उत्तराखंड में खेती व मजदूरी कर रहे नेपाली क्यों कहे जाते हैं डोटियाल

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परिकल्पना- डा. हरीश चंद्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति /  नयी दिल्ली

दोस्तों, पलायन की मार झेल रहे उत्तराखंड के बंजर खेतों को फसलों से लहलहाने वाले जो नेपाली हैं, उनके बारे में जानकारी लेकर आया हूं। इन नेपालियों को लोग डोटियाल भी कहते हैं। आपको मालूम है  ये डोटियाल कौन हैं? इनको डोटियाल क्यों कहा जाता है ? क्या सभी नेपाली डोटियाल हैं ? इन सभी प्रश्नों का उत्तर देने की कोशिश करूंगा।

उत्तराखंड में दो दशक पहले तक नेपाल के लोग सिर्फ बोझा ढोने के लिए आते थे। परंतु अब पहाड़ों पर माल ढुलाई, राशन-गैस सिलेंडर जैसे सामान ढोने के काम के साथ ही अब वे गांवों में खाली पड़े खेतों को लीज पर लेकर खेती कर रहे हैं। उत्तराखंड में लगभग हर क्षेत्र में नेपाली मज़दूर मिल जाते हैं। उत्तराखंड के लोगों को तो सिर्फ नौकरी चाहिए।  इसलिए वे तो शहरों को चले आते हैं और उनके खेत बंजर हो रहे हैं। नेपाल से आए ये मेहनती श्रमिक बंजर हालात में पड़े  खेतों पर ही फसलें उगा रहे हैं। नेपाली लोग टमाटर, मटर, मूली, मिर्च समेत विभिन्न तरह की सब्जियां उगाते हैं।  उनको स्थानीय बाजारों में बेचते हैं और इससे अपने परिवारों की गुजर बसर करते हैं।  वैसे तो उत्तराखंड में खेती करना लाभ का काम नहीं रह गया है, वहां बंदर, सुअर जैसे जंगली जानवर फसलों को बर्बाद कर देते हैं। ऐसे हालात में भी नेपाली लोग  अपनी मेहनत से उत्तराखंड के खेतों को फसलों से लहलहा रहे हैं। उत्तरकाशी क्षेत्र में वे सेब के बगीचों की देखभाल भी करते हैं, कई जगह घोड़े-खच्चर   भी चलाते हैं। सड़क और घर निर्माण में भी नेपाली मज़दूर ही काम करते मिल जाएंगे। अनुमान है कि उत्तराखंड में लगभग 10 से 15 हजार नेपाली  श्रमिक हैं। कई की तो यहां  कई पुश्तें बीत गई हैं। किसी के दादा यहां काम की तलाश में आए थे। अब उनकी संतानें उत्तराखंड के गांवों में खेती कर रही हैं।

सिर्फ उत्तराखंड ही नहीं, पूरे भारत में  नेपाल से लोग रोजगार की तलाश में आते हैं। भारत से भी नेपाल में लोग काम करने जाते हैं। भारत और नेपाल की खुली सीमा होने के कारण  बहुत से श्रमिक सिर्फ़ विशेष मौसम में एक दूसरे के यहां आते- जाते हैं। नेपाल के तराई-मधेस क्षेत्र में रहने वाले नेपाली श्रमिक  फसल के समय पंजाब और हरियाणा भी जाते हैं।  बिहार और उत्तर प्रदेश के कई श्रमिक भी उसी दौरान नेपाल जाते हैं।

भारत और नेपाल के कितने श्रमिक एक- दूसरे के यहां काम करते हैं। इसके ठोस आंकड़े दोनों देशों के पास उपलब्ध नहीं हैं।  भारत और नेपाल में सदियों पुराने रिश्ते  हैं। 1950  की शांति और मैत्री संधि के कारण दोनों देशों में बिना किसी रोक-टोक के लोगों का आना जाना होता रहा है। इसलिए भी ये आंकडे नहीं हैं। इंटरनेशनल ऑर्गनाइज़ेशन ऑफ़ माइग्रेशन (आईओएम) की 2019 की रिपोर्ट के अनुसार क़रीब 30 से 40 लाख नेपाली श्रमिक भारत में काम करते हैं, हालांकि भारतीय अधिकारियों का अनुमान है कि ये संख्या इससे कहीं ज़्यादा है। माना जाता है कि गोरखा रेजीमेंट के अलावा भारत में लगभग एक करोड़ नेपाली लोग काम करते हैं। जबकि अनुमान है कि  नेपाल में काम कर रहे भारतीयों की संख्या क़रीब 10 लाख है।

उत्तराखंड में जो नेपाली हैं उनको डोटियाल कहा जाता है। यह इसलिए कहा जाता है की उत्तराखंड में काम करने के लिए आने वाले अधिकतर नेपाली  डोटी और जुमला क्षेत्र से आते हैं। अर्थात सूदूर पश्चिम और कर्णाली  प्रांतों से आते हैं। उत्तराखंड की सीमा से लगे सूदूर पश्चिम प्रांत कभी डोटी और उसके पास का कर्णाली प्रांत जुमला राज्य के तहत थे। कत्यूर राज में ये दोनों ही उत्तराखंड का ही हिस्सा थे। इनको ग्रेटर उत्तराखंड, भारत का हिस्सा कह सकते हैं। उत्तराखंड और सुदूर पश्चिम के लोगों में  आज भी रोटी- बेटी के संबंध हैं। चूंकि इनकी भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाज सभी कुछ उत्तराखंड से मिलते हैं, इसलिए वे लोग काम की तलाश में उत्तरखंड को प्राथमिकता देते हैं। डोटी प्रदेश के होने के कारण इनको डोटियाल कहा जाने लगा। हालांकि वे इस संबोधन का बहुत बुरा मानते हैं।

नेपाल का सुदूर-पश्चिम प्रांत कभी डोटी कहलाता था। माना जाता है कि डोटी शब्द ‘दो वती’ से आया है जिसका अर्थ होता है — दो नदियों के बीच का भू-भाग।  यह भी कहा जाता है कि हिन्दू भगवान देव और आतवी से डोटी शब्द बना। जिसका  अर्थ पुनः उत्पत्ति है।  १३ वीं शताब्दी में  कत्युरी राज-शासन का पतन हो जाने के बाद  निरंजन मल्ल देव ने डोटी राज्य की स्थापना की। वे अंतिम संयुक्त कत्युरी  शासक के ही पुत्र थे। यानी मल्ल भी कत्यूरी ही थे। डोटी के राजा राइका नाम से जाने लगे थे। वे  रैनका महाराज नाम से भी जाने जाते थे। बाद में उन्होंने कर्णाली अंचल के खस मल्ल राजाओं को हराकर एक मजबूत राज स्थापित किया। जो कुमायुं के सीमावर्ती क्षेत्रों से लेकर अज के नेपाल के सुदूर पश्चिमांचल तक फैला हुआ था। उसे ही डोटी राज्य कहते थे। वास्तव में नेपाल का यह डोटी क्षेत्र प्राचीन काल में उत्तराखंड का एक राज्य था। 13वीं शताब्दी में कत्यूरी राज खत्म हो जाने के बाद डोटी क्षेत्र और उत्तराखंड का कुमायुं अलग-अलग हो गए। हालांकि सीमांत क्षेत्र कभी कुमायुं के चंद राजाओं,  तो कभी डोटी के मल्ल राजाओं के अधीन आता रहा। बैजनाथ कत्यूरी राज्य के टूटने के बाद यह कत्यूरियों के छोटे छोटे आठ राज्य बन गए। इनमें डोटी राज्य आठवां था।  बाकी सात राज्यों में बैजनाथ-कत्यूरी,  द्वारहाट, बारामंडल, अस्कोट, सिरा, सोरा और  सुइ यानी काली कुमायुं थे। कत्यूरी भी खस थे।

सूदूर पश्चिम की तरह आज के कर्णाली प्रांत के राजा भी खस थे। 1160  के दौरान  कर्णाली अंचल यानी दुल्लू के अशोक चल्ल और क्रंचल्ल ने भी कत्यूरी शासन पर हमले किए थे। बाद में कर्णाली क्षेत्र उन कत्यूरियों का शासन में था जो कि  राइका कहलाते लगे थे।  इसी तरह 11वीं से 13वीं शताब्दी के दौरान जुमला भी खस साम्राज्य का हिस्सा था। 13वीं शताब्दी के बाद, खास साम्राज्य भी ढह गया। कर्णाली- भेरी क्षेत्र में बाइस खस राज्य बन गए। जुमला का राज्य उनमें से एक था। नेपाल के संविधान के अनुसार खसों में  बाहुन यानी ब्राह्मण, क्षेत्री, ठकुरी, और सन्यासी लोग ही हैं। वहां खस दलितों को खस का दर्जा नहीं दिया गया है । खस-मल्ल राज्य तिब्बत के डारी प्रिफरेक्चर यानी  खारीप्रदेश में भी था। कर्णाली के मल्ल शासक  काठमांडू उपत्यका के मल्ल शासकों से अलग हैं। इसी जुमला क्षेत्र के घोड़े बहुत प्रसिद्ध हैं।

इस तरह सुदूर पश्चिम और कर्णाली तक का क्षेत्र उत्तराखंड के बहुत करीब रहा है। वहां की डोटीयाली और जुमाली भाषा का उत्तराखंड की कुमायुंनी भाषा से बहुत समानता है। दोनों क्षेत्रों के लोगों के कुल व ईष्ट देवता भी एक समान हैं, इसलिए इन दो प्रांतों के नेपाली काम की तलाश में उत्तराखंड  आते हैं।

उत्तराखंड में प्राचीन डोटी और जुमला राज्यों से आने वाले वे नेपाली अन्य नेपालियों ने कुछ भिन्न हैं। नेपाल के इन दोनों प्रांतों से आगे पूरब की ओर जाने पर वहां मगर व गुरुंग का क्षेत्र आता है। गंडकी पार नेवार बसे  हैं। यही नेपाल का प्राचीन समाज है। उत्तर में तमांग व शेरपा का क्षेत्र है। आगे और पूरब में राई, लिंबो व तमाग बसे हैं। नेपाल में अधिकतर आबादी खसों की है। तिब्बत से आए मंगोल मूल के भी हैं। तराई क्षेत्र में थारु व मधेशी बसे हैं।

इन सभी में सूदूर पश्चिम और कर्णाली सबसे अधिक पिछड़े हैं। गरीबी रेखा से सबसे ज्यादा लोग इन प्रांतों में हैं। यह इसलिए हुआ है कि नेपाल के अधिकतर नेता पूरबी नेपाल के हैं। ये आंकड़े आपको साफ बता देंगे कि नेपाल के खस बहुल क्षेत्रों  की  तरह से उपेक्षा की जा रही है। सूदूर पश्चिम में 45.61 प्रतिशतऔर कर्णाली में 31.68  प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा से नीचे हैं। जबकि नेपाल में राष्ट्रीय औसत 25.16 प्रतिशत है। ये दोनों प्रांतों के लोग बहुत गरीब हैं। आज भी बहुत दरिद्रता में जी रहे हैं। कई गांवों में पहुंचने के लिए पांच-छ दिन पैदल जाता पड़ता है। ये लोग खस हैं और नेपाल के संविधान के अनुसार सामान्य वर्ग में हैं। वहां के आदिवासी मानी गई जातियों को देश के किसी भी भाग में जमीन खरीदने का अधिकार मिला है। अब इसी अधिकार की आड़ में धनाड्य लोग इन खसों की जमीन को सस्ते दामों में खरीद रहे हैं। यानी वहां भी उत्तराखंड की तरह बाहरी लोग गांव और खेती की जमीन खरीद रहे हैं।  शिक्षा के मामले में भी ये प्रदेश सबसे नीचे पायदान में हैं। इन क्षेत्रों के सीधे-साधे लोग अब ईसाई मिशनरियों के निशाने पर भी हैं। इसलिए ये गरीब लोग उत्तराखंड चले आते हैं।

उत्तराखंड के लोगों से आग्रह है कि नेपाल की माओवादी सरकार की हरकतों को नजरंदाज करके सूदूर पश्चिम और कर्णाली से उत्तराखंड आए नेपालियों के प्रति उपेक्षा का भाव न रखे। उनकी मेहनत का सम्मान करते रहें। वे लोग उत्तराखंड को अपना घर मानकर ही यहां आते हैं। इन प्रांतों के लोग भी अब समझने लगे हैं कि नेपाल में उनके साथ उपेक्षा हो रही है, भेदभाव हो रहा है।

दोस्तों, यह है उत्तराखंड में कामकर रहे नेपालियों की गाथा। यह स्टोरी आपको कैसी लगी, अवश्य बताएं। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। इस वीडियो के टाइटल सांग को सुनना न भूलना। यह मेरा ही लिखा है। इसी चैनल में है। जै हिमालय-जै भारत।

 

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