खसिया क्यों कहे जाते हैं उत्तराखंड के जजमान…. हिमालयी खसों की गाथा

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 परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

 हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

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 पहाड़ में हंसी ठठा करते हुए अथवा चिढ़ाने के लिए ठाकुरों के लिए खसिया बोल दिया जाता है। बदले में ठाकुर भी ब्राह्मणों के लिए भाट शब्द का प्रयोग कर देते हैं। यह व्यंगवार सदियों से चल रहा है।  

उत्तराखंड में खस या खसिया कहने पर कई क्षत्रिय नाराज हो जाते हैं। वे इसके बदले में ब्राह्मणों को भाट कह कर चिढ़ाते हैं। वैसे हंसी-मजाक में भी ख-ब का प्रयोग किया जाता है। ख यानी खसिया यानी ठाकुर और ब यानी ब्राह्मण। उत्तराखंड में हर चुनाव में जब जातिवाद बढ़ जाता है तो लोग कहते हैं कि इस बार भी  ख-ब हो गया है। इसका मतलब है लोग क्षत्रिय और ब्राह्मणों के खेमें में बंट गए हैं। जातिवादी नेता या अफसर के लिए भी लोग कहते हैं कि वह ख -ब करता है। उत्तराखंड में ठाकुरों के लिए जजमान शब्द का संबोधन किया जाता है। यह  खस शब्द  पूरे जजमान समाज के संबोधन बन गया है, लेकिन यह नकारात्मक तौर पर इस्तेमाल होता है। जबकि हिमालय के इतिहास के पन्ने  साक्षी हैं कि खस  जाति बहुत वीर और परिश्रमी थी। खस,  सिर्फ उत्तराखंड में ही नहीं हैं, वे कश्मीर से लेकर हिमाचल प्रदेश, नेपाल और पूर्वोत्तर के राज्यों में भी फैले हैं।

आप इस खसिया शब्द का इतिहास जानते हैं? नहीं न। तो आइए आपको इसका इतिहास बताते हैं। वास्तव में उत्तराखंड के खसिया का मतलब ठाकुर,यानी जजमान यानी क्षत्रिय जातियों का समूह। हालांकि इसमें यहां की अनेक ब्राह्मण जातियां भी शामिल रही हैं, लेकिन अब यह संबोधन यहां के ठाकुरों के लिए ही होता है। जबकि कई ब्राह्मण जातियां भी खस मूल की हैं। बाहर से आकर यहां बसे ब्राह्मण खसिया शब्द संबोधन का इस्तेमाल ठाकुरों को चिढ़ाने के लिए करते हैं, लेकिन एक समय था जब इस भू-भाग पर खसों का शासन था। महाभारत काल से लेकर 1000 ईस्वी के आसपास तक पूरे हिमालय क्षेत्र में  खसों का राज था। आज यह उत्तराखंड का सबसे बड़ी आबादी वाला जाति समूह है। ये कहना है वरिष्ठ पत्रकार प्रोफेसर डा.  गोविंद सिंह का। गोविंद सिंह जी का यह लेख ‘जीवट के धनी हैं उत्तराखंड के खसिया’ वेब पोर्टल हिमालयीलोग डॉटकॉम में है। इसमें वे लिखते हैं,‘ खस मध्य एशिया के पहाड़ी इलाकों से आए थे, इसलिए अत्यंत मेहनती थे। उन्होंने हिमालय की तलहटियों को पाट कर खेती-योग्य बनाया और कठिन परिस्थितियों में रहने का नया फलसफा दिया। वे कबीलाई जिंदगी जीते थे, इसलिए लड़ना-भिड़ना उनके रक्त में था। अंग्रेजों ने खसिया जाति को मार्शल कौम माना। चंपावत जिले में देवीधूरा के बाराही देवी मंदिर प्रांगण में रक्षाबंधन पर लगने वाला बग्वाल मेला खसों की युद्ध परंपरा की गवाही देता है।

दोस्तों, यह महान खस समाज ही था, जिसने हिमालयी क्षेत्र को जीवंत बनाया। हिमालय की पहाडियों में सीढ़ीनुमा खेत बनाकर उनको फसलों से लहलाने लायक बनाया। खस युद्ध कला में भी माहिर थे। उनके अपने स्थानीय देवता रहे हैं। उनका समाज आर्यों के जकडऩ व बंधनों वाला समाज नहीं था। मसलन, खस समाज कर्मकांड से दूर ही था। विधवा विवाह तक खसों में खूब होते थे। उत्तराखंड में स्त्रियों की स्थिति अन्य समाजों ने कहीं बेहतर रही है। उन्हें मैदानी समाज की तरह  घर की चारदीवारी के भीतर बंद नहीं रखा गया। वहां देहज प्रथा भी मैदानों से गई। यौन संबंध भी इतने रूढ़ नहीं थे, जितने शहरी समाजों में होते हैं। बड़े भाई की मृत्यु होने पर  छोटा भाई अपनी भाभी से शादी कर लेता था।  कई जगह तो विवाहिता स्त्री को भी  अन्य पुरुष से वरण की छूट समाज दे देता था। इसके बदले उस पुरुष के लिए जरूरी था कि वह पूर्व पति को उसका मूल्य चुकाए। ऐसी स्त्री को ‘छन मण की बान’ कहा जाता था- अर्थात ऐसी सुंदरी, जिसका पति मौजूद है। उस स्त्री को प्राप्त करना गर्व की बात समझी जाती थी।

भारत में कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड के अलावा  नेपाल के अधिकतर निवासी खस समाज से संबंधित हैं। यह भी माना जाता है कि पूवोर्त्तर में भी खस हैं और मेघालय की खासी -जयंती पहाडिय़ों के खासी भी इसी समाज से संबंधित हैं। नेपाल को तो खस देश ही कहा जाता है। बाबा गोरखनाथ के शिष्य होने के कारण वे  गोरखा कहलाने लगे। नेपाल में तो बाकायदा खस जाति को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि ‘खस लोग या खस आर्य यानी नेपाली। खस आर्य एक हिन्द-आर्य भाषिक जातिय समूह है जो कि वर्तमान भारतीय उपमहाद्वीप के नेपाल तथा कुमायुं, गढ़वाल एवं हिमाचल प्रदेश में रहते हैं। खस लोग, खस भाषा एवं अन्य स्थानीय भाषाएं बोलते हैं। नेपाल के संविधान के अनुसार, खस, बाहुन (ब्राह्मण), क्षेत्री, ठकुरी, और सन्यासी लोग ही हैं।’

आज इतिहास की अधिकतर पुस्तकों के पन्ने खस जाति को लेकर चुप्प  है। दुख की बात यह है कि आज यह  वीर व कर्मठ जाति अपनी विशिष्ठ पहचान खोकर मैदानों से हिमालय पर्वत  श्रृंखला में गए आर्यों के समूह में विलुप्त सी हो गई है। विशेषतौर पर उत्तराखंड में खस जाति के लोगों की ओर से अपनी पहचान को आर्यों से जोडऩे में गर्व महसूस करते हैं। इससे खसों का  अस्तित्व ही खतरे में है।

अब प्रश्न है कि ऐसा क्यों हो रहा है। इसका जवाब भी बताते हैं।  उत्तराखंड के इतिहासकार डा. ख्यात सिंह चौहान कहते हैं कि जब  मैदानी क्षेत्रों से आर्य जातियों ने पहाड़ जाकर वहां की सत्ता हथियाने का प्रयास किया तो  वहां की प्राचीन जातियों-कोल, किरात, खस, नाग आदि से उनका बैर हो गया। आर्यों ने इन ताकतवर जातियों को असुर भी घोषित कर दिया। सत्ता पर मैदान के लोगों का अधिकार हो जाने से वहां के मूल लोग अपनी पहचान छुपाने लगे। इससे भी खसों की पहचान मिटने लगी। ’

उत्तराखंड में कत्यूरी  शासन को खसों का अंतिम शासक माना जाता है। माना जाता है कि इस प्रक्रिया में और तेजी तब आई जब खस मूल के कत्यूरों का शासन खत्म हो गया और गढ़वाल में पंवार और कुमायुं में चंद राजवंश राज करने लगे। ये दोनों की मैदानों से गए राजपूत थे।  पंवारों ने मैदानों से गए ब्राह्मणों को ही अपने सत्ता प्रतिष्ठान में प्रमुख स्थान दिए। उनके पुरोहित, ज्योतिषी, वैद्य, रसोइया सभी बाहर से गए ब्राह्मण ही थे। जिन्हें सरोला कहा गया।  दिल्ली में पृथ्वी राज चौहान का राज खत्म हो जाने के बाद धर्मांध व कट्टर मुसलमानों के आतंक के कारण मैदानों से ब्राह्मण व क्षत्रिय जातियों के लोग बड़ी संख्या में पहाड़ गए। खस और इनमें रक्त संबंध स्थापित होने से पहाड़ में सामाजिक तौर पर भारी बदलाव आया। हालांकि पंवार, चौहान, तोमर, असवाल आदि गिनी चुनी जातियों को छोड़कर पहाड़ के अधिकतर क्षत्रिय खस मूल के ही हैं। राहुल सांकृत्यायन अपनी पुस्तक हिमालयी-परिचय में लिखते हैं, ‘ अब खस, राजपूत का भेद बिल्कुल उठ सा गया है। यद्यपि राजपूतों में 80 प्रतिशत से अधिक खस ही  हैं। ’ समय बदलने के साथ अब यह भेद करना मुश्किल है कि कौन आर्य मूल का है और कौन खस मूल का। सदियों पहले से आर्यो व खसों में रक्त संबंध स्थापित हो जाने से भेद लगभग मिट सा गया है। अब खस जाति के लोग भी इस शब्द से खुद को जोडऩे से दूर भागते हैं।

हिमालय के वीरान और दुर्गम क्षेत्रों में बस्तियां बसाकर आबाद करने वाले खसों को लेकर भारत की इतिहास की अधिकतर पुस्तकें मौन हैं। जबकि यह महान व वीर जाति आयों से पहले भारत व हिमालय में बस चुकी थी। हिमालय को सांस्कृतिक तौर पर भी समृद्ध बनाने में इनका बहुत बड़ा योगदान रहा है। उन्होंने हिमालय की दुर्गम पहाडिय़ों को खोद कर बनाए सीढ़ीनुमा खेतों को फसलों से लहलहा दिया। इस पशुपालक व कृषि पर आधारित समाज को लेकर भारतीय बहुत कम जानते हैं। इतिहासकारों ने हमेशा ही खस समाज को लेकर उपेक्षा का भाव रखा। प्रसिद्ध लेखक डीडी शर्मा की पुस्तक हिमालय के खस में लिखते हैं ,‘ ‘खसों का इतिहास वह चाहे पुरातन हो, मध्यकालीन या आधुनिक उसके नाम पर जो कुछ भी लिखा गया है,उसमें उन्हीं का गुणगान या यशोगान किया गया है, जो प्रभुता संपन्न थे। तथा जिनके हाथ में लेखनी थी। सर्वविदित है कि कारण विशेष से इतिहास लेखन अथवा गाथागानों की बागडोर कभी भी खसों के हाथ में नहीं रही। अत: प्रभुत्वसंपन्न वर्ग के लेखकों के वर्गों के द्वारा वे उपेक्षित ही रहे।

डा. शंतन सिंह नेगी अपनी पुस्तक मध्य भारत का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास में लिखते हैं  कि खसों के प्रभाव क्षेत्र को कश्मीर से पूर्वोत्तर तक माना जाता है। कश (खस), कश्यप, कशमीर (कसों का देश) काशी, कोसल, कसया (कुशीनगर), कुशिक को कसों (कशो) खसों की सभ्यता से ही जोड़ा जाता है।  कुलिंद जनपद के अंतर्गत किरात, खस, तंगण, दरद सभी जातियों का उल्लेख किया गया है। इस जनपद  विस्तार  पूर्व में काली नदी से पश्चिम में सतलुज उत्तर में हिमालय और दक्षिण में गंगाद्वार तक था।’  खसों को लेकर कई तरह की कहानियां प्रचलित हैं। कहा जाता है कि ये लोग भी आर्यों की ही एक शाखा थी, जो कि आर्यों से पहले भारत आई। उनकी एक शाखा मैदानों में उतरने की बजाए हिमालयी क्षेत्र में चली गई। डा.  शिव प्रसाद डबराल चारण अपनी पुस्तक – कुलिंद जनपद का प्राचीन इतिहास में लिखते हैं, ‘खसों की एक शाखा  कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, नेपाल से लेकर पूर्वोत्तर तक पहुंच गई। दरदादि तथा शकादि स्थूल पालक नृशाखा भी ईरान-अफगानिस्तान के पठार से होकर हिमालय की ढलों पर फैली। चितरा, कश्मीर, हिमाचल, उत्तराखंड से होकर खशादि की उत्तरी शाखा पश्चिमी नेपाल तक जा बसी। दूसरी शाखा पश्चिमी द्वारों से उत्तरी पंजाब में प्रविष्ट हुई और गंगा जी के मैदान से होकर पूर्व की ओर बंगाल में गंगाजी के डेल्टा तक जा पहुंची। इस मैदानी शाखा को प्राचीन साहित्य में काशि और कुश भी कहा गया है।  यह भी धारणा है कि खस  गान्धार, बाह्लीक, त्रिगर्त और मद्र राज्यों में रहते थे। यह भी कहा जाता है कि खस लोग काश्गर अथवा मध्य एशिया के निवासी थे और तिब्बत के रास्ते वे नेपाल और भारत आए।

खसों को उल्लेख महाभारत में भी मिलता है। ‘महाभारत में उल्लेखित खसों ने कौरव के पक्ष से युद्ध लड़ा था। मनुस्मृति के अनुसार खस अन्य भारतीय जाति जैसे शक, कम्बोज, दारद, पहलव, यवन, पारद आदि जैसे ही प्राचीन क्षत्रिय थे। मनुस्मृति में उन्हें व्रात्य क्षत्रिय के वंशज कहा गया है। मार्कण्डेय पुराण में खस एक हिमालयी राज्य के रूप में वर्णित किया गया है। महाभारत के सभापर्व एवं मार्कंडेय तथा मत्स्यपुराण में इनके अनेक उल्लेख प्राप्त होते है। महाभारत के कर्ण पर्व में खसों को पंजाब क्षेत्र और किरात वसाति के बीच वाले इलाकों में रहने का वर्णन किया था । माना जाता है कि महाभारत में वर्णित खस समाज  का विस्तार हिमालय में पूर्व से पश्चिम तक था। राजतरंगिणी के अनुसार ये लोग कश्मीर के नैऋत्य कोण के पहाड़ी प्रदेश अर्थात नेपाल में रहते थे। अत: वहां के निवासियों को लोग खस मूल का कहते हैं।

यह थी खसों की यश गाथा। आपको कैसी लगी, अवश्य बताएं।

 

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