गढ़वाल में भात तो सिर्फ सरोला परंतु रोटी सभी के हाथ की पकाई क्यों खा लेते हैं लोग ?

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गढ़वाल में रोटी क्यों मानी गई है शुचि यानी शुद्ध

रोटी का इतिहास- हिमालयी क्षेत्र की खोज है रोटी

परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

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जै हिमालय, जै भारत। हिमालयीलोग के इस यूट्यूब चैनल में आपका स्वागत है। मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश चंद्र लखेड़ा इस बार गढ़वाल में रोटी  (Roti, Chapai, Parantha)को सुचि /शुचि यानी  शुद्ध मानने की प्रथा पर बात करने जा रहा हूं।

  जब तक मैं आगे बढूं, तब तक आपसे अनुरोध है कि इस हिमालयी लोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब  करके नोटिफिकेशन की घंटी भी अवश्य दबा दीजिए, ताकि आपको नये वीडियो आने की सूचना मिलती रहे। आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र के इतिहास, लोक, भाषा, संस्कृति, कला, संगीत, धरोहर, सरोकार आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं।  अपने सुझाव ई मेल कर सकते हैं।

उत्तराखंड विशेषतौर पर गढ़वाल के लोग जानते हैं कि पहाड़ में लोग सामूहिक  भोज में एक-दूसरे की पकाई रोटी (Roti, Chapai, Parantha) तो सभी खा लेते थे, परंतु भात नहीं।  भात सिर्फ सरोला बामण या अपने पुरोहित का पकाया ही खाते थे। यह मैं लगभग बीस-तीस साल पहले की बात कर रहा हूं। हालांकि अब समय बदल गया है और यह प्रथा दम तोड़ने लगी है। सरोला और भात को लेकर एक वीडियो में पहले ही इस चैनल में डाल चुका हूं। आप लोग उसे यहां देख सकते हैं। इस बार रोटी को लेकर बात कर रहा हूं, परंतु रोटी की सुचिता को लेकर बात करने से पहले इसके इतिहास को बता देता हूं।

संस्कृत में रोटी को रोटी या रोटिका (Roti, Chapai, Parantha) कहते हैं। मानव सभ्यता में रोटी (Roti, Chapai, Parantha)खाना कब से प्रारंभ हुआ, यह कह पाना बहुत कठिन है। स्वादिष्ट और पौष्टिक रोटी का इतिहास बहुत ही होती है उतना ही रोचक है।  खाद्य क्षेत्र के कई इतिहासकारों का कहना है कि रोटी की उत्पत्ति पांच हजार साल पहले सिंधु घाटी सभ्यता से हुई थी। क्योंकि गेहूं की खेती के प्रमाण सर्वप्रथम सिंधु घाटी में ही मिलते हैं। इसके साथ ही मिस्र, और मेसोपोटामिया सभ्यताओं में भी गेंहू के प्रमाण मिलते हैं। भारत में रोटी प्राचीन काल से ही भोजन का एक हिस्सा रही है। मोहनजोदड़ो की खुदाई में भी पांच हजार वर्ष पुराने कार्बनयुक्त गेहूं मिले हैं । जिनसे सिद्ध होता है कि उस कालखंड में भी गेंहू का उपयोग होता था। संस्कृत साहित्य समेत पुराने ग्रंथों से भी में भी रोटी का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि हड़प्पा काल में भी लोग रोटी बनाना जानते थे। तब लोग ज्वार, बाजरा, गेहूं जैसे अनाज और कई तरह कि सब्जियां उगाने लगे थे। इस तरह भारतीय उपमहाद्वीप से रोटी, प्रवासियों और भारतीय व्यापारियों के माध्यम से मध्य एशिया, दक्षिणपूर्व एशिया, पूर्वी अफ्रीका और कैरीबियाई द्वीपों से लेकर पूरे संसार भर में फैल गयी थी। हालांकि  कुछ इतिहासकार कहते रहे हैं कि रोटी  का शुभारंभ पूर्वी अफ्रीका से हुआ। परंतु प्रमाण इस बात के अधिक हैं कि रोटी की उत्पत्ति के सर्वमान्य साक्ष्य भारत में मिलते हैं। कहा जाता है कि सिंघु घाटी सभ्यता के लोग जिस  गेहूं उगा कर उससे रोटी बनाते थे, वह दो प्रजातियां थीं। जिन्हें आज वैज्ञानिक भाषा में ट्रिटीकम कम्पेक्ट और स्फरोकोकम कहा जाता है। जौ की  भी दो प्रजातियां थीं – होरडियम बल्गैर और हैक्सस्टिकम। कुछ  विद्वानों का मानना है कि मेसोपोटामिया और मिस्र में जौ की खेती सिन्धु सभ्यता से पहले से होती थी। वह एक जंगली जौ था, जो कि अब भी तुर्किस्तान, ईरान और उत्तरी अफगानिस्तान में मिलता है। कुछ विद्वान् जगरोस (zagros) पर्वत और कैस्पियन सागर के मध्य क्षेत्र को गेहूं का मूल स्थल मानते हैं।

परंतु नए अनुसंधान कहते हैं कि रोटी  (Roti, Chapai, Parantha)हिमालय (Himalaya)की देन हैं। प्रमुख रूसी और सोवियत कृषिविज्ञानी, वनस्पति विज्ञानी और आनुवंशिकीविद् निकोलाई इवानोविच वाविलोव (Vatvilov) का मानना था कि मानव सभ्यता का प्रयोग में लाया जा रहा गेहूं का मूल स्थान हिमालय  है। यह हिमालय का पश्चिमी छोर पर अफगानिस्तान में था। आप जानते ही हैं कि आज का अफगानिस्तान कभी आर्यवर्त भारतवर्ष का हिस्सा था। वाविलोव की खोज से कह सकते हैं कि संसार को रोटी भी हिमालय ने दी।

अब बात करता हूं कि गढ़वाल में रोटी (Roti, Chapai, Parantha)शुची की प्रथा कैसे प्रारंभ हुई। शुचि अर्थात् पवित्र या शुद्ध। यह प्रथा गढ़ महीपति शाह के शासन काल में तिब्बत से युद्ध के समय हुई। पंवार वंश के महीपति शाह सन 1631 में गद्दी पर बैठे। उन दिनों तिब्बत की ओर से लुटेर गढ़वाल आकर लूटपाट करते थे। महीपति शाह ने तिब्बती लुटेरों को दंड देने के लिए तिब्बत पर हमला किया। गढ़ नरेश के मंत्री रहे पं. हरिकृष्ण रतूड़ी अपनी पुस्तक – गढ़वाल का इतिहास — में लिखते हैं कि महीपति शाह  पंवार वंश के वीर और प्रतापी राजा थे। वे 48 वर्ष की उम्र में गद्दी पर बैठे। रामायण प्रदीप के अनुसार वे राजा बलराम शाह के पुत्र थे। तब तिब्बत के दापाघाट  या दाबाघाट का  सरदार गढ़वाल के दशौली और पैनाखंडा के परगनों को लूट लेता था। जब भी गढ़वाल की सेना वहां जाती थी तो वह हिमालय के दर्रों को पार करके तिब्बत भाग जाता था। राजा महीपति शाह ने सेनापति रिखोला लोदी के साथ सेना लेकर तिब्बत पर हमला कर दिया। दोनों सेनाओं में भयंकर युद्ध शुरू हो गया। वहां कड़ाके की ठंड पड़ती है।  ऐसे में गढ़ सेना संकट में फंस गई थी। वहां अति शीत के कारण गढ़वाली सेना के प्राण संकट में पड़ गए। गढ़ सेना के साथ भोजन बनाने के लिए सरोला ब्राह्मण भी तैनात किए जाते थे।  क्योंकि गढ़वाल में तब सरोला प्रथा थी। अर्थात सामूहिक तौर पर भात और रोटी (Roti, Chapai, Parantha)बनाने का जिम्मा सरोला ब्राह्मणों का था। सरोला प्रथा और सरोलाओं  के बनाए भात को लेकर एक वीडियो यहां पहले से है। उसे देख सकते हैं। गढ़वाल में प्रथा थी कि राज परिवार और  सेना के लिए  या फिर धार्मिक कार्यों व सामूहिक तौर पर भोजन बनाने का कार्य सिर्फ सरोला ब्राह्मण कर सकते थे। तब  जो भी सामूहिक तौर पर भात या रोटी बनाता था उसे तब के  रिवाज के अनुसार चौके पर सिर्फ धोती व जनेऊ ही पहननी पड़ती थी। बाकी कपड़े उतारने पड़ते थे। तिब्बत में भारी ठंड के कारण आधे वस्त्र उतारकर भात व रोटी (Roti, Chapai, Parantha)  पकाना और कठिन हो गया था।  नंगे बदन में सरोला ब्राह्मणों को सैनिकों के लिए भोजन बनाने में बहुत अधिक भी समय लगता था। कई सरोला ब्राह्मणों की तो बर्फीले पहाड़ों के बीच ठंड से मृत्यु हो गई थी । सरोला ब्राह्मणों की मौत होने पर सेना के लिए भोजन का संकट पैदा होने का खतरा हो गया था। महीपति शाह ने  सरोला जाति के ब्राह्मणों में और ब्राह्मण भी शामिल किए। पहले सरोला  12 जातियां थी, फिर  21 हुई और फिर  33 कर दी गईं। सरोला ब्राह्मणों की संख्या बढ़ाने पर भी संकट कम नहीं हुआ।  क्योंकि तिब्बत की कंपकंपाती ठंड में जाने को कोई तैयार नहीं था। इतनी ठंड में धोती पहनकर भोजन बनाना एक तरह से प्राणों को संकट में डालना था। तब गढ़ नरेश महीपति शाह ने देखा कि उनकी सेना इस तरह से भोजन बनाने से निर्बल हो  जाएगी। इससे राजा चिंतित हो गया।

उत्तराखंड के इनसाइक्लोपीडिया कहे जाने वाले डा.शिव प्रसाद डबराल चारण अपनी पुस्तक –उत्तराखंड के इतिहास भाग चार-गढ़वाल का इतिहास – में लिखते हैं कि दाबा के आक्रमण के समय गढ़देश में भी ब्राह्मण और राजपूत भी उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की तरह बिना सिले कपड़े, धोती, या लंगोट पहन कर व जनेऊ डाल कर ही रसोई पकाते थे और खाते थे। तिब्बत की शीत में इससे रसोई बनाने वाले सरोलाओं तथा उनकी मदद करने वाले सैनिकों को रसोई बनाने में  बहुत कष्ट होता था। महीपति शाह ने अपने धर्माधिकारी से परामर्श करके आदेश दिया कि रोटी को शुचि माना जाए। यानी रोटी (Roti, Chapai, Parantha)को बिना वस्त्र निकाले कोई भी ब्राह्मण व राजपूत बना सकते हैं। उसे शुचि मानकर उसका सभी सेवन कर सकते हैं। रोटी का सेवन चौके से बाहर भी किया जा सकता है।  तब से गढ़वाल में यह प्रथा जारी है।

वास्तव में सेना के भोजन के संकट का समाधान निकालने के लिए ही महीपति शाह ने यह निर्णय लिया था। उन्होंने तब घोषणा की थी कि रोटी को शुचि यानी शुद्ध समझा जाए। यानी चौका में  बिना वस्त्र उतार एक- दूसरे के हाथ की बनाई रोटी सभी खा सकते हैं। ब्राह्मण भी क्षत्रियों के हाथ से रोटी खा सकते थे। महिपति शाह ने कहा कि राजभोज बनाने का अधिकार सिर्फ सरोला ब्राह्मणों के पास ही है, परंतु अब रोटी शुचि यानी शुद्ध यानी साफ समझी जाएगी। अब रोटी (Roti, Chapai, Parantha) बनाने का अधिकार सभी को है।अब ब्राह्मण, क्षत्रिय कोई भी रोटी बना सकता है। प्रत्येक व्यक्ति की बनाई रोटी शुची (Roti, Chapai, Parantha)मानी जाएगी। गढ़नरेश ने यह भी प्रावधान कर दिया सैनिक अपने के लिए रोटी खुद बना सकेंगे। क्योंकि ठंड से यहां सरोला ब्राह्मण मर रहे हैं। राजा ने पूरे राज्य के लिए संदेश भेज दिया कि अब गढ़वाल में रोटी को शुचि माना जाएगा। राजा की आज्ञा पाते ही सेना में यही प्रथा शुरू हो गई। इससे सेना की मुश्किलें कम हो गईं। बाद में पूरे समाज में भी यही प्रथा प्रारंभ हो गई। पं. हरिकृष्ण रतूड़ी लिखते हैं कि रिखोला लोधी के संचालन में  गढ़ सेना ने तिब्बती सेना पर इतना तेज आक्रमण किया कि तिब्बती सेना के पांव उखड़ गए और वह पीछे को हटने लगी थी । घोर संग्राम के बाद  तिब्बत के सरदार को मार दिया गया। गढ़सेना ने दापाघाट या दाबाघाट का किला और मंदिर अपने अधिकार में ले लिए थे। गढ़ नरेश ने सतलज तक  गढ़वाल की सीमा बढ़ा दी थी। महीपतिशाह एक कुशल राजनीतिज्ञ और युद्ध-प्रवीण राजा थे। गढ़वाल राजवंश की गद्दी संभालते ही वे शत्रुओं से युद्ध में जूझते रहे। महीपति शाह ने अपने शासनकाल में तिब्बत पर तीन बार आक्रमण किया था। महिपति शाह को गर्व भंजन की उपाधि भी इन्हीं युद्धों से मिली थी। महीपतिशाह के तिब्बत अभियानों में उनके सेनापति माधुसिंह भंडारी और लोदी रिखोला के शौर्य गाथा का उल्लेख भी मिलता है। तिब्बत अभियान के दौरान ही महीपतिशाह ने माधोसिंह भंडारी के साथ अपने राज्य की सीमा निर्धारण का कार्य भी किया था। इस तरह गढ़वाल में दापाघाट युद्ध से रोटी (Roti, Chapai, Parantha)को शुचि माना जाने लगा था। यह प्रथा तब से अब  तक जारी है।मैदानों में प्रवास कर गए लोग तो इसे भूल गए हैं, परंतु गढवाल में अब भी जारी है।

यह था गढ़वाल में राटी को शुचि मानने तथा रोटी का इतिहास । यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। इसके टाइटल सांग – हम पहाड़ा औंला– को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है।  इसी चैनल में है। अगली वीडियो की प्रतीक्षा कीजिए। तब तक जै हिमालय, जै भारत।

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