चक्रवर्ती सन्यासी जगद्गुरु आदि शंकराचार्य : भरतखंड को एकसूत्र में बांध गया वह नंबूदरी ब्राह्मण

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केदारेश्वर में चिरविश्राम कर रहे हैं आदि शंकराचार्य

परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

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जगद्गुरु आदि शंकराचार्य को भगवान भोलेनाथ शिव का अवतार माना जाता है। उनका इस धरा पर उस कालखंड में पदार्पण हुआ, जब सनातन धर्म भारत भूमि में लगातार क्षीण होता जा रहा था। उस कालखंड में सनातन धर्म यानी हिंदू धर्म को पुनर्स्थापित करने के लिए आदि शंकराचार्य ने संपूर्ण भरतखंड की यात्रा  की। इसे  ‘शंकर दिग्विजय यात्रा’ कहा जाता है। इस यात्रा में वे सफल रहे और भारत को एकता के सूत्र में जोड़ गए। यह महान कार्य उन्होंने मात्र 32 साल के छोटे से जीवन काल में कर दिखाया और फिर केदारेश्वर धाम में ब्रह्मलीन होकर चिर विश्राम कर रहे हैं।

आदि शंकर की दिग्विजय यात्रा कोई युद्ध यात्रा नहीं थी, एक ज्ञान यात्रा थी। शंकराचार्य  12 ज्योतिर्लिंगों, 18 शक्तिपीठों और चार विष्णुधामों की ऐसी तीर्थयात्रा पर निकले थे जो मिलकर भारत को एक करने का काम करती थी। आदि शंकर ने केरल से कश्मीर, पुरी से द्वारका, श्रृंगेरी से से  बद्रिकाश्रम, प्रयाग, काशी, असम से लेकर नेपाल तक लगभग पूरे भरतखंड की यात्राएं कीं। वेदों को आधार मानते हुए उन्होंने भरतखंड के विभिन्न क्षेत्रों की यात्रा की और वहां धर्म गुरुओं को तर्क और शास्त्रार्थ की चुनौती दी। शर्त यह होती थी कि हारने वाले को जीतने वाले का शिष्य बनना पड़ता था।  आदि शंकराचार्य को भारत में  पराजित करने वाला कोई न था।

आदि शंकराचार्य ने भारत की चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की थी। उनमें से उत्तर में हिमालय के  बदरीनाथ में ज्योतिर्मठ ,दक्षिण में कर्नाटक में शृंगेरी शारदा मठ, पूरब में उड़ीसा के पुरी में गोवर्धन मठ तथा पश्चिम  में गुजरात में द्वारका धाम में शारदा मठ की स्थापना की। इससे उन्होंने इस बड़े भू-भाग को एक सूत्र में पिरोने का काम किया। शंकर की इस दिग्विजय यात्रा से हिंदू धर्म फिर से लौट आया था। तब गुप्त साम्राज्य पराभव की ओर बढ़ रहा था। कन्नौज के शासक हर्षवर्धन की मृत्यु हो चुकी थी। मध्य भारत में राष्ट्रकूट उत्तर में प्रतिहार, पूर्व में पाल और दक्षिण में चालुक्य थे। इनमें आपस में लगातार संघर्ष हो रहे थे।  दक्षिण में मुस्लिम   भी पांव पसारने लगे थे। ऐसे दौर में शंकर ने लोगों में धामिर्क तौर पर भारत की अखंडता का भाव भर दिया था। भारत राष्ट्र के एकीकरण का जो कार्य आदि शंकराचार्य ने किया था वह कोई चक्रवर्ती सम्राट भी नहीं कर पाया। वास्तव में वे चक्रवर्ती दार्शनिक थे। उन्होने अद्वैत वेदान्त को ठोस आधार प्रदान किया। भगवद्गीता, उपनिषदों और वेदांतसूत्रों पर टीकाएं भी लिखीं।

आचार्य आदि शंकर को हिमालय, ज्योतिर्मठ बद्रिकाश्रम से विशेष लगाव था। उन्होंने सन्यास भी बदरिकाश्रम में लिया था।  उन्होंने उत्तराखंड की दो बार यात्रा की। जोशीमठ में चार मठों में से एक की स्थापना की और बद्रीनाथ धाम में मूर्ति की स्थापना भी की। टिहरी रियासत के मंत्री रहे हरिकृष्ण रतूड़ी की पुस्तक  – गढ़वाल का इतिहास – के अनुसार  आदि शंकर 11 वर्ष की उम्र में बदरिकाश्रम आ गए थे। वहां वे 5 साल रहे। माना जाता है कि आदि शंकर केदारखंड यानी गढ़देश में कार्तिकेयपुर नरेश ईष्टगण देव के समय बदरिकाश्रम में आए होंगे। नरेश ईष्टगण और उनका पुत्र ललितसूर देव वैदिक धर्मी नरेश थे। आदि शंकर के आने से  हिमालय से  भी बौद्ध धर्म गायब हो गया।

भारत के सांस्कृतिक  व धार्मिक तौर पर एकसूत्र में बांधने के बाद आदि शंकर ने केदारनाथ धाम में 820 ई में महासमाधि ले ली थी। केदारनाथ मंदिर के पास ही उनकी समाधि  है। 2013 की आपदा के समय यह क्षतिग्रस्त हो गई थी। अब केदारधाम के पुनर्निर्माण योजना के तहत उनकी प्रतिमा भी लगाई गई है। माना जाता है कि आदि शंकर ने उत्तराखंड में  केदारनाथ मंदिर एवं ज्योर्तिमठ का निर्माण कराया था। मान्‍यता है कि यह पवित्र मंदिर पांडवों ने बनाया था । उन्होंने बदरीनाथ धाम में भगवान विष्णु की प्रतिमा शालिग्राम को भी स्थापित किया था। बौद्धों ने इसे अलकनंदा नदी की नारद कुण्ड में फेंक दिया था। आदि शंकर ने उसे कुंड से निकालकर मंदिर में स्थापित किया था। बद्रीनाथ मंदिर के रावल  आदि शंकर के कुल के ब्राह्मण ही होते हैं। बदरीनाथ धाम में मुख्य पुजारी को रावल कहा जाता हैं। इस धाम में पूजा अर्चना में गढ़वाल के स्थानीय डिमरी ब्राह्मण सहायक के तौर पर सहयोग करते हैं।  डिमरी भी मूल रूप से दक्षिण भारतीय ही हैं और आदि शंकरके साथ ही सहायक अर्चक के तौर पर आए थे। वे कर्णप्रयाग के पास डिम्मर गांव मेंबस गए और  डिमरी कहलाए। बद्रीनाथ धाम  में भोग बनाने का अधिकार इन डिमरी पंडितों को ही होता है। आदि शंकराचार्य ने भारत को सांस्कृतिक और आध्यात्मिक रूप से एकता के सूत्र में पिरोने की जो व्यवस्था की थी वह आज भी जारी है। इसके तहत उत्तर भारत के हिमालय में स्थित बदरीनाथ धाम में दक्षिण का पुजारी और दक्षिण भारत के मंदिर में उत्तर का पुजारी होता है। इसी तरह  पूर्वी भारत के मंदिर में पश्चिम और पश्चिम भारत के मंदिर में पूर्वी भारत का ब्राह्मण पुजारी होता है।

आदि शंकर नेपाल भी गए और काठमांडू स्थित पशुपतिनाथ धाम की प्रतिष्ठा को बहाल किया। तब नेपाल की काठमांडू घाटी में शिवदेव का राज था।  पशुपतिनाथ धाम में भी कुछ वर्षों तक दक्षिण भारत के ब्राह्मण पुजारी होते थे। सदियों से जारी इस परंपरा को कुछ मतिमंध लोगों ने ध्वस्त कर दिया।

 

आदि शंकर  जम्मू-कश्मीर भी गए। वहां शंकराचार्य मंदिर  भी है। यह मंदिर श्रीनगर शहर में डल झील के पास शंकराचार्य पर्वत पर  है। आदि शंकर ने कश्मीर  की शारदा पीठ की यात्रा कर वहां भी सनातन धर्म को प्रतिष्ठित किया। इसे 18 शक्ति पीठों में से एक माना जाता है। कहा जाता है कि सम्राट अशोक के शासनकाल में शारदा पीठ की स्थापना 237 ईसा पूर्व. में हुई थी। विद्या की अधिष्ठात्री  देवी को सरस्वती को समर्पित यह मंदिर अध्ययन का एक प्राचीन केंद्र था। कुछ मान्यताओं के अनुसार इस मंदिर का निर्माण पहली शताब्दी के प्रारंभ में कुषाणों के कालमें हुआ। कुछ कहते हैं कि राजा ललितादित्य ने बौद्ध धर्म के धार्मिक और राजनीतिक प्रभाव को बरकरार रखने के लिए शारदा पीठ का निर्माण किया था।  शारदा पीठ पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर  (PoK) में नियंत्रण रेखा (LoC) के पास नीलम नदी के तट पर स्थित है।

आदि शंकर का जन्म एक नंबूदरी ब्राह्मण परिवार में सन 788 ई में केरल के कालटी नामक गांव में हुआ था। यह स्थान आज के  एर्नाकुल्लम जिले में है। आज के काल खंड में कहें तो वह परिवार मलयाली ब्राह्मण का था। उनके पिता का नाम शिवगुरु था जो कि शास्त्रों में प्रवीण थे और माता का नाम आर्यम्बा  था। कई पुस्तकों में उनकी माता का नाम सुभद्रा या विशिष्टा बताया गया है।

 संतान के लिए शिवगुरु और आर्यम्बा ने कई अनुष्ठान किए।  उन्होंने भगवान् शिव से पुत्र प्राप्ति की प्रार्थना की और उनकी प्रार्थनाओं का उत्तर उन्हें वसंत ऋतु के शुभ महूर्त में एक बालक के रूप में मिला। भगवान शंकर ने नाम पर बालक का नाम शंकर रखा गया। कहा जाता है कि तब शिवगुरु को स्वप्न में एक दैवीय शक्ति ने दो विकल्प दिए  थे। एक – कम जीवनकाल वाला लेकिन विलक्षण प्रतिभा से संपन्न पुत्र। दूसरा – अधिक जीवनकाल वाला साधारण पुत्र। पिता ने पहला विकल्प चुना। उनका जन्मजात प्रतिभा से संपन्न पुत्र एक बार आठ साल की उम्र में ही देह छोड़ने चला था, लेकिन ईश्वर ने प्रसन्न होकर उसे आठ साल की उम्र और दे दी, ताकि वह वेदों के सत्य की खोज कर सके। इसके बाद उसकी प्रतिभा और कौशल को देखकर स्वयं वेदव्यास ने उसे और 16 साल की उम्र और वरदान में दी थी, ताकि वह अपने अर्जित ज्ञान को पूरे भारत वर्ष में फैला सके। द्वारिका मठस्थ जन्मपत्री के अनुसार आचार्य शंकर का समय युधिष्ठिराब्द- 2631 से 2663  माना गया है। यानी आदि शंकर का जन्म ई. पू. 508 में तथा महासमाधि 476 ई. पू. में हुई थी। जब वे तीन ही वर्ष के थे तब इनके पिता का देहांत हो गया। ये बड़े ही मेधावी तथा प्रतिभाशाली थे। छह वर्ष की अवस्था में ही ये प्रकांड पंडित हो गए थे और आठ वर्ष की अवस्था में इन्होंने संन्यास ग्रहण किया था।

आदि शंकर के संन्यास ग्रहण करने को लेकर एक कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि माता एकमात्र पुत्र को संन्यासी बनने की आज्ञा नहीं दे रही थी। तब एक दिन नदी किनारे एक मगरमच्छ ने शंकर का पैर पकड़ लिया।  तब शंकर ने मां से कहा कि मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दो, अन्यथा यह मगरमच्छ मुझे खा जाएगा। इससे भयभीत होकर माता ने तुरंत इन्हें संन्यासी होने की आज्ञा दे दी थी। जैसे ही माता ने आज्ञा दी, वैसे ही मगरमच्छ ने शंकर का पैर छोड़ दिया था। शंकर ने संन्यास मार्ग पर  आगे बढ़ने से पहले अपनी मां की ज़िम्मेदारी अपने परिजनों को को सौंप दी। मां को एक वचन भी दिया कि उनकी मृत्यु शैय्या पर उनकी देख भाल करने आएंगे व अंतिम-संस्कार भी अपने हाथों से करेंगे।

इसके बाद शंकर एक गुरु की तलाश में निकल पड़े।  शंकर हिमालय पर्वतों के बीच बद्रीनाथ के पास एक आश्रम में आचार्य गोविन्दपाद से मिले और उनसे दीक्षा लेकर सन्यासी बन गए। शंकर ने अद्वैत का दर्शन शास्त्र सीखा और बाद में इस ज्ञान का खूब प्रचार-प्रसार किया। इसके बाद  वे काशी  चले गए। आदि शंकराचार्य से जुड़ा एक किस्सा प्रचलित है। कहा जाता है कि काशी प्रवास के दौरान आदि शंकर एक शमशान से गुजर रहे थे। वहां उनका सामना चांडाल से हो गया।  तब के समाज में चांडाल अस्पृश्य माने जाते थे। आदि उसे सामने से हटने को कहा। इस पर चांडाल ने हाथजोड़ कर कहा- क्या हटाऊं, शरीर या आत्मा, आकार या निराकार।आदि शंकर को अपनी भूल का अहसास हुआ और वे चंडाल के सामने दंडवत हो गए।  चांडाल के दार्शनिक विचार से आदि शंकर इतने प्रभावित हुए कि उसे अपना गुरु बना लिया था। कहा जाता है कि असल में भगवान् शिव चंडाल का रूप धारण करके आए थे।

अपनी दिग्विजय यात्रा के दौरान शंकर महिष्मति गए । वहां उनका सामना महिष्मति के दरबार के मुख्य पंडित मंडन मिश्र से हुआ। मंडन मिश्र सन्यासियों से सख्त नफरत करते थे। शंकर  ने मंडन को एक वाद-विवाद की चुनौती दी । जिसमें कि मंडन की विद्वतापूर्ण पत्नी भारती निर्णायक बनीं। शर्त यह थी कि यदि शंकर पराजित होंगे तो विवाह करके एक गृहस्थ का जीवन अपना लेंगे और यदि मंडन पराजित होते हैं तो वे सन्यासी बन जाएंगे। उनके बीच में वाद- विवाद बहुत दिनों तक चलता रहा और आखिर में शंकर  विजयी घोषित किये गए।शर्त के अनुसार  शंकर से दीक्षा प्राप्त करके मंडन मिश्र सन्यासी हो गए और उनका नाम सुरेश्वर रखा गया। इस प्रकार शंकर ने विभिन्न समुदायों पर विजय प्राप्त करके अपने अद्वैत दर्शन-शास्त्र को स्थापित किया।

बाद में जब शंकर को अपनी मां के अस्वस्थ होने की सूचना मिली तो वो वचनानुसार तुरंत उन्हें मिलने गांव चले गए।  शंकर ने अपनी मां की अन्त्योष्टि-क्रिया करनी चाही तो ब्राह्मण समाज ने उसका विरोध किया।  क्योंकि प्रचलन के अनुसार सन्यासी बन जाने के पश्चात उसके सभी पारिवारिक संबंध समाप्त हो जाते हैं। परंतु शंकर ने  किसी की परवाह न करते हुए मां का अंतिम संस्कार किया।

आदि शंकर दूरद्रष्टा आचार्य थे। उन्होंने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण कर सांस्कृतिक रूप से इसे संगठित किया। अद्वैत वेदान्त का प्रचार और प्रसार करने के साथ ही कश्मीर की शाक्त तान्त्रिक परम्परा का भी संवर्धन किया। त्रिपुरसुन्दरी नामक ग्रन्थ से शाक्त परम्परा को संपूर्ण भारत  में प्रसारित करने का भी श्रेय आचार्य शंकर को ही जाता है।  आदि शंकर अद्वैत वेदान्त के आचार्य होने का साथ ही भारतीय ज्ञानपरम्परा के सभी विधाओं के आचार्य हैं । सम्पूर्ण भारत को एक सूत्र  में बांधने एवं संपूर्ण मानव सभ्यता के कल्याण हेतु नया दर्शन भी दिया।

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दोस्तों मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश चंद्र लखेड़ा यह वीडियो उन महान दार्शनिक, धर्मप्रवर्तक और  सन्यासी, जगद्गुरु आदि शंकराचार्य के चरणों में समर्पित कर रहा हूं, जो इस भारतभूमि को एकजुट करने का वह महान कार्य कर गए जो कि कोई चक्रवर्ती सम्राट भी नहीं कर पाए। जगद्गुरु आदि शंकराचार्य उत्तराखंड के केदारनाथ जी में चिरविश्राम कर रहे हैं। आदि शंकराचार्य  की गाथा को जब तक मैं आगे सुनाऊं, तब तक इस हिमालयी लोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब अवश्य कर दीजिए। आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र के इतिहास, लोक, भाषा, संस्कृति, कला, संगीत, सरोकार आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं, सहयोगी यूट्यूब चैनल संपादकीय न्यूज।

दोस्तों यह थी आदि शंकर की जीवन गाथा। यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। इसके टाइटल सांग – हम पहाड़ा औंला– को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है।  इसी चैनल में है।अगली वीडियो का इंतजार कीजिए। तब तक जै हिमालय, जै भारत।

 

 

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