कुलिंद-कत्यूरों की राणियों को नकली युद्ध दिखाते हुए बन गया छोलिया/ सरैं लोकनृत्य

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एक हजार साल से भी पुराना है उत्तराखंड का छोलिया/ सरैं नृत्य

परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

www.himalayilog.com  / www.lakheraharish.com

हिमालयी क्षेत्र में वैसे तो बहुत तरह के लोकनृत्य होते हैं, परंतु इस बार उत्तराखंड के एक विशेष लोकनृत्य को लेकर जानकारी दूंगा। इसे उत्तराखंड के गढ़वाल में सरैं और कुमायुं में छोलिया कहते हैं। गढ़वाल के कुछ क्षेत्र तथा भोटांतिक क्षेत्र में इसे मौणा लोकनृत्य के नाम से जाना जाता है। उत्तराखंड  का यह प्रचलित लोकनृत्य है। यह एक तलवार नृत्य है, जो मुख्यतः शादी-बारातों या अन्य शुभ अवसरों पर किया जाता है। यह लोकनृत्य ढोल -दमाऊं के साथ किया जाने वाला युद्ध गीत नृत्य है। सरैं, छोलिया या पौणा लोकनृत्य में युद्ध में विजय के पश्चात होने वाले उत्सव का दृश्य प्रस्तुत  किया जाता है। सभी नर्तक पौराणिक सैनिकों की वेशभूषा धारण कर तलवार और ढाल के साथ युद्ध का अभिनय करते है। विभिन्न लोक वाद्यों ढोल-दमाऊ, रणसिंगा, तुरही और मशकबीन के संगीत के तालमेल से यह नृत्य  किया जाता है। गढ़वाल में इसके प्रथम चरण में ढोल – ढोली जोड़े में करतब दिखाते है, और दूसरे चरण में ढोल की ताल पर नर्तक तलवार – ढाल से युद्ध का करने का करतब दिखाते है। कुमायुं में यह छोलिया नाम से प्रसिद्ध लोकनृत्य है। इसमें पौराणिक युद्ध और सैनिकों का शौर्य दिखाने का प्रयास किया जाता है। सरौं, छोलिया और पौंणा इन तीनों की शैलियां कुछ अलग-अलग अवश्य हैं, परंतु इनमें वीर रस एवं शौर्य प्रधान भाव रहता है। सरौं नृत्य में ढोल वादक मुख्य किरदार होते हैं, जबकि छोलिया और पौंणा नृत्य को वादक एवं नर्तक के साझा करतब  करते हैं। इन नृत्यों में सतरंगी पोशाक, ढोल-दमाऊ, नगाड़ा, भंकोरा, कैंसाल, रणसिंगा और ढाल-तलवार अनिवार्य हैं। छोलिया नृत्य की एक विशिष्टता इसकी आपस में तलवार व ढाल टकराने और शरीर को मोड़कर कुछ प्रदर्शन करने की होती है। छोलिया को छलिया नृत्य भी कहा जाता है। छोलिया लोकनृत्य को लेकर कुमायुं में विशेष आयोजन भी होते हैं। इसके लिए एक छलिया टीम में लगभग दो दर्जन  कलाकार होते हैं, जिनमें दो या दो से अधिक नर्तक तथा कई संगीतकार होते हैं। इस नृत्य में नर्तक युद्ध जैसे संगीत की धुन पर क्रमबद्ध तरीके से तलवार व ढाल चलाते हैं, जो कि अपने साथी नर्तकियों के साथ नकली युद्ध जैसा प्रतीत होता है। वे अपने साथ निसाण रर्थात त्रिकोणीय लाल झंडा  भी रखते हैं। नृत्य के समय नर्तकों के मुख पर प्रमुखतः उग्र भाव रहते हैं, जो युद्ध में जा रहे सैनिकों जैसे लगते हैं।

अब इस नृत्य के इतिहास पर बात करते हैं। इस नृत्य के बारे में लिखित में ज्यादा जानकारी नहीं मिलती है। माना जाता है कि यह लोकनृत्य लगभग एक हजार साल पुराना है। कुछ लोग इसे युद्ध में जीत के बाद किया जाने वाला नृत्य बताते हैं, जबकि कुछ कहते हैं कि तलवार की नोक पर शादी करने वाले राजाओं के शासन का यह सबूत है।  इसे पांडव नृत्य का हिस्सा भी माना जाता है। कहा जाता है कि कुलिंद-कत्यूरों के शासनकाल में राजा युद्ध जीतने के बाद अपनी राणियों को उस युद्ध की नकल करके नकली युद्ध दिखाते थे। नकली युद्ध दिखाते- दिखाते समय के कालखंड में यह  लोकनृत्य बन गया। इतिहासकारों के इस नृत्य को लेकर अलग-अलग मत हैं। कुछ लोग इसे युद्ध में जीत के बाद किया जाने वाला नृत्य कहते हैं। पहले के समय युद्ध आमने-सामने लड़े जाते थे। दो राजाओं की सेनाएं आमने- सामने  ढाल-तलवार, भाले, बरछे, कटार आदि से युद्ध  लड़ती थी। जब कोई राजा युद्ध जीत लेता था तो कई दिनों तक राजमहल में विजय समारोह मनाया जाता था। वीर सैनिकों को सम्मानित करने के साथ ही उनके युद्ध-कौशल और ढाल-तलवार चलाने की निपुणता का महीनों तक बखान होता रहता था। यह बखान बहुत ही अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से किया जाता था और यह काम राज दरबार के चारण या भाट किया करते थे। भाटों से युद्ध वर्णन सुनकर राज दरबार में श्रोताओं के रोंगटे खड़े हो जाते थे। कहा जाता है कि एक बार किसी विजयी राजा के दरबार में इस तरह के युद्ध वर्णन को सुनकर रानियां अभिभूत हो गईं और उन्होंने भी उस युद्ध में वीरों की दिखाई वीरता को प्रतीक रुप में अपनी आंखों के सामने देखना चाहा। तो राजा के आदेश पर उसके वीर सैनिकों ने स्वयं ही आपस में दो विरोधी दल बनाकर और युद्ध की वेष-भूषा पहनकर ढाल-तलवारों से युद्ध के मैदान की ही तरह प्रतीकात्मक युद्ध नृत्य करने लगे। ढोल-दमाऊं, नगाड़े, नरसिंगा आदि युद्ध के वाद्य बजने लगे और  सैनिकों ने युद्ध की सारी कलाओं का प्रदर्शन किया।  उन्होंने इस विजयी युद्ध में अपने दुश्मन को वीरता और छल से कैसे परास्त किया, इसका सजीव वर्णन  राज दरबार में किया। राजमहल में प्रतीक रुप में किया गया यह युद्ध सभी रानियों, राजा और दरबारियों को बड़ा ही पसन्द आया। अतः समय-समय पर इस प्रतीक छलिया नृत्य का आयोजन राज दरबार में होने लगा। अति आकर्षक नृत्य, विविध ढंग से कलात्मक रुप से ढोल वादन, ढाल-तलवार के साथ वीर यौद्धाओं का यह युद्ध नृत्य समाज में अति लोकप्रिय हो गया।  

राजशाही खत्म होने के बाद भी आम लोगों में यह नृत्य के रुप में लोकप्रिय रहा। अपनी अनूठी अलौकिकता के कारण यह नृत्य राज भी लोकप्रिय है।  समय के साथ-साथ इसके स्वरुप में भी थोड़ा परिवर्तन आ गया है। राज शाही खत्म होने के बाद यह आम लोगों में यह नृत्य के रुप में लोकप्रिय हुआ और उस समय के संस्कृति कर्मियों ने इस अमूल्य धरोहर को संजोने के लिये इसे विवाह एवं शुभ अवसरों पर किये जाने की अनिवार्यता बना दी।ढोल वादक मात्र वीरों के उत्साह वर्धन के लिये ढोल नहीं बजाता था, बल्कि वह युद्ध कला में भी प्रवीण होता था। वह युद्ध भूमि में अपने राजा (King) की सेना की स्थिति पर पूरी दृष्टि रखता था, किसी समय उसकी सेना को आगे या पीछे बढ़ना है, किस दिशा में बढ़ना है, युद्ध जीतने के लिये अब सेना को कैसी व्यूह रचना करनी है, इसका उसे पूर्ण ज्ञान होता था। महाभारत के चक्रव्यूह की ही तरह पर्वतीय क्षेत्रो में गरुड़ व्यूह, मयूर व्यूह, सर्प व्यूह की रचना की जाती थी। ढोल वादक इन व्यूह रचनाओं में पारंगत होता था, वह ढोल नृत्य करके संकेत में अपनी सेना को बताता था कि उसे अब युद्ध में किस प्रकार, क्या करना है, कैसे आगे बढ़ना है, कैसे पीछे हटना है, दुश्मन की सेना को कैसे घेरना हैं, यह सब वह सेना को अपने नृत्य और ढोल वादन के गुप्त संकेतों से बताता था।

इस लोकनृत्य की विशेषता यह है कि इसमें एक साथ श्रृंगार और वीर रस, दोनों के दर्शन हो जाते हैं।  छोलिया नर्तकों, जिन्हें छोल्यार कहा जाता है, जबकि सरैं के नर्तकों को सरैंया कहा जाता है। ये नर्तक पारंपरिक पोशाक पहनते हैं, जिसमें सफेद चूड़ीदार पायजामा, सिर पर टांका, चोला तथा चेहरे पर चंदन का पेस्ट शामिल हैं। तलवार और पीतल की ढालों से सुसज्जित उनकी यह पोशाक दिखने में प्राचीन योद्धाओं के सामान होती है। छोलिया नर्तकों को  छोल्यार भी कहा जाता है। इनकी पोशाक अत्यंत दर्शनीय होती है। पोशाक में लाल-नीले-पीले वस्त्रों की फुन्नियों और टुकड़ों की मदद से सजाया गया सफ़ेद घेरेदार चोला, सफ़ेद चूड़ीदार पाजामा, कपडे का रंगीन कमरबंद मुख्य होता है। इसके अलावा सिर में पगड़ी, कानों में बालियां, पैरों में घुंघरू की पट्टियां और चेहरे पर चंदन और सिंदूर लगे होने से पुरुषों का एक अलग ही तरह का दिखता है। एक निश्चित समय के बाद विराम लेकर दल का एक सदस्य छपेली या चांचरी के बोल गाता है और गीत खत्म होते ही पुनः द्रुतगति से ढोल-दमाउं के वादन के साथ नृत्य शुरु होता है। इन नर्तकों के साथ आम बाराती हाथों में रुमाल लेकर कलात्मक डांस करते हैं। उन्हें पैसा भी देते हैं।

पिथौरागढ में छोलिया महोत्सव के नाम से एक वार्षिक आयोजन किया जाता है। इसमें उत्तराखंड के अलावा हिमाचल और नेपाल से भी  छो लिया दल सर्वश्रेष्ठ दल बनने के लिये प्रतिस्पर्धा करते हैं।  छोलिया नृत्य के कई रूप हैं। इनमें बिसू नृत्य, सरांव यानी नकली युद्ध, रण नृत्य, सरंकार, वीरांगना, छोलिया बाजा, शौका शैली तथा पटण बाजा प्रमुख हैं। देश के हर कोने में यह लोग विभिन्न कार्यक्रमों में शिरकत करते हैं।  कुछ साल पहले तक छोलिया / सरैं लोकनृत्य शादी-बारात का एक अभिन्न अंग होता था। परंतु अब बैंड बाजा के कारण यह सभी परंपरागत नृत्य आदि अब इतिहास का हिस्सा बनते जा रहे हैं। छोलिया नर्तक अब मुख्य रूप से मंच प्रदर्शन से ही जीवन निर्वाह करने पर मजबूर हैं।

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दोस्तों मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश चंद्र लखेड़ा इस बार  हिमालयी (Himalaya) राज्यों उत्तराखंड, (Uttarakhand),हिमाचल प्रदेश (Himachal Pradesh) और नेपाल (Nepal) के डोटी (Doti) क्षेत्र के छोलिया/ सरैं / पौणा  (Chholiya, Sarin, Pauna) लोकनृत्य को लेकर जानकारी लेकर आया हूं। उत्तराखंड का यह लोकनृत्य अब शादी-बारातों या अन्य शुभ अवसरों पर किया जाता है। जब तक मैं इस नृत्य के बारे में बताना शुरू करूं, तब तक इस हिमालयी लोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब अवश्य कर दीजिए। आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र के इतिहास, लोक, भाषा, संस्कृति, कला, संगीत, सरोकार आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं, सहयोगी यूट्यूब चैनल संपादकीय न्यूज।

दोस्तों यह है उत्तराखंड के छोलिया, सरैं य पौणा नृत्य का इतिहास । यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। इसके टाइटल सांग – हम पहाड़ा औंला– को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है।  इसी चैनल में है। अगली वीडियो का इंतजार कीजिए। तब तक जै हिमालय, जै भारत।

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