अपने ईष्ट देवों को भूलते समाज उत्तराखंड के लोक देवता

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परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

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आप सभी से एक प्रश्न पूछ रहा हूं कि आपको मालूम है कि आपका (Lok devta of Uttarakhand) कुल देवता कौन है ? लोकदेवता कौन है? ईष्ट देवता कौन है?  और ग्राम देवता कौन है। मेरा मानना है कि अधिकतर लोगों को अब इसका जानकारी नहीं होगी। वैदिक और  पौराणिक देवताओं गणेश जी, मां दुर्गा,  भगवान विष्णु, शिवजी आदि के नाम तो सभी को मालूम हैं, परंतु दुख की बात है कि अपने उन कुल देवताओं को भूल  गए या भूलते जा रहे हैं जिन्हें पहाड़ के लोग सदियों तक  पूजते रहे। जिनके विश्वास पर जीते रहे। विशेषतौर पर शहरों में रह रहे लोगों ने तो अपने कुल देवता, लोकदेवता (Lok devta of Uttarakhand)और ग्राम देवताओं को विस्मृत कर दिया है। श्रीगणेश, मां दुर्गा, श्रीराम, श्रीकृष्ण, हनुमानजी से लेकर शनि महाराज आदि भगवान तो हमारे पूजा घरों में सम्मान के साथ विराजमान हैं, परंतु भी  सोचा कभी कि दूधिया नरिसंह, डोंड्या नरसिंह, भूमिया देवता, नरंकार, नागदेवता, सिद्ध देवता, बध्वाण देवता आदि स्मरण में हैं कि नहीं ? एक बात यह भी बता देता हूं कि उत्तराखंडी समाज को अपने कुल देवता इतने प्रिय थे कि लोगों को अपने अंतिम समय में अपने कुल देवता की पूजा की चिंता रहती थी। जिन लोगों के बेटियां ही होती थी वे अपने कुल देवता को अपने साथ ससुराल ले जाती थी औरउनकी पूजा परंपरागत तरीके से करती । इसलिए एक ही गांव के एक ही कुल के लोगों के कई बार कुल देवता भिन्न हो जाने का कारण यही रहा है।  बेटियां अपने ससुराल में अपने मां-पिता के सौंपे कुल देवता की ही पूजा करने लग जाती थी। उन्हें ही कुल देवता मान लेती थी। इतना अगाध प्रेम था अपने कुल देवतों से। परंतु आज शहरों में पलायन कर चुके लोगों के साथ ही गांवों में रह रहे लोग भी अपने कुल व ईष्ट देवी-देवताओं को भूल चुके हैं। शहरों के बाबाओं को भी पूज रहे हैं। परंतु अपने ईष्ट का स्मरण तक नहीं करते।

यदि अपने कुल देवता, लोकदेवता और ग्राम देवताओं को (Lok devta of Uttarakhand) ही पूरी तरह से भूल जाओगे, तो फिर हिमालय की संस्कृति भी खत्म हो जाएगी।  ग्रीक धर्म यानी प्राचीन यूनान का धर्म,  मेसोपोटोमिया यानी प्राचीन इराक का धर्म तथा  व बेबीलोनिया की तरह हो जाएगी।  ग्रीक धर्म  प्राचीन यूनान का सबसे मुख्य और राजधर्म था। ये एक मूर्तिपूजक और बहुदेवतावादी धर्म था। ईसाई धर्म के राजधर्म बनने के बाद ईसाइयों ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया और इसके देवी-देवताओं को शैतान करार दिया। इसके बाद ये लुप्त हो गया। इस धर्म में कई देवता थे । इनमें ज़्यूस (देवराज), डायोनाइसस, अपोलो, ईरोस, एरीस, हरमीस, हेडीस प्रमुख थे। उनकी प्रमुख देवियां हीरा, अथीना, डिमीटर, हेस्टिया, आदि थीं। इसी तरह मेसोपोटोमिया यानी प्राचीन इराक में भी लोग देवताओं की पूजा करते थे। बेबीलोनिया के लोग भी बहुदेववादी थे। उनके देवी-देवताओं की कुल संख्या 65 हजार थी। वे सुमेरिया सभ्यता के काफी देवताओं की पूजा करते थे। जैसे अनु यानी आकाश का देवता, शमश यानी  सूर्य, नन्न यानी  चंद्रमा, बेल यानी पृथ्वी,  निनगल यानी  चंद्रमा की पत्नी तथा एनलिल, इश्तर, और मार्डूक आदि थे। ये सुमेर लोगों को भी देवता थे। देवी-देवताओं की पूजा पुजारी लोग करते थे। इस्लाम आने के बाद यह सब कुछ खत्म हो गया। परंतु उत्तराखंड के लोगों के साथ ऐसा तो नहीं है। वे खुद अपने देवताओं को छोड़ रहे हैं। (Lok devta of Uttarakhand)

अब उत्तराखंड समेत  हिमालयी क्षेत्रों की बात करते हैं। यहां पर  यह बताना आवश्यक  है कि उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, नेपाल समेत पूरे हिमालयी क्षेत्रों  के लोगों के देवी- देवता शब्द की वही संकल्पना नहीं है, जो कि भारत के अन्य प्रांतों में है। अन्य समाजों में वैदिक और पौराणिक देवी देवताओं की पूजा होती है। इन देवताओं का परंपरागत इतिहास  है और उनकी पूजा पद्धति भी हैं। दूसरी ओर उत्तराखंड के प्रत्येक गांव तथा परिवार के अपने –अपने देवी- देवता होते हैं, जो कि उनके दुख- सुख से लेकर सांस्कृतिक, सामाजिक गतिविधियों के अभिन्न अंग होते हैं। यह कह सकते हैं कि पहाड़ में वैदिक तथा पौराणिक देवी देवताओं का स्थान स्थानीय देवताओं (Lok devta of Uttarakhand) के समक्ष गौण रहा है। यहां वैदिक व पौराणिक देवी-देवताओं के मंदिर भी बहुत बाद में बने।  वैदिक व पौराणिक देवी-देवताओं की परंपरागत एवं पर्व विशेष पर श्रद्धा के साथ पजा होती है। लोगों के दैनिक जीवन व व्यवहार में उनका कोई महत्व नहीं है। क्योंकि ये वैदिक व पौराणिक देवी देवता न तो उपेक्षा किए जाने पर उन्हें किसी दुख संकट या विपत्ति में डाल सकते हैं और न पर कोई प्रतिक्रया ही दे सकते हैं।दूसरी ओर स्थानीय देवता यह दोनों ही कार्य करने का भरपूर सामर्थ रखते हैं। सदियों से मान्यता रही है कि  ये कुल या ग्राम देवता अपनी अवहेलना करने या उनकी नियमित पूजा व आराधना नहीं  करने पर नाराज हो जाते हैं। रुठ जाते हैं और मनुष्य को विपत्ति में डाल सकते हैं। दूसरी और नियमित पूजा, अनुष्ठान से उन्हें प्रसन्न किया जा सकता है। उनमें सभी प्रकार के दुखों का निवारण करने की अलौकिक शक्ति होती है। लोग संस्कृत के मंत्रों की बजाए अपनी बोली-भाषा में भगवान से संवाद कर सकते हैं। उनके जागर लगाकर उन्हें किसी पर अवतरित भी करा सकते हैं। इन देवी देवताओं के विशेष मंदिर भी नहीं होते। कुछ स्थानों पर त्रिशूल गाड़कर या पत्थर लगा कर उनका थान बना दिया जाता है। प्रकृति से जो कुछ वस्तु जैसे की फूल-पत्तियां उनको मिलती रही हैं, उसे भी श्रद्धाभाव से भगवान को भेंट कर दिया जाता रहा है। कुछ देवता ऐसे अवश्य रहे हैं, जिन्हें बलि दी जाती थी।

उत्तराखंड के लोक देवी-देवताओं की कई श्रेणियां हैं।(Lok devta of Uttarakhand) एक हैं कुल देवता या ईष्ट देवता। जिनको एक कुल या थोक के लोग पूजते हैं। दूसरे है ग्राम देवता। जिन्हें पूरा गांव पूजता है। एक वे देवता हैं जो कि लोग देवता हैं। उन्हें समाज का बड़ा हिस्सा पूजता है। उत्तराखंड में अनगिनित स्थानीय या लोक  देवी-देवता हैं। माना जाता है कि  ये  प्राचीन देवता यहां के प्राचीन निवासियों- कोल, किरात,खस आदि के समय से पूजे जाते रहे हैं। इनमें नागराज, घंडियाल, नरसिंह, भूमिया या भूभ्याल, भैरव, भद्राज और महासू, जाखदेवता (यक्ष), घण्डियाल, सौंल्या, नगेला आदि देवता विशेष स्थान रखते हैं। ये उत्तराखंड के विभिन्न क्षेत्रों में पूजे जाते है। भगवान शिव और शक्ति के उपासक होने के बावजूद यहां के लोगों में लोक देवताओं की पूजा की एक समृद्ध परंपरा रही है। देवियों में नंदा देवी, राज राजेश्वरी, झाली-माली देवी, अनसूइया देवी, दीवा देवी, कालिंका, ज्वाल्पा, सुरकंडा, नैना, भद्रकाली, बाराही प्रमुख हैं। इनको अब मां भगवती के स्वरूप के तौर पर ही पूजा जाने लगा है। इसी तरह गोलू देवता, ऐड़ी देवता, भैरव आदि देवताओं के कई मंदिर हैं। उत्तराखंड के प्रत्येक गांव में भूमिया या भूम्याल देवता होते हैं। वे गांव के रक्षक होते हैं। क्षेत्रपाल के तौर पर भी लोकदेवता हैं। नागों की पूजा तो कश्मीर से  लेकर नेपाल तक पूरे हिमालयी क्षेत्र में मिलती है। नेपाल के खस मस्टो देवता की पूजा करते हैं। ग्वालिया देवता  ग्वालों एवं पशुचारकों, खड़पत्या, सौंल्या पथिकों के रक्षक देवता हैं। जौनसार क्षेत्र में पूजे जाने वाले महासू देवता न्याय के देवता हैं। महासू देवता चार भाई हैं। उनका मुख्य मंदिर हनोल, चकराता में स्थित है।कुछ देवता ऐसे भी हें जिनके बारे में कहा जाता है कि वे लोगों को आवाज लगाकर आपदाओं से बचने के लिए सतर्क करते थे। इनमें लैंसडौन क्षेत्र के ताड़केश्वर महादेव प्रमुख हैं।

उत्तराखंड में लोकदेवता (Lok devta of Uttarakhand) या पारिवारिक देवताओं में नरसिंह देवता विष्णु भगवान के अवतार के रूप में नहीं पूजे जाते हैं। वे नाथपंथी जोगी हैं। उनके जागरों में उनके 52 वीरों और नौ रूपों का वर्णन किया जाता है। सबसे बड़े दूधिया नरसिंह है और सबसे छोटे डौंडिया नरसिंह हैं। दूधिया नरसिंह दूध, रोट अथवा श्रीफल से शांत होते हैं। वे शांत प्रवृति के देवता हैं, जबकि डौंडिया नरसिंह में बकरे की बलि की प्रथा रही है।  वे रुठने पर कष्ट देते हैं। डौंड्या नरसिंह की तरह भैरों आदि अशान्त देवता हैं।

गढ़वाल  का समाज उत्तरदिशाधिपति यक्षराज कुबेर को अपना संरक्षक मानता रहा। सीमान्तक ग्राम माणा में मणिभद्र यक्ष की पूजा होती रही है।  पर्वत-शिखरों पर घण्डियाल या घण्टाकर्ण यक्ष की पूजा होती थी।  टिहरी गढ़वाल की धार अकरिया पट्टी में घण्टाकर्ण शिखर पर घण्टाकर्ण का थान है। मार्गशीर्ष से फाल्गुन तक चलने वाली घण्टाकर्ण की जात में उनके साथ उनके भाई लाटू तथा हीत भी चलते हैं। पौड़ी के निकटवर्ती ग्रामों का भूमिया (क्षेत्रपाल) कण्डल यक्ष ही है। बाद में वही अपभ्रंश रूप में कण्डलिया  या कण्डोलिया हो गया। (Lok devta of Uttarakhand)

इसी तरह वीर पुरुषों की भी पूजा होती है। इनमें पांडव, कत्यूरी राजा धामदेव आदि, नाथ संप्रदाय के गुरु गोरखनाथ, गुरु सत्यनाथ, नागनाथ, जिया रानी,  तीलू रौतेली, आदि शामिल हैं। इसी क्रम में कुमायुं में ग्वाल्ला या गोलू देव, भोलानाथ, सैम देव, कैल बिष्ट, हवादार, कलुआ, हरु, सिदुवा-विदुवा, गंगनाथ, मलैनाथ आदि शामिल हैं। इनमें कुछ वे लोग हैं जो अपने कर्मों से जो देवत्व का स्थान पा गई। (Lok devta of Uttarakhand) इनके साथ ही अपने पितरों यानी पुरखों को भी पूजने की परंपरा रही है। पितृ-पूजा भी लोगों के जीवन का अभिन्न अंग रहा है। गांवों में सपिण्डी परिवारों की अपनी-अपनी पितर-कुड़ि होती थी। वैसे पितर कुड़ि की परंपरा सभी खस समाजों में रही है। नेपाल में यह परंपरा आज भी कायम है। इसके अलावा यह भी लोक-विश्वास रहा है कि अकाल मृत्यु को प्राप्त बालक, युवा-युवतियों की आत्माए भूत, पिशाच और आंछरी बन जाती हैं। माना जाता है कि ये अतृप्त आत्माएं पर्वत-शिखरों, नदी-तटों तथा अंधेरी सुनसान घाटियों में घूमा करती हैं। उनके सम्पर्क में आते ही लोगों की मृत्यु हो जाती है। इसलिए लोग उनकी भी पूजा करके उन्हें सन्तुष्ट करते थे।

अंत में यही कहना है कि यहां का कोई पर्वत शिखर या पहाड़ी  चोटी या नदियों या गाड- गधेरा नदी नाला ऐसा नहीं है, जहां देवी- देवता का आवास न हो। प्रकृति केसाथ रह लोगों ने प्रकृति के स्वरूप को ही लोक देवता के रूप में पूजा की। परंतु आज यह सब छूट रहा है। यह चिंता का विषय है।

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