कौन हैं गढ़वाल के निरोला बामण और उनकी हसली और कमसली प्रथा

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चांदपुर गढ़ी में सरोला ब्राह्मणों से पहले प्रभावशाली थे निरोला बामण

परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

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गढ़वाल में ब्राह्मण जातियां तीन श्रेणियों में विभक्त रही हैं। सरोला, गंगाड़ी और नाना गोत्री या खस ब्राह्मण। सरोलाओं और गंगाडी के अलावा गढ़वाल में ब्राह्मणों की नागपुरी व्यवस्था भी रही है। हालांकि गढ़ नरेश ने नागपुरी व्यवस्था को कभी भी मान्यता नहीं दी। चूंकि यह व्यवस्था गढ़वाल के नागपुर क्षेत्र में थी, इसलिए इसे नागपुरी व्यवस्था कहा जाता है। इसका प्रारंभ चांदपुर गढ़ी में पंवारों का शासन शुरू होने के साथ हुआ। मेरी पुस्तक – लखेड़ा वंश- सागर से शिखर- में आप लोग इस बारे में विस्तार से पढ़ सकते हैं। इसमें लिखा है कि — चांदपुर गढ़ी का ताज कनकपाल के सिर पर सुशोभित होने के साथ प्रशासन में भी बदलाव होने लगा था। राजा कनकपाल ने अपने साथ आए नए गौड़ ब्राह्मणों को पुरोहित, मंत्रिपद, राजवैद्य से लेकर रसोई बनाने तक का काम दे दिया।  इन नए गौड़ ब्राह्मणों ने राजदरबार में पहले से स्थापित ब्राह्मण मंत्रियों की जगह ले ली थीं। पहले से स्थापित ब्राह्मणों को यह फैसला अपमानजनक लगा था । इससे वे नाराज हो गए। इन नाराज ब्राह्मणों में ज्यादातर नागपुर क्षेत्र के ब्राह्मण  थे। यह कह सकते हैं कि वे ब्राह्मण ही सरोला और गंगाड़ी ब्राह्मणों से पहले केदारखंड में रह रहे थे। वहां के राजाओं के पुरोहित, मंत्री, वैद्य, रसोइया आदि पदों पर थे। तब गढ़वाल  52गढों में बंटा था। चांदपुर गढ़ी में भी राजा भानुप्रताप के यहां भी वे भी प्रभावशाली भूमिका में थे। परंतु धार नगरी से आए कनकपाल के चांदपुर गढ़ी के नरेश बन जाने के बाद हालात बदल गए। राजदरबार  में आए  नये ब्राह्मणों को सरोला कहा जाने लगा था। सरोलाओं ने नागपुरी ब्राह्मणों के साथ विवाह संबन्ध बनाने से भी इनकार कर दिया था। उन्होंने नागपुरी ब्राह्मणों को गौड़ मानने से भी इनकार कर दिया था। वे नागपुरी ब्राह्मणों पर मांसाहार करने व दुमागी यानी खस ब्राह्मणों व क्षत्रियों से अंतर जातीय विवाह का आरोप भी लगाते थे।  आप यह जानते ही हैं कि गढ़वाल में सामाजिक व धार्मिक समारोहों में भात बनाने का दायित्व सरोला ब्राह्मणों के पास रहा है।  राजदरबार में प्रभाव होने के कारण मैदानों से आए राजपूत और गढ़वाल के खसों ने भी ब्याह आदि समारोहों में सरोलों के पकाए भात को ही खाने के अधिकार को मान्यता देना प्रारंभ कर दिया। सरोला ब्राह्मण तब तक  मांसाहार  नहीं करते थे। जबकि पहले से स्थापित ब्राह्मणों के बारे में कहा जाता है कि पहाड़ी जलवायु तथा खस राजाओं के प्रभाव में उन्होंने मांसाहार प्रारंभ कर दिया था। इससे सरोला और नागपुरी ब्राह्मणों में में विभेद बढ़ता चला गया। इसके बाद नागपुरी ब्राह्मणों ने भी सरोलाओं के साथ  रोटी-बेटी के संबंध  बनाने से खुद को रोक दिया था। खुद सरोला भी सरोलाओं के भीतर रोटी-बेटी के संबंध रखते थे। इसके अलावा नागपुरी ब्राह्मणों ने सरोलाओं के भात पकाने के एकाधिकार को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने अपना भात अलग कर दिया। वे खुद को निरोला ब्राह्मण कहलवाने लगे थे।  इस तरह सरोलाओं के विरोध में नरोला प्रथा शुरू हो गई। वास्तव में यह सब  सरोलाओं के एकाधिकार का ही विरोध ही था। भारतीय सेना में सर्जन रहे रायबहादुर पातीराम की पुस्तक  ‘गढवाल इंसिएंट एंड माडर्न’ में नागपुर क्षेत्र के नरोला ब्राह्मणों की सूची दी गई हैं। इस सूची में जो  24 जातियों का उल्लेख है। इनमें  किमोटी, मैकोटी,  बिंजवाल, सिलवाल, कन्याल, सेमवाल, धर्मवारा, गूगलेता, मंगवाल,खौली, थलवाल, थलासी, धमकवाल, जमलागी, बरमवाल,  गरसारा, कंडारी, बमोला, संघवाल, पुरोहित, फलाता, पोल्डी, ध्यालखी, और मिस्सर शामिल हैं।

नागपुरी ब्राह्मणों में भी भात को लेकर मतभेद थे। नागपुर क्षेत्र में हसली और कमसली प्रथा रही है। यह गढ़वाल के सरोला -गंगाड़ी जैसी प्रथा से मिलती जुलती व्यवस्था थी। जिसमें भात बनाने वाले ब्राह्मणों को हसली और भात नहीं बनाने वालों को कमसली कहा जाता रथा। वे नियम गढ़वाल के क्षत्रपों, पट्टियों के थोकदारों और जमींदारों  ने बनाए थे।  खास बात यह है कि नागपुरी व्यवस्था के तहत  वहां के मात्र 72 गांवों में ही आपस में रिश्ते नाते होते रहे हैं। बाकी गांवों के साथ रिश्ते नाते करने पर लंबे समय तक  प्रतिबंध रहा।  इस नियम का पालन नहीं करने पर उस पविार को कमतर मान लिया जाता था। इस क्षेत्र में जब दूसरे क्षेत्र के ब्राह्मणों ने बसना शुरू किया तो नागपुरी ब्राह्मणों ने उनके साथ भी रोटी-बेटी के संबंध नहीं बनाए। हालांकि समय के साथ यह सब बदलता चला गया और ये सभी मतभेद समाप्त होते चले गए। यह सुखद बात रही।

 


 

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