परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा
हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली
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राम बौराणी गढ़वाली साहित्य की अमर रचना है। जिसे लगभग डेढ़ सौ साल से गाया जा रहा है और नृत्य-नाटिका भी पेश की जाती है। यह एक विरह गीत है। यह लोकगाथा गीत परदेश गए पति के विरह की पीड़ा सह रही पहाड़ की नारी के दर्द व वेदना को बयां करती है। यह पहाड़ की नारी के संघर्ष की कहानी है, जो अंग्रेजों के समय से शुरू हुई। तब से वहां के युवक सेना में जाने लगे थे। रामी बौराणी यानी रामी बहूरानी। रामी एक महिला का नाम है, जबकि बौराणी- शब्द बहूरानी का गढ़वाली अपभ्रंश है। यह कथा गढ़वाल के किसी पाली गांव की है। वहां रामी नाम की युवती रहती थी। उसका पति बीरू सेना में था, लेकिन नौ साल से उसका कोई अता- पता नहीं था। रामी अपनी बूढ़ी सास के साथ रहती थी, जबकि उसके ससुर का देहान्त हो चुका था। रामी दुख व संघर्ष का जीवन जी रही थी। वह अपने पति बीरू के लौटने की नौ साल से बाट जोह रही थी। रामि अपने पति से बहुत प्रेम करती थी। रामी की बूढ़ी सास का भी यही हाल था, बुढ़ापे में बेटे के लापता होने की पीड़ा में दुखी थी। वे दोनों दुख भरे दिन काट रहे थे। रामी को विश्वास था कि उसका पति एक दिन अवश्य लौट आएगा।
नौ साल के बाद लौटने पर बीरू जोगी का भेष धारण कर गांव पहुंचा। उसने अपनी पत्नी के पतिव्रत की परीक्षा लेने की योजना बनाई। वैसे यह भी बहुत दुख की बात है कि हमेशा से ही नारी की ही परीक्षा ली गई। भगवान श्री राम ने भी माता सीता की ही परीक्षा ली थी। हालांकि कुछ लोग मानते हैं कि यह कहानी उत्तराखंड की महिलाओं के त्याग, समर्पण, स्त्रीत्व, सतीत्व व संघर्ष व दुख-पीड़ा का प्रतीक है।
बहरहाल, जोगी के भेष में गांव की ओर जाते हुए वीरू को रामी खेतों में काम करती हुए दिखाई दी। वह अलख निरंजन, अलख निरंजन कहता रामी के पास पहुंचता है और उससे उसका परिचय पूछता है ।
बाठ गोडाई क्या तेरो नौं च,
बोल बौराणी कख तेरो गौं च?
घाम दुपरि अब होइ ऐगे,
एकुलि नारि तू खेतों मां रैगे….
(जोगी -हे बहूरानी, तुम्हारा क्या नाम है? कौन सा गांव है? धूप तेज हो गई है, तुम अकेली खेत में क्यों हो?)
बटोई-जोगी ना पूछ मै कू,
केकु पूछदि क्या चैंद त्वै कू?
रौतू की बेटी छौं रामि नौ च
सेटु की ब्वारी छौं पालि गौं च।
मेरा स्वामी न मी छोड़ि घर,
निर्दयी ह्वे गैन मेई पर।
ज्यूंरा का घर नी जगा मैं कू
स्वामी विछोह होयूं च जैं कू।
(रामी- मैं रावतों की बेटी हूं और बहुत बड़े सेठ की बहू हूं। मैं पाली गांव में अपनी सास के साथ रहती हूं। मेरे ससुर का देहांत हो चुका है। मेरे पति कई सालों से परदेश में है और मैं अपने दिन उनकी याद में काट रही हूं।)
रामी थैं स्वामी की याद ऐगे,
हाथ कूटलि छूटण लैगे।
(रामी को पति की याद आने लगी थी।)
चल, रामि छैलु बैठि जौंला, आपणी खैर उखीमा लगौंला।
जो जोगी आपणा बाठ लाग,
मेरा शरीर ना लौगा आग।
(जोगी – क्यों उस निर्मोही के बारे में सोच कर दुखी हो रही है जिसने इतने सालों से तेरी खोज खबर नहीं ली और तो और ना उसे अपनी मां याद आई। रामी को साधु की बात पसंद नहीं आई । उसने उसे अनसुना कर दिया। वह अपना काम करने लगी। साधु ने फिर उसे टोकते हुये कहा – क्यों अपनी ये अमूल्य जवानी उस की याद में बर्बाद कर रही है। अब मै हूं, चलो पेड़ के नीचे बैठते हैं। चल बौराणी पेड़ की छांव में बैठ कर अपना मन हल्का करते हैं।
जोगी ह्वैकि भी आंखि नी खुली,
छैलु बैठलि तेरि दीदी -भूली।
देवतों को चौरों, माया को मैं भूखों छौं
परदेSSशि भौंरों, रंगिलो जोगि छों
सिन्दूर कि डब्बि, सिन्दूर कि डब्बि,
ग्यान ध्यान भुलि जौंलो, त्वै ने भूलो कब्बि
परदेशि भौंरों, रंगिलो जोगि छों
(रामी ने साधू से कहा- दूर हटो। जोगी होकर भी तेरी आंखें नहीं खुली। अपनी मां, बहन से कहो साथ बैठने के लिए। क्या तुझे मेरे सिर का ये सिंदूर और नाख की नथ नही दिखती एक औरत से किस तरह की बात कर रहा है। रामी ने गुस्से में कहा – तू जोगी है या ढोंगी जोगी है तू जा यहां से, आगे से यहां दिखा भी तो देख लेना। मैं पतिव्रता नारी हूं। मुझे कमजोर समझने की भूल मत करना। अब चुपचाप अपना रास्ता देख वरना मेरे मुंह से बहुत गन्दी गालियां सुनने को मिलेंगी।)
बौराणी गाली नी देणि भौत,
कख रैंद गौं को सयाणो रौत ।
(जोगी मुस्कुराते हुएबोला- – तुम तो नाराज हो गई। बौराणी क्या गाली देना रावतों को शोभा देता है।)
जोगीन गौं मा अलेक लाई,
भूको छौं भोजन दे वा माई।
(रामी का गुस्सा देखकर जोगी वहां से चला गया। वह गांव पहुंचा और अलख जगा कर वहां रामी की सास से भिक्षा मांगने लगा।)
अलख-निरंजन
कागज पत्री सबनां बांचे, करम नां बांचे कै ना
धर्म का सच्चा जग वाला ते, अमर जगत में ह्वै ना.
हो माता जोगि तै भिक्षा दे दे, तेरो सवाल बतालो।
( बीरू की बृद्ध मां कुछ अनाज निकाल कर जोगी को देने के लिए आई। जोगी नेकहा -माता जोगी को भिक्षा दे दे तेरा भला होगा और नौ साल से खोया हुआ तेरा बेटा घर लौट आएगा। यह सुनकर रामि की सास जोगी को अपने घर के अंदर ले गई। वहां साधु को आसन में बिठाते हुए कहा साधु बाबा आप बाहर क्या कह रहे कि तेरा बेटा घर लौट आयेगा। अब बताओ। इस पर जोगी ने मुस्कराते हुए कहा- हे माता भूखे पेट भजन ना होत, सुबह से भूखा हूं। पहले भोजन दो फिर बताऊंगा। )
बूढ़ी माई थैं दया ऐगे खेती। खतों से ब्वारी थें बुलाने लगे ।
ब्वारी तू झट कैकी घर ऐजा। घर मा भूखी जोगी चा एक।
सासू जी वैकु बुलाई रौल। ये जोगी लगीगे आज बोल।
ये जोगी को नी पकांदू रोटी । गाली दिन्य ये खोटी खोटी ।
ये पापी जोगी को आराम नी च।कैकूं आई तू हमारा बीच।
अपनी ब्वारी थैं समझा दे माई। भूखू छौं भात बणाणा जाओ।
रामी रस्वाडू सुलगाण लैगे। स्वामी की याद तैं आण लैगे।
(रामी की सास ने उसे तरंत घर आने को कहा। उसे जोगी के लिए भोजन बनाने को कहा। रामी को उसी जोगी को अपने घर के आंगन में बैठा देख कर गुस्सा आ गया।रामी ने कहा कि यह कपटी जोगी है। सास के कहने पर रामी ने भोजन बना लिया। उसकी सास ने मालू के पत्ते में रख कर खाना साधु को परोसा।)
मालू का पात मां धैरी भात । मैं तेरो भात नी लगां दू हाथ।
रामी का स्वामी की थाली मांज। त दे राटी मैं खौंलू आज।
खांदू छै जोगी त खाई लेदी, नी खांदू त जाई लेदी।
भतेरा जोगी झोलियां लीक। रोजाना घूमिकि न मिलदी भीक।
(जोगी ने कहा कि मालू के पत्ते में मैं खाना नहीं खाऊंगा। इस भात को तो हाथ भी नहीं लगाउंगा। अब मैं पत्तों में भोजन नहीं करूंगा। मुझे उसी थाली में भोजन दो जिस में रामि का पति भोजन करता था। यह सुनकर रामी अपना आपा खो बैठी। उसने कहा कि अब तो तू निर्लज्जता पर उतर आया है। मैं अपने पति की थाली में तुझे खाना क्यों दूंगी। तेरे जैसे जोगी हजारों देखे हैं। तू अपना झोला पकङ कर जाता है या मैं ही इन्हें उठा कर फेंक दूं। ऐसे कठोर वचन बोलते हुए उस पतिव्रता नारी ने सत् का स्मरण किया। रामी के सतीत्व की शक्ति से जोगी का पूरा शरीर बुरी तरह से कांपने लगा और उसके चेहरे पर पसीना छलक गया।
जोगी न आखिर भेद खोलि। बूढ़ी माई से इन बोलि।
मी छौं माता तुमारो जायो । आज नौ साल से गर आयो।
बेटा को माता भेंटण लैगि, रामी का मन दुविधा ह्वैगी।
सेयुं का सेर अब बीजी गैगी,गात को खैर अब धोण लैगी।
पतिव्रता नारी विस्मय ह्वैगी। स्वामी का चरण मा पड़ी गैगी।
( अंतत: जोगी ने भेद खोल दिया। वह अपनी ममां के चरणों में गिर पड़ा । उसने जोगी का चोला उतार कर कहा- मां। मुझे पहचानो, मैं तुम्हारा बेटा बीरू हूं। देखो मैं वापस आ गया हूं। वह अपनी पत्नी से बोला की रामी मुझे माफ कर दो मैंने तुम्हारे प्रेम और प्रतीक्षा की परीक्षा ली। तुम्हारे पतिव्रत, प्रेम और निष्ठा को दुनिया हमेशा याद रखेगी। बेटे को अप्रत्याशित तरीके से इतने सालों बाद अपने सामने देख कर मां हक्की-बक्की रह गई। सने बीरु कोअपने गले से लगा लिया था। रामी भी अपने पति को देखकर भौंचक रह गयी। उसकी खुशी का ठिकाना न रहा। आज उसकी वर्षों की तपस्या का फल मिल गया था। रामी ने एक सच्ची नारी के पतिव्रत, त्याग व समर्पण की एक अद्वितीय मिसाल कायम की थी।)
उत्तराखंड में इस लोकगीत पर नृत्य नाटिका व नाटक भी खेला जाता रहा है। हारमोनियम और ढोलक की थाप पर रामी-बौराणी की लोकगाथा सुनने का आनंद ही कुछ और है।
यह थी रामी बौराणी की गाथा का पहला भाग। दूसरे भाग में बताया जाएगा कि यहलोकगाथा किस रचनाकार की रचना है।
(इस लोकगाथा गीत के बारे में तो आप सभी ने बहुत सुना है, यह सत्य घटना किस कालखंड की है, इस महान कृति किसने लिखी, यह सभी अगले लेख रामी बौराणी- भाग दो में विस्तार से दूंगा।अभी इस महान रचना के बारे में जानिए।)
(हिमालयीलोग यूट्यूब चैनल में इसे देख सकते हैं। जै हिमालय, जै भारत। मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश चंद्र लखेड़ा इस बार उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल की प्रसिद्ध लोकगाथा- राम बौराणी को लेकर जानकारी लेकर आया हूं। जब तक मैं इस लोकगीत के बारे में बताना शुरू करूं, तब तक इस हिमालयी लोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब अवश्य कर दीजिए। आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र के इतिहास, लोक, भाषा, संस्कृति, कला, संगीत, सरोकार आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं, सहयोगी यूट्यूब चैनल संपादकीय न्यूज। यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। इसके टाइटल सांग – हम पहाड़ा औंला– को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है। इसी चैनल में है। हमारे सहयोगी चैनल – संपादकीय न्यूज—को भी देखते रहना। अगली वीडियो का इंतजार कीजिए। तब तक जै हिमालय, जै भारत।)
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