अरसा – ये धार्मिक पकवान कहां से आया उत्तराखंड

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जानिए पहाड़ का धार्मिक प्रसाद अरसा का इतिहास

परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

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जै हिमालय, जै भारत। मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश चंद्र लखेड़ा इस बार पहाड़ के सबसे प्रसिद्ध पकवान अरसा (Arasa of Uttarakhand)के इतिहास को लेकर जानकारी दे रहा हूं।

अब विलुप्ति के कगार पर आ पहंचे इस पकवान के बारे में जब तक मैं बनाना शुरूर करूं, तब तक आपसे अनुरोध है कि इस हिमालयी लोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करके नोटिफिकेशन की घंटी भी अवश्य दबा दीजिएगा।आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र के इतिहास, लोक, भाषा, संस्कृति, कला, संगीत, सरोकार आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं।  अपने सुझाव ई मेल कर सकते हैं।

अरसा  (Arasa of Uttarakhand)और स्वाला। आप लोगों ने ये नाम सुने हैं ? अब यही बोलना पड़ रहा है, क्योंकि ये परंपरागत पकवान अब विलुप्ति की कगार पर हैं। कभी उत्तराखंड विशेषतौर पर गढ़वाल मंडल में अरसा और स्वाला के बिना मंगणी यानी सगाई और विवाह की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। कुमायुं मंडल में स्वाली और लाडो बनते रहे हैं। स्वाला और स्वाली  एक ही हैं।  अरसा उत्तराखंड का एक लोक मिष्ठानहै, यहां का प्रसिद्ध पकवान है। सगाई,  विवाह आदि समारोहों में इसका बड़ा महत्व रहा है। इन अवसरों पर अरसे का कलेउ देने की परम्परा रही है।  कभी इसके बिना विवाह समारोह की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। दूल्हा-दुल्हन के गांव और ससुराल के प्रत्येक घर में  अरसा (Arasa of Uttarakhand)व स्वाला देने की यह परंपरा गढ़वाल में सदियों पुरानी है। इसके अलावा विवाह के बाद भी जब बेटी मायके से ससुराल जाती रही है तो भी अरसा व स्वाला कलेउ के रूप में दिए जाते रहे हैं। परंतु अब इनकी जगह बेशन के लड्डू लेते जा रहे हैं। शहरों में प्रवास कर गए लोग तो अरसा (Arasa of Uttarakhand)और स्वाला को कब का भूल चुके हैं, परंतु गांवों में भी लोग इन्हें बनाने की बजाए हलवाई से लड्डू बनवा रहे हैं।

असरा(Arasa of Uttarakhand), पहाड़ में कहां से आया? इस बारे में कई मत है। यह पकवान दक्षिण भारत में भी सदियों से प्रचलन में है। मुझे दिल्ली आए कुछ ही साल हुए थे।तब में आरके पुरम के एक दक्षिण भारतीय मंदिर में गया था। वहां अरसे  देखकर अचंभित हुआ कि वहां भी हमारे अरसे जैसा पकवान हैं।इसलिए यह इस बारे में जानने की इच्छा बलवती हो गई कि हमारे पहाड़ में अरसा कहां से आया।

उत्तराखंड की तरह अरसा (Arasa of Uttarakhand) ओडीसा,  आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, झारखंड, बिहार और बंगाल में भी बनाया जाता है। इन राज्यों में इसे अलग-अलग नामों से जाना जाता है। परंतु इन नामों में काफी समानता मिलती है। ओडीसा में इसे अरिसा, आंध्र प्रदेश में अरीसेलु व बेलामू , कर्नाटक में कज्जाया,  मराठी में अनरसा, बिहार और झारखंड में अरसा या अनरसा  कहा जाता है। तमिलनाडु में  अधिरसम कहा जाता है। अरसा, अरिसेलु  शब्द तेलगु या द्रविड़ शब्द हैं । यह नेपाल के कुछ हिस्सों में भी यह पकवान बनाया जाता है।

अलग-अलग राज्यों में इसके स्वाद में कुछ भिन्नता अवश्य है , परंतु इसलिए कि इसे बनाने में  मीठे के लिए अलग-अलग चीज प्रयोग की जाती है। उत्तराखंड में गन्ने का गुड़ का प्रयोग  किया जाता है, जबकि दक्षिण भारत में खजूर का गुड़ और बंगाल, बिहार और उड़ीसा में चीनी से बनाया जाता है।

इसका धार्मिक महत्व भी है। अरसा (Arasa of Uttarakhand)आंध्र, तेलंगाना और उड़ीसा में एक  परम्परागत  धार्मिक अनुष्ठान में प्रयोग होने वाला मिष्ठान  है।  उड़ीसा में भगवान जगन्नाथ जी की  पूजा में अरसा  भोगों में से एक भोजन है।  पश्चिमी उड़ीसा में नुआखाइ यानी धन कटाई की बाद के धार्मिक अनुष्ठान  में अरिसा एक प्रमुख पकवान होता है। आन्ध्र में मकर संक्रांति  अरिसेलुया अरसा पकाए बगैर नही मनाई जाती है । कन्नड़, तेलुगु, महाराष्ट्र, उड़ीसा और तमिलनाडु में इसे मिठाई माना जाता है। अधिरसम दीपावली त्योहार पर तमिलनाडु और कर्नाटक में मंदिरों में प्रसाद के रूप में लोकप्रिय है। इसका ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व रहा है। 16 वीं शताब्दी के विजयनगर सम्राट कृष्णदेवराय के समय के शिलालेखों में भी इसका उल्लेख मिलता है। इसी तरह ओड़िसा के पुरातन बुद्ध साहित्य में अरिसा या अरसा (Arasa of Uttarakhand)का उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि  गौतम बुद्ध को उनके ज्ञान प्राप्ति के सात दिन के बाद त्रापुसा या तापुसा  और भाल्लिका या भाल्लिया नाम के दो बणिकों  ने बुद्ध भगवान को चावल -शहद भेंट में दिया था।  वहां के बौद्ध मानते हैं यह भेंट अरिसा पीठ याने अरसा ही था।

अब बताता हूं कि अरसा (Arasa of Uttarakhand) कहां से उत्तराखंड, विशेषतौर पर गढ़वाल आया। एक मान्यता यह है कि  यह पकवान यहां आठवीं सदी में आदि शंकराचार्य के साथ आया। उनके साथ आए ब्राह्मणों ने यहां के मंदिरों में भगवान के भोग के लिए इसका प्रयोग शुरू किया। यह भी कहा जाता है कि मैदानों से यहां आए लोग अपने साथ इस पकवान को लाए।  विशेष तौर पर गौड़ देश से आए ब्राह्मण इसे लाए।  दोनों की बातें सत्य हैं। गौड़ देश यानी आज के बंगाल औरओडीसा के क्षेत्र को कभी गौड़ देश कहा जाता था। ओडीसा में इसे अरिसा कहा जाता है, जबकि उत्तराखंड में इसे अरसा कहा जाता है। इन नाम में बहुत समानता है। इसलिए यह कह सकते हैं कि गढ़वाल आए गौड़ देश के  ब्राह्मण भी इसे लाए। इसलिए कह सकते हैं कि आदि शंकराचार्य के शिष्य और भगवान जगन्नाथ  के भक्त भी इसे लाए थे।  इसके बाद अरसा (Arasa of Uttarakhand)बनाने की परम्परा गढ़वाल के सभी लोगों में भी शुरू हो गई।

 विधि-

अरसा बनाने की विधि बहुत आसान है। अरसा (Arasa of Uttarakhand)बनाने के लिए चावल को लगभग 10 घंटे पहले भिगो दें। फिर चावल को कूट लें या अब पीस लें। उसे आटे के समान छान लें। गुड़ की चाशनी बनाएं और उसमें चावल के इस आटे को गूंथ लें और फिर उससे छोटी- छोटी लोइयां बना लें। इन लोइयों कोपकोड़ी की तरह गरम  खौलते तेल में तल लें। जब इनका रंग गुलाबी हो जाये तो उन्हें निकाल लें। उन्हें चाशनी में डाल दें। कुछ देर बाद निकाल लें। फिर कुछ समय बाद परोस लें। आप एक बार खा लेंगे तो  इसकी मिठास और स्वाद कभी नहीं भूल पाएंगे। इस पकवान की विशेषता कि इसे एक महीने तक भी बिना फ्रिज के रख सकते हैं। तब भी इसके स्वाद में कोई बदलाव नहीं आता है। तो अब इसे फटाफट बनाना शुरू कीजिए।

यह था अरसा के पहाड़ आने की गाथा। यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। इसके टाइटल सांग – हम पहाड़ा औंला– को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है।  इसी चैनल में है। हमारे सहयोगी चैनल – संपादकीय न्यूज—को भी देखते रहना। अगली वीडियो का इंतजार कीजिए। तब तक जै हिमालय, जै भारत।

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