हिमालय की ढलानों में क्यों चले आए पृथ्वीराज चाहमान के वंशज चौहान ?

0
1054

चौहानों को क्यों कहा गया असवाल, ननस्वाल, रावत, नेगी और रमोला

वीर चौहान राजपूतों की गाथा

परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

www.himalayilog.com  / www.lakheraharish.com

भारतीय इतिहास में चौहानों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यह वीर राजपूत जाति देश के विभिन्न क्षेत्रों की तरह हिमालयी राज्य उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में भी बड़ी संख्या में बसी है। उत्तराखंड में उप्पूगढ़ के वीर राजा कुफू चौहान और उत्तराखंड आंदोलन की शहीद बेलमती चौहान वे प्रख्यात नाम हैं जिन्हें प्रत्येक उत्तराखंडी जानता है। उत्तराखंड के गढ़वाल  यानी तब के गढ़देश में पंवार राजवंश से पहले से ही कई गढ़ों यानि किलों के अधिपति खसों के साथ ही मैदानों से गए राजपूत भी थे। इनमें चौहान भी शामिल थे। गढ़वाल में चौहानों के गढ़ों में उप्पू गढ़,  रमोला गढ़, रतन गढ़ आदि प्रमुख हैं। कुमायुं में भी चौहान हैं। हिमाचल प्रदेश में भी चौहानों के छोटे- छोटे राज्य रहे हैं। हिमालयी क्षेत्र में पहले खसों का राज था। बाद में मैदानों से क्षत्रिय आए। माना जाता है कि 647 ई में सम्राट  हर्ष की मृत्यु के कुछ दशकों के बाद अनेक राजपूत राज्य राजस्थान और सिन्धु के मैदानों में उभरे ।  वे आपस में लड़ते थे और हारने वाले अपने साथियों के साथ हिमालय के पहाडी राज्यों में आश्रय लेते थे और फिर वहां वे छोटे छोटे राज्य बना लेते थे । हिमाचल प्रदेश में ऐसे राज्यों में कांगड़ा, नूरपुर, सुकेत, मंडी, कुतेहड, बिलासपुर, नालागढ़, क्योंथल, धामी कुनिहार, बुशहर, सिरमौर आदि थे । मैदानों में मुसलिम राज स्थापित हो जाने के बाद मैदानों ने बड़ी संख्या में  लोगों ने हिमालय की ढलानों में शरण ली थी।

 चौहान वंश यानी चाहमान वंश का उदय शाकंभरी के आसपास हुआ। ये राजपूत अपने को सूर्यवंशी क्षत्रीय कहते हैं। कहा जाता है कि वे प्रारंभ में प्रतिहार राजाओं  के सामंत थे। बाद में इस वंश के चाहमान नामक शक्तिशाली विजेता ने स्वतंत्र राज्य की स्थापना की और उसी के नाम से ये चाहमान वंशीय कहलाए। उत्तराखंड के इंसाइक्लोपीडिया डा. शिवप्रसाद डबराल चारण अपनी पुस्तक – उत्तराखंड के इतिहास भाग-चार,गढ़वाल का इतिहास में लिखते हैं कि संस्कृत अभिलेखों और ग्रंथों में चौहान राजवंश का नाम चाहमान मिलता है। हिंदी और राजस्थानी अभिलेखों तथा ग्रंथों में चाहुमान, चौहान चौहवाण तथा चूहान आदि नामों का प्रयोग मिलता है। 

चौहानों को लेकर चंदबरदाई कृत पृथ्वीराज रासो ग्रंथ में कहा गया है कि प्रतिहार,चालुक्य, परमार और चौहानों की उत्पत्ति वशिष्ठ, गौतम, अगस्त्य आदि ऋषियों की यज्ञ की रक्षा के लिए अग्नि कुंड से हुई। इस वंश के प्रारंभिक राजा वासुदेव और गूवक थे।  चौहान वंश अथवा चाहमान वंश के राजपूत शासकों ने वर्तमान राजस्थान, गुजरात एवं इसके समीपवर्ती क्षेत्रों पर 7वीं शताब्दी से लेकर 12वीं शताब्दी तक शासन किया। वे चरणमान  या चौहान कुल के सबसे प्रमुख शासक परिवार थे। चौहान वंश दिल्ली, अजमेर और रणथंभौर क्षेत्र में प्रभावशाली था। चौहान वंश ने उत्तरी भारत में और भारत के पश्चिमी राज्य गुजरात में कई स्थानों पर खुद को स्थापित किया था। विभिन्न लड़ाई जीतकर चौहानों ने ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारंभ में प्रतिहारों के प्रभुत्व से स्वयं को मुक्त कर लिया था। चौहानों का राज्य पृथ्वीराज चौहान के आधीन उत्तरी भारत में अग्रणी व शक्तिशाली राज्य बन गया था। पृथ्वीराज  को राय पिथौरा भी कहा जाता है। 1192 में तराइन के दूसरे युद्ध में मुहम्मद घोरी या गोरी ने पृथ्वीराज को हरा दिया और इसके साथ ही चौहान राज्य का पतन हो गया।

अब चौहानों के इतिहास पर  बात करते हैं।  चौहान वंश की उत्पत्ति के बारे में कई मत हैं।  पृथ्वीराज रासो के अनुसार परिहार, चालुक्य और परमार के समान चौहान भी अग्निवंशी है। मान्यता है कि ये चार कुल असुरों या राक्षसों के खिलाफ लड़ने के लिए माउंट आबू में एक अग्निकुंड से  उत्पन्न हुए। दंत कथाओं के अनुसार चौहान वंश की आबू पर्वत पर उत्पत्ति ऋषियों के किए गए यज्ञ के अग्निकुंड से हुई।  यह कथा इस तरह है कि किसी समय इस आबू पर्वत पर कुछ ऋषि- मुनि तपस्या कर रहे थे। दैत्यों उनको परेशान करते थे। वे मुनियों के तप और यज्ञ को भंग करने लगे। यह देखकर ब्राह्मणों ने दैत्यों को रोकने के लिए यज्ञा के लिए एक अग्निकुंड बनाया। लेकिन दैत्यों ने भयंकर आंधी चला दी। इससे चारों दिशाएं अंधकारपूर्ण हो गयीं। यज्ञ स्थान पर  रक्त, अस्थि और मांस की वर्षा होने लगी। इससे मुनि और ब्राह्मण बहुत घबराए।  अंत में मुनियों और ब्राह्मणों ने अग्नि कुंड को प्रज्जवलित किया और दैत्यों के विनाश के लिए महादेव से प्रार्थना की। उस प्रार्थना के बाद अग्नि कुंड से एक पुरुष निकला। परन्तु वह देखने में योद्धा नहीं मालूम होता था इसलिये ब्राह्मणों ने उसे द्वारपाल बनाकर वहीं पर बैठा दिया। उसका जो नाम रखा गया, उसका अर्थ पृथिहार अथवा परिहार होता है। उसके बाद दूसरा पुरुष निकला, उसका नाम चालुकू रखा गया। जो तीसरा पुरुष निकला, उसका नाम परमार रखा गया। वह दैत्यों से युद्ध करने गया, लेकिन वह पराजित हुआ। इसके बाद महादेव से फिर प्रार्थना की गयी। इस बार अग्नि कुंड से एक दीर्घकाय और उन्नत ललाट का पुरुष निकला। उसके सम्पूर्ण शरीर में युद्ध के वस्त्र थे। वह एक हाथ में धनुष और दूसरे में तलवार लिए था। उसका नाम चौहान रखा गया। चौहान को दैत्यों से लड़ने को भेजा गया तो उसने दैत्यों को पराजित किया। कुछ मारे गये और कुछ भाग गये। दैत्यों के सर्वनाश से मुनि और ब्राह्मण बहुत प्रसन्न हुए। उस चौहान के नाम से उसके वंश का नाम चौहान वंश चला और उसी वंश में पृथ्वीराज चौहान पैदा हुआ। चौहानों के वंश-वृक्ष से पता चलता है कि चौहानों का आदि पुरुष अनहिल नाम का था। इसी वंश में पृथ्वीराज चौहान हुआ, जो कि  अंतिम हिंदू सम्राट था। कुछ इतिहासकारों के अनुसार इस राजवंश के संस्थापक राजा वासुदेव चौहान थे। चौहानवंशीय लोग जयपुर के साम्भर तालाब के समीप पुष्कर प्रदेश और आमेर नगर में रहते थे। बाद में वे उत्तर भारत में फैलते चले गए।

अब उत्तराखंड के चौहानों की बात करते हैं। उत्तराखंड के इंसाइक्लोपीडिया डा. शिवप्रसाद डबराल चारण अपनी पुस्तक – उत्तराखंड के इतिहास भाग-चार,गढ़वाल के अनुसार चाहमान कब और किन परिस्थितियों में गढ़देश के गढों पर अधिकार करने में सफल हुए तथा पृथ्वीराज चौहान या उसके राज्यधिकारियों से उनका क्या संबंध था, यह जनश्रुतियों में कहीं नहीं मिलता है।  हिमाचल प्रदेश के धामी राज्य  के राणा परिवार की अनुश्रुति के अनुसार उस परिवार का मूल पुरुष प्रसिद्ध पृथ्वीराज चौहान का वंशज था।  दसवीं सदी के अंत में मोहम्मद घोरी के आक्रमण के समय उसे दिल्ली से भागकर अंबाला जिले के रायपुर नामक स्थान में शरण लेनी पड़ी थी।  वहां से वह धामी चला आया और बिलासपुर के राजा के  सामंत के रूप में उस पर देश पर शासन करने लगा।  संभवत गढ़देश के प्रमुख गढों पर महत्वकांक्षी चाहमानों ने लगभग ऐसी ही परिस्थितियों में अधिकार किया होगा। माना जाता है कि  13वीं सदी के गढ़ देश के गढ़पतियों में अधिकतर चाहमान वंश से संबंध रखने वाले थे। दिल्ली पर मुसलिम आक्रांता घोरी का कब्जा हो जाने के बाद चाहमानों ने हिमालय की ढलानों में शरण ली थी। चाहमानों की राजधानी राजपूताना के अजमेर में थी।शिवालिक और लघु हिमालय की निकली ढलानों में फैले गढ़देश के सलाण में आज भी  अजमेर नाम की पट्टियां हैं।  संभवत: चहमानों ने अपनी पुरानी राजधानी के नाम पर ये नाम रखा  था।

चारणों की ख्यातों से विदित होता है कि  आबू पर्वत या पुष्कर से उत्तर पश्चिमी भारत में फैल कर चाहमान अनेक शाखाओं में बंट गए थे । प्रत्येक शाखा ने अपने प्रदेश में अपनी शक्ति बढ़ाने का प्रयास किया। चाहमानों के स्थापित छोटे-बड़े राज्य अपना पृथक अस्तित्व बनाए रखने के लिए कटिबद्ध रहे । चाहमानों ने कोई ऐसा शक्तिशाली नरेश उत्पन्न नहीं किया जो उनकी बिखरी हुई समस्त शाखाओं को एक शासन के अंतर्गत लाकर शक्तिशाली चाहमान साम्राज्य की स्थापना कर पाता। गढ़देश में भी यही बात दिखाई देती है। गढ़देश के  दक्षिण सीमांत पर सपादलक्ष  की ढालों तथा  गढ़देश के भीतरी भागों में स्थित मंदाकिनी- उपत्यका,  पूर्वी पठार तथा पश्चिमी पठार के अनेक गढों पर चहमानों ने अधिकार कर लिया था। वे अनेक शाखाओं में बंट गए थे। किंतु उनमें ऐसा एक भी शक्तिशाली गढ़पति नहीं हुआ जो समस्त चहमानों को संगठित करके गढ़देश में एकछत्र साम्राज्य की स्थापना करता।

 अनुश्रुतियों से गढ़देश में चौहानों की लगभग एक दर्जन शाखाओं का पता चलता है। झिंकवाण, तुलसारा, मकरोला रावत, परसारा रावत, धम्मादा बिष्ट, असवाल, लोहवान नेगी, रमोला शिवालिक- अजमेर के चाहमान, मायापुर हाट यानी खैलपुर की चहमान, चांदपुर गढ़ के चाहमान, उपूगढ़ के चाहमान तथा कण्डारा गढ़ के दुगम। इनमें से कुछ तो केवल चहमान नाम से प्रसिद्ध हैं। परंतु कुछ जिन गांवों में बसे, उसी नाम से पुकारे गए। यानी ग्राम विशेष में बस जाने या अन्य कारणों से उनको दूसरे नामों से पुकारा जाने लगा। शिवालिक और अजमेर गढ़ में भी चाहमान थे। इसी तरह रतनगढ़ के चाहमान को धम्माणा बिष्ट कहा जाता है। ज्वालापुर के गढ़ में भी चाहमान थे। चाहमानों ने अलकनंदा के दोनों ओर के पठारों पर भी अधिकार कर लिया था। इसी तरह टिहरी के कंडारगढ़ को भी चाहमानों का गढ़ बताया जाता है।  गोपेश्वर मंदिर की दीवारों पर मिले शिलालेखों में चौहान नाम प्रयुक्त हुआ है। डा. डबराल के अनुसार निर्णयामृत नामक संस्कृत ग्रंथ में  एकचक्रा यानी चकरौता  के चाहमान राजवंश का बाहुबाण राजवंश के नाम से उल्लेख किया गया है। संभवत कवि ने लोकभाषा में चाहमान शब्द का संस्कृत रूप बाहुमाण माना है।

गढ़वाल के असवाल भी वास्तव में चौहान ही हैं। चौहानों में जो लोग घोड़े यानी अश्व रखते थे, वे कालांतर में असवाल कहलाने लगे। यह भी कहा जाता है कि बड़े भाई के पास घोड़ा रहता था, इसलिए उसे असवाल और छोटे भाई को ननस्वाल कहा जाने लगा। अश्वरोही होने के कारण हुए चाहमानों को अस्वाल कहा गया। चाहमान नरेशों को अपनी मुद्राओं पर भाला  लिए हुए अश्वरोही का चित्र अंकित करना अति प्रिय था। उनकी मुद्राओं पर एक ओर भाला लिए अश्वरोही और दूसरी ओर असावरी यानी अश्वरोही सामंतदेव  अंकित रहता था।   पवारों के अभ्युदय से पहले अलकनंदा के पूर्वी पठार और सलाण के बड़े भूभाग पर फैला हुआ था। उनके संबंध में कहा जाता था-

 आधो असवाल। आधो गढ़वाल।

अर्थात आधा गढ़वाल  असवालों का था। अब भी  अलकनंदा के पूर्वी पठार की एक पट्टी  असवालस्यूं कहलाती है। दरअसल, पंवारों के शासन के बाद पहले ने गढ़पति चौहान अब उनके सामंत बन गए थे। इसलिए आधे गढ़वाल के सामंत चौहान या असवाल ही थे। मोलाराम के अनुसार  चौहान  गढ़ नरेश पंवारों के बहादुर सेनापति रहे थे। गढ़काव्य में इनके बारे में उल्लेख मिलता है।

गढ़वाल के पश्चिमी पठार के तीन गढ़ों पर भी चाहमानों का अधिकार था। चाहमान  वंश की शाखा रमोला राजपूतों ने रमोली परगने के रमोल गढ़ और रैंका परगने के रैंका गढ़ पर भी अधिपत्य जमाया था।  इसी पठार पर चाहमानों का  एक और उपू गढ़ भी था।  उपू गढ़ अलकनंदा के दाहिने तट  पर श्रीनगर के पास तीन राज्य की उदयपुर पट्टी में एक ऊंचे टीले पर सुरक्षित स्थान पर बनाया गया था श्रीनगर के पार टिहरी राज्य की उदयपुर पट्टी में एक ऊंचे टीले पर था। उपू गढ़ तक पहुंचने के लिए अलकनंदा पर झूला पुल बनाया गया था संकट के समय झूले को काटकर पूर्व की ओर से आने वाले शत्रु का गढ़  में प्रवेश रोका जा सकता था। पंवार नरेश अजय पाल के समय उपू गढ़ का नरेश कुफू चौहान था। उसे पराजित कर अजय पाल ने इस महत्वपूर्ण  गढ़ पर अपना अधिकार कर लिया था। पूर्वी सीमांत के दो प्रसिद्ध  गढ़ों लोहवागढ़ तथा चांदपुर गढ़ पर चाहमानों का अधिकार रहा है। लोहवागढ़ के चाहमान अब लोभान नेगी कहलाते हैं। लोहबागढ़ के  चौहानों में दिलेबर सिंह और प्रमोद सिंह को प्रतापी बताया गया है । पूर्वी सीमांत पर सबसे महत्वपूर्ण चांदपुर गढ़ था। यह गढ़ पिंडर नदी के दाहिने तट पर एक ऊंचे टीले पर है। अभी इसके विध्वंस में बिखरे पड़े हैं।  

पंवारों से पहले इस गढ़ के नरेश भानुप्रताप  था। उसे भी कुछ इतिहासकार चाहमान वंश का बताते हैं। कहा जाता है कि  वह  दिल्ली के पृथ्वीराज चौहान का वंशज था। भानु प्रताप का कोई पुत्र नहीं था । उसने अपनी बड़ी पुत्री का विवाह कुमायुं नरेश के पुत्र राजपाल से तथा छोटी पुत्री का विवाह पंवार वंश की नींव रखने वाले कनकपाल से कर दिया था। भानुप्रताप ने कनकपाल को अपना राज्य का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। कहा जाता है कि कनकपाल धार नगरी के परमार वंश का राजकुमार था। कुछ इतिहासकार टिहरी के कंडारगढ़ का नरेश मंगल सिंह चांदपुर गढ़ी के राजा भानुप्रताप का पुत्र बताते हैं। इनके अलावा चौहान वंश के लोग अब रावत, बिष्ट, भंडारी, गुसाईं व नेगी आदि जित संज्ञानाम भी पाया जाता है । टिहरी रियासत के मंत्री रहे पंडित हरिकृष्ण रतूड़ी की पुस्तक -गढ़वाल का इतिहास में राजपूत जातियों के तहत चौहान जाति का विवरण भी दिया गया है। चह्वाण को लेकर कहा गया है कि वे मैनपुरी से आए और उपू गढ़ उनका ही था। इसके अलावा रमोला मैनपुरी  से आए थे। परसारा रावत ज्वालापुरी से आए और परसारा गांव में बसने से ये चौहान परसार रावत कहलाए। इसी तरह धम्मादा बिष्ट दिल्ली से आए । कुमायुं  केसरी बद्रीदत्त पांडे अपनी पुस्तक  कुमायुं का इतिहास में चौहानों के बारे में लिखते हैं बहनाल, रमोला,  भी बसन्वाल, खन्वाड़ी नेगी, कैड़ा, बसनाल आदि भी चौहान हैं । वास्तव में उत्तराखंड में नेगी, बिष्ट, भंडारी, रावत आदि परंपरागत पद या पदवी होती थीं।  इसलिए ये पद पाने वाले चौहान भी यह जाति संज्ञा नाम रखने लगे थे। वैसे बहुत से लोग हैं, जो कि अब भी चौहान ही लिखते हैं।

अंत में चौहानों की यह गाथा वीर कुफू चौहान की गाथा के बिना अधूरी है। इसलिए अब वीर कुफू चौहान की गाथा बताता हूं।  16वीं सदी में गढ़वाल 52 गढ़ों में  बंटा था। इनमें से एक गढ़ उप्पुगढ़ था। पंवार नरेश अजयपाल ने चांदपुर गढ़ के विस्तार के लिए गढ़वाल के अन्य 52 गढ़ों को जीतने का संकल्प लिया था। इस विजय यात्रा में अंतिम गढ़ उप्पु गढ़ रह गया था। उप्पुगढ़ के राजा कफ्फू चौहान ने अजयपाल के सामने आत्मसमर्पण करने से इंकार दिया। अजयपाल ने दीपावली के कुछ दिन पहले उप्पुगढ़ पर आक्रमण किया था,तब उपूगढ़ के लोग दिवाली की तैयारी कर रहे थे। अजयपाल ने रात में भागीरथी नदी के बांए तरफ रमोगढ़ की सीमा से उप्फुगढ़ पर हमला बोल दिया। कफू चौहान ने अजयपाल की सेना को उप्पुगढ़ की सीमा से  दूर अठूर जोगियाणा तक खदेड़ दिया था। इस बीच कफ्फू चौहान की मां और पत्नी को युद्ध भूमि से कफ्फू चौहान के वीरगति की झूठी सूचना मिली। इस दुख में दोनों ने जलती चिता में कूद कर जीवनलीला समाप्त कर दी। कहा जाता है कि अपनी मां और रानी की मौत से दुखी कफू चौहान ने अपने सिर के बाल काट  दिए थे। कहा जाता है कि कफू चौहान को वरदान प्राप्त था कि जब तक उसके सिर में बालों की जटा रहेगी, उसे कोई हरा नहीं पाएगा।  इस बीच युद्ध भूमि में राजा अजयपाल की सेना ने कफू चौहान और उसकी सेना को बंदी बना दिया।  अजयपाल ने अपने सैनिकों को आदेश दिया था कि कफू चौहान की गर्दन इस प्रकार काटी जाए कि धड़ से अलग होने के बाद सिर का हिस्सा उसके पैरो पर गिरे। परंतु कफू चौहान ने मुंह में रेत भर दी।  सैनिकों ने कफू का सिर काट तो दिया परंतु अजयपाल के पैरों में रेत ही गिरी और सिर का हिस्सा दूसरी ओर।  इस घटना से प्रभावित होकर अजयपाल ने भागीरथी नदी के किनारे कफू चौहान का ससम्मान अंतिम संस्कार कर दिया।

यह थी चाहमान वंश और वीर चौहानों की हिमालयी राज्यों में बसने की गाथा।


दोस्तों मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश चंद्र लखेड़ा इस बार दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चाहमान के वंशज चौहानों के हिमालय की ढलानों में आश्रय लेने की गाथा सुनाने  जा रहा हूं । जब तक मैं इस गाथा को शुरू करूं, तब तक इस हिमालयी लोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइबअवश्य कर दीजिए। आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र के इतिहास, लोक, भाषा, संस्कृति, कला, संगीत, सरोकार आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं, सहयोगी यूट्यूब चैनल संपादकीय न्यूज।

दोस्तों यह था चाहमान वंश और वीर चौहानों की हिमालयी राज्यों में बसने की गाथा।  यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। इसके टाइटल सांग – हम पहाड़ा औंला– को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है।  इसी चैनल में है।अगली वीडियो का इंतजार कीजिए। तब तक जै हिमालय, जै भारत।

———————- 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here