बोकसाड़ विद्या के जानकार बोक्सा क्या सच में लोगों को बना लेते थे जानवर !

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बुक्सा जनजाति को लेकर है यह किवदंति

परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा (Dr Harish Chandra Lakhera)

हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली (Himalayilog)

www.himalayilog.com  / www.lakheraharish.com

बोक्सा उत्तराखंड की प्रमुख जनजाति है। उत्तराखंड में पांच प्रमख जनजातियां (Major Tribes Of Uttarakhand ) हैं। इनमें  जौनसारी, भोटिया, थारू, बोक्सा और राजी जनजाति शामिल हैं। बोक्सा या बुक्सा  (Boksa) नैनीताल, उधमसिंह नगर, पौड़ी एवं देहरादून में  रहते हैं। उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र में भी बोक्सा (Buksa)रहते हैं। थारु की तरह बोक्सा जनजाति के लोग भी खुद को राजपूतों के वंशज मानते हैं।  इनकी शारीरिक बनावट थारू जनजाति से मिलती- जुलती है। जिन क्षेत्रों में यह जनजाति बसी है उसे भोक्साड़ कहते हैं।

बोक्सा या बुक्सा जनजाति को लेकर कहा जाता है कि वे तांत्रिक विद्या में पारंगत होते हैं। जिसे बोकसाड़  विद्या कहा जाता था। किवंदति है कि बोकसाड़ जानने वाले तांत्रिक खुद भी बाघ या शेर बनने की क्षमता रखते थे। वे बाघ बनकर दूसरों के पशुओं को खा जाते थे और फिर मानव रूप में लौट आते थे। यह भी कहा जाता है कि वे अपने दुश्मनों को  बकरी, भेड़, गाय आदि पशु बनाकर रखते थे।हालाकि इसके कोई प्रमाण नहीं हैं। हालांकि यह तो है कि बुक्सा जनजाति में कई प्रकार के जादू-टोने और अंधविश्वास प्रचलित हैं।

कुमायुं केसरी बद्रीदत्त पांडे अपनी पुस्तक – कुमायुं का इतिहास- में बोकसाड़ को लेकर लिखते हैं कि – इनके बारे में किवदंति है कि ये लोग जादू- टोना जानते  हैं और मनुष्य को जानवर बनाकर रखते हैं। -बोगसाड़ की विद्या मारू- यह जगरिए कहते हैं। हालांकि आज के बोक्सा इस बारे में सुनकर हंसते हैं और कहते हैं कि वे पुरानी बातें नहीं जानते।बोक्सा खुद को पंवार बताते हैं। काशीपुर के बोक्सा मां बाला सुंदरी को मानते हैं।

बुक्सा जनजाति के नामकरण बुक्सा शब्द की उत्पत्ति के बारे में कई मत हैं। माना जाता है कि बोकं शब्द से बोक्सा बना। बाद में बुक्सा शब्द का सम्बन्ध इस जनजाति से जुड़ गया। यह भी कहा जाता है कि कुमायुं के बनबसा में बसने के कारण उनका नाम बोक्सा पड़ गया।  इस सम्बन्ध में सबसे प्राचीन उल्लेख  आइना-ए-अकबरी में मिलता है। जिसके तहत अकबर के शासन में तराई क्षेत्र के बुक्सार क्षेत्र यानी आज के ऊधमसिंह नगर के किलपुरी क्षेत्र का उल्लेख मिलता है। जिसे अकबर ने कुमायुं के राजा राजा रूद्रचन्द को पंजाब के  एक सफल युद्ध में अपनी वीरता प्रदशित करने पर  दिया गया था।  उत्तराखंड के नैनीताल, देहरादनू, पौड़ी गढ़वाल आदि जिलों के तराई क्षेत्र में  प्राचीन काल से ही बुक्सा जनजाति रहते आ रहे हैं। कुछ लोग मानते हैं कि बोक्साओं को यह नाम अंग्रेजों का दिया हुआ है। बोक्सा जनजाति मूलत: खानाबदोश जाति थी, जो जंगलों में जीवन व्यतीत किया करती थी। हिमाचल से देहरादून के रायवाला तक बोक्साओं को मेहर कहा जाता है, जबकि कुमायुं के तराई-भाबर में इन्हें बोक्सा कहा जाता है।  

बुक्सा अपने को राजपूतों (Rajput) का वंशज मानते हैं। इसे लेकर कई अवधारणाएं हैं। एक अवधारणा यह है कि बुक्सा की जड़ें उज्जैन  क्षेत्र की धारा नगरी से जुड़ी हैं। वहां कभी राजा उदय सिंह का शासन था। मुगलों ने उनके राज्य पर आक्रमण कर धारा नगरी को हथिया लिया  था। जिसके कारण राजा उदय सिंह के छोटे भाई राजा जगत सिंह अपनी रानियों और बच्चों तथा  सेवकों, महिलाओं और बुजुर्गों के साथ उत्तराखंड के तराई- बाबर क्षेत्र में आ गए। यहां उन लोगों ने बहुत संघर्ष किया । कई पीढ़ियों ने यहां कंदमूल फल खाए और मांसाहार कर जीवन यापन किया। एक मान्यता यह है कि महाराणा प्रताप के सैनिकों और वंशजों ने 16वीं सदी में मुगलों के आक्रमणों से पने धर्म, अपनी सभ्यता, रीति-रिवाजों की रक्षा के लिए देश के कई हिस्सों में पलायन किया। उनमें से राणाओं का एक बड़ा वर्ग तराई के जंगलों में चला आया। वे यहीं बस गए। उन लोगों ने यहां मीरा बारा राणा में बसे। बाद में जंगली जानवरों, लुटेरों तथा प्राकृतिक आपदाओं समेत विभिन्न कारणों से उन्होंने उस स्थान को छोड़ दिया और राणाओं  के नाम पर 12 गांव  बसा दिए।

बुक्सा जनजाति का एक  वर्ग स्वयं को राजस्थान के राजा जगतदेव का वंशज मानता है।  कहा जाता है कि राजा जगदेव और उनके सौतेले भाई राम रणचौर का आपस में विवाद हो गया था।  रणचौर  ने जगदीप को मारने का षड्यंत्र रच दिया। परंतु,  जगदेव को इस षड्यंत्र का पता चल गया था। इसके बाद  जगदीप अपने कुछ साथियों के साथ कुमायुं के बनबसा नामक स्थान पर चला आया और यहीं बस गया। जगदीप देव को बुक्सा लोग राजा विक्रमादित्य का वंशज मानते हैं । कुछ बुक्साओं का यह विश्वास है कि वे पंवार राजपूत हैं। माना जाता है कि जब राजा रणचौर और राजा गोपीचंद  धारा नगरी क्षेत्र में  यवनों ने युद्ध हार गए तो वे यहां आकर बस गए। माना जाता है कि राजा रणचौर की संतानें थारू और राजा गोपीचंद की संतानें बुक्सा हैं। तराई क्षेत्र में आने पर  यहां के प्राचीन निवासी मांझी से उनका युद्ध हुआ। इस युद्ध में  मांझी परास्त हुए तथा उन्होंने बुक्सा की अधीनता स्वीकार कर ली। माझी भी बुक्साओं में समा गए। यही कारण है कि बुक्साओं में मांझी गोत्र के  लोग भी मिलते हैं।

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि देश पर मुगलों के आक्रमण के समय चितौड़ के राजपूतों ने सुरक्षा के लिए अपनी पत्नियों व बच्चों को अपने सेवकों के साथ हिमालय की तराई क्षेत्र में शरण लेने के लिए भेज दिया था। बुक्सा जनजाति के लोग उन्हीं के वंशज हैं। यही कथा थारुओं को लेकर भी कही जाती है। बहरहाल, इतना तो सत्य है कि बुक्साओं का अतीत बहुत समृद्धशाली रहा है। हालांकि कुछ इतिहासकार उनको मंगोल मूल का बताते हैं, लेकिन इस मत को बुक्सा नकार देते हैं। वे खुद को राजपूतों का वंशज बताते हैं।

एक बात और। भारतीय मानव विज्ञान सर्वेक्षण विभाग ने कुछ साल पहले उत्तराखंड की पांच जनजातीय समुदायों में आपसी समानता जानने के लिए इनकी डीएनए जांच की। तब के समाचार पत्रों की रिपोर्ट साक्षी है कि भारतीय मानव विज्ञान सर्वेक्षण विभाग के देहरादून स्थित क्षेत्रीय मुख्यालय ने की डीएनए जांच में पता चला है कि जौनसारी, थारू व भोटिया जनजाति बोक्सा जनजाति की वंशज हैं। सिर्फ राजी ही ऐसी जनजाति है, जिसका विकास क्रम किसी अन्य जनजातीय समुदाय के रूप में नहीं मिला।

बुक्सा जनजाति में पारिवारिक स्तर पर स्त्रियों की भूमिका प्रमुख होती है। बुक्सा जनजाति में पिता के नाम पर वंश चलता है। परिवार का ज्येष्ठ पुरुष मुखिया होता है । उसके आदेश का परिवार के सभी लोगों को पालन करना पड़ता है। बदलते दौर में अब बुक्सा जनजाति में भी संयुक्त परिवारों का स्थान एकल परिवार लेते जा रहे हैं। इस जनजाति की महिलाओं में पर्दा प्रथा बिल्कुल नहीं है। बोक्सा जनजाति में ‘नमक-लोटा’ परंपरा है, जिसके तहत भरी पंचायत के मध्य में पानी से भरा लोटा रख दिया जाता है और बोक्सा जाति के लोग इस पानी से भरे लोटे में एक-एक चुटकी नमक डाल शपथ लेते हैं। उनका मानना है कि यदि वे शपथ पूर्ण नहीं करेंगे तो उनका शरीर पानी में नमक के समान घुल जाएगा। बोक्सा जनजाति मुख्यतः पांच  उपजातियों में बंटी है। जदुवंशी, पंवार,परतजा,  राजवंशी, तुनवार। इन सब उपजातियों में सगोत्रीय विवाह नहीं होता है। शादी,तलाक और आपसी झगडे बिरादरी की पंचायत तय करती थी।  दस-बीस गांवों के बीच इस प्रकार की एक बिरादरी पंचायत होती रही है। बुक्सा लोग कभी थारु जनजाति की तरह तराई की भूमि के मालिक थे। उनके पास खेती योग्य भूमि की कोई कमी नहीं थी परंतु अब वे भूमिहीन होते जा रहे हैं। इसके लिए वे खुद भी दोषी हैं। उनकी भूमि को भूमाफिया ने भी कब्जा लिया है। बुक्सा जनजाति  हिन्दू है परंतु अब  ईसाई मिशनरियों की नजर इन भोले-भाले लोगों पर भी लग गई है।

 

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दोस्तों मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश चंद्र लखेड़ा इस बार  उत्तराखंड के तराई क्षेत्र की बुक्सा जनजाति को लेकर जानकारी दे रहा हूं। बुक्सा को लेकर उत्तराखंड के पहाड़ों में प्रचलित है वे बोकसाड़ विद्या जानते थे और इस विद्या से लोगों को जानवर बना सकते थे। मैं जब तक आगे की जानकारी दूं,  तब तक इस हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब अवश्य कर दीजिए। आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र के इतिहास, लोक, भाषा, संस्कृति, कला, संगीत, सरोकार आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं,सहयोगी यूट्यूब चैनल संपादकीय न्यूज।

दोस्तों यह था  उत्तराखंड की जनजाति बोक्सा का इतिहास । यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। इसके टाइटल सांग – हम पहाड़ा औंला– को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है।  इसी चैनल में है।अगली वीडियो का इंतजार कीजिए। तब तक जै हिमालय, जै भारत।

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