सृष्टि की रचना और निरंकार को लेकर उत्तराखंड में यह है मान्यता

1
4921

परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

www.himalayilog.com  / www.lakheraharish.com

E- mail- himalyilog@gmail.com

सृष्टि की रचना को लेकर मानव सभ्यता में कई तरह की अवधारणाएं हैं। हर धर्म में अलग-अलग कहानियां हैं। सनातन धर्म में भी सृष्टि की रचना को लेकर वैष्णवों, शैवों व शाक्तों की अलग-अलग धारणाएं हैं। इसी तरह देश के विभिन्न  क्षेत्रों में भी अलग-अलग मान्यताएं हैं। उत्तराखंड में  मान्यता है कि सृष्टि की रचना  निरंकार देवता यानी भगवान शिव ने की।  नेपाल के खसों में मान्यता है कि सृष्टि की रचना मस्टो देवता ने की। उत्तराखंड मान्यता है कि सृष्टि की रचना निरंकार देवता ने की। सृष्टि का निर्माण और निरंकार से संबंधित गाथा को लेकर डा. दिनेश चंद्र बलूनी अपनी पुस्तक – उत्तराखंड की लोककथाएं- में लिखते हैं कि  उत्तराखंड में प्रचलित पौराणिक गाथा के अनुसार पृथ्वी में सर्वप्रथम निरंकार विद्यमान था। उन्होंने सबसे पहले सोनी और जंबू गरुड़ की उत्पत्ति की। इनकी उत्पति के पश्चात ही सृष्टि की रचना मानी गयी है। इस गाथा के अनुसार— सृष्टि के आरंभ में न धरती थी, न आकाश और न पानी था, बल्कि केवल निरंकार था। पार्वती जी ने एकाकीपन से ऊबकर संसार की रचना के लिए शिव जी से याचना की। निरंकार ने अपनी दाईं जांघ मलकर मैल से गरुड़ी उत्पन्न की और बाईं जांघ मलकर एक गरुड़। गरुड़ी का नाम सोनी और गरुड़ का जंबू था। गुरु यानी शिव को आश्चर्य हुआ कि मुझे तो मानव पैदा करने चाहिए थे। ये गरुड़ी, गरुड़ कैसे पैदा हो गए? गरुड़ ने यौवन-प्राप्ति पर गरुड़ी से विवाह का प्रस्ताव रखा। गरुड़ी ने उसको डांटते हुए कहा कि -हम तो भाई-बहिन हैं और तुम देखने में भी भद्दे हो। इस पर गरुड़ रो पड़ा। उसे देखकर गरुड़ी का हृदय द्रवित हो उठा। उसने गरुड़ के नेत्रों से निकले आंसू पी लिए। फलतः वह गर्भवती हो गयी। गरुड़ दुःखी होकर कैलास छोड़कर कहीं दूर चला गया। गरुड़ी का गर्भ विकसित होता गया। वह गरुड़ को ढूंढने लगी।

गरुड़ मिला, किंतु गरुड़ी से रुठा रहा। अंत में अनुनय-विनय से मान गया। दोनों कैलास पर लौट आए। गरुड़ी को अंडा देने का कोई स्थान न मिला। वह बोली कि मैं अंडा कहां दूं?  गरुड़ ने पंख पसार दिए। गरुड़ी ने जैसे ही अंडा दिया, वह गिरकर फूट गया। नीचे के भाग से पृथ्वी और ऊपर के भाग से आकाश बना। अंडे की सफेदी से समुद्र और । जर्दी से भूमि।  माना जाता है इस प्रकार निरंकार ने सृष्टि की रचना की।

निरंकार को ही शिव का सहृदय रूप माना जाता है। वे कैलाश में जोगी के रूप में रहते हैं। उनकी भक्ति में माता पार्वती जोगिन बनकर निवास करती है।ये वही जोगी हैं, जिनके गले में सांपों की माला विराजमान रहती है और सिर की जटा में दूध की गंगा की धारा बहती रहती है। वह जोगी कैलाशपति शिव हैं तथा जोगिन माता पार्वती हैं।

निरंकार देवता उत्तराखंड के दोनों मंडलों, गढ़वाल और कुमायुं में कई जाति वंशों के कुल देवता हैं। इनको अब निरंकार या नरंकार भी कहा जाता है। जैसा कि नाम से साफ है कि उनका कोई आकार नहीं है। इसलिए उनकी कोई प्रतिमा भी नहीं मिलती हैं। निरंकार देव, देवाधिदेव  शिव महादेव के अवतार माने जाते हैं। उत्तराखंड में मान्यता है कि  महाप्रलय के दौरान सबसे पहले महाकाली का अवतरण हुआ था। उसके बाद निरंकार भगवान अवतरित हुए । निरंकार को बड़ा चमत्कारी देवता माना जाता है। उत्तराखंड में उनको ठुल देवता यानी बड़ा देवता कहा जाता है। यहां विश्वास है कि ठुल देवता निरंकार सभी इच्छाओं को पूरा करते हैं। वे औघड़ जोगी हैं। निर्धन की झोली सिर्फ निरंकार ही भर सकते हैं।

 उत्तराखंड में निरंकार को पूजा और जागर में नचाया जाता है। उनके जागर लगते हैं। उनकी पूजा बिना पद्म यानी पैंया के वृक्ष के संभव नहीं है। पयां के पेड़ का उत्तराखंड में धार्मिक दृष्टि से बहुत बड़ा महत्व है। पूजा के लिऐ पंया की पत्तियों और लकड़ी को पवित्र माना जाता हैं।धार्मिक कथाओं के अनुसार पंया को देवताओं का वृक्ष माना जाता है। माना जाता है कि यह पेड़ नाग लोग में होता था।  यह नाग लोक में जहरीले नागों के बीच रहती है। इसिलए पूजा के लिए पंया की पत्तियां व लकड़ी लाने के लिए पूरा गांव ढोल दमाऊं के साथ जाते हैं।

ऐतिहासिक तौर पर भगवान.निरंकार को यहां की प्राचीन जातियों खश व कोलीय के युद्ध के देवता माना जाते हैं। पूरा हिमालय क्षेत्र शिव-शक्ति का उपासक है। इसलिए भगवान शिव को ही यहां सृष्टि का  रचयिता माना जाता है।यह भी जानने लायक है कि जब भगवान निरंकार की पूजा की जाती है तो उसमें भगवान विष्णु भी भी पूजा होती है। जब निरंकार देवता को नहलाते हैं तो वहउनका  विष्णु रूप होता  है, जपकि जब उनका मद बनाते हैं तब हम उनकी शिव के रूप में पूजा होती है।

यह बताना आवश्यक है कि नाथपंथियों ने नरंकार देवता को सिर्फ दलितों का देवता बनाने का असफल प्रयास किया था। नाथपंथियों  का पूरे हिमालय में प्रभाव आज भी देखा जा सकता है। नाथों ने जिस  तरह से बद्रिकाश्रम धाम का नाम बद्रीनाथ और केदारेश्वर धाम का नाम केदारनाथ कर दिया। उसी तरह निरंकार को नरंकार बनाने का प्रयास किया।नाथों ने अदभुद कथाएं जोड़कर निरंकार देवता को तंत्र-मंत्र से जोड़ने का भी प्रयास किया। उनके नाम पर सूअर की बलि भी जोड़ दी गई।  डा. शिव प्रसाद डबराल चारण अपनी पुस्तक – उत्तराखंड के इतिहास- भाग-चार –गढ़वाल का इतिहास – में लिखते हैं कि गंगाजी की उपत्यका में कबीर के निराकार वाद ने पहुंचकर दलितों के नए ग्राम देवता नरंकार की पूजा प्रचलित करादी।

निरंकार आज भी ठुल देवता के तौर पर पूजे जाते हैं। यह कह सकते हैं कि यह नरंकार यहां के लोक देवता निरंकार से भिन्न है। निरंकार को भगवान शिव रूप में पूजा जाता है। उनके चारों ओर सभी अन्य देवता घूमते हैं। निरंकार के जागर में कहते हैं, —बोला, बोला, सगुन बोला, कैलास मां रैंदा भोले नाथ शम्भू । भोलेनाथ शम्भू संग पार्वती माता। भोलेनाथ शम्भू दांद देखा, तौंकी धुनी रमी चा। भोलेनाथ शम्भू। इस तरह उनके जागर गाए जाते हैं।

 

==================== 

 

 

1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here