यह है पौराणिक काल का स्वर्ग लोक —  जानिए

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परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

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स्वर्ग को लेकर बात शुरू करने से पहले ही मैं साफ कर देना चाहता हूं कि यह वीडियो पौराणिक गाथाओं पर आधारित है। भारतीय जीवन में पौराणिक गाथाओं का बड़ा महत्व है। इसे नकारा नहीं जा सकता है। स्वर्ग की अवधारणा सिर्फ हिंदुओं में है, ऐसा नहीं है। अब्राहमिक धर्म यानी यहूदी, ईसाई व मुसलमान भी स्वर्ग की कल्पना से बंधे हैं। यह कह सकते हैं कि मानव सभ्यता पूरी तरह से स्वर्ग व नरक  की अवधारणा से भरी है। मैं स्वर्ग की बात उस विश्वास के हवाले से कह रहा हूं, जिस पर विश्व के लगभग  सभी  धर्म विश्वास करते हैं। अधिकतर धर्म मानते हैं कि स्वर्ग है। सनातन धर्म में भी स्वर्ग -नरक और स्वर्ग लोक तथा नरक लोक की कल्पना की गई है।

कभी आपके मन में आया कि यह स्वर्ग लोग कहां है? हिंदुओं ने सात लोकों की कल्पना की है। इसमें तीसरा लोक जो ऊपर आकाश में सूर्य लोक से लेकर ध्रुव लोक तक माना जाता है, वही स्वर्ग लोक है। स्वर्ग लोक को कल्पना भी कह सकते हैं  और सच्चाई भी। लगभग सभी धर्म मानते हैं कि मनुष्य को उस के अच्छे या बुरे कर्मों का फल अवश्य मिलता है। यह फल कैसे और कब मिलता है, इसको लेकर अलग अलग बातें कहीं गई हैं। यह भी कह सकते हैं की मनुष्य को सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करने के लिए ही स्वर्ग और नरक की कल्पना की गई होगी। कर्म के फल की प्राप्ति को लेकर ही स्वर्ग व नरक की कल्पना की गई । हिंदुओं के पौराणिक ग्रंथों के अनुसार मनुष्य को अपने कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। स्वर्ग लोक या देवलोक हिन्दू मान्यता के अनुसार ब्रह्माण्ड के उस स्थान को कहते हैं जहां हिन्दू देवी-देवताओं का वास है।

देवताओं का यही निवास स्थान स्वर्गलोक माना गया है। मान्यता है कि जो पुण्य और सत्कर्म करने वाले लोगों की मृत्यु के बाद उनकी आत्माएं  स्वर्ग लोक में जाकर निवास करती हैं । मान्यता है कि इस लोक में केवल सुख ही सुख है, दुःख, शोक, रोग, मृत्यु आदि का नाम भी नहीं है । जो प्राणी जितने ही अधिक सत्कर्म करता है, वह उतने ही अधिक समय तक स्वर्ग लोक में निवास करने का अधिकारी होता है । परंतु पुण्यों का क्षय हो जाने अथवा अवधि पूरी हो जाने पर जीव को फिर कर्मानुसार शरीर धारण करना पड़ता है, और यह क्रम तब तक चलता रहता है, जब तक उसकी मुक्ति नहीं हो जाती । यानी मोक्ष प्राप्त नहीं हो जाता है। यहां अच्छे अच्छे फलों वाले वृक्षों, मनोहर वाटिकाओं और अप्सराओं आदि का निवास माना जाता है । स्वर्ग की तरह नरक की कल्पनाभी की गई है। नरक की कल्पना स्वर्ग के बिलकुल विपरीत है।बुरे कर्म करने वालों को नरक जाना पड़ता है। नरक में दुख  व असहनीय कष्ट मिलते हैं,  पापों की सजा मिलती है। लगभग सभी धर्मों, देशों और जातियों में स्वर्ग और नरक की कल्पना की गई है । ईसाइयों के अनुसार स्वर्ग ईश्वर का निवास स्थान है और वहां फरिश्ते तथा धर्मात्मा लोग अनंत सुख का भोग करते हैं । मुसलमानों का स्वर्ग बिहिश्त कहलाता है। मुसलमान भी बिहिश्त को खुदा और फरिश्तों के रहने की जगह मानते हैं । उनका मानना है कि दीनदार लोग मृत्यु के बाद वहीं जाएंगे। उनका बिहिश्त इंद्रिय सुख की सब प्रकार की सामग्री से परिपूर्ण है। वहां दूध और शहद की नदियां तथा समुद्र हैं, अंगूरों के वृक्ष हैं और कभी वृद्ध न होने वाली हूरें यानी अप्सराएं हैं । यहूदियों के यहां तीन स्वर्गों को कल्पना की गई है।

अब प्रश्न यह है कि सनातन धर्म मानने वालों का यह स्वर्ग कहां पर है। रघुवंशम् महाकाव्य में महाकवि कालिदास समृद्धिशाली राज्य को ही स्वर्ग की उपमा देते हैं। विष्णु पुराण के अनुसार, कृतक त्रैलोक्य — भूः, भुवः और स्वः – ये तीनों लोक मिलकर कृतक त्रैलोक्य कहलाते हैं। सूर्य और ध्रुव के बीच जो चौदह लाख योजन का अन्तर है, उसे स्वर्ग लोक कहते हैं। हिंदू धर्म में माना गया है कि स्वर्ग, मेरु या सुमेरु पर्वत पर है। यह वह स्थान है, जहां पुण्य करने वाला अपने पुण्य क्षीण होने तक अगले जन्म लेने से पहले तक रहता है। यह स्थान उन आत्माओं के लिए नियत है, जिन्होंने पुण्य तो किए हैं, परंतु उन्हें  अभी मोक्ष या मुक्ति नहीं मिली है। वहां सब प्रकार के आनंद हैं, तथा वे पापों से परे हैं। स्वर्ग  के राजा इंद्र हैं जो कि देवताओं के प्रधान भी हैं। स्वर्ग की राजधानी अमरावती मानी गई है, इंद्र का वाहन ऐरावत है। वहां कल्पतरु भी है।

अब बात करते हैं धरती पर स्वर्ग लोक की। पौराणिक काल से हिमालय क्षेत्र को ही स्वर्गलोक कहा जाता था। यह स्वर्ग लोक बद्रीनाथ, केदारनाथ से लेकर कैलाश-मानसरोवर क्षेत्र को माना जाता था। बद्रीनाथ धाम के पास ही कुबेर की नगरी अलकापुरी थी। हिन्दू धर्म के अनुसार अल्कापुरी एक पौराणिक नगरी थी। यह यक्षों के स्वामी, धन के देवता कुबेर की नगरी है।  महाभारत में इस नगरी का उल्लेख यक्षों की नगरी के रूप में आता है। इस नगरी की तुलना देवताओं के राजा इंद्र की राजधानी से भी की जाती है। महाकवि  कालिदास ने मेघदूत में अलकापुरी का उल्लेख एवं वर्णन किया है।इसमें कहा गया है कि अलकापुरी हिमालय में कैलाश पर्वत के निकट अलकनंदा नदी के तट पर स्थित है। पौराशिक ग्रंथों के अनुसार उत्तर दिशा के दिक्पाल कुबेर धन व विलास के देवता कहे गए हैं। वे यक्षों के अधिपति हैं। प्राचीन ग्रंथों में उन्हें वैश्रवण, निधिपति एवं धनद नामों से भी सम्बोधित किया गया है। वे ब्रहमा के मानस पुत्र पुलस्त ऋषि के पुत्र ऋषि वैश्रवा के पुत्र थे। वराह पुराण में कहा गया है कि उन्हें ब्रहमा जी ने देवताओं का धनरक्षक नियुक्त किया था।माना जाता है कि महाभारत में जिस मणिभद्र यक्ष का जिक्र है, वह बद्रीनाथ के पास माणा में ही निवास करते थे।

रामायण समेत धर्म ग्रंथों के अनुसार रावण के दो सगे भाईयों कुंभकरण व विभीषण के अलावा एक सौतेले भाई कुबेर थे। । रामायण के अनुसार कुबेर को उनके पिता ऋषि विश्रवा ने रहने के लिए सोने की लंका प्रदान की। ब्रह्माजी ने कुबेरदेव की तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें उत्तर दिशा का स्वामी व धनाध्यक्ष बनाया था। इसके साथ ही मन की गति से चलने वाला पुष्पक विमान भी दिया था। अपने पिता के कहने पर कुबेरदेव ने सोने की लंका अपने भाई रावण को दे दी और कैलाश पर्वत पर अलकापुरी बसाई। रावण जब विश्व विजय पर निकला तो उसने अलकापुरी पर भी आक्रमण किया। रावण और कुबेरदेव के बीच भयंकर युद्ध हुआ, लेकिन ब्रह्माजी के रावण को दिए वरदान के कारण  युद्ध में पराजित हो गए। रावण ने बलपूर्वक कुबेर से ब्रह्माजी द्वारा दिया हुआ पुष्पक विमान भी छिन लिया। रावण ने स्वर्ग जाने व अमर होने के लिए हरिद्वार के हरकी पैड़ी तथा हिमाचल प्रदेश के तीन स्थानों पर सीढ़ियां भी बनाई थी। पांचवीं सीढ़ी बनाने से पहले ही उसे नींद गई और वह भगवान भोलेनाथ की शर्त पूरी नहीं कर पाया था। इसलिए स्वर्ग नहीं जा पाया।

महाभारत में कहा गया है कि बिना मानवीय शरीर छोड़े स्वर्गरोहिणी का रास्ता है जहां से स्वर्ग जाया जा सकता है। मान्यता है कि उत्तराखंड के गढ़वाल में हिमालय के बंदरपूंछ में स्थित – स्वर्गारोहिनी- चोटी से ही स्वर्ग का रास्ता जाता है। इसलिए पांडव भी स्वर्ग जाने के लिए हिमालय ही आए। यह भी कहा जाता है कि युधिष्ठिर और श्वान यानी कुकुर सीढ़ियों के माध्यम से स्वर्ग गए। यह स्थान उत्तराखंड में बदरीनाथ धाम के पास मौजूद है ।

यह कथा इस तरह है। महाभारत के 18 अध्यायों में 17वे अध्याय, महाप्राथनिका पर्व में लिखा है कि कुरुक्षेत्र के युद्ध के बाद राज करने के बाद पांचों पांडवों ने अपनी पत्नी द्रौपदी में साथ सन्यास ले लिया था।  वे हिमालयकी शरण में चले आए थे। स्वर्ग की और अपने इस अंतम यात्रा में उन्हें एक-एक कर अपने कर्मों का फल मिलने लगा। सबसे पहले द्रौपदी की मृत्यु हुई। उनका दोष था बाकियों के मुकाबले अर्जुन से उनका ज्यादा प्रेम। सहदेव इस यात्रा को पूरा न कर सके और मारे गए क्योंकि उनको अपने ज्ञान पर बहुत घमंड था। इसके बाद नकुल और अर्जुन की मृत्यु हुई जिसका कारण भी उनका अभिमान था। फिर भीम की बारी आयी और उनका दोष था उनका लालच। ये लम्बी यात्रा पांडवों को हिमालय की गोद तक ले कर तो गयी पर युधिष्ठिर को छोड़ एक-एक कर सबकी मृत्यु हो गयी। यह माना जाता है की एक कुत्ते के भेस में छुपे धर्म के साथ युधिष्ठिर ने स्वर्ग की सीढ़ियां यहीं चढ़ी थी। इसके बाद युधिष्ठिर और श्वान ने ही पुष्पक विमान से सशरीर स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया था।

स्वर्गारोहिणी समुद्रतल से करीब 15000 फीट की ऊंचाई पर  है। मान्यता है कि पांडवों ने स्वर्ग की यात्रा आरंभ करने से सतोपंथ झील में स्नान किया था। यही अलकनंदा नदी का उदगम है। सतोपंथ झील से चार किमी खड़ी चढ़ाई चढ़ने के बाद स्वर्गारोहिणी के दर्शन हो पाते हैं। मान्यता है कि पांडवों ने स्वर्ग की यात्रा आरंभ करने से पहले सतोपंथ झील में स्नान किया था।  यहां से ही अलकनंदा नदी का उदगम होता है। इस झील की लोग परिक्रमा भी करते हैं, ऐसा करना काफी पुण्यदायी माना जाता है। सतोपंथ झील से चार किमी की चढ़ाई के बाद स्वर्गारोहिणी के दर्शन हो पाते हैं।महाभारत की कथा से यह तो मालूम हो गया होगा कि स्वर्ग का रास्ता उत्तराखंड से जाता था।

अब अंत में बताता हूं कि आखिरकार यह स्वर्ग कहां था। वैसे तो हिंदू धर्म में तीन स्वर्गों की कल्पना की गई है। एक स्वर्ग देवराज इंद्र का है। दूसरा भगवान विष्णु का वैकुंठ धाम और तीसरा भगवान शिव भोलेनाथ का केदारखंड से कैलाश तक का क्षेत्र। हिमालयी जनजीवन में इसी को स्वर्ग माना गया है। यह स्वर्ग बदरीनाथ-केदारनाथ से लेकर कैलाश- मानसरोवर क्षेत्र में था। कभी कैलाश-मानसरोवर तक का क्षेत्र उत्तराखंड के शासकों के तहत था। कुमायुं का पौराणिक नाम मानसखंड ही है। यह मानसरोवर के कारण पड़ा है। यानी पौराणिक तौर पर मानसरोवर हिमालय तक का क्षेत्र कुमायुं का हिस्सा माना जाता है। इस क्षेत्र को त्रिपिष्टप एवं त्रिविष्टप कहा जाता था। त्रिविष्टप शब्द संस्कृत भाषा का है।तिब्बत नाम उसी का तद्भव रूप है। अर्थात उसी से निकला है। त्रिविष्टपम् स्वर्गः=त्रिविष्टप स्वर्ग का नाम है।इसीलिए कहा गया है- विशन्ति अस्मिन् सुकृतिनः। अर्थात् इसमें अच्छे कर्म करनेवाले प्रवेश करते हैं। देवों के निवासस्थल को त्रिविष्टप कहते हैं। कैलाश पर्वत एवं मानसरोवर आज के तिब्बत में हैं। पवित्र मानसरोवर झील से निकलने वाली सांगपो नदी,पश्चिमी कैलाश पर्वत के ढाल से नीचे उतरती है तो ब्रह्मपुत्र कहलाती है।पौराणिक ग्रंथों के अनुसार वैवस्वत मनु ने जल प्रलय के बाद इसे ही अपना निवास स्थान बनाया था। केदारखंड में प्रथम पुरुष मनु और प्रथम नारी  शतरूपा का मिलन हुआ। यहीं से उनके वंशजों यानी मानव का विस्तार हुआ। वैवस्वत मनु, जिन्हें श्रद्धादेव भी कहा जाता है,जलप्रलय के समय बहुत दिनों तक अपना समय नाव में बिताने के बाद उनकी नाव गौरीशंकर यानी सगर माथा यानी माउंट एवरेस्ट के शिखर से होते हुए नीचे उतरी थी।  यानी पौराणिक हिमालय से ही मानव अन्य स्थानों पर फैले।

दूसरी और जो मंगोल तिब्बत है, उस तिब्बत का पुराना नाम – बोड- था। तिब्बतवासी उसे इसी नाम से जानते थे।। बाद में उन्होंने हिंदुओं के नाम तिब्बत को अपना लिया। मैं भारत के हिस्सा रहे कैलाश-मानसरोवर क्षेत्र की बात कह रहा हूं, यही तिब्बत, वेद-पुराणों का त्रिविष्टप है।मंगोल – बोड-तिब्बत नहीं। महाभारत के महाप्रस्थानिक पर्व में स्वर्गारोहण में स्पष्ट किया गया है कि तिब्बत यानी त्रिविष्ट हिमालय के उस भाग को पुकारा जाता था जिसमें नन्दन कानन था,जहां देवराज इन्द्र का निवास था। इन्द्र सहित सभी देवों का निवास स्थान यहीं था।देवाधिदेव महादेव भगवान् शंकर का निवास भी कैलाश ही है।माता पार्वती भी हिमालय की ही पुत्री हैं। माना जाता है कि बहुत अधिक ऊंचाई पर होने तथा एवं गगन चुम्बी,हिमाच्छादित पर्वतों का प्रदेश होने के कारण केदारखंड-कैलाश- मानसरोवर क्षेत्र को स्वर्ग कहा गया है। इसिलए कहा गया है कि –स्वयं गम्यते यत्र असौ स्वर्गः अर्थात  जहां स्वयं अपनी क्षमता से जाया जा सके,वह स्वर्ग है।  

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