खसों के फैमिली लॉ पर क्यों लौट रहा है भारत ?

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खस परिवार कानून (The khasa Family Law) –  द्वितीय कड़ी 

परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति ,नई दिल्ली

www.himalayilog.com  /  www.lakheraharish.com

भारत में विवाह को लेकर अब जो कानून लगातार बनते जा रहे हैं, वे तो हिमालयी क्षेत्र में सदियों पहले से थे। परंतु मैदानों के कट्टर और रूढ़िवादी  लोगों के दबाव में पहले तो अंग्रेजों व बाद में भारत सरकार ने हिमालयी क्षेत्र के विवाह के व्यवस्थाओं को  नजरंदाज कर दिया। हिमालय के जिस खस फैमिली लॉ को  ये लोग नकारते रहे, आज उसी पर लौट रहे हैं।  आप लोग भी देख सकते  कि भारत सरकार ने विवाह और परिवार की संपत्ति के बंठवारे को लेकर  जो भी कानून बनाए हैं, यदि उनको गंभीरता से देखें तो हिमालयी क्षेत्र में उसी तरह की परंपराएं बहुत पहले से प्रचलन में थीं। यहां तक कि मनुस्मृति से भी पुराना है खस फैमिली लॉ । सबसे पहले बात करते हैं विवाह के संबंध में। हिंदुओं में विवाह को जन्म- जनमांतर का संबंध माना जाता रहा है, हिंदुओं में पहले शादी तोड़ने की बात थी ही नहीं। परंतु समय  बदलने के साथ ही हिंदुओं ने भी ईसाइयों और मुसलमानों की तरह तलाक को स्वीकार कर दिया और इस तरह हिंदुओं के लिए भी विवाह अब सात जन्मों का संबध नहीं रह गया है। यानी अब कानून है कि विवाह तोड़ा जा सकता है। खस फैमिली लॉ में तो यह शुरू से रहा है। वहां महिलाओं को यहां तक स्वतंत्रता थी कि वे विवाह को तोड़ कर अपनी मन पसंद के दूसरे व्यक्ति के साथ पत्नी के तौर पर रहने जा सकती थी।

खस फैमिली लॉ पर 1929 में पीएचडी करने वाले डा. लक्ष्मी दत्त जोशी अपने शोध ग्रंथ में लिखते हैं कि — हिंदुओं के लिए  विवाह एक संस्कार था, यह सात जन्मों का रिश्ता था। जबकि खसों के लिए  विवाह का कोई धार्मिक उद्देश्य नहीं था। यह सामाजिक जरूरतों व आर्थिक उद्देश्यों  की पूर्ति के लिए साझीदारी थी। आज के कालखंड को देखें तो अब तलाक का कानून आ जाने के बाद मैदानी हिंदुओं के लिए  भी  विवाह कोई धार्मिक संस्कार नहीं रह गया है। उनके लिए भी विवाह अब  यह सामाजिक जरूरतों व आर्थिक उद्देश्यों  की पूर्ति के लिए साझीदारी हो गई है। इस तरह हिंदू मैरिज लॉ को अंतत: खस फैमिली लॉ पर लौटना पड़ा है।

अब पुनर्विवाह की बात करते । हिंदुओं में एक शदी पहले तक पुनर्विवाह की बात कोई सोच भी नहीं सकता था। विशेषतौर पर गंगा घाटी से लेकर बंगाल की विधवाओं की दुर्दशा देखनी  है तो आज भी काशी, प्रयाग, मथुरा  जाकर देख सकते हैं। परंतु हिमालयी क्षेत्र में विधवा विवाह को समाज की मान्यता प्राप्त थी। पति की मृत्यु होने पर महिला को अपने देवर से शादी करने का अधिकार प्राप्त था। इसके अलावा वह किसी भी पुरुष से विवाह करने के लिए स्वतंत्र थी।  यह भी अधिकार मिला था कि कोई भी विधवा अपने मृत पति के नाम पर दूसरे पुरुष से संतान उत्पन कर सकती थी। उससे पैदा बच्चों को मृत पति का नाम मिलता था।  यह सब समाज को स्वीकार्य था। यह भी प्रचलन में था कि विधवा अपनी व अपने बच्चों की सामाजिक व आर्थिक सुरक्षा के लिए अपने साथ सेवक पति भी रख सकती थी। वह जब चाहे उसे जाने को भी कह सकती थी। महाभारत में जो नियोग प्रथा से संतान उत्पति की बात सामने आती है, वास्तव में वह हिमालय क्षेत्र के लोगों की ही परंपरा था। अब आप ही बताएं की आज की सैरोगेसी क्या है। सीमेन डोनेट क्या? यह सब तकनीक के साथ है, परंतु इस प्रथा के मूल में जाएं तो हिमालयी समाज तभ भी मैदानों के समाज से बहुत आगे था।  

आज भारतीय समाज अंतर्जातीय विवाह की वकालत करता है। हिमालयी क्षेत्र में यह ढांटी विवाह के  तौर पर प्रचलन में था। सामाजिक तौर पर अपने से कम  जाति की कन्या से विवाह को इस श्रेणी में रखा गया था। अर्थात अंतर्जातीय विवाह हिमालयी समाज में पहले से प्रचलन में थे।

   हिमालय की संस्कृति सबसे ज्यादा खसों से प्रभावित रही है इसलिए इस  संस्कृति को खस संस्कृति ने नाम से भी जाना जाता है। प्रसिद्ध लेखक डीडी शर्मा अपनी पुस्तक— हिमालय के खस –एक  सामाजिक एवं सांस्कृतिक  विश्लेषण—में लिखते हैं कि हिमालय क्षेत्र में प्रचलित जन्म, मरण, विवाह से संबधित धार्मिक परंपराएं, सामाजिक एवं पारिवारिक विधि विधान एवं लोक जीवन से संबंधित अनेक रीत रिवाज आस्था एवं विश्वास ऐसे हैं जो मैदानी क्षेत्रों से अलग है । विवाह को लेकर खस समाज धार्मिक एवं अनुष्ठान के तौर पर मुक्त था। इस मुक्त समाज में विवाह का स्वरूप एवं संकल्पना मैदानी हिंदुओं से भिन्न प्रकार की थी। स्त्री व पुरुष का संयोग एक व्यक्तिगत समझौता था, जो कि प्रतिकूल परिस्थितियों में आसानी से तोड़ा जा सकता था। क्योंकि उसमें न तो संस्कार अनुशासित पावन  भाव था। पतिव्रता  व जन्म जन्मांतर का बंधन भी न था।  यह कह सकते हैं की यौन संबंध रूढ़ न थे और  मैदानी हिंदुओं की तरह ढकोसला  ओढ़े न भी थे। अतः किसी एक पति को छोड़कर दूसरे पति को अपना लेना, नैतिक दृष्टि से अनुचित नहीं समझा जाता था। आज मैदानी हिंदुओं को भी इसी कानून पर लौटना पड़ा है । आज महिलाओं को  पति को छोड़कर दूसरे से विवाह करने का अधिकार मिल गया है। आज तो लिव इन रिलेशन भी प्रचलन में  है। हिमालयी समाज में यह प्रथा पति सेवक के तौर पर प्रचलन में थी।

इस तरह  तमाम रूढियों से दूर हिमालयी समाज में रीत, हारी, झंझराड़ा, विधवा विवाह, देवर विवाह, ढांटी विवाह  आदि नामों से ज्ञात विवाहों को जन्म दिया।  ये सभी प्रथाएं हिमालय क्षेत्र के खस समाज में विगत शताब्दी के पूर्वार्ध तक सामान्य रूप से प्रचलित थी। इनमें से कई प्रथाओं को मैदानों से गए लोगों ने भी अपना लिया था। जबकि खसों ने मैदानी ब्राह्मणों से यज्ञ, जनेऊ समेत अन्य अनुष्ठान अपनाने शुरू कर दिए थे।

 एलडी जोशी, पन्नालाल और डीएन मजूमदार आदि खस मामलों के विद्वानों ने इन सब का उल्लेख अपनी पुस्तकों में किया है। खसों की वैवाहिक परंपराओं को मोटे तौर पर दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। जैसा कि मैंने पिछले एपिसोड में कहा था एक सानूष्ठानिक और दूसरा गैर अनुष्ठान  विवाह। उल्लेखनीय है कि वैदिक ब्राह्मणों की परंपराओं से प्रभावित होने से पहले तक खसों में विवाह के दो ही रूप प्रचलित थे। क्रय तथा विनिमय। तब विवाह न तो कोई पवित्र संस्कार था और न कन्यादान की कोई कल्पना ही थी। अविवाहिता कन्या अथवा विवाहिता कन्या का वधूमूल्य चूका कर उसे पत्नी के तौर पर प्राप्त कर लेना एक सामान्य बात थी। इसके तहत वर पक्ष कन्या के पिता या अभिभावक को कुछ धन राशि देकर शादी उस कन्या को पत्नी के रूप में रख लेता था।यह कह सकते हैं कि आज जब पूरा भारत दहेज की आग में जल रहा है। इसके कारण कन्या भ्रूण हत्याएं हो रही हैं। वधू मूल्य विवाह से देहज नाम के दैंत्य के पैदा होने का अवसर ही न था।

मैदानी से आने वाले वैदिक परंपरा वादी लोगों के प्रभाव से पहले हिमालयी क्षेत्र में कई तरह के विवाह के तौर-तरीके प्रचलन में थे। क्रय विवाह के साथ ही  ढांटी विवाह, देवर भावज विवाह, विधवा विवाह और टेकुआ विवाह या कठाला विवाह प्रचलतन में थे। बाद में क्रय विवाह में पुरोहित वर्ग के प्रभाव के कारण धार्मिक अनुष्ठानों भी शामिल हो गए थे। इस तरह क्रय विवाह एक प्रकार का अनुष्ठान का विवाह हो गया था ।

इसी तरह  पिता या अभिभावक को दोनों पक्षों की सहमति से निर्धारित कन्या शुल्क देकर उसे अपने घर ले जाया जाता था और आधुनिक रूप में उसे पति के घर लाए जाना ही विवाहित की वैधता मानी जाती थी। इसमें कभी भी किसी पुरोहित की आवश्यकता महसूस नहीं होती थी ।  किसी तरह का अनुष्ठान करना भी आवश्यक न था। बाद में इस हिमालय क्षेत्र में मैदानों से आकर बसने वाले आर्यों के कारण उनकी पारंपरिक प्रथाओं को अपनाया जाने लगा था। इसमें आधे अधूरे ही सही अनुष्ठान परंपरा शुरू कर दी थी ।  वैदिक परंपरा के अनुसार धनवान खस भी अपनी कन्याओं को दान करने के लिए अनुष्ठान करने लगे थे।

इसके अलावा विवाह की एक और व्यवस्था प्रचलन में थी। वह थी विनिमय। इसके तहत  वधूमूल्य चुकाने में असमर्थ निर्धन लोग शादी के लिए परस्पर  कन्याओं की अदला- बदली के  माध्यम से पुत्र  और भाइयों  और भाइयों का विवाह करते थे। इसके किसी लड़के का पिता किसी लड़की के पिता से उसकी लड़की को अपने बेटे के लिए मांग कर उसे अपनी बहू के रूप में प्राप्त करता था । इस् बदले में वह अपनी बेटी का अपनी बहू के भाई के साथ विवाह करा देता था। इस  प्रकार के विवाह को उत्तराखंड में सट्टा बट्टा कहा जाता था। उत्तराखंडी समाज में आज भी  विवाहिता महिला अपनी ननद के प्रति को भाई के रूप में संबोधित करती है। इसी तरह तथा जीजा भी अपने सालों की पत्नियों को बहन के रूप में संबोधित करता है। यह विनिमय विवाह का ही प्रमाण है।

इस तरह हम देख सकते हैं कि हिमालयी समाज किस तरह मैदानों को पोंगापंथी समाज से भिन्न था। वह समाज अपनी बेटियों-बहुओं को बंधनों में जकड़ कर रखता था। दुख की बात यह है कि इनके कहने पर ही हिंदुओं का मैरिज व पिरवार कानून बनाए जाते रहे। जिनमें अब भी संशोधन किया जाता है। यदि पहले ही खस फैमिली लॉ को मान लिया जाता तो देशभर का हिंदू समाज बहुत आगे होता। अब  हुआ यह कि खुद हिमालय वासी भी खस फैमिली लॉ को भूल गए।

दोस्तों, यह थी खस फैमिली लॉ  की दूसरी कड़ी। यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। इसके टाइटल सांग को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है।  हम पहाड़ औंला नाम से इसी चैनल में है। एक और बात। राजनीतिक खबरों के लिए  संपादकीय न्यूज चैनल को देखना न भूलना। अब शीघ्र ही मिलते हैं नयी गाथा के साथ।

जै हिमालय, जै भारत।

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दोस्तों मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश लखेड़ा  इस बार आपके लिए खस परिवार कानून अथार्त -The khasa Family Law की दूसरी कड़ी के साथ उपस्थित हूं। मैंने पहले ही कहा था कि  मैं The khasa Family Law  पर कई वीडियों लाऊंगा। जब तक मैं आगे बढूं, इस हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब अवश्य कर दीजिए, जिन्होंने अब तक ऐसा कहीं किया है। आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र की संस्कृति, इतिहास, लोक, भाषा, सरोकारों आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं।

 

 

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