परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा
हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली
जै हिमालय, जै भारत। हिमालयीलोग के इस यूट्यूब चैनल में आपका स्वागत है।
मैं हूं जर्नलिस्ट डा. हरीश चंद्र लखेड़ा । आप सभी को होली की शुभकामनाएं। इस बार होली पर ही बात करूंगा। जब तक मैं आगे बढूं, तब तक आपसे अनुरोध है कि इस हिमालयी लोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करके नोटिफिकेशन की घंटी भी अवश्य दबा दीजिए, ताकि आपको नये वीडियो आने की जानकारी मिल जाए। वीडियो अच्छी लगे तो शेयर भी अवश्य कीजिएगा। आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र के इतिहास, लोक, भाषा, संस्कृति, कला, संगीत, धरोहर, सरोकार आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं। अपने सुझाव ई मेल कर सकते हैं।
(Holi in Uttarakhand, Nepal, Himachal, Garhwal, Kumaon)
होली का त्योहार आते ही पहाड़ की होली याद आने लग जाती है। मन बचपन में पहुंच जाता है। तब स्कूल की छुट्टियां होने का बेसब्री से इंतजार रहता और स्कूल बंद होते ही हम सभी बच्चे कई दिनों तक होली का त्योहार मनाते। ढोलक की थाप पर रात को गांव में घर-घर जाकर होली के गीत गाते थे। होली को हम होरी कहते थे। एक जोकर बनता और होरी का झंडा लेकर आगे-आगे चलता था। होरी गाने के बदले में हमें गुड़, चावल और दाल मिलती थी, कई लोग कुछ पैसा भी दे देते थे। होली के दिन नदी के पास चले जाते और जमकर मस्ती करते। होलिका दहन के बाद नदी में नहाते और पानी से खेलते। होली खेलते वक्त मिले दाल-चावल से खिचड़ी बनाकर खाते। शाम को क्रिकेट भी खेलते थे। तब रंग तो नहीं थे पर मन में उमंग थी। उत्तराखंड में होली को सामाजिक कार्यों से भी जोड़ा गया था। मसलन, किसी गांव में स्कूल की इमारत बनाने के लिए पैसा जुटाने या अन्य सामाजिक व सार्वजनिक कार्य के लिए संसाधन जुटाने का प्रयास भी होली के माध्यम से ही होता था। उस क्षेत्र के गांवों के युवकों की कई टोलियां लगभग एक माह पहले से दूर-दराज के क्षेत्रों में चली जाती थी और गांव- गांव, घर-घर होरी खेलती। उससे मिले पैसे का सदुपयोग स्कूल की इमारत बनाने या अन्य सार्वजनिक कार्य करने में किया जाता था। परंतु, अब सब कुछ बदल गया है। रंग पहाड़ भी पहुंच गये हैं लेकिन वह मस्ती गायब हो चुकी है। तब रंग नहीं थे, परंतु मन में बहुत उमंग रहती थी। आज रंग हैं परंतु वह उमंग गायब है। (Holi in Uttarakhand, Nepal, Himachal, Garhwal, Kumaon)
हिमालयी क्षेत्र में ब्रज क्षेत्र की होली का सबसे अधिक असर रहा है। आप जानते ही हैं की होली भारत वर्ष का एक प्राचीन धार्मिक त्योहार है। यह भारत भूल के सभी धर्मालंबियों का त्योहार है। भारत, नेपाल, के साथ ही यह दक्षिण एशिया के देशों में भी मनाया जाता है। सूरीनाम , गुयाना , त्रिनिदाद और टोबैगो , जमैका , दक्षिण अफ्रीका , मॉरीशस , फिजी , मलेशिया के साथ ही विश्वभर में बसे भारतीय उपमहाद्वीप के प्रवासी भी इसे बनाते हैं। प्यार, उमंग और रंगों के वसंत उत्सव के रूप में यह त्योहार अब तो यूरोप और उत्तरी अमेरिका भी पहुंच गया है । मैं आपको उत्तराखंड के गढ़वाल, कुमायुं, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, लद्दाख तथा नेपाल में इसे बनाने के बारे में बताऊंगा। ग्लोबलाइजेशन के दौर में नकली रंगों के बढ़ते प्रयोग से पहाड़ों की परंपरागत होली अब अपना अस्तित्व खोने लगी है। (Holi in Uttarakhand, Nepal, Himachal, Garhwal, Kumaon)
पहले होली के बारे में पौराणिक कथा जान लेते हैं। विष्णु पुराण के अनुसार राजा हिरण्यकश्यप को भगवान ब्रह्मा का वरदान था कि उसे कोई स्त्री या पुरुष उसे मार नहीं सकते थे।उसे दिन या रात में भी मारा नहीं जा सकता था। न जमीन पर, नआसमान पर। इस वरदान से वह अपने को भगवान मानने लगा था । कुछ समय बाद हिरण्यकश्यप के पुत्र का जन्म हुआ। वह विद्या अर्जन करते समय से ही भगवान विष्णु को अपना आराध्य मानकर उनकी पूजा अर्चना करने लगा था। हिरण्यकश्यप ने प्रहलाद को बहुत समझाय, परंतु उसने पिता की बात नहीं मानी। इससे क्रोधित होकर हिरण्यकश्यप ने प्रहलाद को मारने की योजना बनाई। परंतु उसके कई प्रयत्न विफल रहे। भगवान विष्णु की कृपा से प्रहलाद का बाल भी बांका नहीं कर पाया। हिरण्यकश्यप की एक बहन होलिका थी। उसे भी भगवान ब्रह्मा का वरदान मिला था कि अग्नि उसे छू भी नहीं पाएगी। होलिका ने अपने भाई सुझाव दिया कि फाल्गुन की पूर्णिमा को वह प्रहलाद को अग्नि में लेकर बैठ जाएगी। इससे प्रहलाद भश्म हो जाएगा। परन्तु उस होलिका की योजना विफल हो गई। भगवान विष्णु की कृपा से प्रहलाद को अग्नि स्पर्श भी नहीं कर पाई, जबकि होलिका का वरदान अभिशाप में बदल गया। वह खुद अग्नि में भस्म हो गई। इसके बाद भगवान विष्णु ने नरसिंह अवतार लेकर हिरण्यकश्यप का वध कर दिया था। तब से भगवान विष्णु के नरसिंह अवतार की पूजा अर्चना की जाती है। होलिका के दहन के साथ ही होली बनाई जाने लगी। यह त्योहार भी बुराई पर अच्छाई की जीत का संदेश देता है । फाल्गुन माह की पूर्णिमा के दिन होलिका दहन किया जाता है और उसके अगले दिन रंगों की होली खेली जाती है । (Holi in Uttarakhand, Nepal, Himachal, Garhwal, Kumaon)
संपूर्ण भारत की तरह उत्तराखंड में भी होली मनाई जाती है। यहां परंपरागत होली मनाने का तरीका कुछ अलग है। गढ़वाल में होली को होरी भी कहते हैं। यहां फाल्गुन की शुक्ल सप्तमी को होली का प्रथम वास्तविक दिन माना जाता है। इस दिन होलाष्टक शुरू होते हैं। मेलू वृक्ष की फूलों से लदी डाली को तोड़कर लाया जाता है। यह नाशपाती प्रजाति का पेड़ है। गांव के बाहर खेत में उस डाली को होलिका के प्रतीक रूप में धरती में रोप दिया जाता है। एक सफेद झंडे के रूप में प्रहृलाद को स्थापित किया जाता है। पूजा करके डाली में होलिका तथा झंडे में प्रहृलाद की प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है। उसके बाद होली विधिवत परारंभ हो जाती है। होली खेलने वाले होल्यार उसी झंडे को आगे कर गांव-गांव जाकर होली खेलते हैं । होली के गीत गाते हुए व नृत्य करते हुए उसके साथ यह सफेद झंडा रहता है। होली के होल्यारों की टोलियां बनाई जाती हैं। होलिका के स्थान से होल्यारों की टोलियां नर्तक ढोलक, बांसुरी और आजकल हारमोनियम लेकर आस- पड़ोस के गांवों में होली के गीत गाने के लिए जाते हैं। यहां बैठी होली गी केली जाती है। यानी घर के भीतर या आंगन में बैठक होली के गीत गाए जाते हैं। यहां के होगी गीत वास्तव में ब्रज के ही हैं, जिनका गढ़वालीकरण हो गया है। (Holi in Uttarakhand, Nepal, Himachal, Garhwal, Kumaon)
होली के होल्यार सफेद रंग का कुर्ता, चूड़ीदार व टोपी पहनते हैं।इनमें झंडा कपड़ने वाले को कई जगह जोकर भी कहा जाता है। वह इनसे भिन्न रंग बिरंगे कपड़े पहनता है। इनके हाथों में रूमाल भी होता है। सामान्य तौर पर ढोलक बजाने वाला मुख्य गायक होता है। वे घर-गण जाकर होरी के जीत गाते हैं। बदले में इन होल्यारों को लोग भेंट देते हैं। पहले इनको कई जगह बकरा या भेली आदि भी भेंट किया जाता था। यह होली लगभग एक माह तक बनाई जाती थी। छोटी होली के दिन से पहले होल्यार गांव लौट आते थे। फिर होलिका दहन होता था। अगले दिन होली मनाई जाती थी। (Holi in Uttarakhand, Nepal, Himachal, Garhwal, Kumaon)
कुमायुं में होली दो महीने पहले से प्रारंभ हो जाती है। अबीर-गुलाल के साथ ही होली गायन की विशेष परंपरा है। कुमायुं में होली कई चार से मनाई जाती है। इनमें खड़ी होली व बैठकी होली, महिलाओं की होली और स्वांग और ठेठर होली शामिल है। खड़ी होली अर्ध शास्त्रीय परंपरा में गायी जाती है। होल्यार एक बड़े घेरे में खड़े होकर होली के गीत गाते हैं। इस दौरान ढोल, नगाड़े, चिमटा, हुड़का जैसे वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है। आंवला एकादशी के दिन मंदिर में चीरबंधन के साथ होली शुरु होती है। इसके बाद घर-घर जाकर होली गाई जाती है। होल्यारों को लोग गुड़ और बाकी जलपान की व्यवस्था करता है। होलिका दहन के मौके पर गांव के सार्वजनिक स्थान पर चीर दहन होता है और अगले दिन छलड़ी यानि पानी की होली के साथ पर्व संपन्न होता है। बैठकी होली घरों और मंदिरों में गाई जाती है। हारमोनियम और तबले के साथ शास्त्रीय संगीत की लय में इसे गाया जाता है। बैठकी होली वैसे तो वसंत पंचमी से शुरू हो जाती है, परंतु कुछ क्षेत्रों में तो पौष माह के पहले रविवार से यह होली शुरू हो जाती है। इसी तरह महिलाओं की होली भी है। महिलाओं की होली बसंत पंचमी से शुरू होती है। इसमें महिलाएं ढोलक- मजीरा के साथ होली गाती हैं। यह वैसे बैठकी होली का एक रूप है। इसमें संगीत के साथ नृत्य भी होता है। स्वांग और ठेठर होली महिलाओं की बैठकी होली में ज्यादा प्रचलित है। इसमें विभिन्न किरदारों और उनके संदेश को जोकरनुमा पोशाक पहन कर व्यंग्य के माध्यम से पेश किया जाता है। कुमायुं की होली में चीरबंधन व चीरदहन का भी खासा महत्व है। आंवला एकादशी को चीरबंधन होताहै। उस दिन पैया के पेड़ की हरी टहनी लाया जाता है। उसे खेत में गाढ़ कर खड़ा किया जाता है।प्रत्येक घर से चीर ला कर पैया की टहनी पर बांध दिया जाता है। होली के एक दिन पहले होलिकादहन के साथ ही चीरदहन भी हो जाता है। यह प्रह्लाद का अपने पिता हिण्यकश्यप पर सांकेतिक जीत का उत्सव भी है।
हिमाचल प्रदेश में होली विभिन्न तरीके से मनाई जाती है। हिमाचल के गांवों में महिलाएं होली के दौरान विशेष पूजा करती हैं। कमल के पेड़ की टहनियों को लाल और पीले रंगों में चित्रित किया जाता है। इन्हें बांस की टोकरियों या खट्टू में रोली, कुमकुम, गुड़, भुने हुए चने के साथ रखा जाता है।होली के दिन महिलाएं अपने हाथों में रंगीन पानी को टोकरी और बर्तन में ले जाती हैं। यह पहले एक बुजुर्ग व्यक्ति या दंडोच को चढ़ाया जाता है और उसके बाद होली खेली जाती है। होली से एक दिन पहले रात में पेड़ों की टहनियां, लकड़ियों से होलिका बनाई जाती है। बाद में होलिका दहन किया जाता है। युवा वर्ग पहले होली के ध्वज को छूने के लिए एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं, क्योंकि इसे शुभ माना जाता है। इस दिन एक पारंपरिक मिठाई -कड़ाह प्रसाद तैयार कर बांटा जाता है। (Holi in Uttarakhand, Nepal, Himachal, Garhwal, Kumaon)
यहां कुल्लू क्षेत्र में होली देशभर की होली से एक दिन पहले मनाने की परंपरा है। इसका आयोजन 40 दिन तक चलता है। बसंत पंचमी में भगवान रघुनाथ के ढालपुर आगमन के बाद से ही कुल्लू की होली प्रारंभ हो जाती है। यहां राज परिवार भगवान रघुनाथ को रथ में बिठाकर पूजा-अर्चना सहित रथ की परिक्रमा करता है। पूजा के बाद लोग भगवान श्रीराम के जयकारे लगाते हुए रथ में लगी रस्सियों से उसे खींचते हैं। भगवान रघुनाथ का रथ अपने अस्थायी निवास स्थान पर पहुंचाया जाता है। उसी दिन से भगवान रघुनाथ के द्वार पर होली गायन शुरू होता है। यहां का बैरागी समुदाय के लोग एक दूसरे के घरों व मंदिरों में जाकर होली मनाते हुए गुलाल उड़ाते हैं और होली के गीत गाते हैं। वे डफली और झांझ आदि वाद्ययंत्रों का इस्तेमाल करते हैं। उसके बाद जब होली को आठ दिन शेष रहते हैं तो उस दिन से होलाष्ठक शुरू होते हैं। उस दिन बैरागी समुदाय के लोग रघुनाथ को हर दिन गुलाल लगाते हैं और आठवें दिन होली का उत्सव मनाया जाता है। वे लोग टोली बनाकर नग्गर के ठावा और झीड़ी में जाकर भी होली के गीत गाते हैं। कहा जाता है कि इनके पूर्वज मथुरा वृंदावन अवध से आए हुए थे। इसलिए इसमें ज्यादा अवध की भाषा में यह गीत ज्यादा गाए जाते हैं। होली के दौरान सुजानपुर, पालमपुर, बैजनाथ, घुघर, पपरोला और जयसिंहपुर में कई मेले आयोजित किए जाते हैं। माना जाता है कि सुजानपुर का मेला कटोच वंश के समय का है। राजा संसार चंद ने कलाकारों और संगीतकारों को संरक्षण दिया था।
अब नेपाल की होली की बात करते हैं। नेपाल में होली दो दिन मनाई जाती है। एक दिन पहाड़ी क्षेत्र और दूसरे दिन तराई क्षेत्र में। नेपाल में होलिका जलाने का प्रचलन नहीं है। होली पर सभी एक-दूसरे को गुलाल लगाकर होली की बधाई देते हैं। इस दौरान देउड़ा नृत्य भी होता है। नेपाल में होली को फागु पुन्हि यानी फाल्गुन पूर्णिमा भी कहते है। नेपाल के अलग अलग स्थानों पर होली के रीति रिवाज़ों में थोड़ी बहुत विभिन्नता है। काठमांडू में इस अवसर पर एक सप्ताह के लिए प्राचीन दरबार और नारायणहिटी दरबार में चीर यानी बांस का स्तम्भ गाड़ा जाता है। इस चीर मैं विभिन्न रंग के कपड़े लटकाए जाते हैं। यह बांस का स्तंभ भगवान श्रीकृष्ण की तालाब में स्नान कर रही ग्वाल-बालाओं के कपडे वृक्ष पर लटका देनेवाली कथा की स्मृति में प्रतीक स्वरूप में खड़ा किया जाता है। स्तंभ गाड़ने के बाद आधिकारिक रूप से होली प्रारंम्भ हो जाती है। काठमांडू में होली में रंग के साथ पानी का भी बहुत प्रयोग होता है। नेपाल के हिमाल और पहाड़ी इलाके में मुख्य होली भारत से एक दिन पहले मनाई जाती है। परंतु तराई या मधेक्ष क्षेत्र में होली भारत की होली के दिन ही मनाई जाती है। तराई की होली का रूप बिहार की फगुआ से मिलता जुलता है। विशेष बात यह है कि नेपाल में हिन्दू और बौद्ध धर्मावलम्बी दोनों ही इस त्यौहार को हर्षोल्हास से मनाते है।
यह है हिमालयी लोगों की होली। यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। वीडियो अच्छी लगे तो शेयर भी अवश्य कीजिएगा। इसके टाइटल सांग – हम पहाड़ा औंला– को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है। इसी चैनल में है। हमारे सहयोगी चैनल – संपादकीय न्यूज—को भी देखते रहना। अगली वीडियो की प्रतीक्षा कीजिए। तब तक जै हिमालय, जै भारत।
====================
www.himalayilog.com / Sampadkiya News यूट्यूब चैनल
E- mail- himalayilog@gmail.com