आंसुओं से भीगता रहा गोरख्याली राज का कांगड़ा- श्रीनगर-अल्मोड़ा-काठमांडू- गंगटोक मार्ग

0
469

कांगड़ा- श्रीनगर- अल्मोड़ा- काडमांडू –गंगटोक रोड के मामले में अदूरदर्शिता से शेरशाह सूरी जैसा सम्मान नहीं पा सके नेपाल के गोरखा

परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

गोरख्याली शासन में एक रोड ऐसी भी थी जो कभी नेपाल की राजधानी  काठमांडू से उत्तराखंड के अल्मोड़ा और श्रीनगर व देहरादून होकर हिमाचल प्रदेश के नहान-कांगड़ा तक जाती थी। दूसरी ओर काठमांडू से सिक्किम की राजधानी गंगटोक तक जाती थी। यह एक बाटू यानी पैदल मार्ग था। परंतु इसका दुखद पहलू यह है कि यह मार्ग गोरखा शासन में हमेशा ही पीड़ितों के आंसुओं से भीगता रहा।  लोगों के आंसुओं से कैसे भीगता रहा, इस बारे में बताने से पहले इस रोड के बारे में जानकारी दे देता हूं। गोरखा शासन के समय इस पैदल मार्ग को राजमार्ग जैसा दर्जा मिला था, परंतु गोरखों की अदूरदर्शिता के कारण इस रोड को वह महत्व नहीं मिल पाया, जैसा कि जीटी रोड यानी ग्रैंड ट्रंक रोड को मिला है, और अब यह मार्ग लोगों की स्मृतियों में भी नहीं रह गया है।यदि गोरखा शासक थोड़ा सा भी दरियादिली दिखाते तो आज हिमालय क्षेत्र की यह रोड भी आज जीटी रोड यानी ग्रैंड ट्रंक रोड की तरह याद की जाती। जीटी रोड यानी ग्रैंड ट्रंक रोड बांग्लादेश के चटगांव  से प्रारंभ होकर भारत, पाकिस्तान से  गुजर कर अफ़ग़ानिस्तान में काबुल तक जाती है। (Kangara, Nahan, Himachal, Dehradun, Shrinagar, almora, Uttarakhand, Nepal, Kathmandu, Gangtok, India Road)

जबकि हिमालयी क्षेत्र की का यै पैदल मार्ग हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा से नहान होकर उत्तराखंड के देहरादून, श्रीनगर, अल्मोड़ा होकर काठमांडू तक जाती थी। काठमांडू से होकर यह सिक्किम की राजधानी गंगटोक तक जाती थी। यह एक पैदल मार्ग था।  यह मार्ग 2244.50   किमी लंबा है। बस से यात्रा करने में इस रूट पर कम से कम 55-60  घंटे यानी पांच दिन लगेंगे। उस कालखंड में कांगड़ा से काठमांडू  की इस यात्रा को पूरा करने में कम से कम दो सप्ताह का समय लगता रहा होगा। हिमालयी क्षेत्र में कांगड़ा-नहान –श्रीनगर-अल्मोड़ा- काठमांडु, गंगटोक तक  रोड वास्तव में  एक खच्चर रोड जैसी सड़क थी। प्रसिद्ध इतिहासकार डा. शिवप्रसाद डबराल चारण अपनी पुस्तक में लिखते हैं कि — भारत-नेपाल की सीमा विभाजन रेखा काली नदी से यह रोड अलकनंदा तक पहुंची थी। इससे अल्मोड़ा और श्रीनगर को भी मिला दिया गया था। इस तरह यह रोड नेपाल की राजधानी काठमांडू से पश्चिम की ओर देहरादून के नालापानी से होकर नाहन तक थी। कांगड़ा तक भी लगभग ऐसा ही रास्ता था। यह रोड उन प्रमुख राज्यों की राजधानियों से मिलाई गई थी, जिन्हें गोरखाओं ने जीत लिया था। गढ़वाल- कुमायुं के अंतर्गत यह रोड विधिवत तैयार की गई थी। इस पर हर कोस पर पत्थर लगाए गए थे। तब  इस सड़क पर नेपाल से निरंतर सेना आदि का आवागमन होता रहता था।हालांकि  गोरखाली शासन ने इस मार्ग के निर्माण  में कभी भी उचित ध्यान नहीं दिया। उन्होंने इसकी देखभाल मरम्मत का जिम्मा स्थानीय लोगों को दिया था। (Kangara, Nahan, Himachal, Dehradun, Shrinagar, almora, Uttarakhand, Nepal, Kathmandu, Gangtok, India Road)

नेपाल की सीमाओं के विस्तार के तहत गोरखों ने पश्चिम में कांगड़ा तक विजय पताका फैला दी थी, जबकि काठमांडू घाटी में नेवारों का राज्य छीना तथा पूर्व में किरातों के राज्यों को भी छीन लिया था। इन सभी जगह गोरखा शासन के क्रूरता के किस्से आज भी लोगों के मन-मष्तिष्क में हैं। हिमाचल, उत्तराखंड और सिक्किम- दार्जिलिंग से गोरखों की विदाई के बाद अंग्रेजों के समय काठमांडू तक के इस मार्ग की आवश्यकता नहीं रही। गोरखा शासन की कड़वी यादों के कारण लोगों ने भी इस मार्ग को भुलाना ही उचित समझा। इस तरह यह मार्ग इतिहास के पन्नों में सिमट कर रह गया। (Kangara, Nahan, Himachal, Dehradun, Shrinagar, almora, Uttarakhand, Nepal, Kathmandu, Gangtok, India Road)

दरअसल गोरखा शासन ने  कभी भी इस रोड को विधिवत तरीके से विकसित करने के बारे में कभी सोचा ही नहीं। यदि वे इसे विधिवत  विकसित करते तो आज हिमालयी क्षेत्र की सबसे बड़ी सड़क विकसित करने का श्रेय गोरखों को मिलता। जीटी रोड़ के पुनर्मिर्माण के लिए जिस तरह से शेरशाह सूरी को याद किया जाता है, ठीक उसी तरह गोरखा भी इस हिमालयी सड़क के लिए याद किए जाते। आप जानते ही हैं कि मैदानी क्षेत्रों में जीटी रोड यानी ग्रैंड ट्रंक रोड के पुनर्निर्माण का श्रेय शेरशाह सूरी को दिया जाता है।  (Kangara, Nahan, Himachal, Dehradun, Shrinagar, almora, Uttarakhand, Nepal, Kathmandu, Gangtok, India Road) जीटी रोड दक्षिण एशिया के सबसे पुराने एवं सबसे लम्बे मार्गों में से एक है। यह रोड बांग्लादेश के चटगांव से प्रारंभ होकर लाहौर हो कर अफ़ग़ानिस्तान में काबुल तक जाती है। प्राचीन समय में इसे उत्तरपथ कहा जाता था। मौर्यकाल में बौद्ध धर्म का प्रसार इसी उत्तरापथ के माध्यम से गंधार तक हुआ। इसी तरह गोरखा शासन में काठमांडू से उत्तराखंड होकर हिमाचल तक जाने के लिए यह पैदल मार्ग बनाया गया था। गढ़वाली में छोटे रास्तों को बाटू या बटिया कहते हैं। इन पर खच्चर, घोड़े समेत सभी माल ढोने वाले पशु भी जा सकते थे। इस रोड का पुनर्निर्माण शेर शाह सूरी ने किया। बाद में सड़क का बड़े हिस्सा का 1833-1860  के बीच ब्रिटिश सरकार ने विकास किया।  (Kangara, Nahan, Himachal, Dehradun, Shrinagar, almora, Uttarakhand, Nepal, Kathmandu, Gangtok, India Road)

बहरहाल, बाद में अंग्रेजों ने जब गोरखों को युद्ध में हरा दिया और हिमाचल प्रदेश व उत्तराखंड तथा सिक्किम-दार्जिलिंग से उनको बाहर कर दिया तो काठमांडू के लिए इस रोड का प्रचलन भी बंद हो गया । वैसे ब्रिटिश राज्य प्रारंभ होने पर यह महामार्ग भी अच्छी अवस्था में नहीं था।  गोरखा शासन बहुत क्रूर और अमानवीय था। इसलिए  हिमाचल प्रदेश व उत्तराखंड के लोगों ने भी इस रोड को भुला दिया। अंग्रेजों का शासन आने पर उन्होंने अपने हिसाब से सड़कें बनाई। उन्होंने सीमा क्षेत्रों तक जाने के लिए सड़क मार्ग विकसित किए। अल्मोड़ा और पिथौरागढ़ तक सैनिक मार्गों का निर्माण किया । बाद में गढ़वाल में सबसे महत्वपूर्ण मार्ग हरिद्वार से बद्रीनाथ जाने वाला तीर्थ यात्रा मार्ग का निर्माण किया गया। हरिद्वार से बद्रीनाथ और केदारनाथ को जाने वाली सड़क का निर्माण किया था । इस कार्य में अंग्रेज अफसर ट्रेल की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

इससे पहले गोरखा शासन में इस पैदल मार्ग को स्थानीय लोगों ने ही बनाया था। इस सड़क से गोरखों के सैनिक दस्ते चलते थे। लूट का माल भी इसी रास्ते से नेपाल पहुंचाया जाता था। यह रोड आम लोगों के उपयोग के उद्देश्य से नहीं बनाई गई थी। यह मार्ग श्रीनगर गढ़वाल से हरिद्वार, नालापानी, देहरादून होकर नाहन पहुंचता था। इसी मार्ग से गढ़वाल से लोगों को पकड़कर हरिद्वार के कनखल ले जाया जाता था, जहां उनकी कनखल मंडी थी। वहां गोरख्याणी के उस दौर में मनुष्य बेचे जाते रहे। प्रसिद्ध इतिहासकार डा.शिव प्रसाद डबराल चारण की पुस्तक में लिखा है कि  तीन से 30 साल तक की उम्र के लोगों को मात्र दस रुपये में बेच दिया जाता था। गढ़ नरेश के मंत्री रहे पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी अपनी पुस्तक –गढ़वाल का इतिहास –में लिखते हैं कि  सहस्त्रों स्त्री, पुरुष व बच्चे नेपाल भेजे गए। ये सभी इसी रास्ते से नेपाल भेजे गए। नेपाल में बड़ी संख्या में आज यही गढ़वाली लोग हैं। हिमाचल, गढ़वाल व कुमायुं ही नहीं, आज के नेपाल  की काठमांडू घाटी के नेवारों के साथ भी लगभग ऐसी की क्रूरता की गई। नेवारों के कान और होठ काट दिए गए थे। किरातों के तहत राय, लिंबो, तमांग आदि की भी यही शिकायत रही है। इस तरह  यह पैदल रास्ता इन दर्दनाक घटनाओं का गवाह रहा है। इस तरह यह पैदल मार्ग लाखों लोगों के आंसुओं से भीगता रहा।

बहरहाल, अब जबकि उत्तराखंड और हिमाचल के लोग क्रूर गोरखा शासन की दुखद घटनाओं को लगभग भुला चुके हैं। काठमांडू तक जाने वाली इस रोड का फिर से निर्माण किया जाना चाहिए। ताकि हिमालयी क्षेत्र में आवाजाही बेहतर हो सके। हिमालयी क्षेत्र में पर्यटन को भी बढ़ावा मिलेगा।

यह थी हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड से नेपाल के काठमांडू तक जाने वाले पैदल मार्ग की गाथा। यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। आपसे अनुरोध है कि हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब अवश्य कर दीजिए। आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र के इतिहास, लोक, भाषा, संस्कृति, कला, संगीत, धरोहर, सरोकार आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं। वीडियो अच्छी लगे तो शेयर भी अवश्य कीजिएगा। इसके टाइटल सांग – हम पहाड़ा औंला– को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है।  इसी चैनल में है। हमारे सहयोगी चैनल – संपादकीय न्यूज—को भी देखते रहना। अगली वीडियो की प्रतीक्षा कीजिए। तब तक जै हिमालय, जै भारत।

 

==================== 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here