परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा
हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली
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राम बौराणी गढ़वाली साहित्य की इस अमर रचना वा लोकगाथा गीत के बारे में तो आप सभी ने बहुत सुना है, परंतु इसे सबसे पहले कागज पर किसने उतारा, उस महान रचनाकार के बारे में बहुत कम जानते हैं। वह महान रचनाकार थे गढ़वाली साहित्यकार बलदेव प्रसाद शर्मा ’दीन’।बलदेव प्रसाद शर्मा ‘दीन की रचित रामी बौराणी आज भी पूरे उत्तराखंड में लोकप्रिय है। यह गीत कब से गढ़वाल में गाया जाता है, इसके ठोस सबूत नहीं हैं, परंतु माना जाता है कि यह गीत बहुत पहले से गाया जाता था । गढ़वाली भाषा के अधिकतर विद्वानों का भी यही मानना है कि रामी बौराणी की यह गाथा बहुत पहले से गाई जाती रही होगी और बलदेव प्रसाद शर्मा ’दीन’ ने इसे व्यवस्थित तरीके से लिख दिया होगा। यह गीत आज भी जनमानस को उद्वेलित करती है। रामी बौराणी रचना आज गढ़वाल के साथ ही कुमायुं समेत पूरे उत्तराखंड में लोकगीतों में से एक है। बलदेव प्रसाद शर्मा ‘दीन का जन्म सन 1880 में गुप्तकाशी के निकट लमगौंड़ी गांव में हुआ था। 16 अगस्त 1951 को उनका निधन हो गया। माना जाता है कि रामी बौराणी का सबसे पहले प्रकाशन 1920 के आसपास हो गया था। जबकि इसका गायन उससे भी पहले से हो रहा है। 1927 में बलदेव प्रसाद शर्मा ’दीन’ की एक और लोकप्रिय कविता ‘जसी’ प्रकाशित हुई थी। महान रचना रामी बौराणी को सबसे पहले विशालमणि शर्मा ने प्रकाशित किया था। विशालमणि शर्मा उपाध्याय का वास्तविक नाम विशालमणि सेमवाल था। वे बलदेव प्रसाद शर्मा ’दीन’ के पड़ोसी गांव घघोरा के थे। विशालमणि शर्मा का जन्म रूद्रप्रयाग जिले के गुप्तकाशी के निकट घघोरा ग्राम में 1894 में हुआ था। विशालमणि शर्मा ने 1920-1930 के कालखंड में गुप्तकाशी क्षेत्र में मुद्रण और प्रकाशन का कार्य शुरू किया और हिन्दी और गढ़वाली साहित्य की रचनाओं का प्रकाशन कर इस क्षेत्र में महान योगदान दिया। विशालमणि शर्मा स्वयं भी लिखते थे और दूसरों से भी लिखवाते थे तथा उन्हें प्रकाशित भी करते थे। वे पुस्तकें बेचने का काम भी स्वयं ही करते थे।
अब रामी बौराणी के प्रकाशन के कालखंड की बात करते हैं। उत्तराखंड की यह परंपरा रही है कि वहां के वीरों की जीवनगाथा, प्रमुख घटनाओं, प्राकृतिक आपदाओं, दुख-दर्द से संबंधित घटनाओं के गीत रचे जाते रहे हैं। रामी बौराणी की कथा भी एक सिपाही की है, जो नौ साल बाद घर लौटा था और उससे साधु के भेष में अपनी पत्नी की परीक्षा ली। रामी इस परीक्षा में खरी उतरी थी। वैसे वह बहुत दुखद मामला है कि भगवान राम के समय भी माता सीता को ही परीक्षा देनी पड़ी थी। यह परंपरा ही गलत है कि हर बार नारी ही परीक्षा क्यों दे?। बहरहाल, अभी मैं इस लोकगाथा के रचना काल की बात कर रहा हूं। माना जाता है कि इस कालजयी रचना का प्रकाशन लगभग 1920 में हो चुका था। अर्थात यह घटना 1920 से पहले की है। उत्तराखंड में 1815 में गोरखा शासन समाप्त हो जाने तथा १९२० के बीच में अंग्रेज –अफगान युद्ध और प्रथम विश्व युद्ध ही हुए। पहला अंग्रेज-अफगान युद्ध 1839 से 1842 के बीच अफ़ग़ानिस्तान में अंग्रेजों में हुआ। दूसरा अंग्रेज-अफगान 1878-1880 के बीच तथा तीसरा अंग्रेज-अफगान युद्ध 1917 में हुआ। इसी तरह प्रथम विश्व युद्ध (WWI या WW1 ) 28 जुलाई 1914 से 11 नवंबर 1918 तक चला था। इस तरह यह घटना अंग्रेज-अफगान युद्ध अथवा प्रथम विश्व युद्ध में गए जवान की प्रतीत होती है। जबकि आश्चर्य होता है कि इस मामले में जो भी लेख या वीडियो देखने को मिलते हैं, उनमें इस घटना को भारत- चीन युद्द अथवा भारत –पाकिस्तान युद्ध की बात कही जाती है। कुछ लोग मुगलों का कालखंड से इसे जोड़ देते हैं। परंतु प्रमाण इस बात के हैं कि रामी बौराणी की यह घटना अंग्रेज-अफगान युद्ध अथवा प्रथम विश्व युद्ध से जुड़ी है।
यह गीत इस तरह है।–
बाठ गोडाई क्या तेरो नौं च, बोल बौराणी कख तेरो गौं च?
घाम दुपरि अब होइ ऐगे, एकुलि नारि तू खेतों मां रैगे….
बटोई-जोगी ना पूछ मै कू, केकु पूछदि क्या चैंद त्वै कू?
रौतू की बेटी छौं रामि नौ च ,सेटु की ब्वारी छौं पालि गौं च।
मेरा स्वामी न मी छोड़ि घर, निर्दयी ह्वे गैन मेई पर।
ज्यूंरा का घर नी जगा मैं कू ,स्वामी विछोह होयूं च जैं कू।
रामी थैं स्वामी की याद ऐगे, हाथ कूटलि छूटण लैगे।
चल, रामि छैलु बैठि जौंला, आपणी खैर उखीमा लगौंला।
जो जोगी आपणा बाठ लाग, मेरा शरीर ना लौगा आग।
जोगी ह्वैकि भी आंखि नी खुली, छैलु बैठलि तेरि दीदी -भूली।
देवतों को चौरों, माया को मैं भूखों छौं, परदेशि भौंरों, रंगिलो जोगि छों।
सिन्दूर कि डब्बि, सिन्दूर कि डब्बि, ग्यान ध्यान भुलि जौंलो, त्वै ने भूलो कब्बि ।
परदेशि भौंरों, रंगिलो जोगि छों,
बौराणी गाली नी देणि भौत, कख रैंद गौं को सयाणो रौत ।
जोगीन गौं मा अलेक लाई, भूको छौं भोजन दे वा माई।
अलख-निरंजन, अलख-निरंजन,
कागज पत्री सबनां बांचे, करम नां बांचे कै ना
धर्म का सच्चा जग वाला ते, अमर जगत में ह्वै ना।
हो माता जोगि तै भिक्षा दे दे, तेरो सवाल बतालो।
बूढ़ी माई थैं दया ऐगे खेती। खतों से ब्वारी थें बुलाने लगे ।
ब्वारी तू झट कैकी घर ऐजा। घर मा भूखी जोगी चा एक।
सासू जी वैकु बुलाई रौल। ये जोगी लगीगे आज बोल।
ये जोगी को नी पकांदू रोटी । गाली दिन्य ये खोटी खोटी ।
ये पापी जोगी को आराम नी च।कैकूं आई तू हमारा बीच।
अपनी ब्वारी थैं समझा दे माई। भूखू छौं भात बणाणा जाओ।
रामी रस्वाडू सुलगाण लैगे। स्वामी की याद तैं आण लैगे।
मालू का पात मां धैरी भात । मैं तेरो भात नी लगां दू हाथ।
रामी का स्वामी की थाली मांज। त दे राटी मैं खौंलू आज।
खांदू छै जोगी त खाई लेदी, नी खांदू त जाई लेदी।
भतेरा जोगी झोलियां लीक। रोजाना घूमिकि न मिलदी भीक।
जोगी न आखिर भेद खोलि। बूढ़ी माई से इन बोलि।
मी छौं माता तुमारो जायो । आज नौ साल से गर आयो।
बेटा को माता भेंटण लैगि, रामी का मन दुविधा ह्वैगी।
सेयुं का सेर अब बीजी गैगी,गात को खैर अब धोण लैगी।
पतिव्रता नारी विस्मय ह्वैगी। स्वामी का चरण मा पड़ी गैगी।
यह था राम बौराणी का कालखंड तथा इस कालजयी रचना के रचनाकार और प्रकाशक के बारे में थोड़ी सी जानकारी।
पहला भाग पढ़ना न भूलना।
(जै हिमालय, जै भारत। मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश चंद्र लखेड़ा इस उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल की प्रसिद्ध लोकगाथा- राम बौराणी दूसरी कड़ी लेकर आया है। इसे कब और किसने लिखा, जब तक मैं इस बारे में बताना शुरू करूं, तब तक इस हिमालयी लोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब अवश्य कर दीजिए। आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र के इतिहास, लोक, भाषा, संस्कृति, कला, संगीत, सरोकार आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं,सहयोगी यूट्यूब चैनल संपादकीय न्यूज ।
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