लंकाधिपति के अलावा हिमालय में भी हुआ प्रतापी राजा रावण

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परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति ,नई दिल्ली

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सहयोगी यूट्यूब चैनल- संपादकीय न्यूज 

भारत में कहावत है कि संसार में एक ही रावण हुआ। रावण नाम का दूसरा कोई व्यक्ति नहीं हुआ।  राम नाम के तो बहुत से लोग मिल जाएंगे, लेकिन रावण नाम कोई नहीं रखता है। लंकाधिपति रावण को दशानन भी कहते हैं। रावण एक कुशल राजनीतिज्ञ, सेनापति और वास्तुकला का मर्मज्ञ होने के साथ-साथ तत्व ज्ञानी तथा बहु-विद्याओं का जानकार था। उसे मायावी इसलिए कहा जाता था कि वह इंद्रजाल, तंत्र, सम्मोहन और तरह-तरह के जादू जानता था। उसके पास एक ऐसा विमान था, जो अन्य किसी के पास नहीं था। वह बहादुर भी था। इन कारणों ने सभी उससे भयभीत रहते थे। अपनी बहन सुर्पनखा से हुए दुर्व्यवहार का बदला लेने के लिए उसने जो रास्ता चुना वह अधर्म का था। इसलिए भारत में कोई भी अपने पुत्र का नाम रावण नहीं रखना चाहता है । इसलिए कहा जाता है कि संसार में एक ही रावण हुआ।

परंतु आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि हिमालय क्षेत्र में भी एक रावण राजा हुआ था।  1943  में कुछ मुद्राएं दिन मिली थी जिन पर रावण का नाम लिखा हुआ था। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि  लंका नरेश रावण और हिमालय के रावण एक ही थे। वास्तव में दोनों ही अलग- अलग थे। लंका नरेश रावण का नाम प्राचीन साहित्य में उस लंकाधिपति के रूप में मिलता है जिसने मां सीता का हरण किया था और इसके बाद वह भगवान राम के हाथों मारा गया था। लंकाधिपति रावण के अतिरिक्त किसी अन्य रावण नाम के नरेश का उल्लेख प्राचीन साहित्य में नहीं मिलता है। पुरातात्विक सामग्री तथा अभिलेखों में भी किसी रावण नामधारी नरेश की  जानकारी नहीं मिलती है। परंतु, हिमाचल प्रदेश के गद्दी  पशुचारक समाज में आज तक रावण नाम रखने की प्रथा चली आ रही है । ये पशुपालक अपने प्राचीन अति शक्तिशाली नरेश रावण की गाथा को बड़े चाव से सुनाते हैं । उत्तराखंड के गढ़वाल में प्रचलित लोक गाथाओं के अनुसार लंकापति रावण ने गढ़वाल में नंदा देवी शिखर के पदतल  में तपस्या की थी। उसने उसने अपने मौली यानी सिर काट कर शिवजी को अर्पित कर दिए थे । मान्यता है कि इसलिए उसे दशमौलि कहा जाता है। लोक कथा के अनुसार माता सीता ने अपना दूसरा बनवास गढ़वाल में ही बिताया था तथा यहीं उन्होंने भूसमाधि  प्राप्त की थी । इस घटना के स्थल का नाम आज तक सितोनस्यूं चला आ रहा है। केदारखंड ग्रंथ के अनुसार रावण के  अलावा भगवान राम और लक्ष्मण ने इस प्रदेश में तपस्या की थी।

  हिमाचल में जिस रावण की गाथाएं गाई जाती हैं वह लंकेश  रावण से भिन्न था।इसी  तरह उत्तराखंड गढ़वाल में जिस राजा रावण के नाम की मुद्राएं मिली थीं, वह और लंकापित रावण भी एक नहीं थे। यह कह सकते हैं कि रावण  नाम का एक अन्य राजा अवश्य हिमालय क्षेत्र और गढ़वाल में भी हुआ था। गढ़वाल में रावण की जो मुद्राएं मिली थीं, अब उनके बारे में बता देता हूं। हिमालयी क्षेत्र में राज करने वाले राजाओं की चलाई मुद्राएं मिलती रही हैं। उत्तराखंड, खासतौर गढ़वाल में कई ऐसे राजा मिलते हैं जिनका प्रमाण तो नहीं मिलता लेकिन उनके नाम की मुद्राएं मिलती है।  इनमें रावण, भानु और छत्रेश्वर प्रमुख हैं। अब में उन  मुद्राओं की बात कर रहा हूं जो कि कोटद्वार से आगे दुगड्डा के पास के गांव है भयड़गांव में 1943 में  मिली थीं। उत्तराखंड के इनसाइक्लोपीडिया डा. शिवप्रसाद डबराल चारण अपनी पुस्तक कुलिंद जनपद का इतिहास में लिखते हैं कि   ये मुद्रांए  गांव के पास एक गुफा के पास  एक मृतिका में रखी थीं।  लगभग पांच- छह सौ ताम्र मुद्राएं तीन बालकों को खेलते हुए एक चट्टान की ओट में बनी गुफा में मिली थी। तीनों बच्चे मुद्राओं को घर ले गए और तीनों ने उनको आपस में बांट दिया था। भयड़गांव का एक युवक राम सिंह कोर्ट ऑफ  वार्डस कार्यालय प्रयागराज में नौकरी करता था। उसने इनमें से कुछ मुद्राएं ले जाकर कोर्ट ऑफ वार्डस  के स्पेशल मैनेजर जिनेश्वर दास को दी।  बाद में 1956  में प्रयागराज  संग्रहालय के क्यूरेटर डॉ सतीश चंद्र काला ने जिनेश्वर दास के मुद्रा संग्रहालाय  में उन मुद्राओं को देखा।  डा. काला को इन मुद्राओं में से केवल 119 ताम्र मुद्राएं देखने को मिली। जिनमें राजा भानु की 25 तथा रावण की 15 मुद्राएं थी।  56 मुद्राओं पर षडानन – कार्तिकेय तथा 21 मुद्राओं के अग्रभाग पर त्रिशूल धारी  शिव एवं पृष्ठ भाग में सुमेर तथा नंदी पाद और अन्य अंकन थे। डा. काला ने बाद में इन मुद्राओं को लेकर अध्ययन किया था। कई साल बाद डा.शिव प्रसाद डबराल चारण को उनके एक शिष्य ने भयड़गांव की एक मुद्रा दी।  इसके बाद डा. डबराल उन मुद्राओं को ढूंढने के लिए भयड़गांव गए। वहां पता चला कि भूत प्रेत के भय से लोगों ने  उन मुद्रा को कई वर्ष पहले ही पहाड़ी से नीचे फेंक दिया था।  इससे हिमालय क्षेत्र के राजा रावण को लेकर शोधकार्य आगे नहीं बढ़ पाया।  उत्तराखंड के रावण के बारे में कुछ पता नहीं चल पाया है। हालांकि हिमाचल प्रदेश के चंबा कांगड़ा के गद्दी समाज में प्रचलित कथाओं के अनुसार रावण महान प्रकार पराक्रमी नरेश था। हालांकि  प्रमाणिक सामग्री के अभाव में इन प्रश्नों का उत्तर मिलना मुश्किल है कि उत्तराखंड या पूरे हिमालय का राजा रावण का शासन कब था।

 हिमाचल के गद्दी लोग आज भी अपने बच्चों के नाम रावण रखते हैं । वे अपनी गाथाओं में रावण के  नाम को गाते भी हैं । इसका मतलब रावण नाम का कोई राजा अवश्य था।  इसी तरह का एक राजा रावण मध्य भारत के आदिवासी गोंडवाना समाज में भी मिलता है। गोंड समाज में  एक शब्द रावेन है। इसके कई अर्थ हैं।

ये सभी रावण उस लंकेश से अलग थे जो कि सारस्वत ब्राह्मण पुलस्त्य ऋषि का पौत्र और विश्रवा का पुत्र था। जो  भगवान शिव भक्त, महान राजनीतिज्ञ, महाप्रतापी, महापराक्रमी योद्धा, अत्यन्त बलशाली, शास्त्रों का प्रखर ज्ञाता, प्रकान्ड विद्वान, पंडित एवं महाज्ञानी था। उसकी माता का नाम कैकसी था, जो कि राक्षस कुल की थी। इसलिए ब्राह्मण होते हुए भी रावण को राक्षस कहा जाता है। वह अपनी माता की तरफ से राक्षस जाति का  था। यह जानकर आश्चर्य होगा कि जोधपुर में ब्राह्मण समाज के दो धड़े खुद को रावण का वंशज साबित करने की होड़ में शामिल हैं। जोधपुर में बाकायदा रावण का मंदिर  है और नियमित रूप से उसकी पूजा अर्चना होती है। इसी तरह उत्तर प्रदेश के ग्रेटर नोएडा क्षेत्र के  बिसरख गांव को लेकर कहा जाता है कि त्रेता युग में इस गांव में ऋषि विश्रवा का जन्म हुआ था। इसी गांव में उन्होंने शिवलिंग की स्थापना की थी। उन्हीं के घर रावण का जन्म हुआ था।  हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में भी रावण की पूजा की जाती है।  मान्यता है कि रावण ने यहां पर भगवान शिव की तपस्या की थी, जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उसे मोक्ष का वरदान दिया था। अमरावती के गढ़चिरौली नामक स्थान पर आदिवासी समुदाय भी रावण की पूजा करता है। यह भी मान्यता है कि   रावण की जन्मभूमि छत्तीसगढ़ के कोरिया जिले के मनेंद्रगढ़ में है। आदिवासी मान्यताओं के अनुसार रावण का सरनेम ‘मड़ावी’ था। मध्यप्रदेश के मंदसौर में भी रावण की पूजा होती है। रावण की ससुराल है, यानी मंदोदरी का मायका माना जाता है। वहां भी लोग रावण की पूजा करते हैं। परंतु हिमालय के रावण राजा की कहानी का अंत अधूरा रह गया।

 

 

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दोस्तों मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश चंद्र लखेड़ा लंकाधिपति दशानन के अलावा हिमालय के उस प्रतापी राजा रावण की  गाथा लेकर आया हूं, जिसके सिक्के  उत्तराखंड के कोटद्वार, दोगड्डा के पास भैयड़गांव में मिले थे। हिमाचल प्रदेश के पशुपालक गद्दी समाज जिसकी गाथाएं सुनाते रहते हैं।  जब तक मैं आगे बढूं, तब तक इस हिमालयी लोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब अवश्य कर दीजिए। आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र की संस्कृति, इतिहास, लोक, भाषा, सरोकारों आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं।

दोस्तों यह थी रावण नाम को लेकर जानकारी।यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। इसके टाइटल सांग —  हम पहाड़ औला — को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है।  इसी चैनल में है।जै हिमालय, जै भारत।

 

 

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