उत्तराखंड में इसलिए मनाया जाता है लोकपर्व फूलदेई / फूल संग्रांद

0
245

फूल संग्राद/ फूलदेई की  शुभकामनाएं

परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा / हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

www.himalayilog.com  / www.lakheraharish.com

E- mail- himalayilog@gmail.com

जै हिमालय, जै भारत। हिमालयीलोग के इस यूट्यूब चैनल में आपका स्वागत है।

मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश चंद्र लखेड़ा इस बार उत्तराखंड के लोकपर्व फूलदेई पर बात करूंगा। सबसे पहले आप सभी को इस लोक पर्व की शुभकामनाएं। जब तक मैं आगे बढूं, तब तक आपसे अनुरोध है कि इस हिमालयी लोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब  करके नोटिफिकेशन की घंटी भी अवश्य दबा दीजिए, ताकि आपको नये वीडियो आने की जानकारी मिल जाए। वीडियो अच्छी लगे तो शेयर भी अवश्य कीजिएगा। आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र के इतिहास, लोक, भाषा, संस्कृति, कला, संगीत, धरोहर, सरोकार आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं।  अपने सुझाव ई मेल कर सकते हैं।

उत्तराखंड में चैत की संक्रांति को बनाए जाने वाला या लोकपर्व वसंत ऋतु के आगमन का संदेश देता है। यह प्रकृति की उपासना का त्योहार भी है। फूल संक्रांति से शुरू होकर अब पूरे चैत माह में गांवों में घरों की देहरी पर सुबह-सुबह बच्चे  फूल डालते रहते हैं। इस लोकपर्व को गढ़वाल में फूल संग्रांद और कुमायुं में फूलदेई पर्व कहा जाता है। जबकि, फूल डालने वाले बच्चों को फुलारी कहते हैं। घरों की देहरी यानी द्वार पर फूल डालते हुए बच्चे एक गीत– फूलदेई, छम्मा देई, दैणी द्वार, भर भकार… गाते हैं।

बसन्त ऋतु के स्वागत का त्यौहार करने के लिए इस दिन छोटे बच्चे सुबह ही उठकर जंगलों की ओर चले जाते हैं और वहां से प्योली/फ्यूंली, बुरांस, ग्वीर्याल लाई, किनगोड़, हिसर/ हिसलु से लेकर आडू, खुबानी, पुलम आदि के फूलों को चुनकर लाते हैं। थाली या रिंगाल की टोकरी में चावल, हरे पत्तियों के साथ इन फूलों को सजाकर व लोकगीतों को गाते हुए प्रत्येक घर की देहरी का पूजन करते हुए फूलों को डालते हैं। इसमें द्वार की पूजा की जाती है।

वास्तव में यह छोटे बच्चों का लोकपर्व है। चैत के महीने की संक्रांति को, जब ऊंची पहाड़ियों से बर्फ पिघल जाती है, सर्दियों के मुश्किल दिन बीत जाते हैं, उत्तराखंड के पहाड़ बुरांश के लाल फूलों की चादर ओढ़ने लगते हैं, तब पूरे इलाके की खुशहाली के लिए फूलदेई का त्योहार मनाया जाता है। फूल देई पर्व प्रकृति के साथ अगाध व अन्नत काल से चली आ रही परंपरा को समृद्ध करता है।

 

इस पर्व को लेकर पौराणिक कथा भी है। पुराणों में वर्णित कथा के अनुसार  भगवान भोलेनाथ शिव शीत काल में तपस्या में लीन थे। ऋतु परिवर्तन के बाद भी कई बर्ष बीत गए लेकिन भगवान शिव की तंद्रा नहीं टूटी। इससे मां पार्वती, नंदी व शिव गण तथा संसार में मौसमविहीन हो गए। अंतत: मां पार्वती ने इसका रास्ता निकाला। उन्होंने कविलास (कंडी) में सर्वप्रथम फ्योंली के पीले फूल खिलने के कारण सभी शिव गणों को पीताम्बरी जामा पहनाकर उन्हें अबोध बच्चों का स्वरूप दे दिया। फिर मां पार्वती ने सभी गणों से कहा कि वे देव क्यारियों से ऐसे पुष्प चुन लाएं जिनकी खुशबू पूरे कैलाश को महक उठे। सबने अनुसरण किया और पुष्प सर्वप्रथम शिव के तंद्रालीन मुद्रा को अर्पित किए। जिसे फूलदेई कहा गया। सभी ने एक सुर में आदिदेव महादेव से उनकी तपस्या में बाधा डालने के लिए क्षमा मांगते कहा — फुलदेई क्षमा देई, भर भंकार तेरे द्वार आये महाराज । इससे भोलेनाथ की तंद्रा टूट गई। शिव  भी बच्चों को देखकर प्रसन्न हो गए। वे भी इस त्यौहार में शामिल हुए। तब से पहाड़ों में फूलदेई पर्व बड़े धूमधाम से मनाया जाने लगा। जिसे आज भी बच्चे ही मनाते हैं और इसका समापन बूढ़े-बुजुर्ग करते हैं। यह भी कहा जाता है कि तभी से फूलों महिलाओं को प्रिय हैं और जिन्हें  वे सतयुग से लेकर कलयुग तक आभूषण के रूप में प्रयोग करती हैं।

फूलदेई त्योहार में एक द्वारपूजा के लिए फ्यूली नामके फूल का सबसे अधिक प्रयोग किया जाता है। इस फूल को लेकर उत्तराखंड में कई लोक कथाएं हैं। एक कथा के अनुसार एक गांव में फ्यूंली नाम की लड़की रहती थी। जंगल के पेड़ पौधे और पशु-पक्षी उसके मित्र थे। फ्यूंली के कारण जंगल और पहाड़ों में हरियाली, खुशहाली थी।  एक दिन दूर देश का एक राजकुमार जंगल में आया। फ्यूंली को राजकुमार से प्रेम हो गया। राजकुमार के कहने पर फ्यूंली के मां-पिता ने उसकी शादी उससे कर दी। फ्यूंली पहाड़ों को छोड़कर राजकुमार के राजमहल चली गई। फ्यूंली के जाते ही पेड़-पौधे मुरझाने लगे, नदियां सूखने लगीं और पहाड़ बरबाद होने लगे। उधर महल में फ्यूंली भी जंगल के विरह में बीमार रहने लगी। उसने राजकुमार से उसे वापस गांव छोड़ देने की विनती की, लेकिन राजकुमार उसे छोड़ने को तैयार नहीं था। एक दिन फ्यूंली की कृत्यु हो गई। उसने राजकुमार से अनुरोध किया कि उसे जंगल में ही समाधि दे दी जाए। राजकुमार ने उसकी अंतिम इच्छा पूरी की। बाद में फ्यूंली की समाधि पर एक फूल खिला। उसे भी फ्यूंली नाम दिया गया। इस फूल के खिलते ही पहाड़ फिर हरे होने लगे, नदियों में पानी फिर लबालब भर गया, पहाड़ की खुशहाली फ्यूंली के फूल के रूप में लौट आई। यह भी कहा जाता है की मां पार्वती को फ्यूंली का पुष्प बहुत प्रिय है।इसलिए फ्यूंली के फूल से द्वारपूजा करके लड़कियां फूलदेई में अपने घर और पूरे गांव की खुशहाली की कामना करती हैं।

यह था फूलदेई व फूल संग्रांद का इतिहास । यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। वीडियो अच्छी लगे तो शेयर भी अवश्य कीजिएगा। इसके टाइटल सांग – हम पहाड़ा औंला– को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है।  इसी चैनल में है। हमारे सहयोगी चैनल – संपादकीय न्यूज—को भी देखते रहना। अगली वीडियो की प्रतीक्षा कीजिए। तब तक जै हिमालय, जै भारत।

==================== 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here