उत्तराखंड को चाहिए डा. परमार, चामलिंग, पर्रिकर जैसे मुख्यमंत्री

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परिकल्पना- डा. हरीश चंद्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति /नयी दिल्ली

दोस्तों, इस बार आपके लिए उत्तराखंड की राजनीति के एक महत्वपूर्ण पहलू को लेकर आया हूं।   9 नवंबर 2000 को भारत के  27वें राज्य के रूप में अस्तित्व में आए इस हिमालयी राज्य को मुख्यमंत्री तो बहुत मिले, लेकिन एक भी ऐसा नहीं मिला, जो राजनीतिक व सार्वजनिक जीवन के मानदंडों पर जनमानस की अपेक्षा और आकांक्षाओं पर खरा उतर पाता। इस आंदोलन में भाग लेने वाली  हमारी पीढ़ी का एक ही प्रश्न है कि ऐसा क्यों हुआ कि उत्तराखंड को हिमाचल प्रदेश के  डा. यशवंत सिंह परमार, गोवा के मनोहर पर्रिकर, सिक्कम के चामलिंग और त्रिपुरा के माणिक सरकार जैसा एक भी मुख्यमंत्री क्यों नहीं मिल पाया। उत्तराखंड का दुर्भाग्य यह है कि वहां राजनीति में प्रवेश करते ही छुटभैया से लेकर बड़े नेताओं को गनर चाहिए। लालबत्ती चाहिए। बस यही है उत्तराखंड के नेताओं का विजन और मिशन।

 

डा  यशवंत सिंह परमार –

अब सबसे पहले मैं इन नेताओं के बारे में जानकारी दे रहा हूं जिनका मैंने उल्लेख किया है। उसके बाद उत्तराखंड के नेताओं की बात करूंगा। सबसे पहले हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री डा  यशवंत सिंह परमार की बात करते हैं।  उन्हें ‘हिमाचल निर्माता’ के नाम से जाना जाता है। सिरमौर के एक छोटे से गांव चनालग में वर्ष 1906 में उनका जन्म हुआ। उन्होंने लखनऊ से एलएलबी और समाज शास्त्र में पीएचडी की। वे स्वतंत्रता आंदोलन में भी शामिल रहे। डा. परमार सिरमौर रियासत में 11 साल तक सब जज और मजिस्ट्रेट और न्यायधीश  भी रहे।  हिमाचल की रियासतों का भारत में विलय के लिए संघर्ष किया। परमार के प्रयासों से ही 15 अप्रैल, 1948 को 30 रियासतों का विलय हुआ और हिमाचल प्रदेश अस्तित्व में आया। बाद में पंजाब के पहाड़ी क्षेत्रों को भी पंजाब में मिलाया गया।  25 जनवरी, 1971 को हिमाचल  प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला। डा. परमार 1963 से 24 जनवरी, 1977 तक हिमाचल के मुख्यमंत्री रहे। यह डा. परमार की ही दूरदर्शिता थी कि उन्होंने शुरू में ही भांप लिया था कि यदि अभी से अंकुश न लगाया गया तो मैदानी राज्यों के धनाढय लोग हिमाचल के भोले-भाले लोगों से उनकी जमीनें खरीदकर उन्हें भूमिहीन बना देंगे। डा. परमार यही सोचकर हिमाचल प्रदेश के लिए कठोर भूमि कानून लाए थे। इससे हिमाचल प्रदेश में गांव और खेती की जमीन की खरीद-फरोख्त पर लगाम लगा दी गई।

डा. परमार में आत्मसम्मान इस कदर था कि उन्होंने  तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के एक संदेश से ही मुख्यमंत्री पद छोड़ दिया था और इस्तीफा देकर हिमाचल पथ परिवहन निगम की बस से अपने गांव चले गए। डा. परमार की ईमानदारी, उनकी सादगी व अपने प्रदेश के प्रति समर्पण का ही नतीजा था कि उन्हें आज भी लोग याद करते हैं। उनके निधन के समय उनके बैंक खाते में मात्र  563 रुपए 30 पैसे ही थे।  उन्होंने कोई कोठी-बंगला नहीं बनाया, कोई आलीशान गाडिय़ां नहीं खरीदी और उनके जीवन काल में उनके परिवार का कोई सदस्य राजनीति में नहीं था। डा. परमार इतने सादगी पसंद  थे कि जब वे मुख्यमंत्री नहीं थे तो सरकारी बस में ही सफर किया करते थे।

वे खुद को पहाड़ी कहलवाने में उन्हें गर्व महसूस करते थे। परमार संपन्न परिवार से होने के बावजूद और मुख्यमंत्री भी रहे। फिर भी उनका पहरावा व खान-पान बिलकुल सादा था। आज भी चूड़ीदार पाजामा, वास्केट उनकी पहचान है। बतौर मुख्यमंत्री भी जब वह ग्रामीण क्षेत्रों में जाते थे तो आम लोगों के साथ जमीन पर बैठकर भोजन करते, जबकि खाने में उन्हें पहाड़ी व्यंजन ही अधिक पसंद थे। उन्होंने पैदल ही लगभग पूरे हिमाचल प्रदेश की यात्रा की थी।

 

पवन कुमार चामलिंग —

इस कड़ी में पूर्वोत्तर के राज्य सिक्किम को भारत का पहला जैविक प्रदेश बनाने   पवन कुमार चामलिंग भी बेहतरीन मुख्यमंत्री रहे हैं। उनके प्रयासों से ही सिक्किम बागवानी में  भी अग्रणी पंक्ति में है। सिक्किम में एक परिवार-एक नौकरी योजना भी उनकी देन है।  इसके तहत  राज्य के प्रत्येक परिवार के एक सदस्य को नौकरी देने का प्रावधान है । इसमें गार्ड, माली, अस्पतालों में वार्ड अटेंडेंट, अन्य स्वास्थ्य सुविधाओं, ग्राम पुलिस गार्ड और सहायक ग्राम पुस्तकालयाध्यक्ष समेत 26 विभिन्न पदों के तहत नौकरियों सिक्किमवासियों को दी जाती रही है। यही कारण है कि उनको सिक्किम वासियों का भरपूर प्यार भी मिला। भारत के इतिहास में किसी भी राज्य में सबसे अधिक समय तक मुख्यमंत्री रहने का रिकार्ड अब चामलिंग के नाम  है। पहले यह रिकार्ड पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री ज्योति बसु के नाम था। वे 23 साल तक मुख्यमंत्री रह, जबकि चामलिंग 25 साल रहे।

वर्ष २००८ की बात होगी। भारत सरकार हम दो पत्रकारों को सिक्कम के ले गई थी। वहां मैंने लोगों  से चामलिंग के लगातार सत्ता में रहने का राज पूछा तो जबाव मिला था कि प्रदेश के प्रत्येक परिवार को रोजगार दिया। जैबिक बागवानी पर जोर देने से लोगों की आमदनी बढ़ी है। तब मैं सोच रहा था कि यह कार्य उत्तराखंड में क्यों नहीं हो पा रहा है। बहरहाल,  सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट (एसडीएफ) के संस्थापक अध्यक्ष पवन चामलिंग दिसंबर 1994 में मुख्यमंत्री बने । चामलिंग ने 1973 में मात्र 22 वर्ष  की उम्र में राजनीति में प्रवेश किया। तब भारत के साथ सिक्किम साम्राज्य के विलय की बात कर रही थी। आज भले ही वे सत्ता में नहीं हैं लेकिन उनके योगदान को सभी याद करते हैं।

आपको यह बताना आवश्यक है कि भारत में  अकेला सिक्किम ही ऐसा राज्य है जहां सौ प्रतिशत जैविक खेती  हो रही है। यह कार्य चार साल पहले हो चुका है। यह इसलिए हो पाया कि इसके लिए सपना देखा गया, दूरदृष्टि अपनाई गई और   ईमानदार कोशिश की गई। वर्ष 2003 में तब के मुख्यमंत्री पवन चामलिंग की सरकार ने इसका ऐलान किया। इस सपने को साकार करने में  सिक्किम लगभग 13 वर्ष लगे। आज दिल्ली में भी  जैविक अदरक, हल्दी, इलायची, फूल, किवी, मक्का, बेबी कॉर्न तथा गैर मौसमी सब्जियां सिक्किम से  भी आती हैं।

प्रश्न यह है कि यह काम उत्तराखंड में क्यों नहीं हो सकता है?

 

मनोहर पर्रिकर–

एक और मुख्यमंत्री का उल्लेख करना आवश्यक है। हालांकि आज वे हमारे बीच नहीं हैं। वे हैं गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक से गोवा के मुख्यमंत्री आर देश के रक्षा मंत्री पद तक पहुंचे पर्रिकर हमेशा ही सामान्य जन की तरह रहे। उनकी छवि एक सीधे सादे, सामान्य व्यक्ति की रही। पर्रिकर के रक्षा मंत्री रहते हुए ही पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में भारतीय सेना ने सर्जिकल स्ट्राइक किया था। पर्रिकर ने लंबे समय तक कांग्रेस का गढ़ रहे गोवा में भाजपा का प्रभाव बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। 13 दिसंबर 1955 को उत्तरी गोवा के मापुसा में जन्मे मनोहर पर्रिकर की स्कूली शिक्षा गोवा में ही मारगाओ से हुई। इसके बाद उन्होंने 1978 में  आईआईटी बॉम्बे से इंजीनियरिंग की।    पर्रिकर ने चुनावी राजनीति में 1994 में प्रवेश किया।  कैंसर के कारण  पर्रिकर का 63 साल की उम्र में निधन हो गया था। गोवा के चार बार मुख्यमंत्री रहे मनोहर पर्रिकर की छवि हमेशा सादगी भरी रही।

जब वे मुख्यमंत्री थे तो भाजपा का एक कार्यक्रम गोवा में हुआ था। उसे कवर करने के लिए मैं भी गया था। जिस होटल में हम रुके थे वहां  मुख्यमंत्री पर्रिकर  दिल्ली के मीडिया से मिलने आए। वे खुद स्कूटर चला कर आए थे। वे पणजी में स्थानीय बाजारों से खरीदारी के लिए स्कूटर का इस्तेमाल करते थे। उन्हें साइकिल चलाना भी बेहद पसंद था। एक बार वे पुणे में एक शादी के कार्यक्रम में कतार में खड़े नजर आए थे। मनोहर पर्रिकर को 16 से 18 घंटे काम करने की आदत थी। उन्होंने मुख्यमंत्री रहते हुए कई साल तक मुख्यमंत्री आवास का प्रयोग नहीं किया। वे खुद के घर में ही रहते थे। पर्रिकर कभी भी सूट-बूट या गलाबंद जैसी पोशाकों में कम ही देखा गया।वे अक्सर हॉफ शर्ट और चप्पल में नजर आते थे। कहा जाता है कि पर्रिकर को एक बार फाइव स्टार होटल के बाहर रोक दिया गया था, क्योंकि वे चप्पल पहनकर वहां गए थे। कई बार विधानसभा जाते समय सरकारी गाड़ी को छोड़कर स्कूटर का प्रयोग करते थे। पर्रिकर विमान में हमेशा ही इकोनॉमी क्लास में यात्रा करते थे। उन्हें आम लोगों की तरह अपना सामान लिए यात्रियों की लाइन में खड़े देखा जा सकता था। वे मोबाइल और टेलीफोन के बिल का भुगतान अपनी जेब से करते थे।

माणिक सरकार-

इसी तरह पूर्वोत्तर राज्य त्रिपुरा के चार बार मुख्यमंत्री रहे माणिक सरकार भी सादगी वाले नेता माना जाते हैं। वामपंथी नेता माणिक सरकार देश के सबसे गरीब और साफ-सुथरी छवि वाले मुख्यमंत्री माने जाते रहे हैं। मुख्यमंत्री रहते हुए भी माणिक  और उनकी पत्नी आम लोगों की तरह सामान्य जीवन जीते  रहे। वे ऐसे मुख्यमंत्री थे जिनके पास निजी कार या घर नहीं  था। वे  अपने पैतृक घर और बहुत छोटे घर में रहकर मुख्यमंत्री का काम करते रहे। मुख्यमंत्री के रूप में प्राप्त होने वाले पूरे वेतन को दान करते थे और बदले में उन्‍हें 10 हजार रुपये प्रति माह भत्ता मिलता था।वैसे वामदलों के सभी सांसदों व विधायकों में अपना वेतन पार्टी कोष में जमा कराने की प्रथा रही है। माणिक मार्च 1998 से मार्च 2018 तक त्रिपुरा के मुख्यमंत्री रहे। वे माकपा यानी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के पोलित ब्यूरो सदस्य हैं। माणिक का जन्म मध्य वर्ग के परिवार में हुआ था। उनके पिता ने दर्जी के रूप में काम किया, जबकि उनकी मां सरकारी कर्मचारी थीं। माणिक अपने कॉलेज के दिनों में छात्र आंदोलनों में सक्रिय हो गए, और 1968 में माकपा के सदस्य बने।

दोस्तों, भारत में इस तरह के बहुत से नेता और मुख्यमंत्री रहे हैं जो हमें प्रेरणा देते रहे हैं। यह उत्तराखंड का दुर्भाग्य है कि उसे डा. परमार, पवन कुमार चामलिंग, मनोहर पर्रिकर व माणिक सरकार जैसे मुख्यमंत्री नहीं मिले। दूसरी ओर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रहे एनडी तिवारी के आंध्र प्रदेश राज्यपाल रहते हुए वहां के राजनिवास कांड से लज्जा से सिर झुक जाता है। नौ नवंबर 2000 को जब उत्‍तराखंड देश के 27वें राज्‍य के रूप में अस्तित्व में आया। तब उत्‍तर प्रदेश विधानसभा और विधान परिषद में उत्तराखंड  क्षेत्र का प्रतिनिधित्‍व करने वाले 30 सदस्‍यों को लेकर अंतरिम विधानसभा का गठन किया गया। पहली अंतरिम सरकार के मुख्यमंत्री भाजपा नेता हरियाणा मूल के बुजुर्ग नेता नित्‍यानंद स्‍वामी बने। उनके बाद भगत सिंह कोश्‍यारी। विधानसभा के पहले चुनाव के बाद कांग्रेस के नारायण दत्‍त तिवारी बने। फिर भाजपा के भुवन चंद्र खंडूडी व रमेश पोखरियाल निशंक व फिर खंडूड़ी बने।फिर कांग्रेस के विजय बहुगुणा और हरीश रावत। इसके बाद भाजपा के त्रिवेंद्र सिंह रावत व तीरथ सिंह रावत के बाद पुष्कर सिंह धामी मुख्यमंत्री बनाए गए हैं।

उत्तराखंड के ये सभी  मुख्यमंत्री मेरी इस रिपोर्ट में शामिल डा. परमार, चामलिंग, पर्रिकर व माणिक की तुलना में कहां ठहरते हैं, अभी आप समीक्षा कीजिए। मैं तो इन सभी मुख्यमंत्रियों के कामकाज का आकलन कर शीघ्र ही एक वीडियो अलग से बनाऊंगा।

मेरा मानना है कि यदि भाजपा स्वामी की बजाए केसी पंत को पहला मुख्यमंत्री बना लेती तो इस राज्य का चेहरा ही दूसरा होता। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के समय पंत ने योजना आयोग के उपाध्यक्ष के तौर पर बेहतरीन कार्य किया तब तक आप इस हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्रात्इब करना न भूलना। जै हिमालयी- जै भारत।

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