गायों में सबसे पवित्र कैसे बनी उत्तराखंड की सुरागाय यानी चंवरी गाय

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1969

भगवान बदरी विशाल और  तिब्बत के थोलिंग मठ से जुड़ी है चंवरी गाय की कथा

परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

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सुरा गाय (suragaay) का अर्थ देवताओं की गाय होता है। सुर यानी देवता। आज जानते ही हैं कि सनातन धर्म में गाय को मां का स्थान दिया गया है।  हिन्दू  (Hindu)धर्म के अनुसार गाय में 33 कोटि देवी-देवता निवास करते हैं। कोटि का अर्थ करोड़ नहीं, प्रकार होता है।  अर्थात गाय में 33 प्रकार के देवता निवास करते हैं। ये देवता हैं- 12 आदित्य, 8 वसु, 11 रुद्र और 2 अश्‍विन कुमार। ये मिलकर कुल 33 होते हैं। हिंदुओं का विश्वास है कि गाय की  सेवा करने से पुण्य मिलता है और वैतरणी भी पार होती है। गाय की सेवा करने से ही मन, वाणी, कर्म और शरीर की पवित्रता संभव है।  इसलिए समाज के प्रत्येक व्यक्ति को गाय की सेवा करनी चाहिए।  हिन्दू    (Hindu)धर्म में गाय का महत्व इसलिए भी है कि प्राचीन काल से भारत एक कृषि प्रधान देश  रहा है। गाय को अर्थव्यस्था की रीढ़ माना जाता था। हिन्दू  (Hindu)धर्म में गाय के महत्व के कुछ आध्यात्मिक, धार्मिक और चिकित्सीय कारण भी रहे हैं। गाय का दूध, मूत्र, गोबर के अलावा दूध से निकला घी, दही, छाछ, मक्खन आदि सभी बहुत ही उपयोगी है।वैसे तो सभी तरह की गाय को  हिंदू  (Hindu)मां की तरह मानते हैं। परंतु इसमें सुरागाय का महत्व सबसे अधिक है। चरक संहिता में भी इसके महत्व का उल्लेख मिलता है। इसे चंवरी, चमरी, सुरागाय, गिरिप्रिया,  ग्याक (तिब्बती) चौंरी, तिब्बती गवय, बनचौरी, वालप्रिय, व्यजनी,  सुरही आदि नामों से भी जाना जाता है। हिंदी में इसे चंवरी गाय, वन चंवर, सुरा गाय, झब्बू,  याक आदि कहते हैं।  चंवरी गाय को तिब्बत में दोंग, ब्रोंग, धोंग, याक, बुबुल, और सुरागाय कहते हैं। तिब्बतियों की पूजा में इस गाय का बड़ा महत्व है। यह एक तरह याक परिवार की गाय है।

उत्तराखंड  (Uttarakhand)विशेषतौर पर  गढवाल में सुरागाय, चमरी या चंवरी गाय, गिरिप्रिया भी कहते हैं।   सुरा गाय उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, (Himachal)लद्दाख (laddakh) में पहले बहुत मिलती थी।  तिब्बत और नेपाल के उत्तरी क्षेत्रों में भी पाई जाती है। परंतु अब सुरा गाय दुर्लभ श्रेणी में पहुंच चुकी है। यह याक जैसी होती है। यह गाय हिमालय के ऊंचाई वाले क्षेत्रों में ही जीवित रह सकती है।  श्री बदरीनाथ धाम  में सुबह भगवान बदरी विशाल के दुग्धाभिषेक में सुरा यानी चंवर (chanwar) गाय  (Cow)के पवित्र दूध भी उपयोग किया जाता है। इसकी पूंछ से बना चंवर इतने पवित्र माना जाते हैं कि आज भी मंदिरों में देवताओं की मूर्तियों के ऊपर डुलाए जाते हैं ।

सुरा गाय कैसे सबसे पवित्र गाय बन गई, इसकी भी एक  गाथा है। यह गाथा तिब्बत और वहां  के थोलिंग मठ से जुड़ी है। थोलिंग मठ  पश्चिमी तिब्बत के नगारी प्रान्त में सबसे पुराना मठ है। इसे  टोलिंग, मथो लिडिंग डगॉन पा  या ट्यूओलिन सी  भी कहते हैं। मठ को तिब्बती में गोम्पा  कहते हैं।  यह गोम्पा यानी मठ लद्दाख सीमा के  जांडा काउंटी के पास थोलिंग  में है।  इसे 997 ईसवी में गेज साम्राज्य के दूसरे राजा येशे ने बनवाया गया था ।  तिब्बती भाषा में थोलिंग का अर्थ -हमेशा के लिए आकाश में मंडराना – है। मठ परिसर में तीन मंदिर, येशे-ओ मंदिर, लखांग कार्पो और दुखंग शामिल हैं। थोलिंग को चीन सरकार जांदा कहती है। दक्षिण-पश्चिमी तिब्बत में भारत की सीमा के निकट यह शहर लगभग 3723 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है।  १९५० में तिब्बत पर कम्युनिस्ट चीन का अवैध कब्जा होने के बाद चीन ने वहां भारी मात्रा में सैनिक तैनात कर दिए और अब शहर का बड़ा भाग चीन की छावनी है।

भगवान बदरी विशाल (Badrinath) को तिब्बत के लामा लोग आदि बद्रीनाथ कहते हैं।  तितवासियों का विश्वास है कि भगवान देवनारायण का मंदिर पहले यहीं पर था और भगवान बदरी विशाल वहीं निवास करते थे । तब तिब्बत के लोग सनातन धर्म को मानते थे और लामा लोग भगवान बदरी विशाल की पूजा करते थे ।  किवंदित है कि कालांतर में तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रभाव बढ़ने पर लामा लोग बौद्ध दर्शन के प्रभाव में आने लगे और मांसाहार करने लगे।  भगवान बदरी विशाल को उनका यह आचरण अच्छा नहीं लगा। ऐसे में भगवान बदरी विशाल मठ की छत फाड़ कर वहां से निकल पड़े। वे श्याम कर्ण नाम के घोड़े पर सवार होकर माणा गांव आ  पहुंचे। माणा गांव से भगवान बदरी विशाल  घोड़े को छोड़कर पैदल ही चलकर बद्रिकाश्रम आ गए। कहा जाता है की आज भी माणा गांव के पास वाले पहाड़ पर घोड़े की स्पष्ट आकृति है। माणा गांव के लोग इसे श्यामकर्ण घोड़ा कहते हैं, जिस पर बैठकर भगवान बदरी विशाल वहां तक आए थे।

थोलिंग (Tkoling)मठ में आज भी भगवान बुद्ध की बड़ी मूर्ति है , जिसका सिर छत से बाहर निकला है। यह मठ दो मंजिला है।  मूर्ति का शरीर निचली मंजिल और धड़ ऊपरी मंजिल है। जबकि सिर छत से बाहर है । थोलिंग मठ में भगवान बुद्ध की मूर्ति का सिर  छत से बाहर होना इस बात का संकेत माना जाता है कि भगवान श्री बद्रीनारायण जी छत फाड़ कर  चले गए थे।

इसी घटना में सुरा गाय की कहानी जुड़ी है।  सुरा गाय की पूंछ का बहुत धार्मिक महत्व इसी घटना के संबंधित है। कहा गया है कि भगवान बद्रीनारायण (Badrinath)के थोलिंग मठ से चले जाने के बाद लामाओं को अपनी गलती का अहसास हुआ। वे बहुत घबरा गए और भगवान बदरी विशाल को मनाने के लिए उनके पीछे गए। भगवान  बदरी विशाल नर नारायण पर्वत पर पहुंच गए थे। उस समय पर्वत पर वृक्ष नहीं थे। तब भगवान ने छोटा सा रूप धारण किया और पर्वत शिखर पर घास चरने वाली सुरा गाय यानी चंवरी गाय की पूंछ के नीचे छिप गए।  लामाओं ने  उन्हें बहुत खोजा, परंतु चंवरी गाय की पूंछ के नीचे छिपे होने से उनको भगवान नहीं दिखाई दिए। लामा लोग निराश होकर वापस चले गए। तब भगवान ने चंवरी गाय के उपकार से अभिभूत होकर उसकी पूंछ को पवित्र माने जाने का वरदान दिया। माना जाता है कि  तभी से चंवरी गाय की पूंछ से चंवर बनाए जाते हैं ।  वे इतने  पवित्र माने जाते हैं कि आज भी मंदिरों में देवताओं के ऊपर डुलाए जाते हैं ।

चंवरी गाय को लेकर यही कथाकुछ दूसरे रूप में भी सुनी जाती है। कहा जाता है कि भगवान बदरी एक बार नारायण  पर्वत के रूप में तपस्या से उठे और घूमते हुए हुए सुदूर तिब्बत की तरफ निकल गए। वहां तिब्बतियों ने उन्हें देखा तो हुए उनकी तरफ —भगवान बुद्ध आए भगवान बुद्ध आए — ये कहते हुए दौड़ पड़े थे। तिब्बती भगवान को छूना चाहते थे। परंतु भगवान ऐसा नहीं चाहते थे।  इसलिए भगवान बद्रीनारायण (Badrinath)वहां से वापस लौट पड़े। आगे-आगे भगवान और पीछे-पीछे तिब्बती भागते रहे। भगवान को छुपने के लिए कोई जगह नहीं मिली तो उन्होंने वहां एक चंवरी गाय को देखा। उससे भगवान के कहा कि देवी मुझे अपवित्र होने से बचाओ। ये लोग मुझे छू लेंगे तो मेरा तप  भंग हो जाएगा । चंवरी गाय ने भगवान विष्णु को अपनी पूंछ के नीचे छुप जाने के लिए कहा।  भगवान  चंवरी गाय की पूंछ के नीचे छिप गए।  तिब्बतियों ने उन्हें खोजा लेकिन  वे उन्हें कहीं नहीं दिखाई दिए।  इस तरह भगवान ने तपस्या के दौरान खुद को किसी के छूने से बचा लिया। इसके बाद भगवान विष्णु ने प्रसन्न होकर चंवरी गाय को वरदान दिया कि उसके बगैर मेरी पूजा अधूरी मानी जाएगी।  उस दिन से हिंदू धर्म में भगवान को चंवर डुलाते हैं। सफेद चंवर सबसे  उत्तम माना जाता है । चंवर  विष्णु भगवान की पूजा का अनिवार्य अंग है।

तिब्बत के लामा लोग भी भगवान श्री बद्रीनारायण के प्रति अनन्य भक्त रखते हैं । चीन के कब्जे से पहले तिब्बत के लामाओं की ओर से प्रतिवर्ष भगवान बदरी विशाल की भेंट के लिए चाय, चंवर और ऊनी कपड़े आदि का प्रसाद भेजा जाता रहा है। यह परंपरा सदियों से रही है। तिब्बती बौद्ध धर्म में भी सुरा गाय का बडुत महत्व है। उनके धार्मिक कार्य इस गाय के बिना संभव नहीं हैं। तिब्बतियों के पूजा-पाठ और यज्ञ कर्मों का आधार चंवरी गाय ही है। चंवर शब्द का उल्लेख पौराणिक महाकाव्य महाभारत में भी मिलता है। चंवर पशुओं मुख्यतः सुरा या चंवरी गाय की पूंछ के लंबे बालों से बना गुच्छा होता है। चंवर को देवमूर्तियों, धर्मग्रंथों तथा राजाओं आदि के ऊपर इधर-उधर डुलाया जाता है।

 

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दोस्तों मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश चंद्र लखेड़ा इस बार हिमालय, विशेष तौर पर उत्तराखंड की सुरागाय के बारे में जानकारी दे रहा हूं कि यह गाय हिंदुओं की सबसे पवित्र चंवरी गाय कैसे बन गई। यह कथा भगवान बदरी विशाल और  तिब्बत के थोलिंग मठ से जुड़ी है। जब तक मैं इस कथा को सुनाऊं, तब तक इस हिमालयी लोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब अवश्य कर दीजिए। आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र के इतिहास, लोक, भाषा, संस्कृति, कला, संगीत, सरोकार आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं, सहयोगी यूट्यूब चैनल संपादकीय न्यूज।

दोस्तों यह था गायों में सबसे पवित्र मानी जाने वाली उत्तराखंड की सुरागाय की गाथा। यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। इसके टाइटल सांग – हम पहाड़ा औंला– को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है।  इसी चैनल में है।अगली वीडियो का इंतजार कीजिए। तब तक जै हिमालय, जै भारत।

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