बेडा के बाल क्यों नोच लेते थे लोग ?

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उत्तराखंड में आपदाओं से मुक्ति के लिए क्यों होती थी बेडवार्त

परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति ,नई दिल्ली

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उत्तराखंड में कभी महामारी, अकाल आदि प्राकृतिक आपदाओं से मुक्ति पाने के लिए भगवान को प्रसन्न करने के लिए ‘बेड्वार्त ’ का आयोजन किया जाता था।  किसी भी क्षेत्र में  इन आपदाओं का प्रकोप होने पर उस क्षेत्र के लोग इस बेड्वार्त का आयोजन करते थे।  चूंकि इस पूजा में बेडा यानी बाजगी की ही प्रमुख भूमिका रहती थी, वही इसे संपन्न करता था, इसलिए  इसका नाम बेडवार्त पड़ गया। इस ‘बेड्वार्त’ के  तहत बेडा यानी बाजगी आज के ‘शिल्पकार’  समाज से होता था। उसे  एक रस्सी के ऊपर से होकर गुजरना पड़ता था। लोगों की मान्यता थी कि इस बेडवार्त के सफलता से पूरा हो जाने से उस क्षेत्र की महामारी, अकाल जैसे प्रकोप दूर हो जाते हैं। हालांकि बाद में इस कुप्रथा  को बंद कर दिया गया।

इसी तरह की प्रथा दक्षिण अमेरिकी महाद्वीप के देशों में भी रही है। चंद्रपाल सिंह रावत के संपादन वाली पुस्तक – गढ़वाल और गढ़वाल — में  शूरवीर सिंह पंवार अपने लेख — प्राचीन, लोक कल्याण कारक यज्ञ बेडवार्त– में लिखते हैं कि — इसके तहत संबंधित क्षेत्र के लगभग 12 गांवों के लोग बेडवार्त महोत्सव का प्रबंध संगठित रूप से करते थे। इन गांवों के प्रत्येक परिवार से इस आयोजन के लिए एक पाठ तय अन्न,  फल, मिष्ठान, आभूषण एवं धन एकत्रित किया जाता था।  लगभग   तीन इंच व्यास की मोटी रस्सी बनाई जाती थी। इस बात का ध्यान रखा जाता था कि रस्सी टूटे नहीं। बेड़वार्त की  निश्चित तिथि से 15 दिन पूर्व बेड़ा उस स्थान पर पहुंच जाता था जहां कार्यक्रम तय होता था। वहां वह उस दौरान उपस्थित जनता का मनोविनोद करता था। हंसी-ठ्ट्ठा करता, मजाक करता।  इस प्रथा को बेड़ा का  मंडयाणा कहते थे। लोग उसे  मिष्ठान, फल, अन्न, वस्त्र तथा आभूषण आदि उपहार में देती थी। बेड़ा उनको  धन्यवाद देता है औरउनके नाम लेकर  जयकार करते हुए कहता है कि अमुक व्यक्ति का खंड बाजे। यानी  उन व्यक्ति का ऐश्वर्य बढ़े। बेड़ा उन दिनों उस स्थान पर औसार गायन करता था। औसार पाठ वैदिक  अश्वमेध और पुरुषमेध यज्ञ की परंपरा पर आधारित है।

बेड़वार्त की तिथि के दिन शुभ मुहूर्त से कुछ समय पहले बेड़ा को नहला धुला कर उसे नए वस्त्र एवं आभूषण पहनाए जाते थे। सिर पर सुंदर पगड़ी पहनाई  जाती थी।  उसके माथे पर हल्दी व चावल का टीका लगाया जाता था।   गणेश पूजा के पश्चात बेडा को गाजे- बाजे के साथ उस गांव के पधान के कंधे पर बैठाकर  बेडवार्त के मुख्य स्थल पर लाया जाता था।   वहां पर ऊंचे स्थान पर लगभग 400 गज लंबी रस्सी का सिरा एक मजबूत खूंटे पर बंधा रहता था। रस्सी वहां से नीचे पहाड़ के ढलान पर जमीन से काफी ऊंचाई पर होते हुए एक खेत के मध्य में  एक स्थान पर बंधी होती थी। इस रस्सी को तेल से खूब भिगोया जाता था। जिस पर काष्ट की काठी पर बैठकर बेड़ा नीचे  उतरता था। इसे काठी की घोड़ी भी  कहते थे। बेड़ा  इसी लकड़ी की काठी पर बैठकर तेजी से फिसल कर नीचे आता था। कई बार इससे गिरकर उसकी मौत भी हो जाती थी। इस काठी के नीचे बेड़ा के पांव बंधे होते थे।

बेड़ा काठी पर बैठकर तेजी से फिसलता हुआ सकुशल अंतिम छोर की ओर आता था।  नीचे वाले खूंटे के पास कुछ बलवान व्यक्ति सामने से एक अलग रस्सी ताने हुए खड़े रहते थे। जैसे ही बेड़ा काठी पर बैठकर तेजी से फिसलता हुआ नीचे वाले खूंटे पर पहुंचता था, उसे इस रस्सी की सहायता से संभाला जाता था और जमीन पर नहीं गिरने दिया जाता था। काठी पर बेड़ा, प्रारम्भ में जब बेड्वार्त करने के लिए बैठता था, तब  बेड़ा को मीठी खीर खिलाई जाती थी। काठी पर बैठते ही बेड़ा ‘भूमिपाल’ देवता को संबोधित कर, चिल्लाकर प्रार्थना करता था कि ‘हे देव अन्नकाल दूर कर, अच्छी फसल पैदा कर’ यदि क्षेत्र में फैली हुई महामारी के निवारण हेतु बेड्वार्त का आयोजन होता था, तो भगवान महादेव शिव से बेड़ा प्रार्थना करता है कि ‘हे देव, महामारी के प्रकोप का अंत कर तथा क्षेत्र में सुख-शांति प्रदान कर’ बेड़ा जैसे ही काठी पर बैठता था, उसकी पीठ पर इस प्रकार जोर से धक्का दिया जाता था कि वह रस्सी पर तेजी से फिसलते हुए नीचे सही सकुशल पहुंच जाता था।  कई बार ऐसी दुर्घटना भी हो जाती थी कि रस्सी में कहीं काठी रूक जाने से अथवा संतुलन खो जाने से बेड़ा नीचे भूमि पर गिरकर घायल हो जाता था या उसकी मौत हो जाती थी।

 बेड्वार्त सफलता से संपन्न होने पर जैसे ही बेड़ा नीचे पहुंचता था, वहां उपस्थित लोग उसकी ओर दौड़ते हुए उसके माथे से चिपके हुए चावल को झपटकर अपने हाथ में ग्रहण करते थे। यह चावल शुभ प्रसाद के रूप में ग्रहण कर लोग अपने घर ले जाते थे। कुछ लोग उस बेड़ा के सिर के बालों को भी नोच कर अपने पास रखते थे। इस छीना-झपटी में वह लहूलुहान हो जाता था।

कुछ बेड़ा पूरे उत्तराखंड में प्रसिद्ध भी हुए। 19वीं सदी के प्रसिद्ध ब्रिटिश यात्री विलियम मूरक्राफ्ट ने अपनी यात्रा वर्णन में एक प्रसिद्ध बेड़वार्त का उल्लेख किया है। इस बेड़ा का नाम बंचू था। विलियम ने फरवरी 1920 के पहले सप्ताह में टिहरी गढ़वाल पहुंचकर बंचू का साक्षात्कार किया था। विलियम  अपने संस्मरण में लिखते हैं कि बंचू अपनी कला में इतना प्रवीण था कि उसने १६ बार बिना किसी दुर्घटना के सफलतापूर्वक बेडवार्त की थी। उसने  अल्मोड़ा में फैली हुई महामारी के निवारण हेतु वहां भी बेडवार्त की थी।विलियम  के अनुसार इससे  वहां से महामारी हैजा का प्रकोप दूर हो गया था। बंचू के अलावा टिहरी गढ़वाल की ढंगू फैगल  पट्टी के एक सेवादारी भी प्रसिद्ध  बेडा थे। लोकगीतों में भी बेड़वार्त का उल्लेख मिलता है।

 

दोस्तों यह था -बेडा और बेडवार्त की कहानी। यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। इसके टाइटल सांग को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है।  इसी चैनल में है।जै हिमालय, जै भारत।

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