उत्तराखंड में आदि शंकराचार्य के बाद किसने बंद कराई नरबलि  कुप्रथा ?

0
989

 

परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

www.himalayilog.com  / www.lakheraharish.com

E- mail- himalyilog@gmail.com

 उत्तराखंड के लोग देवताओं को लेकर आई वीडियो को देखने के बाद बहुत से लोगों का आग्रह था कि बलि प्रथा पर भी एक वीडियो लानी चाहिए। आप लोग भी जानते हैं कि संपूर्ण भारत की तरह उत्तराखंड में भी  नर बलि व पशु बलि की कुप्रथाएं रही हैं। ये बलि इसलिए दी जाती थीं कि देवता प्रसन्न हो जाएं। संतुष्ट हो जाएं। उनके कष्टों को दूर कर दें। दुश्मनों का नाश कर दें। उत्तराखंड में १९वीं सदी तक नर बलि व पशु बलि प्रथा रही है। अब  ये कुप्रथाएं लगभग समाप्त हो चुकी है। देश की तरह उत्तराखंड में  भी बलि प्रथा को लेकर कत्यूरी शासन काल से प्रमाण मिलते हैं। बलि प्रथा विश्वभर के लगभग सभी समाजों में रही है। प्राचीन समय में मनुष्य की बलि देने की भी प्रथा थी। लौह युग तक धर्मों में पुरातन विश्व में मानव बलि का चलन कम हो गया था। इसे पूर्व-आधुनिक समय तक बर्बरतापूर्ण माना जाने लगा था ।

इतिहास साक्षी है कि विभिन्न संस्कृतियों में  बलि के प्रमाण मिलते हैं।  किसी धार्मिक अनुष्ठान के रूप में किसी पशु हत्या करने को बलि कहते हैं। इसके तहत विभिन्न तरह के पशुओं को धार्मिक रीतियों के तहत देवताओं के नाम पर काटा जाना ही पशु बलि कहा जाता है। कुछ समाज इसे कुर्बानी कहते हैं। कई समाजों में  मानव की भी बलि देने की प्रथा रही है।

उत्तराखंड में बलि प्रथा कई रूपों में रही है। देवताओं को प्रसन्न करने रथत्ता भूत-प्रेत आत्मों की शांति के लिए बलि दी जाती रही है। इसके अलावा दुर्ग, पुल, गूल-कूल के निर्माण से समय भी बलि देने की परंपरा रही है। उत्तराखंड में अधिकतर लोग शिव-शक्ति के उपासक रहे हैं। वहां पहाड़ों की चोटियों में देवी और नदियों की घाटी में शिव मंदिर रहे हैं। शक्ति के उपासक होने  के कारण यहां बलि प्रथा रही है। यह बलि एक परिवार अथवा एक कुल या एक गांव की ओर से सामूहिक रूप में दी जाती थी।सामूहिक रूप से दी जाने वाली बलि गांव के देवता या कुल देवता को दी जाती  रही है। यह मान्यता रही है कि यदि वचन के अनुसार बलि नहीं दी गई तो देवता संतुष्ट नहीं होगें। इससे वे नाराज हो जाएंगे तथा अपना रोष मनुष्य पर प्रकट करेंगे। इससे उनका जीवन कष्ट प्रद हो जाएगा। इससे बचने के लिए बलि की प्रथा शुरू हुई होगी। पहले लोग अपने कष्टों से मुक्ति के लिए भगवान को बलि देने का वचन देते थे। पहाड़ों में लोक देवता न्याय के देवता माने जाते रहे हैं। इसलिए चोरी होने, किसी के बीमार होने, आपसी झगड़ा होने या किसी के अन्याय से मुक्ति के लिए भी बलि चढ़ाने का वचन दिया जाता था।

उत्तराखंड में मां काली के विभिन्न रूपों के साथ ही डौंडिया नरसिंह समेत कई स्थानीय देवताओं को भी बकरे भी बलि दी जाती रही है। कालिंका के मंदिरों में तो भैंसे की भी बिल देने की प्रथा रही है। उत्तराखंड में नरसिंह देवता भगवान विष्णु के अवतार के रूप में नहीं, बल्कि एक नाथपंथी जोगी के रूप में पूजे जाते हैं। नरसिंह देवता के साथ नौ नाग, बारह भैंरो अट्ठारह कलवे, 64 जोगिनी, 52 बीर, छप्पन कोट कलिंका की शक्ति चलती  हैं। भगवान  नरसिंह के कई रूप हैं। इनमें से दूधिया नरसिंह दूध, रोट अथवा श्रीफल से शांत होते हैं, जबकि डौंडिया नरसिंह में बकरे की बलि की प्रथा है। इनके पिता भस्मासुर और माता महाकाली बताई जाती है।

उत्तराखंड के अधिकतम देवी-देवता बलि के आग्रही रहे हैं। ये बलि कहीं देवता के लिए और कहीं उनके गणों, सेवकों के लिए दी जाती थी। बलि कि यह प्रथा मुख्यत: शाक्तों, तंत्रिकों, व भूत- प्रेत पूजकों में पाई जाती रही हैं। बलि प्रथा बकरा, भैंसा, शूकर, मुर्गा, आदि की चढ़ाई जाती थी। किंतु प्राचीन कथाओं से पता चलता है कि काली, चंडी आदि के नाम से पूजित देवालयों तथा दुर्ग, सेतु, सरोवर, गूल-कूल आदि के निर्माण के अवसर पर उन्हें  स्थायित्व देने के लिए बलि चढ़ाई जाती थी। बलि के कई रूप होते थे। एक- सामान्य, दूसरा- पंचबलि तथा तीसरा-अष्ट बलि। सामान्य बलि में बकरा और भैंसा की बलि दी जाती थी। पंचबलि में पांच  वस्तुएं चढ़ाई  जाती रही हैं। इसमें भैंसा बकरा, मुर्गा, सूअर,और कद्दू शामिल हैं। अष्टबलि में सामान्यतः सात बकरों व एक भैंसे की बलि दी जाती रही है। इसे लोक परंपरा में अठवाड़ कहा जाता था। गढ़वाल और कुमायुं, दोनों क्षेत्रों में मां काली और मां नंदा भगवती के नाम पर प्रतिवर्ष सैकड़ों पशुओं की बलि चढ़ाई जाती थी। जोशीमठ के प्रसिद्ध नरसिंह देवता के मंदिर के निकट तिमुंडिया देवता के उत्सव में देवता का पस्वा सबसे पहले एक बकरे का कलेजा निकाल कर खाता था। उसके पश्चात उसकी टांगों तथा अन्य अंगों को फाड़ कर खाता था। उसके बाद बकरे के बचे –खुचे अंगों को अन्य भक्तजनों को प्रसाद के रूप में बांट दिया जाता था। इसी प्रकार जौनपुर स्थित चंडी के मंदिर प्रांगण में एक विशेष पर्व मार्कशीर्ष की नवरात्र की अष्टमी के अवसर पर लगता था। उसमें मैंसे को मद्यपान कराकर पहले खूब दौड़ाया जाता था। उसके बाद उसके बलि की जाती थी। इस तरह के बहुत की घटनाएं हैं, जहां बकरा और भैंसों की  बलि दी जाती थी। कुमायुं के गंगोलीहाट की हट काली अल्मोड़ा तथा नैनीताल की नंदा देवी के मंदिरों में नंदा अष्टमी के अवसर अठवाड़ यानी सात बकरों और एक भैसा कट्टा की बलि दी जाती थी ।घोड़ा खाल व चितई के  के ग्वाल देवता के मंदिरों में भी किसी प्रतिवर्ष बड़ीसंख्या में बकरों की बलि चढ़ाई जाती थी। रिखणीखाल के पैनों के पाणीसैठ के पास जेठागांव की नौशेण देवी के मंदिर में भी कभी भैंसों की बलि दी जाती थी। पहाड़ में लोक देवता व ग्राम देवताओं को भी बलि दी जाती थी।

वास्तव में प्राचीन समय देशभर में नर बलि के भी उदाहरण मिलते हैं।  माना जाता है कि यह असुरी पूजा पद्धति थी। वैदिक आर्यों के कारण नर बलि कम होती चली गई और उसकी जगह पशु बलि को  प्राथमिकता मिलती चली गई। उत्तराखंड से लेकर आज के पश्चिम नेपाल में भी बलि प्रथा रही है। नेपाल में तो आज भी कुछ मस्टो देवताओं की पूजा में बलि दी जाती है। उत्तराखंड में वैदिक परंपरा के तहत जो वैष्णव धारा आई उसके प्रभाव से बलि प्रथा कम होती चली गई। और अब लगभग समाप्त हो गई।  इसके लिए बड़े आंदोलन भी हुए। यदाकदा कुछ घटनाएं कहीं हो जाती हैं।

नरबलि का सबसे बड़ा उदाहरण गढ़नरेश के सेनापति माधो सिंह भंडारी हैं।वे महिपत शाह के सेनापति थे। कहा जाता है कि माधो सिंह भंडारी ने अपने गांव मलेथा की कूल-गूल को बनाते हुए अपने पुत्र की बलि वहां पर दे दी थी। टिहरी के चंद्रबदनी मंदिर को लेकर भी कहा जाता है वहां भी कभी नरबलि होती थी। यह भी कहा जाता है कि वहां पर एक यंत्र था जिसे देखकर लोग स्वयं ही बलि के लिए उपस्थित हो जाता था।  कुमायुं के गंगोलीहाट के महाकाली पीठ के बारे में कहा जाता है कि वहां पहले मां काली  की सालाना पूजा यानी नवरात्रि के अष्टमी के अवसर पर किसी व्यक्ति की बलि दी जाती थी।कहा जाता है कि नौवीं शताब्दी में जब आदि शंकराचार्य वहां आए तो उन्होंने लोगों की प्रार्थना पर महाकाली की मूर्ति को  मंत्र से बांध दिया था। कहा जाता है कि वह मूर्ति बलि की मांग करती थी। आदि शंकर के प्रभाव  से कई जगह नरबलि प्रथा बंद हो गई थी। परंतु कई जगह यह  घृणित कुप्रथा जारी रही।  पिथौरागढ़ के थल के बालेश्वर मंदिर के बारे में यह कहा जाता है कि उसका निर्माण नहीं हो पा रहा था। इसलिए राजा बहुत परेशान था। एक रात सपने में  देवी ने राजा से कहा कि नरबलि देने पर ही मंदिर की नींव स्थिर हो पाएगी। इसके बाद राजा ने वहां काफी गहरी खुदवा दीऔर उसमें काफी मात्रा में चांदी के सिक्के डाल दिए। उसने घोषणा कर दी कि जो कोई उन सिक्कों को निकाल कर ला देगा, वे उसी के हो जाएंगे। लालच में जब व्यक्ति उस  गहरी खाई में उतरा तो राजा ने ऊपर से पत्थर डलवा दिए। इस तरह वहां नरबलि हो गई मंदिर भी बन गया।इसी तरह चंपावत के देवीधुरा की बगवाल यानी पाषाण युद्ध की परंपरा भी तांत्रिकों की बाराही देवी को नरबलि देने की परंपरा से जुड़ी है।  कहा जाता है कि चंद शासनकाल में गंगोलीहाट पिथौरागढ़ के हट काली की मां महाकाली को मानव बलि दी जाती थी। 

गढ़वाल में पवार शासनकाल में मां नंदा की द्वादशी पूजा के अवसर पर नौटी के श्रीयंत्र पर भी नियमित रूप से मानव बलि चढ़ाए जाने की बात कही जाती है।  19वीं सदी में ब्रिटिश सरकार ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया था। हालांकि इसके लिए नया रास्ता तलाश लिया गया। इसके तहत जब 12 वर्ष में मां नंदा को मानव बलि चढ़ाने का वर्ष आता था तो कोई व्यक्ति इसके लिए स्वयं को प्रस्तुत कर लेता था। वह अपने बाल व नामखून काटकर देवी की मूर्ति के सामने उपस्थित होता था। विधिवत पूजा अर्चना करने के उपरांत उसके सिर पर ज्यांदाल यानी चावल डाले जाते थे। उसके बाद उसे एकांत कमरे में ले जाता था। वहां वह किसी से न मिलता था, न बोलता था, न कुछ खाता था। इस तरह कुउ समय बाद उसकी मृत्यु हो जाती थी।  किंतु 19वीं सदी में नरबलि का यह रूप भी समाप्त हो गया। अंग्रेज सरकार ने सभी प्रकार की नरबलि प्रथा बंद करवा दी थी। बलि प्रथा मानव जाति में सदियों से सामाजिक व्यवस्था के तौर पर मौजूद रही है। इस व्यवस्था के तहत मनुष्य कई निर्दोष पशु-पक्षियों की हत्या कर देता रहा है। कुछ समाजों में तो यह प्रथा कुर्बानी के नाम पर अब भी जारी है। बलि प्रथा के मुख्यत: दो ही कारण पाए जाते हैं। एक-धार्मिक और दूसरा  स्वार्थवश। बलि प्रथा के तहत नर बलि व पशु बलि, पक्षी बलि रही है। प्राचीन समय में मनुष्य अपने को देवता का प्रिय होने के लिए निर्दोष मनुष्यों की बलि चढ़ा देते थे। इसी तरह प्राचीन काल से पशुओं की बलि दी जाती आ रही है।

उत्तराखंड में बलि अवश्य रही, परंतु जागरुकता आते ही लोग इसके खिलाफ आवाज भी उठाने लगे थे। भुवनेश्वरी महिला आश्रम के संस्थापक स्वामी मनमंथन ने इसके खिलाफ जागरूकता आंदोलन चलाया। उनके प्रयासों से 90 के दशक तक टिहरी जिले में चंद्रबदनी मंदिर समेत उत्तरकाशी व रुद्रप्रयाग के कई मंदिरों में बलि प्रथा समाप्त हो गई थी। इसी तरह रुद्रप्रयाग जिले में मंदाकिनी नदी के के तट पर स्थित सिद्धपीठ कालीमठ मंदिर में बलि प्रथा को समाप्त करने के लिए गबर सिंह राणा ने भी प्रयास किया था। उत्तराखंड के मंदिरों में बलि प्रथा शुरू होने के विभिन्न कारण रहे हैं। उदहारण के तौर पर प्रसिद्ध बूंखाल कालिंका मंदिर में  गोरखा आक्रमण के बाद  1805 में यह प्रथा शुरू हुई। यह कहानी लगभग अन्य मंदिरों की भी है। इस कुप्रथा के खिलाफ विभिन्न समाजसेवी संस्थाएं भी सक्रिय रही हैं। इसके बाद मामला अदालत भी पहुंचा। उत्तराखंड हाईकोर्ट ने  एक जनहित याचिका पर सुनवाई के बाद सितंबर, 2012 में पशु बलि पर प्रतिबंध लगाने का आदेश दिया था। मंदिरों में अब भैंसे की बलि प्रथा समाप्त हो चुकी है। परंतु बकरे और मुर्गे की बलि की घटनाएं यदाकदा सुनने को मिल जाती हैं।

इस तरह आदि शंकराचार्य के बाद अंग्रेजों ने उत्तराखंड में नरबलि की प्रथा पर रोक लगा दी थी। परंतु पशुबलि प्रथा लंबे समय तक जारी रही। मेरा मानना है कि बलि या कुर्बानी, यह प्रथाएं मानव समाज के लिए बहुत बड़ा कलंक हैं। इन पर तुरंत रोक लगाया जाना हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। बेजुबान पशु की हत्या करने वालों को कड़ी सजा दी जानी चाहिए।

==================== 

 

 

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here