कत्यूरियों की वीरगाथा से कैसे जुड़े हैं महारानी ध्रुवस्वामिनी और महान सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

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उत्तराखंड के कत्यूरी खस वीरों ने बंदी बनाया था रामगुप्त, शकों ने नहीं

परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

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इतिहास के विद्यार्थी जानते हैं कि भारत में महान गुप्त साम्राज्य भी रहा है। बाकी के लिए पहले गुप्त साम्राज्य के बारे में बता देता हूं। गुप्त राज्य प्राचीन भारत के प्रमुख राजवंशों में से एक था। मौर्य वंश के पतन के पश्चात नष्ट हुई राजनीतिक एकता को पुनर्स्थापित करने का श्रेय गुप्त वंश को है।

मौर्य वंश के पतन के बाद लंबे समय तक भारत में राजनीतिक एकता स्थापित नहीं हो पाई। मौर्योत्तर काल के बाद ईसा की तीसरी  सदी में तीन राजवंशों का उदय हुआ इनमें मध्य भारत में नाग शक्‍ति, दक्षिण में बाकाटक तथा पूर्व में गुप्त वंश प्रमुख थे। गुप्त साम्राज्य की नींव तीसरी शताब्दी के चौथे दशक में पड़ी और इसका उत्थान चौथी शताब्दी की शुरुआत में हुआ। गुप्त वंश का प्रारम्भिक राज्य आज के उत्तर प्रदेश और बिहार में था। बाद में यह लगभग पूरे भरत खंड में उनका शासन हो गया।

आपने प्रसिद्ध साहित्यकार जयशंकर प्रसाद की कृति ध्रुवस्वामिनी को पढ्रा होगा। ध्रुवस्वामिनी  उनकी प्रमुख रचनाओं में से एक प्रसिद्ध नाटक है। इसका कथानक इसी गुप्तवंश से सम्बद्ध है, जोकि शोध से प्रमाणित इतिहास गाथा है।इतिहास के अनुसार ध्रुवस्वामिनी गुप्त वंश के शासक स्कन्दगुप्त के ज्येष्ठ पुत्र रामगुप्त की अत्यन्त सुन्दर, सुशील, वीर व साहसी पत्नी थी।  उसका पति रामगुप्त उसकी तुलना में अत्यन्त कायर, विलासी, मद्यप, दुष्चरित्र, अयोग्य व्यक्ति था । ज्येष्ठ पुत्र होने के कारण  उसे राजपाठ मिल गया। मैदानी इतिहासकारों के अनुसार उसके शासन काल में उसके राज्य पर शकों का आक्रमण हुआ। रामगुप्त ने युद्ध करने की बजाए शक नरेश को अपनी पत्नी ध्रुवस्वामिनी को सौंपने का प्रस्ताव रखा दिया। ध्रुवस्वामिनी ने अपने सतीत्व तथा मर्यादा की रक्षा करने हेतु रामगुप्त के छोटे भाई चन्द्रगुप्त से सहायता मांगी। चंद्रगुप्त साहसी था। वह ध्रुवस्वामिनी का रूप धर कर रात्रि में शक नरेश के पास गया। उसने शक नरेश की हत्या कर दी। इस के बाद रामगुप्त भी मारा गया। चंद्र गुप्त ने ध्रुवस्वामिनी से विवाह कर लिया था।ध्रुवस्वामिनी को इतिहास में ध्रुव देवी के नाम से भी जाना जाता है । वह लिच्छवि कुमारी थी।

कहानी यह है कि गुप्त वंश के शासक चन्द्रगुप्त प्रथम के बाद 335 ई. में उसका तथा कुमारदेवी का पुत्र समुद्रगुप्त राजगद्दी पर बैठा। सम्पूर्ण प्राचीन भारतीय इतिहास में वह महानतम शासकों में गिना जाता है। समुद्रगुप्त का शासनकाल राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से गुप्त साम्राज्य के उत्कर्ष का काल माना जाता है। इस साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी। समुद्रगुप्त ने ‘महाराजाधिराज’ की उपाधि धारण की। समुद्रगुप्त के बाद उसका बड़ा बेटा रामगुप्त सम्राट बना। रामगुप्त बड़ा होने के कारण पिता की मृत्यु के बाद गद्दी पर बैठा, लेकिन वह निर्बल एवं कायर था। वह शकों से पराजित हुआ और अत्यन्त अपमानजनक सन्धि कर अपनी पत्‍नी ध्रुवस्वामिनी को शकराज को भेंट में देने के लिए राजी हो गया।  लेकिन उसका छोटा भाई चन्द्रगुप्त द्वितीय बड़ा ही वीर एवं स्वाभिमानी व्यक्‍ति था। वह छद्‍म भेष में ध्रुवस्वामिनी के वेश में शकराज के पास गया। उसने शकराज की हत्या करदी। इसके बाद  ‌चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपने बड़े भाई रामगुप्त की भी हत्या कर दी और उसकी पत्नी ध्रुवस्वामिनी  से विवाह कर लिया। वह गुप्त वंश का शासक बन गया। वह बहुत महान राजा था। चन्द्रगुप्त द्वितीय ३७५ ई. में सिंहासन पर आसीन हुआ।  वह चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हुआ। उसने ३७५ से ४१५ ई. तक लगभग ४० वर्ष) शासन किया। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शकों को हराकर  दिया और इस तरह गुप्त साम्राज्य एक शक्तिशाली राज्य बन गया। दरअसल, गुप्त साम्राज्य में दो चंद्रगुप्त हुए हैं। एक समुद्रगुप्त के पिता चंद्रगुप्त प्रथम।  दूसरा समुद्र गुप्त का बेटा चंद्रगुप्त द्वितीय, जिसे चंद्र गुप्त विक्रमादित्य के नाम से अधिक जाना जाता है। वह भारत केमहानतम सम्राटों में से एक थे।

मेरा इस मामले में उन इतिहासकारों की खामी को सामने लाना है, जिन्होंने गुप्त नरेश रामगुप्त को हराने वाले राजा को  खस की बजाए शक बता दिया। राहुल सांकृत्यायन भी यही गलती करते रहे। वो शक और खस को एक ही बताते रहे।  जबकि दोनों ही अलग-अलग हैं। इतिहास साक्षी है कि  खस हिमालय की ढलानों पर महाभारत काल से बसे हैं। जबकि शक बहुत बाद में भारत की सीमा में आए।

बहरहाल, ध्रुवस्वामिनी की बात करते हैं। प्रो. डीडी शर्मा अपनी पुस्तक – हिमालय के खस- एक ऐतिहासिक  एवं सांस्कृतिक विश्लेषण में – लिखते हैं कि  गुप्तकालीन अभिलेखों से पता चलता है कि चौथी सदी तक मध्य हिमालय अर्थात हिमाचल प्रदेश , उत्तराखंड और नेपाल के पश्चिमी क्षेत्र तक खसों का एक समृद्ध राज्य स्थापित हो चुका था। जिसे कृर्तपुर साम्राज्य के नाम से जाना जाता था। इसी राजधानी पहले आज के जोशीमठ में थी। जिसे कार्तिकेयपुर भी कहा जाता था।इन शासकों को कत्यूरी कहा जाता है। बाद में कत्यूरी अपनी राजधानी आज के कमायुं के बैजनाथ ले गए थे।

इतिहासकारों की बात देखिए कि वे भारत में सिर्फ तीन वंशों का उल्लेख करते हैं, परंतु खसों के कत्यूर वंश का कहीं भी उल्लेख नहीं करते हैं। बहरहाल, गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त (340 से 375 ईसवी) के प्रयाग स्तंभ प्रशस्ति में उसके अधीनस्थ राज्यों में कृर्तपुर  राज्य भी थी। कृर्तपुर यानी कत्यूर खस राज्य की ईसा की चौथी शताब्दी में उत्तराखंड में सशक्त राज्य के रूप में स्थापना हो चुकी थी । नेपाल के अभिलेखों से भी स्पष्ट है कि इस कत्यूर राज्य की पूर्वी सीमा तो नेपाल की पश्चिमी सीमा तक फैली थी किंतु पश्चिमी सीमा का विस्तार कहां तक थी, इसका उल्लेख नहीं मिलता है। इतिहासकर मजूमदार की पुस्तक — इसिएंट इंडिया — के अनुसार समुद्रगुप्त के समय खस राज्य की सीमा पश्चिम की ओर यमुना व चंबल तक पहुंची थी।  स्मित ने कत्यूर राज्य का विस्तार कांगड़ा से लेकर गढ़वाल-कुमायुं तक माना है।  जबकि ओलढाम आदि विद्वानों ने इसका विस्तार गढ़वाल- कुमायुं और रोहिलखंड तक माना है। मध्य हिमालयी क्षेत्रों में खसों का प्रभुत्व बहुत पहले स्थापित हो चुका था। इसे खसमंडल के नाम से जाना जाता था। कृर्तपुर यानी कार्तिकेयपुर का उल्लेख पाणिनी के ग्रंथ अष्टाध्यायी में भी मिलता है। इसे कर्त्रि पुर कहा गया है। इसकी पहचान उत्तराखंड के कार्तिकेयपुर से की गई है। ( Chandragupt Vikramaditya, Dhruvswamini, Katyuri of Uttarakhand)

आठवीं शताब्दी के नाटककार विशाखदत्त के देवीचंद्रगुप्तम नामक नाटक एवं नवी शताब्दी के कन्नौज के राजकवि राज शेखर की काव्य शास्त्रीय कृति काव्यमीमांसा से पता चलता है कि उस समय कृर्तपुर का खस साम्राज्य इतना शक्तिशाली था कि इसकी वीर वाहिनी दिग्विजय यात्रा के लिए निकली थी। उसने तब अजय समझी जाने वाली मगध की विशाल वाहिनी को पराजित करके उनके राजा रामगुप्त को बंदी बना दिया था। रामगुप्त की मुक्ति यानी रिहाई के लिए खस नरेश ने शर्त के रूप में उसकी महारानी ध्रुवस्वामिनी को उसे भेंट करने की मांग कर दी। रामगुप्त इस अपमानजनक शर्त को मान गया था, परंतु उसका छोटा भाई चंद्रगुप्त इस शर्त से  क्षुब्ध  था। चंद्रगुप्त ने ध्रुवस्वामिनी के छद्म रूप में खसराज के शिविर में जाकर उसकी हत्या कर दी। इस तरह उसने ध्रुवस्वामिनी के सतीत्व भी रक्षा कर ली। ( Chandragupt Vikramaditya, Dhruvswamini, Katyuri of Uttarakhand)

खसराज की हत्या करने के बाद वह गुप्त साम्राज्य का सम्राट बन गया। उसके दादा का नाम भी चंद्रगुप्त था। इसलिए उसे इतिहास में चंद्रगुप्त द्वितीय  के नाम से जाना जाता है। उसने खसों के राज्य को अपने राज्य में मिला दिया। इस बात की पुष्टि इस बात से होती है कि चंद्रगुप्त द्वितीय के पिता समुद्रगुप्त ने नामोल्लेख में कतृर्पुर खसराज्य को उत्तर में अपना सीमांत राज्य माना है।  जबकि चंद्र गुप्त चंद्रगुप्त द्वितीय के पुत्र कुमार गुप्त ने अपनी मंदसौर प्रशस्ति में गुप्त साम्राज्य की उत्तरी सीमा गढ़वाल-कुमायुं के उत्तर में  स्थित सुमेरु एवं कैलाश को माना है। कत्यूर खसराज को मारने की यह घटना सन ३७५ के आसपास की मानी जाती है। ( Chandragupt Vikramaditya, Dhruvswamini, Katyuri of Uttarakhand)

इस बात से यह साफ कहा जा सकता है कि इतिहासकारों में मगध और ध्रुवस्वामिनी यानी ध्रुवदेवी की जिस घटना को शकों से जोड़ा है, वह पूरी तरह से गलत है। वे वास्तव में उत्तराखंड के कत्यूर खस थे। राहुल सांकृत्यायन भी यही गलती करते रहे हैं वह खास और शकों को एक ही मानते रहे हैं । इतिहासकार रोमिला थापर ने भी अपनी पुस्तक –भारत का इतिहास – में इस घटना का उल्लेख किया है। थापर ने भी खसों को शक लिखा है। वह यह भी लिखती हैं कि शकों को हराकर चंद्रगुप्त द्वितीय का उत्तर की सीमा तक नियंत्रण हो गया। जबकि उत्तरी सीमाओं पर शकों का शासन था ही नहीं। शक मैदानी इलाकों में थे। उनका केंद्र मथुरा के आसपास था। उत्तरी सीमाओं पर खसों के राज्य थे। इन खस राज्यों में आज  के हिमाचल का कांगड़ा तक का क्षेत्र, गढ़वाल, कुमायुं, नेपाल के डोटी से कर्णाली तक का क्षेत्र शामिल हैं। ( Chandragupt Vikramaditya, Dhruvswamini, Katyuri of Uttarakhand)

वाराहमिहिर ने अपनी कृति में पर्वतीय वीरवाहिनी का उल्लेख किया है। यह खस वाहिनी ही थी। जो कि उत्तराखंड के खस कत्यूरों की थी। यह भी लिखा है कि ७वीं सदी तक इस पर्वतीय कटक का यश गुजरात तक फैला था। इसकी पुष्टि गुजरात के शिरीषपदक नामक स्थान से प्राप्त गुर्जरराज ददद के प्रशांतराग के ६८५ विक्रमी के उस तामप्रत्र से होती है, जिसमें हिमालय की शक्तिशाली सेना का तथा खसों का उल्लेख किया गया है। कत्यूरी शासकों को लेकर कहा जाता है कि कभी उनका अफगानिस्तान के लेकर नेपाल तक फैला था। गुजरात में भी जो खास लोग मिलते हैं,  माना जाता है कि इन की सेनाएं जब गुजरात तक विजय यात्रा पर निकली थी कि उनके वंशज वह भी रह गए थे । परंतु आपने देखा होगा कि इतिहासकारों ने खसों को भुलाकर उनकी जगह शकों को श्रेय दे दिया। खस महाभारत काल के समय से रह रहे हैं।( Chandragupt Vikramaditya, Dhruvswamini, Katyuri of Uttarakhand)

हिमालयी वीरों को लेकर आठवीं सदी के नाटककार विशाखदत्त की कृति मुद्राराक्षस में भी उल्लेख मिलता है। मुद्राराक्षस के अनुसार खस शासक  पर्वतक और मलयकेतु ने  मगध के नंद वंशीय शासकों के विरुद्ध संघर्ष में आचार्य चाणक्य और चंद्रगुप्त मौर्य की सहायता की थी।  इस बारे में एक वीडियो  पहले से ही बनाकर इस चैनल में है।

इन घटनाओं से साफ है कि कभी हिमालयी वीरों की शक्तिशाली सेना मैदानी क्षेत्रों में अपनी वीरता का झंडा पहरा रही थी। परंतु खसराज की एक गलती से पूरे हिमालयी लोगों की जीवन संकट में आ गया। यदि खसराज ध्रुवस्वामिनी को पाने की मांग न करता तो वह मगध पर राज कर रहा होता। खसराज को नारी का सम्मान करना चाहिए था।चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रामादित्य की मृत्यु के बाद फिर से हिमालयी क्षेत्र में खसों ने अपने राज्य तो स्थापित कर दिए थे। परंतु वे एक बड्ऱी ताकत नहीं रह गए थे।बहरहाल, खस राज कि एक गलती से पूरा ही इतिहास में बदल दिया गया था। ध्रुवस्वामिनी की मांग कर कि चंद्रगुप्त ने उसकी हत्या कर दी थी और उसका राजपाट भी चला गया। ( Chandragupt Vikramaditya, Dhruvswamini, Katyuri of Uttarakhand)

यह था उत्तराखंड के खस कत्यूरों का रामगुप्त की सेना को परास्त करने और ध्रुवस्वामिनी तथा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य की गाथा।

 

 

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