कुमायुं के जजमानों का इतिहास
परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा
हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली
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इस मामले में मैं पहले ही साफ कर देता हूं कि मैं इतिहास का उल्लेख कर रहा हूं। किसी को महिमामंडित करने का मेरा कोई उद्देय नहीं है। कुमायुं के जजमानों को लेकर इस आलेख का आधार कुमायुं केसरी बद्रीदत्त पांडे, इतिहासकार डा. शिवप्रसाद डबराल चारण, हिमालय के इतिहासकार एटकिंशन, प्रसिद्ध साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन, इतिहासकार डा. शंतन सिंह नेगी आदि की पुस्तकें तथा कुमायुंनी लोगों से मिली जानकारी हैं। मैं पहले भी कहता रहा हूं कि अधिकतर इतिहासकार मानते हैं कि उत्तराखंड में ८० प्रतिशत क्षत्रिय (Kumaoni Rajput) खस मूल के हैं। हालांकि अब कोई भी यह मानने को तैयार नहीं है कि वे खस हैं। मैदानों से गए वैदिक क्षत्रियों के साथ उनके रोटी-बेटी के संबंध हो जाने से खस राजपूत व मैदानी राजपूत का भेद अब लगभग पूरी तरह से मिट गया है। गढ़वाल की तरह कुमायुं के अधिकतर जजमान (Kumaoni Rajput)भी अब सभी अपनी जड़ें मैदानों में तलाशते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि अधिकतर खस मूल के हैं।
आप जानते ही हैं कि उत्तराखंड कत्यूर शासन तक एक ही प्रशासनिक इकाई था। कत्यूरी शासन का आरंभ 850 ई. के लगभग हुआ और १२ वीं सदी तक ये लगभग समाप्त हो गया। इसके समाप्त होने के बाद गढ़वाल में पंवारों और कुमायुं में चंदों के उदय के बाद दोनों अलग-अलग प्रशासनिक इकाई हो गए। कुमायुं केसरी बद्रीदत्त पांडे ने कुमायुं के क्षत्रिय जातियों को मैदानों के क्षत्रियों की तरह सूर्यवंशी और चंद्रवंशी के तौर पर विभाजित किया है।वे अकेले इतिहासकार हैं जो कत्यूरियों को सूर्यवंशी मानते हैं, जबकि अधिकतर इतिहासकार कत्यूरियों को खस मानते हैं। यह मैं पहले ही कह चुका हूं। इतिहास साक्षी है कि कत्यूरी राजवंश खस राजवंश था। जैसा कि कत्यूरियों को लेकर बनाई वीडियो में भी कह चुका हूं। यह वीडियों इस चैनल में देख सकते हैं। चूंकि पांडे जी कत्यरियों को सूर्यवंशी मानते हैं। इसलिए उन्होंने इनको सूर्यवंशी क्षत्रियों की श्रेणी में रखा है। पांडे जी की पुस्तक –कुमायुं का इतिहास – में सूर्यवंशी, चंद्र वंशी व खस क्षत्रियों के तौर पर श्रेणियां बनाई गई हैं। जबकि अधिकतर इतिहासकार मानते हैं कि उत्तराखंड में ८० प्रतिशत क्षत्रिय (Kumaoni Rajput) खस मूल के हैं। हालांकि अब कोई भी यह मानने को तैयार नहीं है कि वे खस हैं। हिंदी के प्रसिद्ध लेखक मलिक मुहम्मद जायसी ने अपनी रचनाओं में कुमायुं को खस देश कहा था।
अब बात कत्यूरियों से शुरू करते हैं। कत्यूरियों ने जोशीमठ से लंबे समय तक उत्तराखंड में शासन किया। बाद में कत्यूरी अपनी राजधानी जोशीमठ से कत्यूर घाटी के बैजनाथ ले गए थे। इसलिए कत्यूरों के वंशज आज भी गढ़वाल और कुमायुं, दोनों मंडलों में मिलते हैं। गढ़वाल में कैत्युरा और कुमायुं में रजवारों कत्यूरियों का वंशज माना जाता है। अधिकतर लेखक मानते हैं कि कत्यूरी भी खस थे। सिर्फ बद्रीदत्त पांडे ही खत्यूरियों को अयोध्या से आए सूर्यवंशी बताते हैं। कत्यूरी राजवंश पर मैं एक वीडियो यहां पहले ही ला चुका हैं। आप उसे देख सकते हैं।कत्यूरियों को लेकर प्रमुख तौर पर चार तरह की थ्योरियों सामने आती हैं। पहली थ्योरी है कि – कत्यूरी उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में शासन करने वाले कुणिंदों के ही वंशज थे। कत्यूरों का शासन आज के गढ़वाल और कुमांयु के उत्तरी क्षेत्र तथा नेपाल के डोटी तक फैला था। एटकिंशन भी इसी थ्योरी को मानते हैं। कत्यूरियों को हराने वाले डोटी नरेश अशोक चल्ल के बोधगया के शिलालेख में भी उनको खस नरेश बताया गया है।दूसरी थ्योरी इतिहासकार बद्री दत्त पांडे की है। पांडे जी अपनी पुस्तक अपनी पुस्तक कुमायुं का इतिहास में लिखते हैं कि कत्यूरी, अयोध्या के शालिवाहन शासकों के वंशज हैं। वे सूर्यवंशी हैं। तीसरी थ्योरी यह है कि कत्यूरी अफगानिस्तान के कटोर या कटोरमान जाति से थे। डा. शंतन सिंह नेगी अपनी पुस्तक -मध्य हिमालय का राजनीतिक व सांस्कृतिक इतिहास में लिखते हैं कि इतिहासकार एटकिंशन ने कत्यूरी या कटार को काबुल और पश्चिमी हिमालयी की ढलानों पर बसी कटोर या कटोरमान नामक आयुधजीवी जाति का वंशज बताया है। इतिहासकार इलियट और डौसन भी यही मानते हैं। जबकि कनिंघम ने कत्यूरियों का संबंध शकों की कुषाण शाखा से जोड़ते हुए कटोरमान या किटोराम को किदार- कुषाण का रूपांतर माना है। चौथी थ्योरी यह है कि कत्यूरी आज के नेपाल के डोटी के थे। कत्यूर घाटी से लेकर नेपाल तक कत्यूरियों के कुलदेवता कार्तिकेय हैं। राहुल सांकृत्यायन ने कत्यूरियों को शक वंश से संबंधित माना है, सांकृत्यायन खस और शक को एक ही मानते हैं। (Kumaoni Rajput)
कमायुं में कत्यरियों के वंशज रजवार हैं। इनमें अस्कोट के राजवार, जसपुर के राजवार, सल्ट, सहनमानुर, कहेड़गांव, तामाढौंन के मनुराल, तथा उदयपुर, भल्टगांव और हाट व चचरौटी के मनुराल शामिल हैं। चंद नरेश बाजबहादुर चंद ने इनका राज छीन लिया था।इनके अलावा साबली बिष्ट साबलिया बिष्ट कहलाते हैं। बंगारस्यूं के बंगारी अब रावत भी कहलाते हैं। ये भी स्वयं को भी सूर्यवंशी बताते हैं।
बिष्ट- यह चंद राजों के समय एक पद था, जो कि बाद में जातिसंज्ञा नाम बन गया। बिष्ट लोग कश्यप,भारद्वाज और उपमन्यु गोत्र के होते हैं। कहा जाता है कि बिष्ट जाति के प्रथम पुरुष चित्तौड़गढ़ से आए। उपमन्यु गोत्र के बिष्ट उज्जैन से गढ़वाल के साबली आए। वहां से कुमायुं आए। बिष्ट कई उप जातियों में बंटे हैं। इनमें बोरा,दरम्वाल, सैन, गैड़ा, बिस, रया, खरकू, काथी, खंडी, उलसी, मिलौला, चिलवाल, डहिला, भैंसोड़ा, चम्याल, बानी, धनिया, बगड़वाल, प्रमुख हैं। छखाता, के सौंन बिष्ट अपने को बहेड़ी के ठाकुर कहते हैं।
कालाकाटी- ये दानपुर में रहते हैं। जबकि कड़ाकोटी- अधिकतर ककलौंसा में रहते हैं।दोनों ही स्वयं को सूर्यवंशी बताते हैं।
अन्य सूर्यवशी क्षत्रियों में रैकाल, उदयपुर के मनराल, पडयार, ब्रह्म या बम तथा कारकी शामिल हैं।
रैकाल- रैका मल्ल राजा के वंशज हैं। वे कभी डोटी और सोर सीरा के राजा थे। ये उसी क्षेत्र में रहते हैं।
उदयपुर के मनराल भी सूर्यवंशी बताते हैं।
पडियार- चोगखार् के पडयार, भारद्वाज गोत्र के हैं। स्वयं को डोटी के मल् राजाओं के वंशज बताते हैं । गढ़वाल में भी इसी नाम से जाने जाते हैं। किंतु कुमायुं में बिष्ट भी कहे जाते हैं। जब से वे चौगर्खा में बस, पडियार कहे गए। ये अन्य जगह बिष्ट कहे जाते हैं । सूर्यवंशी बताते हैं।
ब्रह्म या बम-
ये सोर के प्राचीन राजा के वंशज हैं । नेपाल में भी हैं । अपने को सूर्यवंशी बताते हैं ।
कारकी-
ये अपने को चित्तौड़गढ़ के राजा के वंशज और सूर्यवंशी भी बताते हैं। हालांकि कार्की लोग नेपाल में खस जाति में शामिल हैं । कत्यूरियों के समय यहां आए थे।
अब चंद्रवंशियों की बात करते हैं। बद्रीदत्त पांडे की पुस्तक के अनुसार आगे बढ़ते हैं। कुमायुं में कत्यूरियों के बाद चंदों का राज आया। एटकिन्सन के अनुसार चंद वंश के संस्थापक सोमचंद थे। चंद खुद को ये चंद्रवंशी बताते हैं। कुछ लोग मानते हैं कि चंद झूसी से आए, जबकि कुछ लोग मानते हैं कि वे कन्नौज के चंदेल हैं। ये चंद पूरे कुमायुं मंडल में बसे हैं। चंद चंद्रवंशी हैं।
रौतेला-
ये चंदों के वंशज हैं। चंदों के बड़े बेटे को गुसांईं कहा जाता था। बड़े बेटा राज्य का अधिकारी होता था। छोटे बेटों को रौतेला कहा जाता था। एटकिंसन का मत है कि इन रौतेलों में दोनों, असल व कमअसल शामिल हैं। ये कुमायुं के साथ ही गढ़वाल में भी हैं।
एटकिंसन के अनुसार परगना सोन पट्टी खड़ायत में मौजाजीवी व सलमोड्रा। कोटा में मौजा परेवा तथा परगना ध्यानीरो पट्टी मल्लीरो में जमराड़ी व रौतेलकाटा के गांवों के रौतेला, ये तीनों अपने को अन्य रौतेलाओं ने श्रेष्ठ मानते हैं। विभिन्न तरह के रौतेला अपने को कश्यप बताते हैं।
भंडारी- यह एक पद होता था। जैसा कि इसके शाब्दिक अर्थ से साफ है कि भंडार का रक्षक या भंडारण की व्यवस्था देखने वाला। बद्रीदत्त पांडे ने भंडारी जाति को चन्द्रवंशी माना है। कहा जाता है कि भंडारी लोग चौहान हैं। उनके प्रथम पुरुष राजा सोमचंद के शासन में राज्य के भंडारी थे। यह भी कहा जाता है कि भंडारी लोग नेपाल के डोटी से आए। यह भी कहा जाता है कि वे महाराष्ट्र के कोंकण से आए। भंडारी लोग चंपावत के पास वजीरकोट में बसे थे। बाद में राजधानी अल्मोड़ा आने के बाद उन्हें अल्मोड़ा के पास भंडरगांव या भनरगांव में बसे।
खरकू-ये रौतेला गुसाईं अपने को कत्यूरी कहते हैं।
अन्य चंद्रवंशी- मणकोटी राजा के वंशज नेपाल के पीउठना में हैं। इनके वंशज रौतेला गंगोली क्षेत्र में हैं।
अन्य राजपूत-
बोरा- बोरारो के बोरा तथा कैड़ारौ के कैड़ा जाति के लोगो को कुछ लोग बिष्ट ही बताते हैं। क्योंकि बोरा जाति के लोगों का गोत्र व शाखा भी बिष्टों की तरह है। बोरा जाति के लोगों के प्रथम पुरुष श्री दानुकुमार या कुंभकरण काली कुमायुं में रहते थे। बौरारौ पट्टी बोरा जाति के लोगों ने ही बसाई। नैनीताल के बेलुवाखान के थोकदार खुद को बोहरा लिखते हैं।
कुथलिया बोरा- गंगोली क्षेत्र के बोरा खुद को पंजाब से आया बताते हैं।
कैडा- ये कैडारो में हैं। ये भी बोरों की तरह हैं। ये अपने को चौहान बताते हैं। हालांकि एटकिंसन कहते हैं कि ये खस है।
बसेड़ा- कभी इनके वंशजों ने सीरा के रैंका राजा को हराकर तीन पुश्त तक राज किया।
रावत-ये काली कुमाऊं के निवासी हैं। इनके पूर्वज कभी दणकोट के राजा थे। एटकिंसन इनको किरात कहते हैं।
खाती-ये फल्दाकोट में राज करते थे। खुद को सूर्यवंशी राजपूत कहते हैं।
पंचपूर्वीया- देउपा, सोराडी, पुरूचूड़ा, चिराल तथा पड़रू ये पांच जातियां पंचपूर्वीया-कहलाती है। इनको राजा रतन चंद डोटी से अपने साथ लाए थे।
तड़ाकी या तड़ागी- इनके पुरूख पुरुष श्री बीर सिंह थे। राजा सोमचंद के साथ काली कुमायुं आए। तड़ित या तड़िती पद पाने से तड़ाकी या तड़ागी- कहलाए। इनको कायस्थ भी कहा जाता है, परंतु अब राजपूत हैं।
बुटोला, रावत, बागड़ी – इन लोगों का कहना कि वे कत्यूरियों के समय आए।
महता-ये कई जगह खोलिया-महत भी कहे जाते हैं। ये खुद को पंवार वंश का बताते हैं और धारा नगरी से आया बताते हैं । ये कत्यूरी राजाओं के समय आए थे।
असवाल, बर्त्ववाल- कत्यूरी शासन में धार नगरी से आए। पंवार वंश के हैं। खास बात यह है कि ये दोनों ही जातियां गढ्वाल में भी हैं। असवाल को लेकर गढ्रवाल में कहा जाता है कि वे चौहान हैं। अश्व रखते थे। इसलिए अश्ववाल यानी असवाल कहलाए।
राणा – चित्तौड़गढ़ के राणा के वंशज बताते हैं। इनमें से कुछ कहते हैं कि वे कत्यूरियों के समय आए। किंतु इनका गोत्र व शाखा बिष्टों के समान है। कुछ लोग कहते हैं कि इनको बहादुर चंद के समय एक मठपाल यहां लाए थे।
बलदिया- ये लोग खुद को कठेड़ या कठेड़िया राजपूत बताते हैं । सोर के बम राजौओं के समय यहां आए।
बसनाल- ये चौहान राजपूत बतए जाते हैं । कहा जाता है कि ये कत्यूरी राजाओं के समय दिल्ली से आए। बांसी गांव की जागीर मिलने से बसनवाल कहलाए।
कठायत-ये अपने को कठेड़ या कठेड़िया राजपूत बताते हैं । सोर के बम राजा के काल में यहां है। कुछ खुद को चौहान बताते हैं । कश्यप गोत्र के हैं।
रावत-डूरोकोट के रावत अपना पद पायक यानी पहलवान बताते हैं।
मिराल- पट्टी मल्ला दौरा मोजा मिरे के मिराल कहते हैं कि उनके मूल पुरुष राजपूताना से आए थे। राठौर वंश का बताते हैं। वे कत्यूरी राजवंश के समय आए थे।
इसी तरह रौना व विजयपुरिया भी अपने को उदयपुरी तथा राणा के वंशज बताते हैं।
अधिकारी-
अधिकारी भी बिष्टों में से ही हैं। वे चार राठें या घराने अपने को अधिकारी बताते हैं। स्यूनियां, नेनियां, भूलिया, मौन या महत।
महरा- ये तीन तरह से उच्चारण करते हैं- मारा, माहरा व महरा।ये तीन गोत्री हैं। भारद्वाज गोत्र के कहते हैं कि उनके पूर्वज मैनपुरी के चौहान थे जो काली कुमायुं आकर सिरमोली गांव में बसे। कश्यप गोत्री अपने को झूसी के पंवार कहते हैं । वे राजा सोमचंद के समय आए। मेहरा इसलिए कहलाए कि उनका युद्धघोष –मारो,मारो, था।
फरत्याल- भारद्वाज गोत्री महरा के प्रथम पुरुष श्री जगदेव थे। उनको धारा नगरी का पंवार राजपूत बताया जाता है। उनके वंशजों में एक भाई के वंशज मेहरा और दूसरे के फरत्याल कहलाए।
महरा और फरत्यालों की कुमायुं की राजनीति हम भूमिका रही है।
नेगी- यहां कई तरह के नेगी हैं। नेगी वैसे एक पद होता था। कुमायुं में मुख्यत: चार गोत्रों में बंटे हैं। कश्यप, भारद्वाज, गौतम और शांडिल्य। कुछ लोग कहते हैं कि वे धार नगरी से आए थे, जबकि कुछ कहतेहैं कि वे मेवाड़ के चौहान हैं।
ब्रह्मकुंडी या भकुंडी या भाकुनी- ये अपने को पंवार राजपूत कहते हैं। कत्यूरियों के समय आए। इनके गांव का नाम वह्निकुंडी या भकुंडी था। जो बाद में भाकुनी हो गया। चंद राजाओं की सेना में थे।
डोगरा आदि- चंद राजाओं के समय समय पश्चिम के जम्मू, नगरकोट, पूरनपुर व गुलेर नगरों ने चार जातियों के लोग सेना में शामिल हुए। इनमें एक- जंबूवाल, या जंबाल या डोगरा। दूसरा नगरकोठिया, तीसरा पुरणिया और चौथा गुलेरिया थे।
पंवार- कुमायुं में पंवार और प्रमरवंशी राजपूत कई गोत्रों में हैं। सौनक, कश्यप, भौम, व भारद्वाज। इनका कहना है कि उनके प्रथम पुरुष श्री नरेंद्र सिंह यहां कत्यूरियों के समय उज्जैन से आए। राजदरबार में काम करने लगे। कुछ कहते हैं कि वे धारा नगरी से राजा बेताल देव कत्यूरी के समय आए। उनके वंशज जिस भी गांव में बसे, उसी गांव के नाम से जाति संज्ञानाम हो गया। जैसे कि शालनी, शूरानी, ऐड़ा, बेशड़ा आदि।
टाकुली- अपने को गढ़वाल के रावत बताते हैं । एटकिंसन के अनुसार वे खस हैं।
खड़ायत- काली कुमायुं के पुराने राजपूत हैं। चंद राजाओं की सेना में थे।
नयाल- चंद राजाओं के सैनिक रहे। वे कहते हैं कि उनके पूर्वज राजपूताना से आए।
मियां – इनके प्रथम पुरुष दो भाई श्री दलजीत सिंह व श्री अजय सिंह थे। चंद राजाओं के समय में पश्चिम के नालागढ़ से अल्मोड़ा आए। चंद राजाओं ने इन दोनों को अपनी सेना में शामिल किया था।
फुंगर चौकी के बोरा- ये अपने को कुमायुं का सबसे पुराने निवासी या थातवान कहते हैं। बद्रीदत्त पांडे के अनुसार वे खुद को दैंत्य जाति के वंशज बताते हैं।
अन्य राजपूत-
कुमायुं में बड़ी संख्या में क्षत्रिय हैं। पं रुद्रदत्त पंत लिखते हैं कि कुमायुं में कई जितयां नेपाल से आई। पहले कुमायुं के कुछ हिस्से में डोटी के राजा का अधिकार था। बाद में चंदों ने उनसे वह इलाका छीन लिया। काली का क्षेत्र भी चंदों ने ले लिया। डोटी पर कब्जा करने से पहले ही चंदों का प्रताप देखकर डोटी के कुछ राजपूत छुपकर उनसे मेल मिलाप रखने लगे। चंदों के लिए काम करने लगे। इसलिए उन्हें डोटी राजा ने डोटी छोड़ने पर विवश कर दिया। चंदों ने उन्हें आश्रय दिया। ये जातियां इस तरह हैं।
– डोटियाल-नेडा परगना सेआए रोडयाल, बजंग्यां गर्खा से आए धामी, जुरायल गर्खा से आए भंडारी व बिष्ट, गुनपाल गर्खा के गुनपाल रौल, जुरायल गर्खा के बोहरा व नौल्पा, डोटी के सौन कुच्याल गर्खा के कुच्याल, रीखली गर्खा के रिखल्या तथा जंगलिया और मेढ़ राजपूत शामिल हैं। इनमें से जंगलिया अपने को पडयार बताते हैं, जबकि मेढ़ राजपूत कहते हैं कि वे झांसी से आए। ये वर्मा भी लिखते हैं और सुनार का काम भी करते हैं। कई जगह इन्हें कुंवर राजपूत भी लिखा गया है।
दिगर राजपूत—
हिमालयी इतिहासकार एटकिंसन ने कुमायुं के राजपूत जातियों की एक सूची तैयार की थी। इसमें 280 वर्ग के राजपूत थे। एटकिंसन कहते हैं कि ये खस राजपूत हैं। भारद्वाज गोत्र के राजपूत कहे जाते हैं । वे अपने बारे में खुद ही बताते हैं। उनके जातिसंज्ञा नाम उनके कामकाज से पड़े। जैसे कि मेर कहते हैं कि वे राजा के लिए पत्तल बनाते थे। बड़िया टोकरी बनाते थे। भोजक, कांगड़ा से आए। पजाई, कुम्हार का काम करते थे। शौका, बकरी मारते थे। महोत, हाथी के सवार थे। सौन, भी कामकाज से जुड़े थे। दड़म्याल, राजा को दाड़िम देते थे। मच्छुआ, मछली मारते थे। छलाल , घर सजाने वाले थे। ठड़वाल, ठट्ठा करने वाले थे।
राजकोली, राजा का कपड़ा बनाते थे। बतनिया, राजा के अनाज को साफ करने वाले थे।ततवानी, पानी गर्म करते थे। इनके साथ ही घोका,तेपासी, समाल, नौनिया, घुंघंटिया,भी चौड़िया,काला, भुनिया, हरकटिया ये भोटिया थे। बिनसरिया, दोसांद चकाना आदि हैं। गढ़वाल और कुमायुं की सीमाओं यानी दोसान सरहद पर बसे लोगों को दुसांद कहा गया।
कुछ राजपूत अपने गांव के नाम से पुकारे गए।जैसे सुतार गांव के सुतारा, नेरी के नेरिया, सुरणा के सुराणी, चौमू के चौम्वाल, दफोट के दफोटी, गढ़वाल के गढ़होली, जाख के जखवाल, बनौलीकोट के बनौला हैं।
पं. रुद्रचंद्र खस राजपूतों को लेकर लिखते हैं कि इनमें दो श्रेणियां हैं। एक पुराना, दूसरा-नया। पुराना वे हैं जो कुमायुं के प्राचीन निवासी हैं। जबकि नया उनको कहा गया, जो खस हैं परंतु दूसरे क्षेत्रों से आए। हालांकि इनका भेद करना मुश्किल है।
दानपुर के खस राजपूत अपने को दानव या दैंत्यों का वंशज बताते हैं। टाकुली भी अपने मूल पुरुष के दानव बताते हैं। जिनके नाम से परगना दानपुर कहलाया। कोरंगा,सोरागी, बाछिमी, पाणो, कार्की, टाकुली, दाणो आदि कहते कि वे गढ़वाल के बारामंडल से आए। हालिंक यह भी कहा जाता है कि इनमें से कई जितयां नेपाल से आईं। इसी तरह गड़िया, दिकाला, कपकोटी, ऐठाणी, डोट्याल,वाफिला, भौखाल, भी इसी वर्ग के क्षत्रिय हैं।
अन्य किस्म के राजपूत-
इनमें राजी रावत फतेहपुर छखाते वाले रावत कहते हैं कि वे टनकपुर भाबर के राजा थे। वे अपने को राजपूत बताते हैं।
राजी – कुमायुं के प्राचीन निवासी हैं। चौगर्खा व अस्कोट में रहते हैं। राजी को वन रावत भी कहा जाता है। वे लोग जनजाति में शामिल हैं।
स्यांनिया- काली कुमायुं में रहते हैं। यहां के प्राचीन निवासी हैं।
सांवलिया या सम्भल- ये 26 दुमोला में रहते हैं। कभी मलुवा-ताल के आसपास के राजा थे।
इसके अलावा पं गंगादत्त उप्रेती ने भी कुमायुं की क्षत्रिय जातियों को लेकर एक पुस्तक लिखी थी। इसका नाम कमाऊं की फौजी जातियां था। इसके तहत राजपूतों को कई श्रेणियों में बांटा गया था। यह लिस्ट यहां दे रहे हैं।
इस सूची को लेकर यह आभास होगा है कि जैसे पहाड़ों में सभी लोग मैदानों से ही गए। परंतु, ऐसा नहीं है। मात्र २० प्रतिशत क्षत्रिय ही मैदानों से गए। जबकि जाति संज्ञानाम दूसरों ने भी अपना लिए। इसके अलावा यह भी हुआ की जस तरह से कत्यूरियों को अयोध्या मूल का बता दिया गया। जबकि वे खस राजपूत थे। यही उत्तराखंड के गढ़वाल व कुमायुं में अन्य राजपूत जातियों के साथ भी हुआ। (Kumaoni Rajput)
जै हिमालय, जै भारत। मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश चंद्र लखेड़ा इस बार कुमायुं के जजमानों (Kumaoni Rajput)के जाति संज्ञानाम को लेकर आया हूं। इससे पहले गढ़वाली बामणों व जजमानों तथा कुमायुंनी बामणों के बारे में वीडियो ला चुका हूं। अब इस मामले में मेरे आगे बढ़ने तक इस हिमालयी लोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब अवश्य कर दीजिए। आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र के इतिहास, लोक, भाषा, संस्कृति, कला, संगीत, सरोकार आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं। यह था कुमायुं के जजमानों के जितसंज्ञा नाम की गाथा और उनका इतिहास । यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। इसके टाइटल सांग – हम पहाड़ा औंला– को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है। इसी चैनल में है। हमारे सहयोगी चैनल – संपादकीय न्यूज—को भी देखते रहना। अगली वीडियो का इंतजार कीजिए। तब तक जै हिमालय, जै भारत।
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