सम्राट मिहिर भोज को लेकर गुर्जर और राजपूतों में विवाद,……. क्या उत्तराखंड के पंवार और चंद राजवंश भी थे गुर्जर प्रतिहार ?

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 जानिए-सम्राट मिहिर भोज के नाम के आगे गुर्जर क्यों लगवाना चाहता है गूजर समाज

-कौन हैं क्षत्रिय, राजपूत और गुर्जर

परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

www.himalayilog.com  / www.lakheraharish.com

सभी भारतीय जानते हैं कि सम्राट मिहिर भोज महान राजा थे। वे गुर्जर प्रतिहार वंश के सबसे प्रसिद्ध  राजा थे। अब गुर्जर समाज उनकी प्रतिमाओं के साथ उनके नाम के आगे गुर्जर शब्द लिखवाने की मांग कर रहा है।  गुर्जर या गूजर या गुज्जर समाज का तो यह भी है दावा कि प्रतिहारों के साथ ही परमार, चालुक्य ,चौहान, तोमर  और चावड़ा वंश भी मूल रूप से गुर्जर हैं।  गुर्जर समाज चाहता है कि सम्राट मिहिर भोज की प्रतिमाएं जहां भी लगे, उनके नाम के साथ गुर्जर शब्द  शामिल किया जाए। जैसा कि दिल्ली के कोटला मुबारकपुर और उत्तराखंड के लक्सर, हरिद्वार में किया गया है। अर्थात उनका नाम इस तरह से लिखा जाए- गुर्जर सम्राट मिहिर भोज। ये सम्राट भोज कन्नौज के थे,जबकि दूसरे भोज उज्जैन के। वैसे गुर्जर समाज की इस मांग के बाद आशंका है कि कहीं  महाराणा प्रताप, शिवाजी महाराज, महारानी झांसी लक्ष्मी बाई, महाराजा रणजीत सिंह जैसे महान राजाओं के नाम के आगे भी उनकी  जाति संज्ञानाम को शामिल करने की मांग न उठने लगे।

अब सम्राट मिहिर भोज प्रकरण पर आते हैं। इस मुद्दे पर गुर्जर समाज और राजपूत समाज में विवाद है। यह विवाद  तब पैदा हुआ, जब उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में कुछ स्थानों पर सम्राट मिहिर भोज की प्रतिमा के साथ उनके नाम के आगे लिखा गुर्जर शब्द हटा दिया गया। गुर्जर समाज का आरोप है कि यह सब राजपूतों के दबाव में किया गया। इसके बाद गुर्जर समाज सम्राट मिहिर भोज और गुर्जर प्रतिहार राजाओं के इतिहास को लेकर मैदान में कूद पड़ा। वे राजपूतों को खुली बहस की चुनौती देने लगे। इस मामले में सबसे पहले  सम्राट मिहिर भोज के बारे में जान लेते हैं। मिहिर भोज  को प्रथम भोज भी कहा जाता है। वे गुर्जर-प्रतिहार राजवंश के सम्राट थे। उनकी राजधानी कन्नौज में थी। उनके शासनकाल को लेकर इतिहासकारों में अब भी अंतिम राय नहीं बन पाई है।  माना जाता है कि उनका शासनकाल सन 836 से 885 ई तक रहा है। उन्होंने अरब आक्रमणों को मार भगाया  था। मिहिर भोज का शासनकाल प्रतिहार साम्राज्य का स्वर्णकाल माना जाता है। उनका राज्य उत्तर-पश्चिम में सतुलज, उत्तर में हिमालय की तराई, पूर्व में पाल साम्राज्य की पश्चिमी सीमा, दक्षिण-पूर्व में बुन्देलखंड और वत्स की सीमा, दक्षिण-पश्चिम में सौराष्ट्र, तथा पश्चिम में राजस्थान के अधिकतर भाग तक फैला हुआ था।

अखिल भारतीय वीर गुर्जर महासभा की ओर से आचार्य वीरेन्द्र विक्रम कहते हैं कि -गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज रघुवंशी सम्राट थे और गुर्जर प्रतिहार वंश के सबसे प्रतापी सम्राट थे। उन्होंने 53 वर्षों तक अखंड भारत पर शासन किया। उनकी पहचान समाज में गुर्जर सम्राट के नाम से ही है। उनके समकालीन शासकों राष्ट्रकूट और पालो ने अपने अभिलेखों में उनको गुर्जर कहकर ही संबोधित किया है । दिल्ली के  प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में  18 अक्टूबर 2021 को एक प्रेस कांफ्रेंस में आचार्य वीरेन्द्र विक्रम ने कहा गुर्जर भी क्षत्रिय हैं। उन्होंने दावा किया कि भारत के इतिहास में 12वीं सदी से पहले राजपूत नाम की किसी भी जाति का कोई उल्लेख नहीं है। क्षत्रिय कोई जाति नहीं है, यह एक वर्ण है। इसमें जाट, गुर्जर, राजपूत  अहीर यानी यादव , मराठा, लोधा, बघेल आदि सभी जातिया शामिल हैं। आचार्य वीरेन्द्र विक्रम ने यह भी कहा कि 851 ईसवी में भारत भ्रमण पर आए अरब यात्री सुलेमान ने मिहिर भोज को गुर्जर राजा और उनके देश को गुर्जर देश कहा है। 911 ईसवी में बगदाद के इतिहासकार अल मसूदी ने भी गुर्जर प्रतिहार सम्राटों की जाति गुर्जर लिखी है।  सम्राट मिहिर भोज के पौत्र सम्राट महिपाल को कन्नड़ कवि पंप ने गुर्जर राजा लिखा है।  उन्होंने बताया कि प्रतिहारों को कदवाहा, राजोर, देवली, राधनपुर, करहाड़, सज्जन, नीलगुंड, बड़ौदा के शिलालेखों में गुर्जर जाति का लिखा है। परमारों को घागसा के शिलालेख, तिलकमंजरी, सरस्वती कंठाभरण में, चालुक्यों को कीर्ति कौमुदी और पृथ्वीराज विजय में, चौहानों को पृथ्वीराज विजय और यादवों के शिलालेखों में गुर्जर जाति का लिखा हुआ है। दिल्ली ट्रेवल गाइड में और लालकोट किले के संजय वन में लगवाए गए  सरकारी बोर्ड पर  भी लिखा है की लाल कोट किले को गुर्जर तंवर प्रमुख अनंगपाल ने 731 ईसवी को बनवाया था। 1937 में डा. रमा शंकर त्रिपाठी ने अपनी किताब हिस्ट्री ऑफ कन्नौज में गुर्जर प्रतिहारों को गुर्जर जाति का लिखा है । 1957 में डा. बैजनाथ पुरी ने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से गुर्जर प्रतिहारों पर पीएचडी की और उनको गुर्जर जाति का सिद्ध किया ।1966 ईसवी में डा. विभूति भूषण मिश्रा ने गुर्जर प्रतिहार सम्राट मिहिर भोज को गुर्जर लिखा है ।  आचार्य अपने दावों की पुष्टि में कई ताम्रपत्रों और शिलालेखों का भी उल्लेख  करते हैं।

अब गुर्जर समाज के दावों के संदर्भ में उत्तराखंड के राजवंशों पर दृष्टि घुमाते हैं। गुर्जर समाज का दावा है कि प्रतिहार, परमार, चालुक्य ,चौहान, तोमर  और चावड़ा वंश मूल रूप से गुर्जर है । पृथ्वीराज रासो में अग्निकुंड से चार राजपूत कुलों- परमार, प्रतिहार, चौहान और चालुक्य की उत्पत्ति की कहानी मिलती है।  गढ़वाल के पंवार राजवंश को लेकर अधिकतर इतिहासकार इसका संस्थापक  कनकपाल को मानते हैं। हालांकि यह भी कहा जाता है कि पंवार वंश का संस्थापक भोनापाल या भगवान पाल या  भोगदत्त था।  परंतु अधिकतर कनकपाल को ही मानते हैं।  माना जाता है कि  887 ई में गुजरात के धार से तीर्थयात्रा पर आए कनकपाल से चांदपुरगढ़ के राजा भानुप्रताप ने अपनी पुत्री का विवाह कर लिया था। उन्होंने उसे अपने राज्य राज्य चांदपुरगढ़ का उत्तराधिकारी भी घोषित कर दिया।  कनकपाल किस क्षेत्र से गढ्रवाल आया था, इसे लेकर इतिहासकारों के दो मत हैं।  कुछ इतिहासकारों के अनुसार कनकपाल गुर्जर क्षेत्र यानी मेवाड़ गुजरात व महाराष्ट्र से आया।  इसका उल्लेख चांदपुरगढ़ से प्राप्त एक शिलालेख में मिलता है और व दूसरा प्रमाण गणेश भगवान की मूर्ति है जिसमें गणेश भगवान नकी मूर्ति दायें मुड़ी हुई है। जबकि पं. हरिकृष्ण रतूड़ी, पातीराम तथा एटकिंसन के अनुसार कनकपाल धार प्रदेश से आया था। हालांकि  इसके कोई ठोस प्रमाण नहीं मिलते हैं। गढ़नरेश सुदर्शन शाह ने अपने वंश को पंवार कहा था। इसलिए इसे पंवार वंश कहा जाता है। पंवार शब्द परमार से बना है। अब गुर्जर समाज के इस दावे को माने कि परमार भी गुर्जर थे और गुजरात शब्द भी गुजर से बना है।  तो इसका अर्थ हो सकता है कि  गढ़वाल का पंवार वंश के संस्थापक कनकपाल के भी गुर्जर प्रतिहार वंश से होने  संभावना है।

अब कुमायुं के चंद वंश पर आते हैं। माना जाता है कि चंद वंश का संस्थापक सोमचन्द प्रयागराज में गंगा के किनारे झूसी से कुमायुं आया। तब समय काली कुमायुं यानी चम्पावत में कत्यूरी नरेश ब्रह्मदेव का शासन था। कत्यूरी नरेश ने अपनी पुत्री का विवाह सोमचंद से कर दिया। दहेज में ब्रह्मदेव ने 15 बीघा भूमि दी। सोमचन्द ने इस भूमि में राजबुंगा नामक किले का निर्माण किया, जो कि आज का चम्पावत नगर है। कत्यूरी के पतन के बाद सोमचंद ने चंद वंश की स्थापना की तथा अपनी राजधानी चम्पावत नगर को बनाया। हालांकि हर्ष देव जोशी के अनुसार चन्द वंश का संस्थापक थोहर चन्द था। परंतु अधिकतर इतिहासकार सोमचन्द को ही संस्थापक मानते हैं। उनके कालखंड को भी अलग-अलग तिथियां हैं। बदरीदत्त पांडे 600-629   मानते हैं, जबकि डा. शिव प्रसाद डबराल 665 से 700 मानते हैं। कुछ 1025 ई भी मानते हैं। एक मान्यता यह भी है कि  कन्नौज नरेश के भाई सोमचंद बद्रीनाथ की यात्रा पर आए थे और ब्रह्मदेव ने उनके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर अपनी कन्या का विवाह सोमचंद से कर दिया और दहेज के रूप में उन्हें चंपावत की छोटी सी जागीर दे दी। इस तरह सोमचंद उत्तराखंड में 1019 – 1020 ईस्वी में कुमायुंआया था।

बहरहाल,  इतना तो तय है कि चंद वंश का संस्थापक सोमचंद कन्नौज अथवा झूसी से आया था। उस पूरे कालखंड में कन्नौज से लेकर प्रयागराज क्षेत्र में गुर्जर प्रतिहार  और उनके बाद गहड़वालों का शासन रहा। दोनों ही खुद को सूर्यवंशी बताते हैं। कुमायुं के चंद भी सूर्यवंशी बताए जाते हैं। इस तरह यह माना जा सकता है की चंदों के पूर्वज या तो गुर्जर प्रतिहार  थे अथवा उनके बाद कन्नौज क्षेत्र में शासन करने वाले  गहडवाल। प्रतिहार साम्राज्य के पतन के पश्चात कन्नौज तथा बनारस में जिस राजवंश का शासन स्थापित हुआ उसे गहड़वाल वंश कहा जाता है ।  प्रतिहार-साम्राज्य के विघटन से फैली हुई अव्यवस्था का लाभ उठाकर 1090 ईस्वी के लगभग चन्द्रदेव नामक व्यक्ति ने कन्नौज पर अधिकार कर लिया। पृथ्वीराज चौहान के समकक्ष कन्नौज का राज जयचंद गहड़वाल वंश का अन्तिम शासक था ।  उसका शासन काल  1170 से1194 ईसवी माना जाता है। भारतीय लोक साहित्य तथा कथाओं में वह राजा जयचन्द्र के नाम से विख्यात है । इसलिए संभावना है कि  कुमायुं के चंद नरेश भी गुर्जर प्रतिहार या  गहड़वाल वंश से थे। यह भी कहा जाता है की गहड़वालों के चंद सरनेम को ही कुमायुं के चंद अपने साथ ले आए थे। यह मात्र एक संभावना है, नकि अंतिम सत्य।

अब गुर्जर-प्रतिहार राजवंश की उत्पत्ति को लेकर बताता हूं। हिंदू वर्ण व्यवस्था में गुर्जर प्रतिहार और  गहड़वाल क्षत्रिय हैं। इनकी उत्पति के बारे में इतिहासकार एकमत  नहीं हैं। इस राजवंश के शासकों दावा रहा है कि वे  भगवान श्रीराम के  छोटे भाई लक्ष्मण के वंशज हैं।  लक्ष्मण ने एक प्रतिहारी अर्थात द्वार रक्षक की तरह राम की सेवा की थी। इससे जिससे इस वंश का नाम प्रतिहार पड़ा। जबकि कुछ इतिहासकार कहते हैं कि वे  राष्ट्रकूटों के यहां सेना में रक्षक यानी प्रतिहार थे, जिससे यह शब्द निकला। गुर्जर-प्रतिहार राजवंश भारतीय उपमहाद्वीप में प्राचीन एवं मध्यकाल का राजवंश था। जिसके शासकों ने मध्य-उत्तर भारत के बड़े हिस्से पर मध्य-8वीं सदी से 11वीं सदी के बीच शासन किया। इस राजवंश का संस्थापक प्रथम नागभट्ट था। उसके वंशजों ने पहले उज्जैन और बाद में कन्नौज को राजधानी बनाकर बड़े भूभाग पर शासन किया।  नागभट्ट से पहले गुर्जर-प्रतिहारों  ने मंडोर, मारवाड़ आदि क्षेत्रों में सामंतों के रूप में 6ठीं से 9वीं सदी के बीच शासन किया गया। परंतु एक संगठित साम्राज्य के रूप में प्रतिहार वंश की स्थापना आठवीं शताब्दी में नागभट्ट ने की थी। गुर्जरों की शाखा से संबंधित होने के कारण इतिहास में इन्हें गुर्जर प्रतिहार कहा जाता है। पुलकेशिन द्वितीय के ऐहोल अभिलेख में गुर्जर जाति का सर्वप्रथम उल्लेख हुआ है। बाण के हर्षचरित में भी गुर्जरों का उल्लेख हुआ है। चीनी यात्री हुएनसांग ने भी गुर्जर देश का उल्लेख किया है। मिहिरभोज के ग्वालियर अभिलेख के अनुसार नागभट्ट ने अरबों को सिंध से आगे बढ़ने से रोक दिया। हालांकि गुर्जर शब्द को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि गुर्जर शब्द इनके नाम के साथ इसलिए जुड़ा है क्योंकि गुर्जर-प्रतिहार वंश के लोग खजर नामक जाति की संतान थे। वे हूणों के साथ भारत में आए थे। खजर स्थान से आने के कारण उसे अपनी पहचान के तौर पर अपने नाम के साथ इस्तेमाल करते रहे।खजर से बदलकर गूजर या गुर्जर हो गया।  हालांकि गुर्जर इस मत को सिरे से नकार देते हैं।

अब क्षत्रिय और राजपूतों को लेकर जानकारी देता हूं। हमारे सनातन धर्म या जीवन पद्धति में स्वभावज गुणों से प्रेरित कर्मों के आधार पर मानव समाज को चार वर्णों, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में विभाजित किया गया है। प्राचीन भारतीय समाज चार वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र में बंटा हुआ था। इन वर्णों के कार्य और जिम्मेदारियां निश्चित थीं। इनमे से ब्राह्मण यज्ञ और पुरोहित का कार्य करते थे वहीँ क्षत्रिय समाज की सुरक्षा के लिए जाने जाते थें। वैश्यों का व्यापार और शूद्रों के लिए सेवा कार्य निश्चित थे।यह जाति व्यवस्था नहीं थी। कर्मों के आधार पर वर्ण बदले  भी जाते थे। श्री मद्भगवद्गीता के अट्ठारहवें अध्याय में अर्जुन के वर्ण विषयक शंका का समाधान करते हुए भगवान श्री कृष्ण ने स्पष्ट किया कि क्षत्रिय कौन है।यथा –

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनं।

दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजं। (18/43 )

अर्थात जिनका बहादुरी ,तेज ,धैर्य ,दक्षता ,युद्ध से अपलायन ,दान तथा ईश्वरभाव से सबका पालन करना स्वाभाविक कर्म है, वे क्षत्रिय हैं।

इस तरह क्षत्रिय वर्ण में वे लोग शामिल  होते थे जो कि वीर और साहसी होते थे। जो सैन्य कुशलता में प्रवीण और शासक प्रवृति के होते थे। अतः युद्ध और सुरक्षा की जिम्मेदारी का निर्वाहन करने वाला वर्ण क्षत्रिय कहलाता था। क्षत्रिय प्राचीन भारतीय समाज की वर्ण व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थे। इनका मुख्य कर्तव्य समाज और गाय समेत सभी पशुओं की सुरक्षा करना होता था। यह व्यवस्था जातिगत नहीं थी। ऋग्वैदिक शासन प्रणाली में शासक के लिए राजन और राजन्य शब्दों का प्रयोग किया गया है। उस समय राजन वंशानुगत नहीं माना जाता था। वैदिक काल के अंतिम अवस्था में राजन्य की जगह क्षत्रिय शब्द ने ले ली जो किसी विशेष क्षेत्र पर शक्ति या प्रभाव या नियंत्रण को इंगित करता था। संभवतः विशेष क्षेत्र पर प्रभुत्व रखने वाले क्षत्रिय कहलाये। प्राचीन साहित्यों से पता चलता है कि क्षत्रिय वर्ण आनुवंशिक नहीं था और यह किसी जाति विशेष से सम्बंधित नहीं था। जातकों, रामायण और महाभारत ग्रंथों में क्षत्रिय शब्द से सामंत वर्ग और युद्धरत अनेक जातियों का उल्लेख हुआ है।  क्षत्रिय समस्त राजवर्ग और सैन्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करता था। क्षत्रिय वर्ग का मुख्य कर्तव्य युद्ध काल में समाज की रक्षा के लिए युद्ध करना तथा शांति काल में सुशासन प्रदान करना होता था।

अब राजपूत पर आते हैं। क्षत्रिय भारतीय समाज की वर्ण व्यवस्था का एक अंग है जबकि राजपूत एक जाति है। राजपूत शब्द संस्कृत के राजपुत्र का ही विस्तृत रूप है। राजपुत्र शब्द का प्रयोग पहले राजकुमार के अर्थ में किया जाता था, पूर्व मध्यकाल में सैनिक वर्गों तथा छोटे- छोटे जमींदारों के लिये किया जाने लगा। 8 वीं सदी के बाद राजपूत शब्द शासक वर्ग का पर्याय बन गया।  राजपूतो को लेकर कई मत हैं। एक मत है कि वे विशुद्ध रूप से भारतीय क्षत्रियों की ही संतान हैं।  वे स्वयं को सूर्यवंशीय और चन्द्रवंशीय बताते हैं। राजपूत प्राचीन क्षत्रियों के वंशज हैं। इनमें विदेशी रक्त का मिश्रण बिल्कुल भी नहीं है। मनुस्मृति में भी पौण्ड्रक, चोल,द्रविङ, यवन, शक, पारद, पहल्लव आदि को क्षत्रिय कहा गया है। दूसरा मत कर्नल जेम्स टॉड का है। वे राजपूतों को विदेशी सीथियन जाति की सन्तान मानते हैं। उनकी दलील  रही है कि राजपूत एवं सीथियन की सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति में समानता है। दोनों में रहन-सहन, वेश-भूषा की समानता, मांसाहार का प्रचलन, रथ से युद्ध को संचालित करना, याज्ञिक अनुष्ठानों का प्रचलन, अस्त्र-शस्त्र की पूजा का प्रचलन आदि से यह प्रतीत होता है कि राजपूत सीथियन के ही वंशज थे। यह इतिहासकारों की दलील की बजाए यही सत्य प्रतीत होता  है कि वे भारत में शासक वर्ग क्षत्रियों के  वंशज हैं। माना जाता है कि राजपूत शब्द छठी शताब्दी से लेकर बारहवीं शताब्दी में विकसित हुआ। जानना लायक यह है कि सभी क्षत्रिय राजपूत नहीं हैं पर सभी राजपूत क्षत्रिय हैं। राजपूत राजपुत्र का ही अपभ्रंश माना जाता है और इनमें राजाओं के पुत्र, सगे सम्बन्धी और अन्य राज्य परिवार के लोग होते थे। चूंकि राजपूत शासक वर्ग से सम्बन्ध रखते थे अतः इनमें मुख्य रूप से क्षत्रिय जाति के लोग होते थे। हालांकि शासक वर्ग की कई जातियां शासन और शक्ति की बदौलत राजपूत जाति में शामिल होती गयी।  कौटिल्य यानी महान विद्वान आचार्य चाणक्य, महान कवि कालिदास व बाणभट्ट आदि की रचनाओं में भी क्षत्रियों के लिए राजपुत्र का प्रयोग हुआ है। हालांकि अरबी लेखक अलबेरुनी ने  अपनी किताबों में राजपूत या राजपुत्र का उल्लेख करने की बजाए के क्षत्रिय शब्द का प्रयोग किया है। अर्थात गूजर प्रतिहार वंश के पतन के बाद राजपूतों का उदय हुआ। हर्षवर्धन के शासन के बाद 12 वीं शताब्दी तक का समय राजपूत काल के रूप में जाना जाता है। तब तक उत्तर भारत में राजपूतों के 36 कुल प्रसिद्ध हो चुके थे। इनमें चौहान, प्रतिहार, परमार, चालुक्य, सोलंकी, राठौर, गहलौत, सिसोदिया, कछवाहा, तोमर आदि प्रमुख थे। राजपुत्र पहली बार 11 वीं शताब्दी के संस्कृत शिलालेखों में शाही पदनामों के लिए प्रयुक्त होने लगा था। इस तरह यह शब्द राजा के पुत्रों, रिश्तेदारों आदि के लिए प्रयुक्त होता था। मध्ययुगीन साहित्य के अनुसार विभिन्न जातियों के लोग शासक वर्ग में होने की वजह से इस श्रेणी में आ गए। धीरे-धीरे राजपूत एक सामाजिक वर्ग के रूप में सामने आया जो कालांतर में वंशानुगत हो गया, एक जाति हो गई। इसलिए राजपूतों को क्षत्रियों का वंशज माना जाता है। क्षत्रिय से राजपूत तक आते आते एक लम्बा समय लग गया और 16 वीं शताब्दी में  यह शब्द  पूरी तरह से प्रचलित हो गया।   इस तरह यह सत्य है कि आज के राजपूतों का उदय क्षत्रिय वर्ण से हुआ ।  जो  कि बाद में वंशानुगत हो गयी और एक जाति के रूप में बदल गई।

मेरा मानना है कि जिस तरह से मध्यकाल में राजपूत ही क्षत्रिय का पर्याय हो गया, उसी तरह कभी  शासक वर्ग रहे गुर्जर भी क्षत्रिय का पर्याय रहे हैं।  इसलिए  यह विषय विवाद का है ही नहीं। सभी जानते हैं कि महान सम्राट मिहिर भोज गुर्जर प्रतिहार वंश के शासक थे। वे क्षत्रिय थे। परंतु भारत के आज के जातिवादी हो चुके समाज में उनको मात्र गुर्जर का सम्राट कह देने से उनका दायरा सीमित कर देना ही है। वे महान सम्राट थे और रहेंगे। भले की उनके नाम के आगे गुर्जर लिखें या न लिखें।

 

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दोस्तों मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश चंद्र लखेड़ा इस बार सम्राट मिहिर भोज पर गुर्जरों के दावे के संदर्भ में उत्तराखंड के गढ़वाल के पंवार और कुमायुं के चंद राजवंशों के बारे में नये तथ्य लेकर आया हूं। जब तक मैं इस बारे में और जानकारी दूं, तब तक इस हिमालयी लोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब अवश्य कर दीजिए। आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र के इतिहास, लोक, भाषा, संस्कृति, कला, संगीत, सरोकार आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं।सहयोगी यूट्यूब चैनल संपादकीय न्यूज ।

दोस्तों यह था महान सम्राट मिहिर भोज से लेकर गुर्जर व राजपूत जातियां तथा क्षत्रिय वर्ण और उत्तराखंड के पंवार और चंद राजवंशों का कुछ इतिहास । यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। इसके टाइटल सांग – हम पहाड़ा औंला– को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है।  इसी चैनल में है।अगली वीडियो का इंतजार कीजिए। तब तक जै हिमालय, जै भारत।

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