असम के  शिवाजी क्यों जाते हैं अहोम सेनापति लाचित बोड़फुकन

0
248

मुगलों को खदेड़ने वाले वीर लाचित के साथ भारतीय इतिहासकारों का भेदभाव

परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

www.himalayilog.com  / www.lakheraharish.com

 हिमालयी क्षेत्र के पूर्वोत्तर के राज्य असम के उस महान  वीर सपूत लाचित बोड़फुकन  जैसे महान योद्धा के कारण  मुगल आक्रांता पूर्वोत्तर भारत को अपने अधीन नहीं कर सके। 

वीर सपूत – लाचित बोड़फुकन को भले ही मैदानी इतिहासकारों ने  भुला दिया, उन्हें इतिहास के पन्नों में उचित स्थान नहीं दिया। परंतु भारत सरकार ने उन्हें और उनकी वीरता को याद रखा। राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (NDA) के सर्वश्रेष्ठ कैडेट को लाचित बोड़फुकन मैडल से सम्मानित किया जाता है। बोड़फुकन की वीरता से प्रेरणा लेने और उनके बलिदान का अनुसरण करने के लिए यह पदक वर्ष 1999 में स्थापित किया गया था।

वीर लाचित बोड़फुकन की भारतीय इतिहास में लगभग वही भूमिका है जो कि जो मुगल आक्रांताओं के विरुद्ध दक्षिण भारत में छत्रपति शिवाजी महाराज, पंजाब में गुरु गोबिंद सिंह और राजपूताना में महाराणा प्रताप की रही है। प्रसिद्ध इतिहासकार सूर्यकुमार भुइयां ने वीर लाचित बोड़फुकन पूर्वोत्तर भारत का ‘शिवाजी’ माना है। लाचित बड़फूकन का पूरा नाम चाउ लाचित फुकनलुंग  था। ‘बड़फूकन’ उनका नाम नहीं, बल्कि उनकी पदवी थी।

 आप लोग  भारत की इतिहास की पुस्तकें तो पढ़ते हैं और आप के मन में एक प्रश्न अवश्य  आता होगा कि धर्मांध मुसलिम आक्रांत, विशेषतौर पर मुगल साम्राज्य आखिरकार हिमालयी क्षेत्रों में क्यों नहीं फैल पाया। क्रूर औरंगजेब भी बंगाल से आगे पूर्वोत्तर में क्यों नहीं बढ़ पाया।  यह इसलिए हो पाया की अहोम वंश ने हमेशा ही आक्रांता मुसलिमों को मार भगाया और असम को उन क्रूर व धर्मांध लुटेरों से हमेशा बचाकर रखा। एक युद्ध एसा था, जिसमें असम का इतिहास बदल सकता था। परंतु  वीर लाचित बोड़फुकन के साहस और दूरदर्शिता का परिणाम था कि अहोम सेना ने तब मुगलों से लगभग हार चुके युद्ध को जीत लिया था।   यह था सराईघाट का युद्ध। यह युद्ध सन 1671 में मुगलों और अहोमों के बीच लड्रा गया था। मुगलों की सेना के नेतृत्व  कच्छवाहा राजा, राजा राम सिंह प्रथम कर रहा था, जबकि आहोम सेना लाचित बोड़फुकन के नेतृत्व में मैदान में उतरी थी। यह युद्ध असम के गुवाहाटी क्षेत्र में  ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे सराईघाट में लड़ा गया था।

सराईघाट युद्ध के बारे में बताता हूं। सराईघाट असम में गुवाहाटी के ब्रह्मपुत्र नदी का हिस्सा है। कहानी गुवाहाटी के ईटाकुली किले पर मुगलों के कब्जे से शुरु होती है। एक युद्ध में मुगलों ने कुछ समय के लिए गुवाहाटी के ईटाकुली किला पर कब्जा कर लिया था। धर्मांध मुगलों ने अय्यास फिरोज खान को वहां का फौजदार नियुक्त किया। वह बहुत ही भोग-विलासी मुगल था। उसने अहोम राजा चक्रध्वज सिंह को असमिया हिंदू कन्याओं को भोग-विलास के लिए अपने पास भेजने का आदेश दिया। इससे लोगों में मुगलों के खिलाफ आक्रोश बढ़ने लगा। लचित ने लोगों के इस आक्रोश का सही प्रयोग करते हुए गुवाहाटी के किले को मुगलों से छीनने का निर्णय लिया। अहोम राजा चक्रध्वज सिंह ने गुवाहाटी पर कब्जा जमाए मुगलों के विरुद्ध अभियान में सेना का नेतृत्व करने के लिए लाचित बोड़फुकन का चयन किया। राजा ने उपहारस्वरूप लाचित को सोने की मूठ वाली हेंगडांग यानी एक तलवार और विशिष्टता के प्रतीक पारंपरिक वस्त्र प्रदान किए। लाचित ने सेना एकत्रित की और 1667 की गर्मियों तक तैयारियां पूरी कर लीं थीं। लचित के पास एक शक्तिशाली और निपुण जल सेना के साथ समर्पित और दक्ष जासूसों का संगठन भी था। लचित ने तय योजना के तहत 10-12 सिपाहियों को रात के अंधेरे का फायदा उठाते हुए चुपके से किले में प्रवेश करा दिया और मुगल सेना की तोपों में पानी डाल दिया। इसके बाद अगली सुबह ही लचित ने ईटाकुली किले पर आक्रमण कर उसे जीत लिया। इस तरह सन 1667 में  अहोम हिंदू साम्राज्य ने औरंगजेब को चुनौती देते हुए मुगलों के कब्जे से गुवाहाटी का ईटाकुली किला छीन लिया था। औरंगजेब की सेना बुरी तरीके से हार गई थी।

दिल्ली में बैठे क्रूर औरंगजेब को जब इस हार के बारे में पता चला तो वह गुस्से से तिलमिला उठा। उसने गद्दार मिर्जा राजा जयसिंह के बेटे रामसिंह को 70 हजार सैनिकों सेना के साथ अहोमों से लड़ने के लिए असम भेजा। उधर लचित ने बिना समय गवाएं किलों की सुरक्षा मजबूत करने के लिए सभी आवश्यक तैयारियां प्रारंभ कर दीं थीं   यह एक निर्णायक लड़ाई थी, लेकिन इससे पहले ही वीर लचित बीमार पड़ गया। परंतु वह  फिर भी मैदान में डटा रहा।लचित ने अपनी मौलिक युद्ध नीति के तहत एक ही रात में अपनी सेना की सुरक्षा हेतु मिट्टी से मजबूत तटबंधों का निर्माण कराया। जिसका उत्तरदायित्व लचित ने अपने मामा मोमाई तामुली को दिया था। लोगों के बार-बार कहने के बावजूद बीमार लचित ने आराम करने से मना कर दिया। कार्य की प्रगत्ति देखने के लिए लचित जब मौके पर पहुंचा तो उसने देखा कि सभी सैनिक हताश पड़े हैं।  सैनिकों ने मान लिया था कि वे सूर्योदय होने से पहले दीवार नहीं बना पाएंगे। उन्होंने युद्ध शुरू होने से पहले ही हार मान ली थी। इस पर  लचित को अपने मामा पर बहुत गुस्सा आया। क्योंकि वह अपने सैनिकों को काम करने के लिए उत्साहित भी नहीं कर पाया था। इससे तटबंध के निर्माण में देर होने के साथ ही लचित की बनाई रणनीति पर भी संकट आ गया था। लचित ने इस निर्माण-कार्य में अपने मामा की लापरवाही को अक्षम्य मानकर अपनी सोने की तलवार निकाली और अपने मामा का सिर धड़ से अलग कर दिया। इसके बाद लचित ने कह- मेरे मामा मेरी मातृभूमि से बढ़कर नहीं हो सकते।

 लचित के इस व्यवहार ने उसके सैनिकों में एक जोश भर दिया था।  सूरज के उगने से पहले ही दीवार बनकर तैयार हो गई। इससे उसने भूमि पर आमने-सामने के युद्ध के साथ-साथ ब्रह्मपुत्र नदी पर भी अपनी जीत सुनिश्चित कर ली थी।  बीमार  होते हुए भी  उसने अपने सैनिकों का मनोबल और विश्वास बनाए रखा और मुगलों को गुवाहाटी से बाहर खदेड़ दिया था। लाचित ने मुगलों के कब्जे से गुवाहाटी पुनः प्राप्त कर लिया और सराईघाट की लड़ाई में मुगलों को मार भगाया। सराईघाट का युद्ध हार जाने के बाद मुगल सेना ने फिर से गुवाहाटी पर कब्जा करने की कोशिश की। मुगल सेना  ब्रह्मपुत्र नदी के रास्ते ढाका से गुवाहाटी की ओर बढ़ने लगी। गद्दार रामसिंह के नेतृत्व वाली मुगल सेना में 30 हजार पैदल, 15 हजार तीरंदाज़, 18 हजार तुर्की घुड़सवार, 5 हजार  बंदूकची और एक हजार से अधिक तोपों के अलावा नौकाओं का विशाल बेड़ा था। लड़ाई के पहले चरण में मुगल सेनापति रामसिंह  कभी भी असमिया सेना के विरुद्ध सफलता नहीं पा सका था। गद्दार  रामसिंह ने एक चाल चली। उसने अहोम शिविर की ओर एक पत्र के साथ एक तीर छोड़ा गया, जिसमें लिखा था कि लाचित को एक लाख रुपये दिये गए थे और इसलिए उसे गुवाहाटी छोड़कर चले जाना चाहिए। यह पत्र अहोम राजा चक्रध्वज सिंह के पास पहुंच गया।। राजा को लाचित की निष्ठा और देशभक्ति पर संदेह होने लगा था,  परंतु उसके प्रधान मंत्री अतन बुड़गोहेन ने राजा को समझाया  दिया कि यह लाचित के विरुद्ध एक चाल है।

सराईघाट की लड़ाई के अंतिम चरण में जब मुग़लों ने सराईघाट में नदी से आक्रमण किया, तो असमिया सैनिक लड़ने की इच्छा खोने लगे थे। कुछ सैनिक पीछे हट गए। इसके बावजूद गंभीर रूप से बीमार लाचित ने  हिम्मत नहीं हारी। वे एक  नाव में सवार हुए और सात नावों के साथ मुगल बेड़े की ओर बढ़े। उन्होंने सैनिकों से कहा, -यदि आप भागना चाहते हैं, तो भाग जाएं। महाराज ने मुझे एक कार्य सौंपा है और मैं इसे अच्छी तरह पूरा करूंगा। मुगलों को मुझे बंदी बनाकर ले जाने दीजिए। आप महाराज को सूचित कीजिएगा कि उनके सेनाध्यक्ष ने उनके आदेश का पालन करते हुए अच्छी तरह युद्ध किया। लचित ने अपने सैनिकों से कहा,- जब मेरे देश पर आक्रमणकारियों का खतरा बना हुआ है, जब मेरे सैनिक उनसे लड़ते हुए अपनी ज़िंदगी दांव पर लगा रहे हैं, तब मैं सिर्फ बीमार होने के कारण कैसे अपने शरीर को आराम देने की सोच सकता हूं। मैं अपनी पत्नी और बच्चों के पास घर वापस चले जाने के बारे में कैसे सोच सकता हूं। जब मेरा पूरा देश खतरे में है। इस पर लाचित के सैनिक लामबंद हो गए और ब्रह्मपुत्र नदी में एक भीषण युद्ध हुआ।

सराईघाट, ब्रह्मपुत्र नदी में अहोम सेना और मुगलों के बीच या ऐतिहासिक युद्ध था। रामसिंह को अपने गुप्तचरों से पता चला कि अन्दुराबली के किनारे पर रक्षा इंतजामों को भेदा जा सकता है और गुवाहाटी को फिर से हथियाया जा सकता है। उसने इस अवसर का फायदा उठाने के उद्देश्य से मुगल नौसेना खड़ी कर दी। उसके पास 40 जहाज थे, जो 16 तोपों और छोटी नौकाओं को ले जाने में समर्थ थे। यह युद्ध उस यात्रा का चरमोत्कर्ष था, जो यात्रा आठ वर्ष पहले मीर जुमला के आक्रमण से आरंभ हुई थी। भारतवर्ष के इतिहास में कदाचित् यह पहला महत्वपूर्ण युद्ध था, जो पूर्णतया नदी में लड़ा गया। जिसमें लाचित ने पानी में लड़ाई यानी नौसैनिक युद्ध की सर्वथा नई तकनीक आजमाते हुए मुगलों को पराजित किया। ब्रह्मपुत्र नदी का सराई घाट इस ऐतिहासिक युद्ध का साक्षी बना। इस युद्ध में ब्रह्मपुत्र नदी में एक प्रकार का त्रिभुज बन गया था, जिसमें एक ओर कामख्या मंदिर, दूसरी ओर अश्वक्लान्ता का विष्णु मंदिर और तीसरी ओर ईटाकुली किले की दीवारें थीं। दुर्भाग्यवश लचित इस समय इतने अस्वस्थ हो गए कि उनका चलना-फिरना भी अत्यंत कठिन हो गया था, परंतु उन्होंने बीमार होते हुए भी भीषण युद्ध किया और अपनी असाधारण नेतृत्व क्षमता और अदम्य साहस से सराईघाट की प्रसिद्ध लड़ाई में लगभग 4 हजार मुगल सैनिकों को मार गिराया। इस युद्ध में अहोम सेना ने अनेक आधुनिक युक्तियों का उपयोग किया। जैसे कि पनगढ़ बनाने की युक्ति। युद्ध के दौरान ही बनाया गया नौका-पुल छोटे किले की तरह काम आया। अहोम की बच्छारिना यानी जो अपने आकार में मुगलों की नाव से छोटी थी। वह अत्यंत तीव्र और घातक सिद्ध हुई। इन सभी आधुनिक युक्तियों ने लाचित  की अहोम सेना को मुगल सेना से अधिक सबल और प्रभावी बना दिया। दो दिशाओं से हुए प्रहार से मुगल सेना में हड़कंप मच गया और सायंकाल तक उसके तीन अमीर और 4हजार सैनिक मारे गए।

हालांकि इससे पहले मुगल सेना ने दस हजार अहोम सैनिकों को काट दिया था।मुगल सेनापति  राम सिंह को युद्ध में बढ़त मिल गई थी। उसने अहोम राजा चक्रध्वज सिंह के पास संदेशा भिजवाया कि आत्मसमर्पण कर दो। राजा ने प्रस्ताव नामंजूर कर दिया। अहोम राजा इतने कमजोर नहीं थे परंतु कमांडर लाचित बीमार पड़ गया था। बीमार हालत में भी लचित ने कहा-जब मेरी सेना मरने-मारने के लिए तैयार है तो मैं एक बीमारी का बहाना लेकर घर बैठने तो नहीं जाऊंगा। बिना मरे-मारे कोई वापस नहीं जाएगा। इसी  युद्ध को सराईघाट की लड़ाई के नाम से जाना जाता है।  सराईघाट में ब्रह्मपुत्र नदी पतली हो जाती है। नदी किनारे आगे-पीछे दोनों तरफ से मुगल सेना को घेर लिया गया। मुगल सेना का एक सेनापति मुनव्वर खान को गोली लग गई। वह उठ नहीं पाया।  मुगल सेना अपने कमांडर के गिरते ही तितर-बितर हो गई।  लचित की सेना ने उसे धर दबोचा।  इसके बाद मुगल सेना मानस नदी के पार भाग खड़ी हुई।  मुगलों की बुरी तरह हार हुई। लाचित बोड़फुकन विजयी हुए। 

इस हार के बाद मुगल सेनाएं गुवाहाटी से पीछे हट गईं। मुगल सेनापति राम सिंह ने भी कबूला कि अहोमों की सेना उसकी सेना से बेहतर थी। राम सिंह ने अहोम सैनिकों और अहोम सेनापति लाचित बोड़फुकन के हाथों अपनी पराजय स्वीकार करते हुए लिखा- महाराज की जय हो।  सलाहकारों की जय हो। सेनानायकों की जय हो। देश की जय हो। केवल एक ही व्यक्ति सभी शक्तियों का नेतृत्व करता है। यहां तक ​​कि मैं रामसिंह, व्यक्तिगत रूप से युद्ध-स्थल पर उपस्थित होते हुए भी कोई कमी या कोई अवसर नहीं ढूंढ सका। इस तरह कम संख्या बल होने पर भी लाचित की अहोम सेना ने बेहतर रणनीति और मनोवैज्ञानिक युद्ध से मुगल सेना को मार भगाया था।  इस हार के बाद मुगलों ने  फिर असम की ओर आंख ऊठाकर भी नहीं देखा था।

लाचित बड़फूकन का जन्म 24 नवंबर, 1622 को अहोम साम्राज्य के एक अधिकारी के घर हुआ। उनके पिता का नाम  सेंग कालुक-मो-साई और माता का नाम कुंदी मराम था। उनका पूरा नाम ‘चाउ लाचित फुकनलुंग’ था। उन्हें अहोम राजा चक्रध्वज सिंह की शाही घुड़साल के अधीक्षक और महत्वपूर्ण सिमलूगढ़ किले के प्रमुख के रूप में नियुक्त किया गया। बहादुर और समझदार लचित जल्दी ही अहोम साम्राज्य के सेनापति बन गए। पूर्वोत्तर भारत के हिंदू साम्राज्य अहोम की सेना की संरचना बहुत ही व्यवस्थित थी। एक ‘डेका’ 10 सैनिकों का, ‘बोरा’ 20 सैनिकों का, ‘सैकिया’ 100 सैनिकों का, ‘हजारिका’ 1,000 सैनिकों का और ‘राजखोवा’ 3,000 सैनिकों का जत्था होता था। इस प्रकार बड़फूकन 6,000 सैनिकों का संचालन करता था।  बड़फूकन एक पदवी होती थी। लाचित बड़फूकन इन सभी के प्रमुख थे। बड़फूकन बनने के बाद लाचित  के सामने बहुत-सी चुनौतियां थीं। उनके सामने एक तरफ मुगलों की विशाल और संगठित सेना थी, दूसरी तरफ अहोम साम्राज्य की निराश और विखंडित सेना। पहले चार वर्षों में  लाचित ने अपना पूरा ध्यान अहोम सेना के नव-संगठन और अस्त्र-शस्त्रों को इकट्ठा करने में लगाया। इसके लिए उन्होंने नए सैनिकों की भर्ती की, जल सेना के लिए नौकाओं का निर्माण कराया, हथियारों की आपूर्ति, तोपों का निर्माण और किलों के लिए मजबूत रक्षा प्रबंधन इत्यादि का दायित्व अपने ऊपर लिया। उन्होंने यह सब इतनी चतुराई और समझदारी से किया कि इन सब तैयारियों की मुगलों को भनक तक नहीं लगने दी और अंतत: सराईघाट के युद्ध में मुगलों को हमेशा के लिए असम से बाहर खदेड़ दिया। इस युद्ध में जीत के लगभग एक वर्ष बाद बीमारी के कारण उनकी मृत्यु हो गई। जोरहाट से 16 किमी दूर हूलुंगपारा में स्वर्गदेव उदयादित्य सिंह के सन 1672 में निर्मित लचित स्मारक में उनकी समाधि है।

इस महान वीर लाचित बोड़फुकन के पराक्रम और सराईघाट की लड़ाई में असमिया सेना की विजय का स्मरण करने के लिए  असम में प्रति वर्ष 24 नवम्बर को लाचित दिवस  मनाया जाता है। सराईघाट की इस अभूतपूर्व विजय ने असम के आर्थिक विकास और सांस्कृतिक समृद्धि की आधारशिला रखी। आगे चलकर असम में अनेक भव्य मंदिरों आदि का निर्माण हुआ। असमिया संस्कृति फलती-फूलती रही। कल्पना कीजिए कि यदि सराईघाट के युद्ध में मुगलों की विजय हो जाती, तो वह असमवासी हिंदुओं के लिए सांस्कृतिक विनाश और पराधीनता लेकर आती। धर्मांध मुगल असम में भी जबरदस्ती धर्मांतरण कर लेते।  इसलिए लचित हमेशा ही असम के लोगों और अहोम सेना के हृदय में बसे हैं और रहेंगे।

 

 

 

——————————-

दोस्तों मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश चंद्र लखेड़ा इस बार हिमालयी क्षेत्र के पूर्वोत्तर के राज्य असम के उस महान  वीर सपूत लाचित बोड़फुकन के बारे में बता रहा हूं,जिन्हें असम का वीर शिवाजी भी कहा जाता है। लचित जैसे महान योद्धा के कारण  मुगल आक्रांता पूर्वोत्तर भारत को अपने अधीन नहीं कर सके। मैं जब तक इस हिमालयी वीर के बारे में बताऊं, तब तक आप लोग इस हिमालयी लोग चैनल

https://www.youtube.com/channel/UCY2jUIebYsne4nX09a1aUfQ

को लाइक व सब्सक्राइब अवश्य कर दीजिए। आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र की संस्कृति, इतिहास, लोक, भाषा, सरोकारों आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं।सहयोगी यूट्यूब चैनल संपादकीय न्यूज ।

दोस्तों यह थी महान हिमालयी वीर लाचित बोड़फुकन की गाथा। यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। इसके टाइटल सांग – हम पहाड़ा औंला– को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है।  इसी चैनल में है।अगली वीडियो का इंतजार कीजिए। तब तक जै हिमालय, जै भारत।

====================

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here