गढ़वाली जजमानों का इतिहास– कैसे बने गढ़वाल में क्षत्रियों के जाति संज्ञानाम

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पहाड़ के जजमानों में मात्र  २० प्रतिशत हैं मैदानी क्षत्रिय

परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

www.himalayilog.com  / www.lakheraharish.com

उत्तराखंड में क्षत्रियों को जजमान भी कहा जाता है। गढ़वाल के जजमान यानी राजपूतों, यानी ठाकुरों यानी क्षत्रियों के बारे में बताने से पहले मैं पहले ही साफ कर देता हूं कि यह जानकारी विभिन्न पुस्तकों से एकत्रित की गई है। इसमें गढ़वाल के प्रथम प्रमाणिक इतिहास लिखने वाले व टिहरी रियासत के मंत्री रहे पं. हरिकृष्ण रतूड़ी, उत्तराखंड के इनसाइक्लोपीडिया डा. शिव प्रसाद डबराल चारण तथा ब्रिटिश सेना में सर्जन रहे रामबहादुर पाती राम तथा कुमायुं केसरी  बद्रीदत्त पांडे के साथ ही प्रसिद्ध लेखक राहुल सांकृत्यायन भी शामिल हैं। यह भी बता दूं कि मेरा उद्देश्य सिर्फ इतिहास की जानकारी देना है, नकि किसी का महिमामंडन करना। मेरे पिछले कई वीडियो रावत, नेगी, बिष्ट आदि जातियों पर पहले से इस चैनल में हैं। अब समग्रता के साथ  अब गढ़वाल और फिर कमायुं के जजमानों को लेकर जानकारी दूंगा।

(Kshatriya of Garhwal, Rawat, Negi, Bisht,  Bhandari, Thakur, Rajput)

मैं पिछले वीडियो में बता चुका  कि गढ़वाली समाज उत्तराखंड में रह रहे कोल, मुंड, किरात, कुलिंद, तंगण, नाग, खस से लेकर मैदानों से गए वैदिक आर्यों से मिल कर बना है। चूंकि में कत्यूरों के शासनकाल में गढ़वाल और कुमायुं एक ही देश थे। इसके अलावा लोग एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में प्रवास करते रहे। इसलिए दोनों मंडलों में बड़ी संख्या में ऐसे राजपूत  हैं, जिनके सरनेम मिलते हैं। मुख्यत: दो तरह के जजमान रहे हैं। एक हैं खस राजपूत और मैदानी राजपूत। हालांकि अब यह भेद मिट गया है। माना जाता है कि यहां लगभग 80 प्रतिशत क्षत्रिय खस मूल के हैं।  हालांकि अब कोई भी मानने को तैयार नहीं है कि वे खस  हैं। उत्तराखंड में जजमानों के अधिकतर सरनेम उनके राज दरबार में मिले पद और पदवी के आधार पर बने हैं। जो क्षत्रिय मैदानों से गए उनमें से कई के सरमेन पहले जैसे भी हैं। गढ़वाल में जिस तरह अधिकतर बामणों के सरनेम उनके प्रथम गांवों के आधार पर बने हैं, उस आधार पर बहुत कम जजमानों के सरनेम बने। यह कह सकते हैं कि गढ़वाल में प्राचीन काल से रह रही विजेता व शासक जातियों के वंशज आज के जजमान हैं। इनमें खस तथा मैदानों से गए लोग क्षत्रियों के वंशज शामिल हैं। गढ़वाल में रावत, नेगी, बिष्ट, भंडारी,  गुसांई आदि जातियों के सरनेम अधिक मिलते हैं। वास्तव में ये सरनेम एक वंश के नहीं हैं, बल्कि  राजदरबार में मिले पद या पदवी पर आधारित हैं। जो कि धीरे-धीरे जाति संज्ञानाम यानि सरनेम में बदल गए। जिन लोगों को ये पद मिले, बाद में उनके गांवों के लोग भी यह सरनेम लिखने लगे। धीरे-धीरे यह जाति संज्ञा नाम बनता चला गया।  इसलिए जजमानों में एक सरनेम होने का यह अर्थ नहीं कि वे सभी एक ही जाति, वंश या गोत्र के हैं। वास्तव वे भिन्न –भिन्न कुलों के हैं। मैदानों से गए क्षत्रियों में परमार या पंवार, चौहान, तोमर,राणा, पड़ियार, आदि प्रमुख हैं।इस बारे में इस चैनल में पहले से ही कुछ विडियो हैं,आप लोग उन्हें देख सकते हैं।

(Kshatriya of Garhwal, Rawat, Negi, Bisht,  Bhandari, Thakur, Rajput)

एक बात यह भी साफ कर देता हूं कि  यह वीडियो देखकर लगता होगा कि जैसे कि ये सभी लोग मैदानों से ही यहां आए। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है। दरअसल, पद व पदवी से मिले जातिसंज्ञा नामों को सभी तरह के जजमानों ने  प्रयोग में लाना शुरू कर दिया था। ऐसे में जो लोग मैदानों से गए व जो वहीं के थे। उनके एक जैसे सरनेम हैं। इसलिए इस बात का पता लगा पाना अब संभव नहीं है कि इनमें से कौन खस जजमान है और कौन बाहर से आया। जजमानों में मात्र २० प्रतिशत ही ऐसे जजमान  हैं, जो कि मैदानों से  पहाड़ गए।

अब जजमानों की जाति संज्ञा नाम को लेकर बात करते हैं। बिष्ट, नेगी, कमीण, भंडारी, गुसाईं रावत आदि ये ग्राम संज्ञा नाम नहीं हैं ये राजदरबार में मिले पद थे। इनमें बिष्ट, नेगी ,कमीण सिविल पद थे, जबकि भंडारी पद खजांची या अन्न भंडारण के अफसर का पद था। रावत, गुसाईं फौजी पद था। उस काल में ऐसे पद खानदानी भी हो जाते थे। गढ़वाल में सुनार भी हैं। अब वे भी जजमान माने जाते हैं। देश की आजादी से पहले तक गढ़वाल और फिर टिहरी रियासत में पंवारों का राज रहा है। इसलिए प्रारंभ पंवारों से करते हैं।

(Kshatriya of Garhwal, Rawat, Negi, Bisht,  Bhandari, Thakur, Rajput)

पंवार – ये गढ़ नरेश  व राजपरिवार से जुडे लोग हैं। इनकी मूल जाति परमार है। पंवार जाति के लोग गढ़वाल में धार क्षेत्र से संवत 945 में आए। इनका प्रथम निवास चांदपुर गढ़ी था। यहीं से गढ़वाल के पंवार राजवंश का उदय हुआ।

कुंवर – इन्हें पंवार वंश की ही उपशाखा माना जाता है। ये पंवारों के छोटे भाई थे।  ये भी गढ़वाल में धार क्षेत्र से संवत 945 में आए।

असवाल –  इनको भी चौहानों की शाखा माना जाता है। ये घोड़े यानी अश्व रखते थे। इसलिए असवाल कहलाए। जो चौहान घोड़े नहीं रखते थे उनको ननस्वाल कहा जाता था। असवाल लोग दिल्ली के समीप रणथम्भौर से संवत 945 में यहां आए। इन्हें गढ़वाल में थोकदार माना जाता है। यह भी मान्यता है कि  असवालों  का सम्बंध नागवंश से  रहा है।

रौतेला – गढ़वाल में रौतेला जाति को भी पंवार वंश की उपशाखा माना जाता है।

बर्त्वाल – बर्त्वाल जाति के लोगों को पंवार वंश का वंशज माना जाता है। ये संवत 945 में उज्जैन या धारा से आकर बड़ेत गांव में बस गए।

झिंकवान- ये चौहान हैं और उज्जैन ने आए ।

फरसवान- ये चंद्र वंशी हैं और नेपाल के डोटी क्षेत्र से आए।

रौथान- ये थुअर वंश से बताए जाते हैं।

मंद्रवाल- इनको मनराल भी कहा जाता है। ये कत्यूरी वंशी हैं। ये संवत 1711 में कुमायुं से आए।

रजवार – ये भी कत्यूरियों के वंशज हैं। रजवार जाति के लोग संवत 1711 में कुमाऊं से गढ़वाल आए थे।

चौहान- ये राजपूतों के प्रसिद्ध चौहान वंश से हैं। ये मैनपुरी से आए। इनका गढ़ ऊप्पू गढ़ माना जाता था। कुछ चौहान लोग दिल्ली से भी आए।

रमोला-  ये चौहान वंश के वंशज हैं।ये संवत 254 में मैनपुरी आए और रमोली गांव में बसने के कारण रमोला कहलाए। इन्हें पुरानी ठाकुरी सरदारों की भी संतान माना जाता है।

चन्द – ये संवत 1613 में गढ़वाल आए। इन्हें कुमायुं  के चन्द राजाओं का वंशज  माना जाता है।

मियां-  ये सुकेत और जम्मू से आए। गढ़वाल के साथ नातेदारी होने के कारण यहां आए।

इनके साथ ही गढ़वाल की प्रमुख जजमान जातियों में रावत, नेगी, बिष्ट, भण्डारी, गुसाईं, कैंतुरा आदि  शामिल हैं। इन सरनेम के तहत कई जातियां शामिल हैं। वास्तव में ये सरनेम कई  जातियों के समूह हैं। ये जातियां  उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमायुं, दोनों ही क्षेत्रों में हैं।

(Kshatriya of Garhwal, Rawat, Negi, Bisht,  Bhandari, Thakur, Rajput)

रावत जाति के जजमान–

इसके तहत सबसे पहले रावत का उल्लेख कर रहा हूं। रावत जाति संज्ञानाम को लेकर दो मान्यताएं हैं। पहली मान्यता इतिहासकार डा. डबराल शिव प्रसाद डबराल चारण जी की है। डा. डबराल अपनी पुस्तक – उत्तराखंड का राजनीतिक तथा सांस्कृतिक इतिहास- भाग- 4 , गढ़वाल का इतिहास में लिखते हैं कि रावत वास्तव में रौत शब्द से निकला है। पहाड़ में आज भी इनको रौत ही कहते हैं। राज्य की रक्षा हेतु प्राण देने वाले या विशिष्ट सहायक एवं वीरता दिखाने वाले व्यक्तियों के परिवारों को राजा जो भूमि देता था वह रौत कहलाती थी। रौत में भूमि प्राप्त करने वालों के वंशज रौत यानी रावत कहलाते थे। यानी रावत ऐसे वीर योद्धा को कहा जाता था जो राजा की सेना में थे और देश के लिए त्याग और बलिदान के हर समय तत्पर रहते थे। दूसरी मान्यता यह है कि राजस्थान के रावतभाटा क्षेत्र से पहाड़ आए राजपूत बाद में रावत कहलाने लगे थे। बाद में रौत के मांव वाले भी रौत लिखने लगे।

दिकोला रावत – दिकोला रावत की पूर्व जाति (वंश) मराठा है। ये महाराष्ट्र से संवत 415 में  आकर दिकोली गांव में बसे। इसलिए दिकोला कहलाए।

गोर्ला रावत– गोर्ला रावत पंवार हैं। ये  गुजरात से संवत 817 में गढ़वाल आए। गोर्ला रावत का प्रथम गांव गुराड़ माना जाता है।

रिंगवाड़ा रावत – इन्हें कैंत्यूरा यानी कत्यूर वंशी माना जाता है। ये कुमायुं से संवत 1411 में आए। इनका प्रथम गढ़ रिंगवाड़ी गांव माना जाता था।

बंगारी रावत – बंगारी रावत बांगर से संवत 1662 में आए। बांगरी का अपभ्रंश बंगारी माना जाता है।

बुटोला रावत – ये तंवर हैं। इनके श्रद्धेय मूलपुरुष बूटा सिंह  थे। ये दिल्ली से संवत 800 में आए।

बरवाणी रावत – ये तंवर  हैं। मासीगढ़ से संवत 1479 में आए। इनका प्रथम गांव नैर्भणा  था।

जयाड़ा रावत – ये दिल्ली के समीप किसी  स्थान से आए। गढ़वाल में इनका प्रथम गढ़ जयाड़गढ़ माना जाता है।

मन्यारी रावत – ये मन्यारस्यूं पट्टी में बसने के कारण मन्यारी रावत कहलाए।

जवाड़ी रावत – इनका प्रथम गांव जवाड़ी गांव माना जाता है।

परसारा रावत – ये चौहान हैं  और संवत 1102 में ज्वालापुर से आकर परसारी गांव में आकर बसे।

फरस्वाण रावत :- मथुरा के समीप किसी स्थान से ये संवत 432 में गढ़वाल आए। इनका प्रथम गांव गढ़वाल का फरासू गांव माना जाता है।

मौंदाड़ा रावत :- ये पंवार वंश के वंशज हैं जो संवत 1405 में गढ़वाल में आकर बसे। इनका प्रथम गांव मौंदाड़ी गांव माना जाता है।

कयाड़ा रावत- इन्हें पंवार वंशी माना जाता है। ये संवत 1453 में आए।

गविणा रावत –ये भी पंवार वंशी हैं। गवनीगढ़ इनका प्रथम गढ़ था।

लुतड़ा रावत – ये चौहान हैं। संवत 838 में लोहा चांदपुर से आए।

कठेला रावत – कठेला रावतों को कठौच या कटौच वंश का माना जाता है। ये कांगड़ा से आए। इनका गढ़वाल राज परिवार से से रक्त सम्बंध रहा है। इनकी थात की पट्टी गढ़वाल में कठूलस्यूं मानी जाती है। कुमायुं के कठेला थोकदारों के गांव देवाइल में भी कठेलागढ़ था।

तेरला रावत – ये गुजड़ू पट्टी के थोकदार माने जाते हैं।

मवाल रावत – ये नेपाल से आए। इनकी थात की पट्टी मवालस्यूं मानी जाती है। ये कुंवर वंश के माने जाते हैं।

दूधाधारी रावत – ये बिनोली गांव, चांदपुर के निवासी माने जाते हैं।

मसोल्या रावत –ये  पंवार हैं  और धार नगरी ने आए।

तोदड़ा रावत- ये कुमायुं से आए।

मकरोला रावत- ये चौहान हैं। मैनपूरी से आए।

इसके अलावा कफोला रावत, झिक्याण रावत, फर्सुड़ा रावत, जेठा रावत, कड़वाल रावत, तुलसा रावत, मौरोड़ा रावत, गुराडी रावत, कोल्ला रावत, घंडियाली रावत, मनेसा रावत, कफोला रावत जातियां हैं।

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नेगी जाति के जजमान-

नेगी राजदरबार का एक पद होता था। डॉ शिव प्रसाद  डबराल चारण  अपनी पुस्तक ‘उत्तराखंड का इतिहास भाग 4 गढ़वाल का इतिहास में नेगी जाति को लेकर लिखते हैं कि प्राचीन संभ्रांत परिवारों के प्रतिनिधियों के रूप में उन्हें मंत्रिमंडल में स्थान दिया गया था। महत्वपूर्ण कार्यों के अवसर पर उनसे परामर्श लिया जाता था । उनकी आजीविका के उन्हें विभिन्न प्रबंधों के राजस्व का कुछ अंश नेगीचारी के रूप में मिलता था। यह भी कहा जाता है कि नेगी लोग यहां निवास करने वाली नाग जाति से हैं। हर राज दरबार में उनको पहले से सम्मानजनक पद मिलता रहा है। बाद में यह पद जाति नाम में बदल गया।

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पुण्डीर नेगी – पुण्डीर नेगी संवत 1722 में सहारनपुर से आए। हालांकि, पृथ्वीराज रासो में इनको दिल्ली के समीप का निवासी कहा गया है।

बगलाणा नेगी – ये बागल क्षेत्र से संवत 1703 में  आए। इनका मुख्य गांव शूला माना जाता है।

खूंटी नेगी -ये संवत 1113 में नगरकोट-कांगड़ा, हिमाचल से आए। इनका प्रथम गांव खूंटी गांव है।

सिपाही नेगी – ये संवत 1743 में नगरकोट-कांगड़ा, हिमाचल से गढ़वाल में आए। सेना में भर्ती होने से इनका नाम सिपाही नेगी पड़ा।

संगेला नेगी – ये जाट माने जाते हैं। ये संवत 1769 में सहारनपुर से आए। अपने साथ संगीन रखने से  संगेला नेगी कहलाए।

खड़खोला नेगी – ये कैंत्यूरा  माने जाते हैं। ये कुमायुं संवत 1169 में आए । खड़खोली गांव में कलवाड़ी के थोकदार रहे। इसीलिए खड़खोला नेगी कहलाए।

सौंद नेगी – ये राणा । कैलाखुरी से आकर सौंदाड़ी गांव में बसने के कारण सौंद नेगी कहलाए।

भोटिया नेगी – ये हूण राजपूत हैं। हूण देश यानी तब्बत से आए।

पटूड़ा नेगी – ये पटूड़ी गांव में बसने के कारण पटूड़ा नेगी कहलाए।

महरा नेगी-  इनको म्वारा या महर नेगी भी कहा जाता है। ये  गुर्जर राजपूत है। लंढौरा स्थान से आकर गढ़वाल में बसे।

बागड़ी- इनको  बागुड़ी नेगी भी कहा जाता है। ये ये संवत 1417 में मायापुर  से आए। बागड़ नामक स्थान से आने के कारण ये बागड़ी या बागुड़ी नेगी कहलाए।

सिंह नेगी – ये बेदी हैं। ये संवत 1700 में पंजाब से आए।

सिख नेगी- ये सिख थे इसलिए सिख नेगी कहलाए।

जम्बाल नेगी – ये जम्मू से गढ़वाल आए।

रिखोला नेगी – इनको रिखल्या नेभी भी कहा जाता है। गढ़ नरेश के सेनापति लोदी रिखोला  के परिजन व सेना में रहे लोग रिखोला नेगी कहलाए। वैसे यह भी कहा जाता है की रिखोला नेगी  नेपाल के डोटी क्षेत्र के रीखली गर्खा से आए और चंदों के आश्रय में रहे। रीखली गर्खा से आने के कारण ही इनका नाम रिखल्या या रिखोला नेगी पड़ा।

पडियार नेगी – ये परिहार है। संवत 1860 में दिल्ली के समीप से आए।

लोहवान नेगी – ये चौहानहैं। ये संवत 1035 में दिल्ली से आकर गढ़वाल के लोहबा परगने में बसे। इसलिए लोहवान नेगी कहलाए।

गगवाड़ी नेगी – ये संवत 1476 में मथुरा के समीप के क्षेत्र से आकर गगवाड़ी गांव में बसे। इसलिए गगवाड़ी नेगी कहलाए।

चोपड़िया नेगी –  ये संवत 1442 में हस्तिनापुर से आकर चोपड़ा गांव में बसे।

सरवाल नेगी – ये संवत 1600 में पंजाब से आए।

घरकण्डयाल नेगी  ये पांग, घुड़दौड़स्यूं के निवासी माने जाते हैं।

कुमयां नेगी – ये कुमैं, काण्डा आदि गांवों में बसने से कुमयां नेगी कहलाए।

भाणा नेगी  ये पटना से आए।

कोल्या नेगी – ये  कुमायुं से आकर कोल्ली गांव में बसे। इसलिए कोल्या नेगी कहलाए।

सौत्याल नेगी :- ये नेपाल के डोटी क्षेत्र से आकर सौती गांव में बसे। इसलिए सौत्याल कहलाए।

चिन्तोला नेगी – ये चिंतोलगढ़ से आए।

खडक्काड़ी नेगी – ये मायापुर से आए।

बुलसाडा नेगी – ये  कैंत्यूरा माने जाते हैं। कुमायुं से आए।

मेओर नेगी- ये नागवंशी हैं।  मेवार से आए।

जागी नेगी- ये भी नागवंशी हैं। कश्मीर से आए।

मुंशी नेगी- ये भी नागवंशी हैं। पंजाब से आए।

मलनास नेगी- ये भी नागवंशी हैं। जम्मू से आए।

बगलाणा नेगी – ये बागल क्षेत्र से संवत 1703 में आए। इनका मुख्य गांव शूला माना जाता है।

खूंटी नेगी- पंजाब के नरकोटी से आए।

 

इनके अलावा नीलकंठी नेगी, नेकी नेगी, जरदारी नेगी, हाथी नेगी, खत्री नेगी, मोंडा नेगी आदि  भी हैं।

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बिष्ट जाति के जजमान –

बिष्ट या विष्ट, इस सरनेम को लिखने वाले लोग उत्तराखंड के साथ ही हिमाचल प्रदेश, जम्मू, सिक्किम, दार्जिलिंग व आसपास के क्षेत्र तथा नेपाल में भी हैं।  बिष्ट  उपनाम अधिकतर  क्षत्रिय लोग अपने नाम के साथ लगाते हैं। बिष्ट व विष्ट संस्कृत के विशिष्ट  शब्द का अपभ्रंश है। बिष्ट या विष्ट  का अर्थ है विशिष्ट लोग। बिष्ट उत्तराखंड के राजाओं के शासन में एक पद होता था। यह एक पद होता था। यह एक उपाधि है जो की उत्तराखंड, हिमाचल,जम्मू के राजपूतो को दी जाती थी। बद्रीदत्त पांडे अपनी पुस्तक कुमांयु का इतिहास में लिखते हैं कि राजा सोमचंद ने जब कुमांयु में राज्य स्थापित किया तो ज सेना व छोटे कर्मचारियों के ऊपर जो बड़ा अफसर होता था, वह विशिष्ट अथवा विष्ट कहलाता था। यानी बिष्ट राजाओं के अफसर थे। बाद में यह एक जाति सरनेम बन गया। पांडे जी लिखते हैं कि चंद राजों ने अपने अंतिम शासन काल में खस राजपूतों को भी बिष्ट का पद देदिया था। इस तरह जिस गांव का खस राजपूत को बिष्ट पद दिया उसके गांव के लोग भी बिष्ट लिखने लगे थे। बाद में  विभिन्न राजपूत समुदायों ने भी बिष्ट सरनेम अपने नाम के साथ जोड़ना शुरू कर दिया था।

बगड़वाल बिष्ट – बगड़वाल बिष्ट जाति के लोग सिरमौर, हिमाचल से संवत 1519 में  आए । इनका प्रथम गढ़ बगोडी या बगोड़ी गांव माना जाता है।

कफोला बिष्ट – ये लोग यदुवंशी माने जाते हैं। ये कम्पीला नामक स्थान से आए। इनकी थात पौड़ी गढ़वाल जिले की कफोलस्यूं पट्टी मानी जाती है। कोई इनको थुअर कहते हैं।

चमोला बिष्ट – ये पंवार वंशी हैं। ये उज्जैन से संवत 1443 में आए। चमोली क्षेत्र में बसने के कारण ये चमोला बिष्ट कहलाए।

इड़वाल बिष्ट – इन्हें परिहार वंशी माना जाता हैं। ये कि दिल्ली के नजदीक किसी स्थान से संवत 913 में आए। ईड़ गांव में बसने से इड़वाल कहलाए।

संगेलाया संगला बिष्ट – ये गुजरात क्षेत्र से संवत 1400 में आए।

मुलाणी बिष्ट – इनको कैंत्यूरा यानी कत्यूर वंशी माना जाता है। ये कुमायुं से संवत 1403 में आए और मुलाणी गांव में बसे।

धम्मादा बिष्ट – ये चौहान  हैं।   ये दिल्ली से आए।

पडियार बिष्ट –  ये परिहार वंशी हैं। ये धार क्षेत्र से संवत 1300 में आए। यह भी कहा जाता है कि वे कुमायुं से आए।

साबलिया बिष्ट – कुछ लोग इनको कत्यूरी मानते हैं, जबकि यह भी  कहा जाता है कि ये उज्जैन से आकर साबली पट्टी में बसे।  इनके अलावा तिल्ला बिष्ट, बछवाण बिष्ट, भरेला बिष्ट, हीत बिष्ट, सीला बिष्ट  भी हैं।

गढ़वाल के भंडारी भण्डारी जाति के राजपूत :- ये असैनिक अधिकारी थे। मुख्यत: भंडारण की व्यवस्था देखते थे।

काला भंडारी – ये पंवार हैं, दिल्ली के पास से काली कुमायुं से आए। वहां से गढ़वाल आए।

पुंडीर भंडारी – ये मायापुर से संवत 1700 में  आए।

भूल्याणी बिष्ट- ये कुमायुं से आए।

कन्यूनी बिष्ट- पंजाब से आए। यह भी कहा जाता है कि ये कत्यूरी हैं।

इसके अतिरिक्त तेल भंडारी और सोन भंडारी भी हैं।

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गुसाईं जाति के जजमान-

यह राजदरबार में एक पद था।इसका प्रयोग ब्राह्मण-क्षत्रिय दोनों के लिए होता था। देश के अन्य हिस्सों में जोगी समाज के लिए गुसाईं कहा जाता है। परंतु उत्तराखंड में ये क्षत्रिय हैं। इसके अलावा  कुमायुं के चंद राजाओं के ज्येष्ठ पुत्र को गुसाईं कहा जाता था।

कंडारी गुसाईं – ये मथुरा के समीप किसी स्थान से संवत 428 में आए। इन्हें कंडारी गढ़ के ठाकुरी राजाओं के वंशज भी माना जाता है।

घुरदुड़ा गुसाईं – ये लोग स्वयं को लगभग नवीं शताब्दी में गुजरात के मेहसाणा से आया हुआ बताते हैं। इनके प्रथम पुरुष श्रद्धेय चंद्रदेव घुरदेव थे। गढ़वाल में एक पूरी पट्टी इनकी ठकुराई पट्टी है।

पटवाल गुसाईं – ये  प्रयाग से संवत 1212 में आए। गढ़वाल के पाटा गांव में बसने से गढ़वाल की एक पट्टी का नाम पटवाल स्यूं पड़ा।

रौथाण गुसाईं – ये संवत 945 में रथभौं दिल्ली के समीप से आए।

खाती गुसाईं –  गढ़वाल की खातस्यूं थात की पट्टी इनकी ही मानी जाती है।

 

ठाकुर जाति के जजमान-

सजवाण ठाकुर – ये सूर्यवंशी हैं। कुछ लोग कहते हैं कि ये जालंधर से आए, जबकि कुछ की मान्यता है कि वे महाराष्ट्र से आए। सजवाण प्राचीन ठाकुरी राजाओं की संतानें माने जाते हैं। यह भी कहा जाता है कि सज्जू और बिज्जू दो सगे भाई थे। सज्जू से सजवाण और बिज्जू से बिजलवाण (बामण) बने।

मखलोगा ठाकुर – पुण्डीर वंशीय मख्लोगा ठाकुर संवत 1403 में मायापुर से मखलोगी गांव में बसे। इसलिए मकलोगा कहलाए।

तड्याल ठाकुर – इनका प्रथम गांव तड़ी गांव बताया जाता है। इसलिए तड़याल कहलाए।

पयाल ठाकुर – ये कुरुवंशी हैं। ये हस्तिनापुर से आकर गढ़वाल के पयाल गांव में बसे व पयाल कहलाए।

राणा ठाकुर – ये सूर्यवंशी हैं । ये संवत 1405 में चितौड़ से आए।

अन्य जजमान-

राणा – ये दूसरे राणा है। ये नागवंशी वंशी कहे जाते हैं। ये हूण देश यानी तिब्बत से आए। इनको गढ़वाल के प्राचीन निवासियों में से एक माना जाता है।

कठैत –ये  कटोच वंश के हैं। कांगड़ा, हिमाचल से आए।

वेदी खत्री – ये खत्री वंश के  हैं और संवत 1700 में नेपाल से  आए।

पजाई – ये कुमायुं से आए।

रांगड़ – ये रांगड़ वंश के हैं। सहारनुपर से आए।

नगरकोटी – ये नगरकोट, कांगड़ा से आकर नकोट गांव में बसे। इसलिए नगरकोटी कहलाए।

कमीण – यह राज दरबार में मिला पद था।

कुरमणी – इनके प्रथम पुरुष का नाम श्रद्धेय कुर्म थे। इसलिए कुरमणी कहलाए।

धमादा – इन्हें पुराने गढ़ाधीश की संतानें माना जाता हैं।

कंडियाल – ये कांडी गांव में बसने से कंडियाल कहलाए।

बैडोगा – बैडोगी गांव में बसने से बैडोगा कहलाए।

मुखमाल – मुखवा या मुखेम गांव में बसने से मुखमाल कहलाए।

थपल्याल  चांदपुर के थापली गांव में बसने से थ्पल्याल कहलाए।

डंगवाल – डंगवाल जजमान भी हैं। डांग गांव में बसने से डंगवाल कहलाए।

मेहता – ये मूलत: वैश्य थे, जो कि संवत 1590 में पानीपत से आए।

रणौत –इनको सिसोदियों की एक शाखा माना जाता है जो कि राजपुताना से आए।

रौछेला – ये दिल्ली से आए।

जस्कोटी – ये  सहारनपुर से आकर जसकोट गांव में बसे। इसलिए जस्कोटी कहलाए।

दोरयाल – ये द्वाराहाट, कुमायुं से आए।

मयाल -ये भी कुमायुं से आए।

पंवार- ये दूसरे पंवार हैं, दिल्ली से आए।

घुरदुरा- ये पंवार हैं। दिल्ली से आए।

थुलसारा- ये  चौहान हैं, कुमायुं से आए।

कठैत- इनको नागवंशी माना जाता है।

खत्री- ये पंजाब से आए।

मोवदढ़ा- ये पंवार हैं, दिल्ली से आए।

थरियाल भी जजमान  हैं।

साह- ये वैश्य जाति के सुनार थे, परंतु अब क्षत्रिय हैं।

इनके अलावा राय बहादुर पातीराम ने अपनी पुस्तक – गढ़वाल एंड इंसिएंट- में खस राजपूतों की 50 जातियों की सूची भी दी । इनके नाम यहां देख सकते हैं।

(Kshatriya of Garhwal, Rawat, Negi, Bisht,  Bhandari, Thakur, Rajput)

 

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 जै हिमालय, जै भारत। मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश चंद्र लखेड़ा  गढ़वाल के बामणों के बाद अब जजमानों के इतिहास को लेकर जानकारी लेकर आया हूं। इसके बाद कुमायुं के बामणों व जजमानों के बारे में जानकारी दूंगा। जब तक मैं आगे बढूं, तब तक इस हिमालयी लोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब अवश्य कर दीजिए। आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र के इतिहास, लोक, भाषा, संस्कृति, कला, संगीत, सरोकार आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं।  यह था गढ़वाली जजमानों का कुछ इतिहास । इसमें मेरी ओर से कुछ नहीं है,  जो कुछ इतिहास की पुस्तकों में मिला, उसे मैंने एक साथ यहां रखने का प्रयास किया है। यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। इसके टाइटल सांग – हम पहाड़ा औंला– को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है।  इसी चैनल में है। हमारे सहयोगी चैनल – संपादकीय न्यूज—को भी देखते रहना। अगली वीडियो का इंतजार कीजिए। (Kshatriya of Garhwal, Rawat, Negi, Bisht,  Bhandari, Thakur, Rajput) तब तक जै हिमालय, जै भारत। Uttarakhand, Himalaya, Garhwal, Kumaon, Hills, Thakur, 

 

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