सेवकपति- खसों की अस्थायी विवाह की अनूठी प्रथा

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प्राचीन हिमालयी लोगों के समान महिलाओं को स्वतंत्रता तैयार है भारतीय समाज?

परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

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जै हिमालय, जै भारत। हिमालयीलोग के इस यूट्यूब चैनल में आपका स्वागत है। मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश चंद्र लखेड़ा इस बार उस प्राचीन हिमालयी समाज की उन विशेष प्रथाओं की उल्लेख करने जा रहा हूं, जो कि समूचे भारत वर्ष में नहीं मिलती हैं।

सबसे पहले आपसे अनुरोध है कि इस हिमालयी लोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब  करके नोटिफिकेशन की घंटी भी अवश्य दबा दीजिएगा।आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र के इतिहास, लोक, भाषा, संस्कृति, कला, संगीत, धरोहर, सरोकार आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं।  अपने सुझाव ई मेल कर सकते हैं।

भारत के मैदानी क्षेत्रों में जहां एक ओर महिलाओं को लंबे घूंघट में बंद किया जा रहा था, पति की मृत्यु के बाद महिलाओं के साथ पुश की तरह  व्यवहार करके मथुरा-काशी में भीख मांगने के लिए असहाय छोड़ा जा रहा था, वहीं दूसरी ओर प्राचीन हिमालयी समाज विशेष तौर पर खस समाज में नारियों को पति की मृत्यु के बाद ऐसा अस्थायी पति रखने की अनुमति थी, जो उसे व उसके बच्चों को आर्थिक व सामाजिक सुरक्षा दे सके।  महिला जब तक चाहती थी, तभी तक वह संबंध चल सकता था। महिलाओं को इस तरह के और भी बहुत से सामाजिक अधिकार मिले थे। हिमालयी समाज यानी यहां के खस आर्य व वैदिक आर्य, दोनों ही नारी-पुरुष के संबंधों के मामले में इतने रूढ़ ने थे। माना जाता है कि मैदानी क्षेत्रों में समाज में यह जड़ता इसलिए आई कि यहां मध्यकाल में लुटेरे, आक्रमणकारी व संकीर्ण विचारधारा के मुसलमानों का शासन हो गया था।

हिमालयी समाज की इस अनूठी प्रथा को बताने से पहले आपको नियोग प्रथा के बारे में भी बता देता हूं, ताकि आप लोग इसे नियोग प्रथा न मान लें। आपने नियोग शब्द तो सुना ही होगा। भारतीय समाज की यह  एक बेहद प्राचीन परंपरा है। इसका उल्लेख रामायण से लेकर महाभारत काल तक मिलती है। सदियों पहले भारतीय समाज इतना आधुनिक था, परंतु आज का यह समाज बाहर से तो बहुत आधुनिक दिखता है, परंतु दिन-प्रतिदिन अधिक दकियानूसी बन रहा है। इससे भी आगे हिमालयी ढलानों को आबाद करने वाले महान हिमालयी लोग थे जो कि नियोग प्रथा से भी एक कदम आगे थे। इस बारे में बताने से पहले भारतीय समाज की नियोग प्रथा के बारे में बता देता हूं। महाभारत में हस्तिनापुर नरेश विचित्रवीर्य की अकाल मृत्यु हो जाने के बाद उसकी दोनों पत्नियों, अम्बिका और अम्बालिका ने नियोग का सहारा लेकर संतान को जन्म  दिया था। इस प्रक्रिया के लिए महर्षि वेद व्यास को नियुक्त किया गया था। इनसे  नियोग से धृतराष्ट्र, पांडु और विदुर का जन्म हुआ था। इसी तरह  नरेश पांडु के संतान को जन्म देने में अक्षम होने के कारण उनकी पत्नी कुंती माद्री ने नियोग से पांडवों को जन्म दिया था। इसके अलावा इतिहास में बहुत से उदाहरण हैं जब ऐसे कई राजा-महाराजा हुए जिन्होंने खुद अक्षम होने की हालत में अपने बेहद विश्वसनीय सहयोगी या सेवक को नियोग के लिए नियुक्त किया।

हिंदू धर्म में इस बात का प्रावधान था कि पति की अकाल मृत्यु अथवा पति के संतान उत्पन करने में अक्षम होने पर उसकी स्त्री अपने देवर अथवा सम्गोत्री या विद्वत व्यक्ति से  गर्भाधान करा सकती थी। इसके लिए कुछ नियम भी बनाए गए थे। उदाहरण के तौर पर कोई भी महिला इस प्रथा का पालन केवल संतान प्राप्ति के लिए करेगी न कि आनंद के लिए। नियोग के लिए नियुक्त पुरुष केवल धर्म के पालन के लिए इस प्रथा को निभाएगा। उसका धर्म यही होगा कि वह उस औरत को संतान प्राप्ति करने में मदद कर रहा है।

परंतु, हिमालयी  समाज  नियोग से भी एक कदम आगे था। यहां नारी-पुरुष में एक ऐसा भी संबंध था, जो वास्तव में शादी तो नहीं थी, परंतु आज के लिब इन रिलेशन के लगभग करीब ही थी।  इसे टेकवा-कठाला भी कहते थे। प्रो डीडी शर्मा अपनी पुस्तक – हिमालय के खस- एक ऐतिहासिक व सांस्कृतिक विश्लेषण  – में लिखते हैं कि इस प्रथा के तहत किसी भी विधवा नारी को सेवकपति रखने की अनुमति समाज देता था। इस व्यवस्था के तहत पुरुष व नारी में,  दोनों के बीच यह अस्थाई संबंध था, जोकि नारी की इच्छा से चलता था। अर्थात  यह संबध तभी तक चल सकता था, जब तक नारी चाहती थी। इस टेकवा-कठाला  व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य यह था कि पति मृत्यु के बाद उसकी विधवा अपने संरक्षण तथा पूर्व पति के बच्चों के पालन-पोषण का दायित्व कोई वहन कर ले। इसके लिए वह महिला एक सेवकपति की नियुक्त कर सकती थी। इसे तब तक बनाए रखती थी, जब तक कि इसकी आवश्यकता रहती थी। नारी जब भी चाहती थी,  उस सेवक पति को वापस जाने के लिए कह सकती थी। उस सेवक पति को महिला की परिसंपत्ति में हिस्सा व उससे पैदा बच्चों पर भी कोई अधिकार नहीं मिलता था।  सेवक पति से पैदा बच्चों को भी महिला के मृत पति का ही नाम मिलता था व उसकी संपत्ति में हिस्सा भी मिलता था। पति की मृत्यु के बाद बच्चे अनाथ न रहें, उन्हें आसरा मिले। इसलिए सेवक पति रखने की अनुमति दी गई थी।

हिमालयी समाज में खस संस्कृति का प्रभाव रहा है। ये प्रथाएं खसों की रही हैं। जो कि बाद में सभी ने अपना ली थीं। खस समाज उन सभी बातों में सबसे आगे था। हिमालयी खसों में विवाह एक धार्मिक बंधन नहीं था। यह कोई सात जन्मों का बंधन भी नहीं था, जिसे तोड़ा न जा सके। जैसा  कि वैदिक हिंदुओं में था। हालांकि समय के साथ वैदिक हिंदुओं ने भी विवाह को खत्म करने का कानून बना लिया।  मुसलमानों व ईसाइयों से तलाक को सीख लिया। जबकि हिमालयी समाज में शादी को समाप्त करने का संबध हमेशा से था। इस पर एक वीडियो मैं पहले ही बना चुका हूं। उसे यहां देख सकते हैं। बहरहाल हिमालयी समाज, विशेष तौर पर खसों के लिए विवाह एक समझौता था। विवाह की प्रक्रिया जितनी सरल थी, उतनी ही सरल उसे समाप्त करने की भी थी। महिला अपने पति या उसके परिवार जनों से असंतुष्ट होने पर उसे तथा उसके घर को छोड़कर जाने को स्वतंत्र थी। महिला को संबंध विच्छेद करने के लिए अपने माता-पिता की अनुमति की आवश्यकता भी नहीं थी। उस अपने लिए फिर से नया पति चुनने का अधिकार मिला था।

इसका मतलब यह नहीं है कि हिमालयी समाज में सार्वभौम रूप से पारिवारिक जीवन अनिश्चित था। ऐसे होता तो इस प्रकार की पारिवारिक विघटन की घटनाएं बहुत ज्यादा होती। परंतु ऐसा नहीं था। हिमालयी लोगों का पारिवारिक जीवन सुखद था। सदियों की परंपरा ने निकली यह सामाजिक व्यवस्था अपनी जगह थी और व्यक्तिगत जीवन अपनी जगह था। पहाड़ की विषम भौगोलिक परिस्थितियां और संकट पूर्ण जीवन तथा जीवन उपार्जन की समस्याएं यहां पति-पत्नी को जीवन के बंधन में बांधने रखने के लिए पर्याप्त कारण थे। वास्तव में हिमालयी समाज ऐसे दंपति को धर्म के नाम पर अनावश्यक बांधे रखने के पक्ष में नहीं था। जिसमें एक दूसरे के प्रति प्रेम सद्भावना न हो  प्रतिदिन के कलह के कारण जीवन की सुख शांति खो गई हो।

इससे यह भी भाव पैदा हो सकता है कि महिला को पति को छोड़ने के लिए स्वछंदता मिल जाती रही होगी। परंतु ऐसा नहीं थी। ऐसे मामलों में प्रयास भी किया जाता था कि महिला को समझा-बुझाकर अपने घर में लाने के लिए प्रोत्साहित  किया जाता था। परंतु मामला बहुत बढ़ जाने पर ही दोनों को यह अधिकार मिला था कि जीवन को और कष्टप्रद न बनाया जाए।

कठाला प्रथा इसिलए नियोगी प्रथा से भिन्न थी। यह प्रथा तो मात्र किसी संतान युक्त विधवा स्त्री की ओर से अपने बच्चों की देखरेख के लिए अथवा अपने दैहिक सुख के लिए अस्थाई रूप से स्वीकृत एक सेवक की नियुक्त की प्रथा थी। यह प्रथा देवर भाभी विवाह से भी मिन्न थी। देवर और उसमी विधवा भाभी का विवाह होने पर वह अपना घर छोड़कर अपने देवर के घर जाकर उसकी पत्नी के रूप में रहने लगती थी। उसके संयोग से उत्पन्न  संतान पर देवर का पितृत्व का पूरा वैधानिक अधिकार रहता था। उस स्त्री से उत्पन्न संतान को नये पति की संपत्ति का उत्तराधिकारी माना जाता था।

यह था सेवकपति- अस्थायी विवाह की अनूठी प्रथा। यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। इसके टाइटल सांग – हम पहाड़ा औंला– को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है।  इसी चैनल में है। हमारे सहयोगी चैनल – संपादकीय न्यूज—को भी देखते रहना। अगली वीडियो की प्रतीक्षा कीजिए। तब तक जै हिमालय, जै भारत।

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