बग्वाल या बूढ़ी दीवाली – जानिए किस पर विजय का पर्व  मनाते हैं हिमालयी खस

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बग्वाल या बूढ़ी दीवाली  (Diwali)का भगवान राम से कोई लेना-देना नहीं

परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

www.himalayilog.com  / www.lakheraharish.com

हिमाचल प्रदेश (Himachal Pradesh) और उत्तराखंड (UTtarakhand)में दीपावली के बाद लगभग ११ दिन से एक माह के दौरान फिर से दीवाली मनाई जाती है। इसे कहीं बूढ़ी दीवाली, कहीं इगास-बग्वाल कहा जाता है। इन दोनों राज्यों में प्रचारित किया गया है कि लंका विजय के बाद भगवान श्री राम के अयोध्या पहुंचने की सूचना पहाड़ों में देर से मिली थी। इसलिए देर से दीवाली मनाई गई। गढ़वाल में यह भी कहा जाता है की गढ़ नरेश के सेनापति वीर भड़ माधोसिंह भंडारी के तिब्बत विजय से लौटने के बाद यह दीवाली मनाई जाने लगी थी। कहा जाता है कि  दीवाली के समय गढ़वाल के वीर माधो सिंह भंडारी के नेतृत्व में गढ़वाल की सेना ने दापाघाट, तिब्बत का युद्ध जीतकर विजय प्राप्त की थी। गढ़वाल  (Garhwal)सेना दीवाली के ठीक ग्यारहवें दिन अपने घर पहुंची थी।  युद्ध जीतने और सैनिकों के घर पहुंचने की खुशी में उस समय दिवाली मनाई थी।

परंतु इतिहास के पन्ने गवाह हैं कि बूढ़ी दीवाली, या इगास-बग्वाल का इनसे कोई लेना-देना नहीं है। विशेषतौर पर भगवान राम की गाथा को इससे बाद में जोड़ा गया। जबकि सच्चाई यह है कि पहाड़ों में वैदिक आर्यों के आने से बहुत पहले से यह यह त्योहार मनाया जाने लगा था। यह खसों की विजय गाथा का पर्व है। शायद तब खसों के पास ऐसे लेखक न थे जो की रामायण की तरह अपनी विजय गाथा को लिख सकते, याद रख पाते। इसलिए उनकी घटनाओं की स्मृति तो रह गई, परंतु घटनाएं वे भूल गए। खसों ने किसको हराने पर यहउत्सव मनाना शुरू किया, जो कि त्योहार में बदल गया।   यह बताने से पहले कुछ और जानकारी  दे देता हूं।

हिमालय क्षेत्र में प्रचलित अनेक परंपरागत पर्वों एवं उत्सवों के विधि विधानों, तीज- त्योहारों, लोकाचार एवं जन विश्वास में निहित तत्वों का ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में विश्लेषण करने पर सहज ही देखा जा सकता है कि इनमें से बहुत से प्रकात्सोत्सव ऐसे हैं जो कि खसों की विजय के स्मारक प्रतीत होते हैं ।प्रसिद्ध लेखक डीडी शर्मा अपनी पुस्तक – हिमालय के खस-एक ऐतिहासिक व सांस्कृतिक विश्लेषण—में लिखते हैं कि हमारे देश के अनेक पर्व एवं उत्सव ऐसे हैं जिनका प्रारंभिक कतिपय महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं की स्मृतियों को संजोए रखने के लिए किया गया था।  बाद में उन्होंने ही परंपरागत पर्व एवं उत्सवों का रूप ले लिया । किंतु उनसे जुड़ी घटना प्रसंग प्रतीकात्मक रूपों में  प्रदर्शित किए जाते रहे। यद्यपि बहुत समय बीत जाने के बाद लोग उनके मूल रूप व महत्व को भूल गए। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड की लोक परंपराओं में अनेक ऐसे पर्व एवं उत्सवों के अवशेष मिलते हैं, जिससे पता चलता है कि प्रागैतिहासिक काल में इन क्षेत्रों में खसों को यहां की प्रमुख जातियों कोल  एवं नाग आदि से भयंकर संघर्ष करना पड़ा था।  इनमें विजयी होने पर उन्होंने उत्सव के रूप में अतैलदीप प्रज्वलित कर अपने विजयोल्लास की  अभिव्यक्ति की थी।

उत्तराखंड तथा हिमाचल प्रदेश के खस (Khas )प्रधान क्षेत्रों में यह परंपराएं आज भी देखने को मिली हैं। हिमाचल प्रदेश में निरमंड तथा उत्तराखंड गढ़वाल का भुंडा उत्सव खसों की नागों पर  विजय का उत्सव है। इसी तरह  कुल्लू की बूढ़ी  दिवाली या कोलेरो दिवाली तथा उत्तराखंड के गढ़वाल की इगास-बग्वाल तथा कुमायुं की बूढ़ी दीवाली कोलों पर विजय का उत्सव है। मैं पहले की वीडियों में बता चुका हूं कि खसों के आने से पहले  नाग और कोल हिमालयी ढलानों पर रहते थे । कोल जाति ऋग्वैदिक काल में एक शक्तिशाली  व संपन्न जाति थी। इनके नेता शंभ्भर थे, जिसे ऋग्वेद में अहि नाग कहा गया है। उसके नेतृत्व में नागों ने 40 वर्षों तक आर्यों से संघर्ष किया था।

इसी तरह उत्तराखंड की बेड-वार्त को भी खसों की नागों पर विजय का उत्सव माना जाता है।  हालांकि बाद में यह प्रथा महामारी, आपदाओं से मुक्ति के लिए आयोजित होने लगी थी। उत्तराखंड की बेड-वार्त पर मैं पहले ही एक वीडियों ला चुका हैं। इसी तरह की प्रथा हिमाचल प्रदेश में भी रही है।  इसे भुंडा कहा जाता है।  हिमाचल प्रदेश के कुल्लू मंडल के निरमंड नामक स्थान पर प्रति 12 वर्ष के अंतराल में यह उत्सव मनाया जाता रहा है । इसके तहत उत्तराखंड की बेड-वार्त की तरह बेड़ा जाति का व्यक्ति ऊंचाई से नीचे बंधी एक रस्सी पर लकड़ी की पटरी पर बैठकर तेजी से नीचे उतरता था। यह नागों पर विजय का उत्सव था। माना जाता है कि यह नागों को राजा वृत्तर का मानमर्दन का प्रतीक था। उत्तराखंड की बेड-वार्त शब्द भी बृत्तर से निकला प्रतीत होता है,हिमाचल प्रदेश के भुंडा उत्सव पर विस्तार से अलग से वीडियो लाऊंगा।

अब बूढ़ी दीवाली की बात करते हैं। हिमाचल प्रदेश में इस अवसर पर नागों के प्रतीक के तौर पर सर्पानुकार की मशाल बनाई जाती है। उसे बरतो या बुहण्डा कहा जाता है।  माना जाता है की भुंडा शब्द का विकास इसी  शब्द से हुआ होगा। हिमाचल प्रदेश के निरमंड में ही खस और कोल-नाग युद्ध के प्रतीक संकेतक को ही बूढ़ी दिवाली कहा जाता है। हिमाचल प्रदेश में आम दिवाली के एक  महीने बाद बूढ़ी दिवाली या कोलेरी दीवाली अथवा पहाड़ी दीवाली या देशारी दियाली है।  जिस तरह से  राक्षसों पर आर्यों की यानी भगवान राम की विजय की स्मृति में उत्तर भारत में रावण आज के पुतले जलाकर विजयदशमी का उत्सव मनाया जाता है । उसी प्रकार कुल्लू मंडल के औटर सीराज क्षेत्र, भगवान परशुराम की स्थली निरमंड में दीपाली का यह उत्सव मनाया जाता है । भारत में मनाए जाने वाले दीपोत्सव से एक  माह बाद मार्गशीर्ष की अमावस यह उत्सव मनाया जाता है । उत्तराखंड में भी इगास- बग्वाल देर से मनाई जात है। कहा जाता है कि भगवान रामके अयोध्या लौटने कि  सूचना 11 दिन बाद यानि देवोत्थान, एकादशी हरीबोधनी एकादशी को मिली। तब से पहाड़ों में बूढ़ी दीपावली का उत्सव मनाया  जाने लगा। जबकि सच्चाई कुछ और ही है। यह मैने आपको बता दी है।

 उत्तराखंड में बूढ़ी दीवाली को लोग चीड़ के भीतर की लकड़ी को लाते हैं। उसकी मशाल बनाकर रात में जला तर घुमाते हैं। पकवान बनाते हैं और लोकगीत गाते हैं, नृत्य करते हैं।  हिमाचल प्रदेश में इसे मनाने की कुछ अलग प्रथा है। वहां  सांयकाल के समय निरमंड के मूल निवासी कोल लोग तय स्थान पर खूब सारी मोटी लकड़ियां एकत्रित करते हैं। उसके बाद आग का धूना  जलाते हैं। इसे घियाना कहते हैं। फिर  इसके चारों ओर नाचने का अभिनय करते हैं। इसी दौरान गांव के खस लोग अचानक हल्ला बोलते हुए उन पर आक्रमण सा करते हैं । इस पर कोल  लोग उस स्थान को छोड़कर भाग खड़े होते हैं । इसके बाद कई व्यक्तियों की सहायता से बारीक झाड़ियों से बनी हुई रस्सी पर आग लगाकर पूरे गांव में घुमाते हैं। यह रस्सी पतली विशाल सर्पाकार की मशाल होती है। यह सिर की ओर मोटी और पूछ की ओर पतली होती है। बहुत से लोग मिलकर उसे उठाकर सारे गांव में घुमाते हैं। फिर उसे वहीं ले आते हैं जहां घियाना प्रज्वलित होती रहती  है। सभी लोग उसकी प्रक्रिया परिक्रमा करते हैं । इस दौरान खस लोग  उस पर अपना कब्जा करके बैठे रहते हैं , जबकि कोल लोग उस पर कब्जा करने की कोशिश करते हैं। खस उनको रोकते हैं। यह संघर्ष रातभर चलता है। प्रातः काल में उस राख को सिर पर लगाकर लोग घर लौट जाते हैं। यह त्योहार खसों की कोल व नागों पर विजय का प्रतीक है।  क्योंकि इसमें खस, कोल और नाग की रस्सी का प्रतीक यही बताता है।  माना जाता है कि इस संघर्ष में नाग तो पूरी तरह से  नष्ट हो गए थे, जबकि कोलों ने खसों की अधीनता स्वीकार कर ली थी। मैदान से पहाड़ों में आए वैदिक आर्यों के आने के बाद वहां  कार्तिक कृष्ण पक्ष की अमावस को लक्ष्मी पूजन के साथ दिवाली मनाई जाने लगी। हालांकि पहाड़ों में इससे पहले ही कई तरह की दिवाली मनाई जाती रही है ।

उत्तराखंड के कुमायूं मंडल में भी इसे बूढ़ी दिवाली कहा जाता है, जबकि गढ़वाल में इगास बग्वाल कहा जाता है। गढ़वाल में चार बग्वाल होती है। पहली बग्वाल कर्तिक माह में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी  को, दूसरी अमावस्या को पूरे देश की तरह गढ़वाल में भी अपनी आंचलिक विशिष्टताओं के साथ मनाई जाती है।  तीसरी बग्वाल बड़ी बग्वाल के ठीक 11 दिन बाद आने वाली कर्तिक मास शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाई जाती है। गढ़वाली में एकादशी को इगास कहते हैं। इसलिए इसे इगास बग्वाल के नाम से जाना जाता है।  चौथी बग्वाल तो दूसरी बग्वाल या बड़ी बग्वाल के ठीक एक महीने बाद मार्गशीष माह की अमावस्या को मनाई जाती है । इसे रिख बग्वाल कहते हैं।  यह गढ़वाल के जौनपुर, थौलधार, प्रतापनगर, रंवाई, चमियाला आदि क्षेत्रों में मनाई जाती है। इगास बग्वाल के दिन  मिलकर भैलो भी खेला जाता है। भैलो का मतलब एक रस्सी से है, जो पेड़ों की छाल से बनी होती है। इस पर ज्वलनशील लकड़ी भी बंधी होती हैं।  लोग इस रस्सी के दोनों कोनों में आग लगा देते हैं और फिर रस्सी को घुमाते हुए भैलो खेलते हैं। मान्यता है कि अमावस्या के दिन लक्ष्मी जागृत होती हैं, इसलिए बग्वाल को लक्ष्मी पूजन किया जाता है। वहीं, हरिबोधनी एकादशी यानी इगास पर्व पर श्रीहरि  विष्णु भगवान शयनावस्था से जागृत होते हैं। इसलिए इस दिन भगवान  विष्णु की पूजा का विधान है। देश के विभिन्न क्षेत्रों में कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी से शुरू होकर गुरु पर्व यानी कार्तिक पूर्णिमा  तक दीपावली का त्योहार मनाया जाता है। गढ़वाल में इगास बग्वाल में पशुओं के लिए लिए भी विशेष आहार यानी जौं का पींडू  तैयार किया जाता है। उनके माथे पर हल्दी का टीका और सींगों पर सरसों का तेल लगाकर उन्हें परात में सजा अन्न ग्रास दिया जाता है। इसे  गौ ग्रास कहते हैं।

तो यह यह हिमालयी क्षेत्र की बूढ़ी दीवाली। इगास- बग्वाल मनाने की वजह। इसका भगवान राम के अयोध्या लौटने की सूचना देर से मिलने से कोई संबध नहीं है। वास्तव में यह खसों की कोल व नागों पर विजय का उत्सव है।

 

 

 

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दोस्तों मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश चंद्र लखेड़ा हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में बनाई जाने वाली बूढ़ी दीवाली को लेकर जानकारी दे रहा हूं। जब तक मैं इस बारे में आगे बढूं, तब तक इस हिमालयी लोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब अवश्य कर दीजिए। आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र की संस्कृति, इतिहास, लोक, भाषा, सरोकारों आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं। सहयोगी यूट्यूब चैनल संपादकीय न्यूज.

दोस्तों यह थी हिमालयी क्षेत्र की बूढ़ी दीवाली। इगास- बग्वाल मनाने की वजह की गाथा। यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। इसके टाइटल सांग – हम पहाड़ा औंला– को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है।  इसी चैनल में है।अगली वीडियो का इंतजार कीजिए। तब तक जै हिमालय, जै भारत।

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