भारतेंदु नहीं, गुमानी हैं खड़ी बोली के प्रथम कवि

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गुमानी पंत के साथ अन्याय क्यों कर गए हिंदी के मठाधीश

परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति नई दिल्ली

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गुमानी पंत, कुमायुंनी व नेपाली के साथ ही खड़ी बोली के प्रथम कवि थे। परंतु, हिंदी के स्वधोषित विद्वानों ने उनको यह स्थान नहीं दिया, जिसके वे असली हकदार थे। यह जानने लायक है कि गुमानी से लगभग 60 वर्ष बाद जन्म लेने वाले  भारतेंदु हरिश्चंद्र  को  खड़ी बोली हिंदी का प्रथम कवि कह कर काशी- प्रयाग के इन कथित विद्वानों ने हिमालय के बेटे गुमानी पंत के साथ अन्याय किया। संभवत: यह इसलिए किया गया कि काशी- प्रयाग क्षेत्र के जिन लोगों ने खड़ी बोली के प्रथम कवि का चयन किया,  भारतेंदु भी वहीं के थे। जबकि गुमानी को सिर्फ कुमांयुनी और नेपाली तक सीमित कर दिया गया। प्रख्यात हिंदी नाटककार और कवि  भारतेंदु हरिश्चंद्र को हिंदी साहित्य जगत में खड़ी बोली का पहला कवि होने का सम्मान प्राप्त है । जबकि उनका जन्म गुमानी जी के निधन  वर्ष 1846 के 4 वर्ष बाद हुआ था। 

कुमायुंनी  व नेपाली के आदि कवि गुमानी पंत खड़ी बोली हिंदी के भी आदि कवि माने जाते हैं।खड़ी बोली हिंदी से भी पहले ही नेपाली व कुमायुंनी में  साहित्य की रचना हो चुकी थी। इसका श्रेय गुमानी जी को ही जाता है। ऐतिहासिक दृष्टि से हिंदी साहित्य में जो स्थान भारतेंदु हरिश्चंद्र को मिला है, वास्तव में वह स्थान गुमानी पंत को मिलना चाहिए था। वे इतने विलक्षण थे कि उनकी कविता की पहली पंक्ति खड़ी बोली हिंदी में दूसरी  कुमायुंनी में, तीसरी नेपाली और चौथी संस्कृत में होती थी। वे एक जनकवि थे। यही कारण है कि उन्होंने क्रूर गोरखा शासन के खिलाफ भी लिखा और अंग्रेजों के भी। ग्रियर्सन ने अपनी पुस्तक लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया में गुमानी जी को कुर्मांचल का प्राचीन कवि माना है।

गुमानी जी का असली लोकरत्न पंत था। इनके पिता इन्हें प्रेम से गुमानी कहते थे और बाद में वे इसी नाम से प्रसिद्ध हो गए।  गुमानी का जन्म  संवत् 1847 यानी  फरवरी 1790 में कुमायुं के काशीपुर में हुआ था। इनके पिता देवनिधि पंत उप्रड़ा  गांव पिथौरागढ़ के निवासी थे। इनकी माता का नाम देवमंजरी था। गुमानी का बाल्यकाल उनके दादा जी पंडित पुरुषोत्तम पंत जी के सान्निध्य में बीता। शिक्षा-दीक्षा मुरादाबाद के पंडित राधाकृष्ण वैद्यराज तथा मालौंज निवासी पंडित हरिदत्त ज्योतिर्विद की देखरेख में हुई।  ज्ञान की खोज में गुमानी कई वर्षों तक देवप्रयाग और हरिद्वार सहित हिमालय क्षेत्र में भ्रमण करते रहे । इस दौरान उन्होंने साधु वेश में गुफाओं में तप किया। गुमानी जी मुख्यत: संस्कृत के कवि और रचनाकार थे, किंतु खड़ी बोली, कुमायुंनी, नेपाली में भी लिखा। गुमानी जी को काशीपुर के राजा गुमान सिंह के दरबार में बहुत बड़ा मान-सम्मान था। वे कुछ समय तक टेहरी नरेश सुदर्शन शाह के दरबार में भी रहे। इनके साथ ही कांगड़ा, अलवर, नहान, सिरमौर, ग्वालियर, पटियाला से लेकर नेपाल तक उनकी ख्याति फैली थी।

यह दुख की बात  है कि हिंदी साहित्य में उनके योगदान को भुला  दिया गया।  आजादी के इन 75 वर्षों में भी हिंदी साहित्य में उनको जगह नहीं मिल पाई और उत्तराखंड राज्य को बनने के बाद वहां से भी इस बारे में प्रयास नहीं हुए।

दोस्तों यह थी खड़ी बोली के आदि कवि गुमानी पंत की गाथा। अगली कड़ियों में इस तरह की हस्तियों के बारे में जानकारी दी जाएगी। यह वीडियो कैसी लगी, अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। जै हिमालय, जै भारत।

 

 

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