उत्तराखंड में कहां से हुई जागरों की उत्पति, जानिए
परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा
हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली
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ग्राम देवता या कुल देवताओं के आह्वान के लिए गाए जाने वाले गीत जागर हैं। जागर संस्कृत के जागरण से निकला शब्द है। इसका अर्थ होता है जगाना। उत्तराखंड तथा नेपाल के डोटी क्षेत्र में जागर लगाए जाते हैं। इस वीडियो में यह बताने का प्रयास करूंगा कि इन जागरों की उत्पत्ति कहां से हुई। पहले जागरों को लेकर बात कर लेते हैं। उत्तराखंड में स्थानीय देवी-देवताओं का विशेष महत्व रहा है। इनको कुल देवता, ईष्ट देवता, ग्राम देवता आदि कहा जाता है। इन पर जनमानस का अटूट विश्वास व अपार आस्था रही है। लोगों का मामना है कि ये लोक देवता क्रोधित होने पर अनेक प्रकार की पीडा़, दुख, संकट तथा विपत्तियां देने की सामर्थ्य रखते हैं। जबकि प्रायश्चित व नियमित पूजा-अनुष्ठान करके प्रसन्न करने पर हर प्रकार की समृद्धि एव सुख प्रदान कर देते हैं। इन देवतों के जागर लगा कर आह्वान व अवतरण किया जाता है और फिर पूजा जाता है। जागर शब्द की उत्पत्ति संस्कृत से हुई है जिसका अर्थ है जागना, अर्थात् जागर से देवी, देवताओं और पूर्वजों को जगाया जाता है। इनके जागने के बाद पूजा में मौजूद लोग इनसे अपनी परेशानियों का समाधान पूछते हैं। यह भी कह सकते हैं की यह परमात्मा के न्याय के विचार से जुड़ा हुआ विषय है ।
जागर के मध्यम से उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में कुल देवता, ग्राम देवता, इष्ट देवता और लोक देवता का आह्वान किया जाता है। यह आह्वान एक मानव शरीर में देवता के अवतरण के लिए किया जाता है। आशा की जाती है कि देवता अवतरित होकर व्यक्ति, परिवार, गांव या समुदायों के कष्ट, परेशानियों का कारण बताएगा। देवता अवतरित होकर दुःख-परेशानियों का कारण बताता है और उनके कारण व निवारण के लिए तय विधि भी बताता है। देवता से न्याय की अपेक्षा भी की जाती है। कई बार तो परिवार, गांव, समुदाय के छोटे-मोटे झगड़े एवं विवाद भी अवतरित देवता के सामने रखे जाते हैं। माना जाता है कि हिमालय के पहाड़ों और प्रकृति के प्रकोप से लगातार जोखिम में रह रहे लोगों ने इस श्रद्धा को इस तरह से सम्मान दिया था।
वास्तव में हिमालयी क्षेत्र में किरात, नाग, खस व वैदिक आर्यों से पहले कोलीय वंश के लोग रहते थे। जो कि आज के शिल्पकार हैं। माना जाता है कि कुल देवता की पूजा वही करते थे और उनसे ही खसों ने भी सीख ली। हिमालय में कुलिंदों और कत्यूरों के शासन में भी इस तरह के गायन का उल्लेख मिलता है। धामदेव, नरिसंग देव आदि कत्यूर राजाओं के तो आज जागर लगाए जाते हैं। इसी तरह गढ़ नरेश अजय पाल, तीलू रौतेली आदि भड़ों के भी जागर लगाए जाते हैं। खसों के बाद हिमालय क्षेत्र में आए वैदिक आर्य भी यह पूजा कराने लगे। बाद में जब हिमालयी में नागपंथी साधु आए तो उन्होंने भी तंत्र-मत्र को और बढ़ावा दिया। ढोल सागर भी उनकी ही देन माना जाता है। इसलिए माना जाता है कि जागर भी पहाड़ के शिल्पकारों की ही देन है। दक्षिण भारत खासतौर पर तमिलनाडु व केरल में भी इसी तरह की पूजा की परंपरा है। इसलिए कुछ लोग मानते हैं कि जागर की परंपरा दक्षिण भारत से आई। परंतु इसके ठोस सबूत नहीं हैं। इसलिए यही माना जा सकता है कि ग्राम देवता की पूजा शिल्पकारों से शुरू हुई। आज भी अधिकतर वही इसका गायन करते हैं।
मान्यता है कि ईष्ट देवता, कुल देवता या ग्राम देवता भी दो प्रकार के होते हैं । एक तो करुण व दयालु देवता हैं। वे पूजा के अभाव में नहीं रहते हैं, किंतु दुष्ट देवता अगर पूजित नहीं किए जाए तो वे क्रोधित हो जाते हैं । उदाहरण के तौर पर गढ़वाल के दूधी नरसिंग दयालु देवता हैं, जबकि डौंड्या नरसिंग बहुत क्रोधी हैं। माना जाता है कि उनका आक्रोश समस्त पीढ़ी, कुल, समाज पर पड़ता है। इनको मनाने के लिए जागर लगाए जाते हैं। उत्तराखंड के दोनों मंडलों, गढ़वाल और कुमायुं तथा नेपाल के डोटी क्षेत्र में मान्यता है कि कुल देवता को नाराज करने पर वह संबंधित परिवार को कष्ट, पीड़ा देता है, जबकि उसकी नियमित पूजा करने पर वह सुख भी देता है। जागर इन रूठे देवताओं को मनाने के लिए लगाए जाते हैं। इसी तरह मृत पूर्वजों से संवाद करने के लिए भी जागर का आयोजन किया जाता है। विशेष पूजा अर्चना कर इन्हें दूसरे व्यक्ति के शरीर में बुलाया जाता है। वैसे अब जागर को सांस्कृतिक और संगीत विरासत के रूप में देखा जाता है। जागर में डमरू या डौंर, हुड़का, कांसी की थाली ढोल, दमाऊ आदि उपकरणों को प्रयोग किया जाता है। जिन्हें बजाने के बाद ही स्थानीय देवी-देवता अवतरित होते हैं। स्थानीय भाषा के भजनों के जरिए इन्हें जगाया जाता है। जागर में भजन गाने वाला जागरिया कहलाता है। विशेष पूजा के दौरान जागरिया महाभारत व रामायण जैसे महान महाकाव्यों से लिए संकेतों के साथ देवताओं का गीत गाता है व रोमांच और उनके कारनामे का वर्णन करता है। इस दौरान विशेष संगीत भी बजाया जाता है
जागर गाथाओं में धार्मिक पौराणिक जागर गाथाएं पूजा जागर के अवसर पर जगरिया मनौती के लिए देवता का आह्वान करने के लिए गाता है। जागर गाथाओं में स्थानीय देवी-देवताओं का आह्वान इसलिए किया जाता है कि परिवार के किसी व्यक्ति के बीमार होन या रोग-व्याधि से मुक्ति, अनिष्ट से रक्षा एवं सुख-शांति हेतु तथा कृषि या पशुओं पर संकट को दूर किया जा सके। उतार-चढ़ाव, लोक वाद्य हुड़का, थाली या ढोल, दमाऊ की तरंगित करने वाली संगीत की लय और ताल के साथ जागर गाथाएं गाई जाती हैं । देवी-देवता अथवा प्रेतबाधा निवारण के लिए रात्रि जागरण करके जागर लगाए जाते हैं।
माना जाता है कि जागरों का संबंध मुख्यतः लोक देवी नन्दा से है। परंतु, इसके अलावा इस क्षेत्र में लोक देवी स्वनूल तथा लोक देवता जाख आदि से भी संबंधित कई जागर प्रचलित हैं। नन्दा और स्वनूल के एक ही जागर हैं। इन जागरों से पता चलता है कि नन्दा, गौरा व स्वनूल एक ही लोक देवी के नाम हैं और अलग-अलग स्थानों पर उसकी पूजा अलग-अलग रूपों में की जाती है। इसके अलावा स्थानीय देवताओं, कई राजाओं, ऐतिहासिक पुरुष व नारियों की यश गाथाएं गाई जाती हैं।
वेद, पुराण, शास्त्र, नागों और पहाड़ की लोक परंपराओं का बखान जागरों में है। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में देवताओं का स्तुति गान जागर के रूप में किया जाता है। धार्मिक अनुष्ठानों में जागर के माध्यम से ही पूजा की जाती है। आम तौर पर जागरों में लोक देवी या देवताओं की कहानियों का बखान है। जागर गायन शैली में निपुण कुछ ही लोग हैं, जिन्हें स्थानीय भाषा में जागरी, जगरिया या जागुरूवे भी कहा जाता है।
जागर मन्दिर अथवा घर में कहीं भी लगाए जा सकते हैं। जागर बाइसी तथा चौरास दो प्रकार के होते हैं। बाइसी में बाईस दिनों जागर किया जाता है। कई जगह दो दिन के जागर को भी बाईसी कहा जाता है। चौरास मुख्यतया चौदह दिन तक चलता है। कई जगह माथ चार दिन तक चलता है।
जागर पूजन में मुख्यत: तीन प्रमुख व्यक्ति होते हैं।
- जगरिया – जागर के लिए सबसे पहले जगरिया की आवश्यकता होती है। जगरिया उस व्यक्ति को कहा जाता है जो लोक देवी- देवता तथा पूर्वजों की अदृश्य आत्मा को जागृत करता है। इसका कार्य देवता की जीवनी, उसके जीवन की प्रमुख घटनाएं व उसके प्रमुख मानवीय गुणों का लोक वाद्यों के साथ एक विशेष गायन शैली में गाकर देवता को जागृत करना होता है। देवता को डंगरिया के शरीर में अवतरित कराना है। जागर में ढोल-दमाऊ, डमरू या डौंर-थाली और हुड़का पर विशेष धुन व ताल बजायी जाती है। इस धुन के साथ जगरिया देवगाथा गाता है। इस गाथा में आहूत किये जाने वाले देवता की उत्पत्ति, गुणों, और चमत्कारों का बखान किया जाता है। यह काम करने वालों को जगरिया या गडीयाल्या कहते हैं। ये लोग शिल्पकार जाति से होते हैं। विशेषतौर पर दास या औजी समाज से होते हैं। जगरिया को औजी, दास, देवसेवक, गुरू भी कहा जाता है। हालांकि अब दूसरे समाजों के लोग भी जागर लगाने लगे हैं। ये लोग लोक देवताओं के आह्वान के लिए गयी जाने वाली देवगाथाओं के कुशल गायक होते हैं। इन्हें कई देवगाथाए कंठस्थ होती हैं। आग की धूनी में जाकर भी जागर लगाए जाते हैं। जगरिया के साथ इस गायन में एक-दो और लोग उसकी मदद करते हैं।
- डंगरिया – जिनके शरीर में देवता प्रकट या अवतरित होते हैं उनको डंगरिया कहते हैं। यह भी कह सकते हैं कि जिस व्यक्ति के शरीर में लोकदवेता का अवतरण कराया जाता है। लोकदेवता का अवतरण स्त्री, पुरूष दोनों के माध्यम से होता है। अवतार के समय डंगरिया को उसी देवता के समान शक्ति सम्पन्न व सर्वफलदायी माना जाता है। वही दुखी व्यक्ति को उसकी समस्या के समाधान का रास्ता बताता है। डंगरिया के लिए धामी, पस्वा,धानी, माली, औतारू शब्द का प्रयोग भी किया जाता है। देवताओं के वाहन शेर, बैल और हाथी अदि पशु यानी डंगर होने के कारण जागर में इस आह्वान का जरिया पशु बनने वाले को डंगरिया कहा जाता है।
- स्योंकार-स्योंनाई – जिस घर में जागर, जागा बैसी लगाई जाती है उस घर के सबसे बुर्जुग एवं उसकी पत्नी को क्रमशः स्योंकार-स्योंनाई के नाम से पुकारा जाता है।
जागर एक विशेष समय पर लगाएजाते हैं। इसमें पूरे कुल के लोग भी शामिल हो सकते हैं। जगरिया के आह्वान करने के बाद एक स्थिति में देवता डंगरिया के शरीर में अवतरित हो जाता है। जागर के समय यदि कोई व्यक्ति, पस्वा,डंगरयिा कांपने लगता है तो किसी कटोरी में जलते हुए अंगारों पर घी डाल कर उससे उठने वाले धुंए को उसे सुघांया जाता है । इस धुपणू कहते हैं। कई जगह उस पर शुचि यानी गोमूत्र भी छिड़का जाता है। इस धुपणू को सूघंते ही वह व्यक्ति सहसा उछल कर खड़ा होकर नाचने लगता है। विश्वास किया जाता है कि उस व्यक्ति पर ग्राम देवता अवतरित हो गया है। माना जाता है कि अब डंगरिया उस देवता की शक्ति से संपन्न हो गया है जिसने कि उसके शरीर में अवतरण लिया है। इस स्थिति में डंगरिया का हाव-भाव, शारीरिक हरकतें एवं बोलचाल का ढंग सामान्य नहीं रह जाता है। वह आत्मचेतना विहीन दिखाई देता है। अब यह व्यक्ति सभी के दुःख, कष्ट आदि सुनकर उनका कारण व निवारण बताता है. भभूत, भस्म लगाकर आशीष देता है और रोगों का निवारण भी करता है। यह व्यक्ति देवता की एवज में अक्षत-पिठियां और भेंट स्वीकार करता है। यही देवता के साथ लोगों का वादा करवाता है। कष्ट निवारण और काज सुफल होने की स्थिति में यही व्यक्ति देवता को पूजा अर्पित करने का भी संकल्प देता है। यह भी कह सकते हैं कि जागरी, व्यथित के व्यक्ति के किये गये अपराधों के लिए उससे क्षमा याचना करते हुए उसे कथनानुसार यथेष्ट रूप में उसे संतुष्ट करने का आश्वासन देता है।
जागर में तीन तरह के होते हैं। पहला देव जागर और दूसरा -भूत जागर तथा तीसरा स्थानीय राजवंश के जागर। देव जागर में स्थानीय देवी-देवताओं का आह्वान किया जाता है। भूत जागर में किसी मृत व्यक्ति की आत्मा का आह्वान किया जाता है। यह अल्पायु या दुर्घटना में हुई मृत्यु के बाद भटकतर आत्मा की मुक्ति के लिए किया जाता है। ऐसी आत्मा अपने परिवार के किसी व्यक्ति पर आती है। इसे हंत्या कहते हैं। हंत्या को दूर करने के लिए उस मृत आत्मा को भगवान मानकर पूजा जाता है। जागर के कई रूप होते हैं जैसे कि जगौ, जागा, नौर्त, बैसी, ढ्वाला, धपेली, रमौल, ख्याला आदि. विभिन्न जागरों की अवधि एक रात्रि से लेकर पांच, ग्यारह, बाईस दिन और छः महीने तक की भी होती है। इस अवधि से भी इनके नाम लिए जाते हैं। जैसे बाईस दिन की जागर बैसी तथा छः माह की छमासी कहलाती है।
भूत-प्रेत सम्बन्धी जागर में किसी व्यक्ति विशेष के शरीर में भूत या देवता का अवतरण होता है। वह अपने अल्प मृत्यु के बारे में या अपनी भटकती आत्मा की शान्ति हेतु सम्बन्धित जनों को अपनी इच्छा बताता है और उसी अनुसार उसकी इच्छा पूर्ति कर उसको पुरखों के पास भेज दिया जाता है।
देवी-देवताओं सम्बन्धी जागर में एक तो देवी-देवता जैसे नृसिंह, हनुमान, पांडवागाथा, शिव पुराण, रामायण, देवी काली आदि के जागर लगाए जाते हैं। दूसरे इसमें स्थानीय देवताओं, जैसे कि ग्वल, गंगनाथ, भोलानाथ, हरू, सैंम से लेकर जंगली देवताओं में रमौल, ऐडी़, परी, आंचरी, छुरमल, चौमू, बौधाण आदि आते हैं।
स्थानीय राजवंशों सम्बन्धी जागर- जागरों का तीसरा प्रकार है स्थानीय शासकों के जागर लगते हैं उदाहरण के तौर पर कत्यूरी, पंवार, चन्द आदि स्थानीय राजवंशों की गाथाएं गाई जाती हैं।
जागर की लय तथा उनके गायन में प्रयुक्त होने वाले जागर वाद्यप्रयोगों के आधार पर जागरों को चार रूपों में विभक्त किया जाता है 1. हुड़किया जागर, हुड़के में गाया जाने वाला गद्यात्मक शैली का जागर है। इसे ‘ख्याला’ भी कहते हैं। 2. डमरिया या डमरूवा जागर को डमरू में गाया जाता है। 3. गडे़ली जागर में केवल थाली बजाकर गाया जाता है। 4. मुरयों जागर में झांझ, मृदंग के साथ गाया जाता है
जागर तीन तरह से लगाए जाते हैं। 1- बाहरी जागर- इस जागर का स्वरूप अधिक विस्तृत होता है। इसमें डंगरियों की संख्या अधिक होती है। इसकी अवधि भी अधिक होती है। यह जागर दो दिन दो रात से लेकर बाईस दिन और बाईस रात तक चलता है। 2. भीतरी जागर – इस जागर का स्वरूप बाहरी जागर की तरह अधिक विस्तृत नहीं होता है। यह छोटा होता है। भीतरी जागर की अवधि विषम दिन संख्या 3,5,7,9,11 के रूप में अधिक अधिक से ग्यारह दिन की होती है। इस जागर में वाद्यवादक ही गाथागायक होते हैं। कांसे की थाली अथवा हुड़का, डमरू या डौंर वाद्यों का प्रयोग होता है। जागरों में नाथ पंथी गुरु गोरखनाथ का उल्लेख भी आता है।
3- जागै के तहत जागर मंदिर के प्रांगण में लगाई जाती है।
अब जागरों का इतिहास की बात करते हैं। जागरों को बनाने वाले किसी खास व्यक्ति का कोई जिक्र या इतिहास नहीं मिलता है। माना जाता है कि जब से देवी नन्दा का उत्सव इस क्षेत्र में मनाए जा रहा है, तभी से जागर भी गाए जा रहे हैं। यह एक विशेष प्रकार का लोक संगीत है जिसमें गढ़वाली, कुमायुंनी, जौनसारी भाषा बोलियों के शब्दों का प्रयोग है। जागर एक सामूहिक गायन कला है, हालांकि जागर गायन हमेशा एक दक्ष गायक की अगुवाई में ही होता है। अर्थात दक्ष गायक शुरू करता है और उसके बाद बाकी के इच्छुक लोग उसका अनुसरण करते हैं। अनुसरण करते हुए जागर गायन करने वाले लोगों में कोई भेद नहीं है, समाज का हर कोई व्यक्ति इसमें शामिल हो सकता है। वैसे तो जागरों की कोई तय स्क्रिप्ट नहीं है, परंतु कहानी तय है। आमतौर पर दक्ष जागर गायक कहानी को ध्यान में रखते हुए जागर के शब्द गाते-गाते ही तैयार करता है। इसी वजह से जागरों में प्रयोग होने वाले शब्दों में परिर्वतन देखा जाता है। कुछ दशकों पूर्व तक जागर शिल्पकार समाज के लोग ही लोग ही लगाते थे। परंतु अब ऐसा नहीं है। जागर कहीं लिखे नहीं गए हैं, यह आज तक पूर्णतः श्रुति और स्मृति के आधार पर एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक स्थांतरित हुए हैं। पारंपरिक तौर पर इच्छुक व्यक्ति कई वर्ष तक जागर गायकों के साथ समय बिताता था और इसी तरह जागर सीखता था।
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दोस्तों मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश चंद्र लखेड़ा इस बार उत्तराखंड के जागरों के बारे में जानकारी लेकर आया हूं। क्या आप जानते हैं कि उत्तराखंड के जागरों की शुरूआत वहां के शिल्पकारों ने ही की थी। जब तक मैं आगे बढूं, तब तक इस हिमालयी लोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब अवश्य कर दीजिए। आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र की संस्कृति, इतिहास, लोक, भाषा, सरोकारों आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं।सहयोगी यूट्यूब चैनल संपादकीय न्यूज …
दोस्तों यह था उत्तराखंड के जागरों का कुछ इतिहास । यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। इसके टाइटल सांग – हम पहाड़ा औंला– को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है। इसी चैनल में है।अगली वीडियो का इंतजार कीजिए। तब तक जै हिमालय, जै भारत।
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