सौ साल पहले हाईकोर्ट पर किस कारण आगबबूला हो गए थे उत्तराखंड के खस

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खस परिवार कानून (The khasa Family Law) – प्रथम कड़ी 

परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति ,नई दिल्ली

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आप जानते हैं कि खस हिमालय क्षेत्र के जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, नेपाल, दार्जिलिंग, सिक्किम, असम समेत पूर्वोत्तर के कई राज्यों में रहते हैं। ये लोग आर्य कुल के हैं और वैदिक आर्यों से पहले हिमालय की ढलानों पर बस गए थे। आज के खस भले ही वैदिक हिंदुओं के कानूनों के साथ घुलमिल गए हैं, परंतु उत्तराखंड के खस लगभग सौ साल पहले अपने परिवार कानून में सरकारी छेड़छाड़ से आग बबूला हो गए थे। यह मामला इलाहाबाद हाईकोर्ट तक पहुंचा था और ब्रिटिश सरकार को मामले का अध्ययन कराना पड़ा था। मामला यह था कि हाईकोर्ट ने एक विवाद में जब खसों के परिवार कानून को नजरंदाज कर हिंदू मैरिज लॉ को माना तो पहाड़ के खस नाराज हो गए। वे विरोध करने प्रयाग तक पहुंच गए। इस पर हाईकोर्ट और ब्रिटिश सरकार को खस फैमिली लॉ का अध्ययन करना पड़ा था। यह मामला इस तरह से दिलचस्प बन गया था कि अल्मोड़ा के डा. लक्ष्मी दत्त जोशी ने इसे शोध का विषय बनाया और सन 1929 में पीएचडी की थी।

 आज भले ही उत्तराखंड में  कोई भी व्यक्ति खुद को खस कहलाना पसंद नहीं करता है, लेकिन 1915 से 1930  के बीच के हालात कुछ और ही थे। यह मामला 1915 का है ।  ब्रिट्रिश गढ़वाल  के फतेह सिंह और गब्बर सिंह का विवाद अदालत तक पहुंचने पर  खस परिवार कानून के मामले ने तूल पकड़ा था। उस कालखंड में फतेह सिंह पुत्र दौलत सिंह  बनाम गब्बर सिंह का  केस तब बहुत चर्चित रहा था।  फतेह सिंह  की मां  का नाम मैना और पिता का नाम  दौलत सिंह  था। दौलत सिंह ने मैना से खसों की तत्कालीन परंपरा के अनुसार शादी की थी। उन्होंने वधू मूल्य चुका कर शादी की थी। यानी मैना के पिता को कुछ धन देकर यह शादी की थी। यह खसों की शादी का एक बहु प्रचलित तरीका था। तरह खस परंपरा के अनुसार मैना उनकी वैध पत्नी थी और फतेह सिंह उनके वैध पुत्र थे। इसके तहत  फतेह सिंह को वे सभी अधिकार मिले थे जो कि पुत्र को विरासत में सभी को मिलते हैं।

मामला तब बिगड़ा, जब फतेह सिंह की सौतेली मां ने गबर सिंह को उपहार के तौर पर दी भूमि की रजिस्ट्री कर दी। इसके विरोध में फतेह सिंह अदालत चले गए। पहाड़ की स्थानीय सभी अदालतों में फतेह सिंह जीत गए। परंतु मामला इलाहाबाद हाईकोर्ट पहुंच गया। वहां मामला उलट गया और अदालत ने   फतेह सिंह को  दौलत सिंह की वैध संतान मानने से इनकार कर दिया। तब ब्रिटिश गढ़वाल भी कुमायुं मंडल के तहत था। इसलिए इस मामले को कुमायुं का मामला कहा गया। जबकि मामला गढ़वाल का था।

यह मामला इसलिए उलट गया था कि इलाहाबाद हाईकोर्ट ने मामले को हिंदू धर्म के कानून के अनुसार देखा और परखा। इस आधार पर फैसला फतेह सिंह के खिलाफ दे दिया। हाईकोर्ट ने पाया कि फतेह सिंह के पिता दौलत सिंह ने हिंदू कानून के तहत सप्तपदी और फेरे की रश्म नहीं निभाई थी। मिताक्षरा  भी नहीं किया गया था। मिताक्षरा याज्ञवल्क्य स्मृति पर विज्ञानेश्वर की टीका है जिसकी रचना 11वीं शताब्दी में हुई। यह ग्रन्थ ‘जन्मना उत्तराधिकार‘ के सिद्धान्त के लिए प्रसिद्ध है।

हिमालय क्षेत्र में जन्म, मरण, विवाह से संबंधित धार्मिक  व सामाजिक परंपराएं तथा जीवन से संबंधित अनेक रीति-रिवाज मैदानी क्षेत्रों से अलग रहे हैं। खस कानून पारिवारिक कानून है। यह  हिंदू शादी कानून से बहुत पुराना है । उत्तराखंड में तब खसों की शादी की कई परंपराएं थी जो कि वैदिक आर्यों  की शादियों की रश्मों से भिन्न थी। वधू मूल्य भी इसमें शामिल था।

डा. लक्ष्मी दत्त जोशी अपने शोध ग्रंथ में लिखते हैं कि — हिंदुओं के लिए  विवाह एक संस्कार था, यह सात जन्मों का रिश्ता था। जबकि खसों के लिए  विवाह का कोई धार्मिक उद्देश्य नहीं था। यह सामाजिक जरूरतों व आर्थिक उद्देश्यों  की पूर्ति के लिए साझीदारी थी। वैसे मैदानी क्षेत्रों से आए वैदिक आर्यों के संपर्क में आने से धनाढ्य खसों ने उनकी परंपराओं को अपनाना शुरू कर दिया था। परंतु  गरीब व सामान्य खस अपनी परंपराओं के तहत शादी कर रहे थे। वास्तव में खस फैमिली लॉ बहुत पुराना है। यहां तक कि इसे मनुस्मृति से भी पुराना माना जाता है। हिंदुओं के परिवार कानून के लिए जिस मनुस्मृति को आधार बनाया गया था,खस फैमिली लॉ उससे पहले का परंपरागत कानून माना जाता है।

प्रसिद्ध लेखक डीडी शर्मा अपनी पुस्तक – हिमालय के खस—पुस्तक में लिखते हैं कि –खसों के विवाह परंपराओं को मोटे तौर पर दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है। पहला अनुष्ठान का विवाह और दूसरा गैर अनुष्ठान का विवाह। कई  खस भी वैदिक ब्राह्मणों की विवाह की परंपराओं को अपनाने लगे थे। इस तरह खसों में दो तरह के विवाह परंपरा थी। एक तो पवित्र संस्कार था और दूसरा यह था कि अविवाहित कन्या अथवा विवाहित स्त्री का मूल्य चुका कर उसे पति पत्नी के रूप में प्राप्त  किया जा सकता था। यह प्रथा हिमाचल प्रदेश के खसों से लेकर उत्तराखंड, व नेपाल में भी प्रचलन में थी। हालांकि अब यह प्रथा कहीं भी नहीं रह गई है और यह पूरी तरह से खत्म हो चुकी है।

इस तरह दौलत सिंह व मैना की शादी  खस फैमिली लॉ  के तहत वैध थी, जबकि हिंदू कानून के हिसाब से उसे वैध  मानने के लिए मिताक्षरा, सप्तपदी, फेरे आदि आवश्यक माने गए। इसलिए हाईकोर्ट ने मामले को फिर से स्थानीय अदालत के पास भेज दिया। अब स्थानीय अदालत ने भी इस मामले में अपना रुख बदल दिया। इस पर उत्तराखंड के खस बहुत नाराज हो गए थे। वे बहुत गुस्से में थे। उनको लगा कि उन पर दूसरों के कानून थोपे जा रहे हैं। इसलिए वे आग बबूला थे। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ भी रोष जताया। यहां तक कि वे  इलाहबाद भी गए और हाईकोर्ट  से अपना रोष भी जताया। इसके बाद हाईकोर्ट ने खस फैमिली लॉ यानी उनकी परंपराओं  का अध्ययन कराया था। इस विषय पर बाकी जानकारी अगली कड़ियों में दूंगा। इस विषय पर अभी बहुत सी जानकारियां हैं। कई वीडियो आएंगे। उनको भी देखना।

दोस्तों यह था उत्तराखंड के खसों का आग बबूला होने का कारण।

 

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दोस्तों यह हिमालय के खसों के परिवार कानून पर है। खस परिवार कानून  यानी The khasa Family Law  की इस सीरीज में कई वीडियों लाऊंगा। जब तक मैं आगे बढूं, इस हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब अवश्य कर दीजिए, जिन्होंने अब तक ऐसा कहीं किया है। आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र की संस्कृति, इतिहास, लोक, भाषा, सरोकारों आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं। दोस्तों, आप लोगों को पहले की कई वीडियो लाकर हिमालय के खसों के विभिन्न पहलुओं पर जानकारी दे चुका हूं। यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। इसके टाइटल सांग को भी सुन लेना। –हम पहाड़ औंला– नाम से इसी चैनल में है। मेरा ही लिखा है। जै हिमालय, जै भारत।

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