है। उनकी पूजा सात्विक रूप से होती है। सात्विक पूजा में अक्षत को फूल, दूध, दशी, घी और बाबर का भोग लगाया जाता है। कई मश्तो को 64 बकरियों की बलि देते हैं। एक को छोड़कर बाकी मश्तो देवता स्वभाव से एक मांसाहारी हैं। असम निवासी रेशम मल्ल कहते हैं कि खसों में भगवान से पहले अपने पितरों को पूजने की प्रथा है। मस्टो खसों के कुल देवता हैं। इसलिए उनकी पूजा पहले होती है। मस्टो की पूजा करने वाले पुजारी को धामी कहते हैं। दुधोमस्टो को छोड़कर बाकी मस्टो को बलि दी जाती है। जिन लोगों पर मस्टो आकर नाचते हैं वे मुंह से काटकर 3०० से 4०० तक बकरियों की बलि दे देते हैं। उन बकरियों का वे रक्त पीते हैं।
इस तरह धामी नृत्य कर इनकी तांत्रिक व जादुई तरीके से पूजा करते हैं। बकरी व भेड़ खाने से लेकर घोड़ों की सवारी करने वाले देवता भी इस समूह में मौजूद हैं। इनमें कुलदेवता, मश्तो, भवानी, वराह, वंदी गण के पूजित सभी देवता हैं। वैसे तो पूरे पश्चिमी नेपाल में मश्तो की पूजा की जाती है, लेकिन सुदूर पश्चिम के बजहंग, बाजुरा, बैताडी, दोती और अछाम जिलों में इसके विशेष मेले हैं और धूमधाम और परिस्थिति के साथ इसकी पूजा की जाती है।
भगवान इंद्र की पत्नी सची को मंडलिनी कहा जाता है। इन मंडलियों को याद करते हुए इसे अछाम में मश्तो मंडली और मश्तो बुंदालिनी भी कहा जाता है। देवता मष्ट मूल रूप से एक सात्विक देवता हैं जिन्हें शिव का एक हिस्सा माना जाता है जो शांत, दयालु, क्षमाशील और जल्दी खुश होने वाले हैं। हालांकि, मस्टो के कई स्वरूप को रक्त बलि देना की प्रथा है। वे मां दुर्गा भवानी के करीब रहते थे। इसलिए यह समझा जाता है कि उन्हें रक्त बलि दी जाती है। इस तरह मष्ट देवता की पूजा कहीं शिव के रूप में और कुछ स्थानों पर इंद्र के दामाद के रूप में की जाती है। कहीं न कहीं इसे प्रकृति के प्रतीक के रूप में पूजा जाता है। मष्टो देवता की पूजा को मष्ट पुजा या देवाली भी कहते हैं।
मस्टो दो प्रकार के होते हैं । दूध मस्तो, इन्हें बलि नहीं दी जाती है। दुधेमस्त के अलावा अन्य मस्तूलों के पंथ में बकरियों की बलि दी जाती है। जिन पर मस्टो नाचते हैं वे बकरी- भेड़ का खून पीते हैं। वे खुद ही बकरी-भेड़ को दांतों से काटते हैं। बकरी को काटने के बाद और बकरी और भेड़ को अपनी बाहों में लेकर, वे बारी-बारी से खून पीते हैं और मुख्य धामी मंडल के चक्कर लगाते हैं। सफेद वस्त्र धारण किये हुए मष्टा के 12 भाई गाय की पूंछ यानी चम्मर, घण्टी और झण्डा हाथ में लिये हुए नृत्य करते हैं। भाई मष्टा के नाम का पाठ करते हैं और प्रांगण में वाद्य बजाते हुए नृत्य करते हैं। इस प्रक्रिया में, जब वह पूजा के लिए बलिदान किए जा रही बकरियों का का खून पीता है, तो उसके सफेद कपड़े खून से लाल हो जाते हैं। धामी जब एक बकरी के खून को सिर पर छिड़कते हैं तो वह खुश हो जाते हैं। बाली के बकरे को काटने वाले को धामी धापी देते हैं। बकरी को काटने के बाद उसका खून पीते हुए, उछलते-कूदते नाचते धामी मंडप का चक्कर लगाते हैं। बलि किए गए बकरे का मांस वे सभी लोग खाते हैं जो भेंट के रूप में वहां गए हैं। इस पूजा में नौ वाहिनी मलिका, बहभाई मष्टा, अठारह दैनी मसानी, भूत पिसाचों की पूजा भी की जाती है। नारियल चढ़ाने की प्रथा भी है। मूल देवता के मंडप का द्वार लेकर नारियल काटा जाता है।
मस्टो की पूजा मुख्य रूप से भाद्र पूर्णिमा, बैशाख पूर्णिमा, वैशाख चतुर्दशी, जेठ पूर्णिमा, मनसिर पूर्णिमा, पौष पूर्णिमा और भद्रा अनंत चतुर्दशी को की जाती है। खस समाज –परिवार के सभी सदस्यों के लिए तीन साल के अंतराल पर इकट्ठा होने की प्रथा है। देवता की पूजा करने की तांत्रिक प्रथा अपनी संपूर्णता में प्रकट होती है।
दोस्तों यह थी नेपाल के खसों के कुल देवता मस्टो की गाथा।

 

 

 

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सहयोगी यूट्यूब चैनल संपादकीय न्यूज 

दोस्तों मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश चंद्र लखेड़ा इस बार नेपाल के मस्टो देवता के बारे में जानकारी लेकर आया हूं।

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