ढांकर को लेकर दादी-नानी से सुना कभी?
परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा
हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली
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ढांकर को लेकर बताने से पहाड़ के यात्रामार्ग व यातायात को लेकर बात कर लेते हैं। पहाड़ में आज यातायात के लिए गाड़ी है, कार है, मोटर साइकिल है, स्कूटर है। बड़े शहरों में रेल है। देहरादून, पंतनगर के लिए हवाई जहाज है। परंतु, एक सदी पहले तक ऐसा नहीं था। तब पहाड़ का जीवन इतना आसान न था। मैदानी क्षेत्रों में तो फिर भी उतार-चढ़ाव के रास्ते नहीं थी सिर्फ मैदान था, बैलगाड़ी थी। लेकिन हिमालय की ढलानों पर तो पैदल भी चलना बहुत कठिन था। धनवान लोगों के लिए खच्चर व घोड़े थे। कुछ लोग खच्चर, भेड़ व बकरियों की पीठ पर लाद कर सामान ढोते थे। परंतु आम लोगों को पैदल ही जाना पड़ता था। सिर पर रखकर बोझा ढोना पड़ता था। वहां पर रहने के लिए लोगों को कुछ न्यूनतम आवश्यकताएं भी थीं। उनको तन ढकने के लिए कपड़ा भी चाहिए था। नमक चाहिए था और गुड़ चाहिए था। क्योंकि यह सब पहाड़ में नहीं होता था। इसके अलावा और भी चीजें होती थी, जो कि पहाड़ में उपलब्ध न थीं। इसलिए उनको इस सब के लिए बहुत दूर जाना पड़ता था। पूरे हिमालयी क्षेत्र की यही कहानी रही है।
उस कालखंड में उत्तराखंड (Uttarakhand ) में पहाड़ी क्षेत्र समाप्त होने के बाद जो भी कस्बे थे, वहां सामान के लिए जाना पड़ता था। इनमें ऋषिकेश, हरिद्वार, कोटद्वार, रामनगर, काशीपुर, हल्द्वानी टकनपुर आदि प्रमुख थे। ये लोग उत्तराखंड के पहाड़ों में जो कुछ विशेष अन्न या अन्य सामान होता था, उसे मैदानों में बेचने के लिए अपने साथ लाते थे और उससे जो कुछ पैसा उनको मिलता था, उसके बदले साल भर के लिए अपने लिए आवश्यक सामान, विशेष तौर पर कपड़ा, गुड़ और नमक ले जाते थे। ये लोग शुभ दिन देखकर गांव से समूह में आते थे। इस समूह में कई लोग होते थे।
गढ़वाल में इनको ढाकरी कहते थे और इस यात्रा को ढांकर। ढांकर का अर्थ होता है क्रय –विक्रयक समूह। गांव के लोग सामूहिक रूप से अपने लिए आवश्यक वस्तु गुड़, कपड़ा व नमक आदि खरीदने के लिए शुभ दिन निकालकर कोटद्वार, कनखल, हरिद्वार, ऋषिकेश, हलद्वानी, काशीपुर, रामनगर टनकपुर आदि मंडियों-बाजारों में जाते थे। वहां अपने साथ पहाड़ की वस्तुएं ले जाकर उन्हें बेचकर अपने लिए आवाज आवश्यक वस्तुएं खरीदते थे। इस क्रेता- विक्रेता दल को ढांकर का झूंगा भी कहते थे । उदाहरण के तौर पर गढ़वाल के सलाण क्षेत्र के निवासी अपने सिर पर तथा उपरली पहाड़ियों के खड़वाल अपनी भेड़ बकरियों पर अपना सामान लाते थे।
प्रसिद्ध लेखक संतन सिंह नेगी अपनी पुस्तक – मध्य हिमालय का राजनीतिक व सांस्कृतिक इतिहास– में लिखते हैं कि निर्यात तथा आयात इस तरह होता था।कृषि सामग्री के रूप में गेहूं, चावल, मक्का, मंडुवा, मारसा ओगल, दालें, उड़द और भट्ट, तिल, सरसों, हल्दी, लालमिर्च, अदरक, तथा फलों में अखरोट, दाड़िम, केसर पोस्ता, भांग, अफीम निर्यात होता था। कुत्तों, घोड़ों, भेड़, बकरियों तथा गाय, बैल का भी विक्रय होता था। पहाड़ी दालचीनी, लाल जीरी, कपड़े तथा चमड़ा रंगने के लिए छालें, तथा जड़ें औषधियां, शहद, कस्तूरी, जंगली पशुओं की खाल, रिंगाल भोजपत्र, लकड़ी व हड्डियां बेची जाती थी। निर्मित वस्तु में ऊनी वस्त्र, रिंगाल य लकड़ी के बर्तन, लोहे की तलवार, तांबे की गागर, पहाड़ी कागज बेची जाती थी। खनिज पदार्थों में लोहा, तांबा, सेंधा नमक, सुहागा, शिलाजीत, सुवर्ण चूर्ण, सांखिया का भी विक्रय होता था। गढ़वाल में मैदान से जो वस्तुएं आयात की जाती थी, उन खाद्य पदार्थों में भेली, गुड़, शक्कर, विभिन्न मसाले, सुपारी, नारियल, सूखी मेवा तथा तंबाकू को लोग मंगाते थे। वस्त्रों में देसी और यूरोप से आए हुए रेशमी सूती व ऊनी कपड़ों के थान लिए जाते थे। नील रंग और साबुन भी लेते थे। धातुओं में लोहे व तांबे की बनी टिन की चादर, बर्तन, सीसा, चांदी और चांदी के रुपए लेती थी। श्रृंगार वस्तुओं में मूंगा, मोती, आभूषण, दर्पण व कांच की चीजें शामिल थीं। इसके साथ ही गोला- बारूद, देशी कागज, बंदूक स्याही, और गंधक लेते थे । श्रीनगर में नजीबाबाद से व्यापारी आते थे जो वर्षा ऋतु की समाप्ति पर श्रीनगर पहुंचते थे और लगभग आठ माह तक व्यापार करके वर्षा ऋतु प्रारंभ होने से पहले वापस चले जाते थे ।
मैदानी मंडियों के अलावा गढ़वाल और कुमायुं के बीच भी व्यापार होता था। इसके अलावा गढ़वाल के शासक पंवारों और कुमायुं के चंद नरेशों के शासनकाल में व्यापार तिब्बत, नेपाल और मैदानी भागों से में होता था। भोटांतिक क्षेत्र के निवासी तिब्बत से गुड़ और अन्न के बदले सेंधा नमक, चंवर गाय, सुहागा, औषधियां, सुवर्ण, चूर्ण घोड़े आदि लाते थे। इन लोगों का व्यापार भेड़ बकरियों और घोड़ों के माध्यम से संपन्न होता था। इन वस्तुओं का व्यापार मैदानी भागों से किया जाता था। इसके अतिरिक्त मैदानी क्षेत्र से लकड़ी, चरस, जड़ी-बूटी, रिंगाल, भेड़-बकरियों का व्यापार भी किया जाता था।
यातायात के लिए लोग पहले तो पैदल चलते थे। बाद में खच्चर रोड़ बनने लगीं। अंग्रेजों के आने के बाद मोटर मार्ग बने। इसके बाद लोगों की कठिनाइयां कम होने लगी थीं। अंग्रेज लेखक हार्डविक के अनुसार कोटद्वार से आमसौड़ होते हुए श्रीनगर 40 कोस दूर था। उसके उत्तर में बदरीनाथ तक का जाने के लिए 10 दिन का मार्ग था। यहां के लोग मुख्यत: अपना सामान भेड़- बकरी या खच्चरों से ले जाते थे।
कोटद्वार पूर्वी व दक्षिण गढ़वाल क्षेत्र का प्रमुख परिवहन और थोक व्यापार केंद्र रहा है। इसे ‘गढ़वाल का प्रवेशद्वार’ भी कहा जाता है। कोटद्वार से दुगड्डा और लैंसडौन होते हुए पौड़ी तथा श्रीनगर तक पहुंचा जा सकता था। यहां तक १८९७ रेलवे लाइन बन गई थी। १९०९ में कोटद्वार को लैंसडौन से जोड़ने वाली सड़क का निर्माण सम्पन्न हुआ। इसके बाद हालात बदलने लगे थे। कमोबेश यही हालात उत्तराखंड के अन्य क्षेत्रों के थे।
दोस्तों यह थी उत्तराखंड की ढांकर और ढांकरी का इतिहास ।
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दोस्तों मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश चंद्र लखेड़ा इस बार उत्तराखंड की ढांकर यात्रा और ढांकरी की जानकारी लेकर आया हूं। ढांकर को लेकर दादी-नानी से सुना कभी आपने ? चलिए अब मैं सुना देता ।जब तक मैं आगे बढूं, तब तक इस हिमालयी लोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइबअवश्य कर दीजिए। आप जानते ही हैं कि हिमालयी (Himalaya )क्षेत्र की संस्कृति, इतिहास, लोक, भाषा, सरोकारों आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं।
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