अल्मोड़ा में चाय की दुकान में रचा कुमायुंनी गीत बन गया उत्तराखंड की पहचान

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परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

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बेडु पाको बारोंमासा (Bedu pako )गीत आज भारत के साथ ही संपूर्ण विश्व में जाना जाता है।  इस गीत की धुन सेना की कुमायुं रेजीमेंट का मार्चिंग गीत भी है। इस रेजीमेंट के बैंड की आधिकारिक धुन भी है। कुमायुं के इस लोकगीत को अल्मोड़ा के दो मित्रों ने इस गीत को नये रूप में ढाल कर लोकप्रियता के शिखर तक पहूंचा दिया। ये लोग थे महान रचनाधर्मी भारतीय थियेटर निर्देशक, नाटककार और संगीतकार मोहन उप्रेती  (Mohan Upreti) और उनके बाल सखा बृजेंद्र लाल साह।साह लेखन के साथ ही भारत सरकार के गीत व नाटक डिवीजन के उप निदेशक रहे। यह गीत  कुमायुं क्षेत्र में गाया जाता था, जिसे बृजेंद्र लाल साह ( Brijendra Lal Sah )  ने संवार कर लिख दिया और मोहन उप्रेती (Mohan Upreti) ने इसे नये संगीत के साथ सामने रख दिया। इसके बाद मोहन उप्रेती (Mohan Upreti)और उनकी पत्नी नईमा खान उप्रेती  (Neima Upreti) ने अपने पर्वतीय कला केंद्र के बैनर तले इस गीत को सात समंदर पार के देशों में गाकर  लोकप्रियता की ऊंचाइयों तक पहुंच दिया। नईमा (Naima Khan Upreti)और मोहन उप्रेती  (Mohan Upreti) का कुमायुंनी लोक संगीत के पुनरोद्धार, तथा  कुमायुंनी गाथाओं, गीतों और लोक परंपराओं के संरक्षण के प्रति उनके अतुलनीय प्रयासों के लिए के उनके महान योगदान  रहा है।  कुमायुंनी के महान व प्रसिद्ध गायक गोपाल बाबू गोस्वामी ने जब यह गीत गाया तो यह उत्तराखंड के लोगों की जुबान पर छा गया। प्रारंभ में मोहन उप्रेती  (Mohan Upreti)इस गीत को हुड़के की थाप के साथ प्रस्तुत करते थे। इस गीत को नईमा खान उप्रेती ने गाया था।

यह गीत पहली बार वर्ष १९५२ में राजकीय इंटर कॉलेज नैनीताल के मंच पर गाया गया था। दिल्ली में तीन मूर्ति भवन में आयोजित एक समारोह में भी यह गाया गया था। इस कारण यह गीत चर्चा में आता रहा, प्रसिद्धि पाता रहा। वर्ष 1955 में सोवियत संघ यानी आज के रुस के दो बडे नेता ख्रुश्चेव और बुल्गानिन भारत यात्रा पर आए थे  उनके सम्मान में तीनमूर्ति भवन में एक समारोह आयोजित किया गया था। अंतराष्ट्रीय स्तर के इस समारोह में पहली बार बेडु पाको (Bedu pako )बारामासा गाया गया।  तब समारोह के बाद प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इसे सर्वश्रेष्ठ लोकगीत चुनने के साथ ही इसके गायक मोहन उप्रेती को –बेडू पाको ब्वाय- नाम भी दे दिया था। यह गीत पं.  नेहरू का पंसदीदा लोकगीतों में भी शामिल हो गया था।   मोहन उप्रेती  (Mohan Upreti)और नईमा उप्रेती (Naima Khan Upreti) के गाए इस गीत की तब की प्रसिद्ध रिकॉर्डिंग कंपनी एचएमवी ने रिकार्ड भी किया था। इस गीत की रिकॉर्डिंग सभी मेहमानों को स्मारिका के रूप में भी दी गयी थीं। बाद में मोहन उप्रेती (Mohan Upreti) के संगठन पर्वतीय कला केंद्र ने इस गीत को देश- विदेश के कई मंचों पर भी गाया था। मोहन उप्रेती ने १९६८ में पर्वतीय कला केन्द्र की स्थापना की। उप्रेती कई वर्षों तक दिल्ली में स्थित राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी )में प्रोफेसर  भी रहे। १९८० में प्रकाशित राजुला मालूशाही लोकगाथा पर आधारित  नाटक उनका सबसे महत्वपूर्ण कार्य माना जाता है। उनके अन्य महत्वपूर्ण नाटक नंदा देवी जागर, सीता स्वयंवर और हरु हित शामिल हैं । कुमायुंनी ब्राह्मण परिवार में जन्में उप्रेती ने अल्मोड्रा के मुस्लिम परिवार में जन्मी नईमा से विवाह किया।

नईमा खान उप्रेती (Naima Khan Upreti)को उत्तराखंड रंगमंच की पहली महिला माना जाता है। उत्तराखंड अल्मोड़ा के कारखाना बाजार के प्रतिष्ठित मुस्लिम परिवार में जन्मी नईमा खान ने अपने पति  मोहन उप्रेती साथ मिल कर कुमायुं, उत्तराखंड के रंग मंच और  लोक गीतों को नई पहचान दिलाने के साथ ही राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी प्रतिष्ठा दिलाई। उन्होंने  1969 में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से अभिनय में 3 साल का डिप्लोमा तथा फ़िल्म एंड टेलीविजन इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया पुणे से भी डिप्लोमा किया था। उप्रेती जी के साथ लंबे समस से जुडे रहे तथा अब पर्वतीय कला केंद्र ,दिल्ली के अध्यक्ष सीएम पपनै के अनुसार दिल्ली के लालकिला परिसर में कुमायुं रेजीमेंट की एक यूनिट के कार्यक्रम में इस गीत  को प्रस्तुत किया गया था। रेजीमेंट के अफसरों को यह गीत इतना पसंद आया कि उन्होंने इसे अपना मार्चिंग गीत और अपने बैंड की धुन बनाने की सिफारिश कर दी। जिसे रेजीमेंट ने मान लिया गया। 

अब इस गीत के इतिहास पर दृष्टि डालते हैं। कहा जाता है कि अल्मोडा में एक चाय की दुकान पर एक शाम मोहन उप्रेती (Mohan Upreti) लगातार कुछ पंक्तियां गुनगुना रहे थे। तभी समय वहां से गुजर रहे अपने मित्र ब्रजेंद्र लाल साह ( Brijendra Lal Sah )  को बुलाकर मोहन उप्रेती  ने एक नई धुन में इस गीत की कुछ पंक्तियां सुनाईं।  उप्रेती (Mohan Upreti) ने यह गीत किसी और से सुना था। परंतु यह गीत तब बहुत ही धीमी धुन में गया जाता था। उप्रेती (Mohan Upreti) ने धुन को तेज गति देकर गाया। ब्रजेंद्र लाल शाह (B. M. Shah)  वहां कोई कागज के न होने पर पास में  सिगरेट के खाली पड़े डिब्बे को फाड़ा और चाय की दुकान के मालिक  उदेसिंह से उसके हिसाब लिखने वाली पेंसिल मांगी। इस तरह पेंसिल और सिगरेट के डिब्बे पर इस गीत को नये अंदाज में लिखने लगे। ब्रजेंद्र लाल साह ( Brijendra Lal Sah ) ने कुमायुंनी कवि चंद्रलाल वर्मा की कुछ न्यौलियों के साथ अपनी कुछ पंक्तियां इसमें जोड़ दीं। इस तरह अल्मोड़ा में चाय की दुकान में कुमायुंनी भाषा की एक श्रेष्ठतम रचना रची गई।

इस गीत में बेडू और काफल का उल्लेख हुआ है। ये दोनों ही उत्तराखंड के  प्रसिद्ध फल हैं। बेडू  अंजीर का एक रूप है। यह बारह महीने पकता रहता है। उत्तराखंड के अतिरिक्त यह जम्मू कश्मीर, हिमांचल प्रदेश, पंजाब  राज्यों में भी पाया जाता है. भारत के अतिरिक्त यह नेपाल, पाकिस्तान, अफगानिस्तान में भी पाया जाता है। काफल भी हिमालयी राज्यों में मिलता है। यह खट्टा-मीठा फल अप्रैल-मई के दौरान पकता है।

 

यह गीत इस तरह है—-

बेडु पाको बारो मासा, ओ नरण काफल पाको चैत मेरी छैला

बेडु पाको बारो मासा, ओ नरण काफल पाको चैत मेरी छैला – २

 

भुण भुण दीन आयो -२ नरण बुझ तेरी मैत मेरी छैला -२

बेडु पाको बारो मासा -२, ओ नरण काफल पाको चैत मेरी छैला – २

 

आप खांछे पन सुपारी -२, नरण मैं भी लूँ छ बीडी मेरी छैला -२

बेडु पाको बारो मासा -२, ओ नरण काफल पाको चैत मेरी छैला – २

 

अल्मोडा की नंदा देवी, नरण फुल छदुनी पात मेरी छैला

बेडु पाको बारो मासा -२, ओ नरण काफल पाको चैत मेरी छैला – २

 

त्यार खुटा मा कांटो बुड्या, नरणा मेरी खुटी पीडा मेरी छैला

बेडु पाको बारो मासा -२, ओ नरण काफल पाको चैत मेरी छैला – २

 

अल्मोडा को लल्ल बजार, नरणा लल्ल मटा की सीढी मेरी छैला

बेडु पाको बारो मासा -२, ओ नरण काफल पाको चैत मेरी छैला – २

 

 

 

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जै हिमालय, जै भारत। मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश चंद्र लखेड़ा इस बार प्रसिद्ध लोकगीत — बेडू पाको (Bedu pako ) बारमासा — के  बारे में जानकारी  दे रहा हुं कि कुमायुं अंचल का यह लोकगीत कैसे उत्तराखंड की पहचान बन गया।  जब तक मैं इस बारे में  जानकारी दूं, इस हिमालयी लोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब अवश्य कर दीजिए। आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र के इतिहास, लोक, भाषा, संस्कृति, कला, संगीत, सरोकार आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं, सहयोगी यूट्यूब चैनल संपादकीय न्यूज।

यह था  उत्तराखंड की पहचान बन चुके लोकगीत – बेडु पाको (bedu pako) —का इतिहास । यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना।नोटिफिकेशन की घंटी को भी बजा देना। इसके टाइटल सांग – हम पहाड़ा औंला– को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है।  इसी चैनल में है। हमारे सहयोगी चैनल – संपादकीय न्यूज—को भी देखते रहना। अगली वीडियो का इंतजार कीजिए। तब तक जै हिमालय, जै भारत।

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