अफगान- अंग्रेज युद्ध से कैसे बदली गढ़वाली वीरों की तकदीर

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कौन  थे लाट सूबेदार बलभद्र सिंह !

परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति, नई दिल्ली

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अफगानिस्तान वहां सत्ता में  आए आतंकी समूह  तालिबान के कारण इन दिनों चर्चा में है। उत्तराखंड के लोगों के अफगानिस्तान से काफी नाता रहा है। लगभग सौ-सवा सौ साल पहले अफगानिस्तान के लोग उसी तरह उत्तराखंड में कामकाज की तलाश में आया करते थे, जैसा कि पहले नेपाल  के डोटी क्षेत्र के लोग आते थे। अफगानियों के बाद कुछ समय तक कश्मीरी आते रहे।  उसके बाद नेपाल के डोटी  क्षेत्र के लोग आते रहे। उनके बाद  बिहार के लोग भी आए और अब नजीबाबाद समेत रुहेलखंड के झ्वाजा आते हैं।

आपको मालूम ही है कि अफगानियों के साथ अंग्रेजों ने तीन युद्ध लड़े। इसे अफगान युद्धभी कहा जाता है। ये युद्ध क्रमश: 1838-1842, 1878-1880, और 1919 में लड़े गये थे। पहला   आंग्ल-अफगान युद्ध 1838 से 1842 के बीच लड़ा गया था। इसकी प्रमुख वजह अंग्रज़ों के रूसी साम्राज्य विस्तार की नीति से डर था। आरंभिक जीत के बाद अंग्रेज़ो को भारी क्षति हुई, बाद में सामग्री और सैनिकों के प्रवेश के बाद वे जीत तो गए पर टिक नहीं सके। दूसरा युद्ध  1878-1880 के बीच अफगान पर ब्रिटेन के सैन्य आक्रमण को कहते हैं। तीसरा आंग्ल-अफ़ग़ान युद्ध की परिणति अफ़ग़निस्तान की स्वतंत्रता के रूप में हुई। 1917 की रूस की क्रांति के बाद रूस और ब्रिटेन मित्र नहीं रह गए थे। ऐसे में अफगानों ने  ब्रिटिश सेना पर अचानक हमला बोल दिया। हालांकि ब्रिटिश सेना ने हवाई आक्रमण कर  वहां के राजा तक के महल पर बमबारी कर दी।  इससे अफ़गानी लोग नाराज हो गए । अंततः १९१९ के  इस युद्ध के कारण 1921 में अफगानिस्तान स्वतंत्र  हो गया।

दूसरे अफगान युद्ध में उत्तराखंड गढ़वाल के योद्धा बलभद्र सिंह नेगी की वीरता के कारण ही  आज की गढ़वाल राइफल्स का गठन हुआ। सन् 1879 के अफगान युद्ध में बलभद्र सिंह ने अदभुत पराक्रम और समझ-बूझ का परिचय दिया।  सेनानायक पी राबर्टस की योजनानुसार वे पठान भेष में दुश्मन के इलाके में सात दिनों तक जासूसी करते रहे। वहां वे अपनी बटालियन के मृत सैनिक साथियों के बीच मुर्दा बनकर अफगानी सेना के सारे भेद लेते रहे और चतुराई से सात दिन बाद वापस अपनी बटालियन में सुरक्षित आ गए। बलभद्र सिंह की पुख्ता खुफिया जानकारी के आधार अंग्रेज सेना इस युद्ध में विजयी हो पाई थी। बलभद्र सिंह के इस साहसिक अभियान से भारतीय सेना के लापता कई मृतक सैनिकों का अंतिम संस्कार संभव हो पाया था। इस युद्ध में विजयश्री दिलाने में महत्वपूर्ण योगदान के लिए बलभद्र सिंह को ‘आर्डर ऑफ मेरिट’ सम्मान दिया गया। उन्हें सूबेदार के पद पर इनकी प्रौन्नत किया गया। इसके बाद 1880 में काबुल युद्ध में भी उन्होंने अपने शौर्य का प्रदर्शन किया। माथे पर गोली लगने के बाद भी वे कई दिनों तक युद्ध के मोर्चे पर डटे रहे। इसने बाद उन्हें फिर से ‘आर्डर ऑफ मेरिट’ सम्मान मिला था। इसके बाद उन्हें कमांडर इन-चीफ का ‘सर्वोत्तम सैनिक पदक’ और ‘आर्डर ऑफ ब्रिट्रिश इंडिया’ सम्मान भी मिला। इससे साथ ही सूबेदार-मेजर के पद पर इनकी प्रौन्नति की गई। अपनी वीरता के चलते वे कमांडर-इन-चीफ और फील्ड मार्शल के एडीसी भी रहे। उन्हें ‘लाट सूबेदार’ की उपाधि से सम्मानित किया। उन्हें ‘ऑर्डर ऑफ ब्रिटिश इंडिया’ के साथ ही ‘उत्कृष्ट सैनिक पदक’ से भी सम्मानित किया गया।  

उनकी वीरता पर अंग्रेज सेना के कमान्डर इन चीफ पी रोबर्टस ने कहा था कि जिस अंचल में बलभद्र सिंह जैसे वीरों का जन्म होता है, उसकी अपनी अलग रेजीमेंट होनी ही चाहिए।  कमान्डर इन चीफ रोबर्टस ने सन् 1884 में तत्कालीन गर्वनर जनरल लार्ड डफरिन को गढ़वालियों की एक स्वतंत्र बटालियन के गठन के प्रस्ताव की भूमिका में ये महत्वपूर्ण तथ्य लिखा था।  इसलिए गढ़वाल राईफल्स के गठन का मुख्य सूत्रधार लाट सूबेदार एवं ऑनरेरी कैप्टन बलभद्र सिंह नेगी को माना जाता है। माना जाता है कि बलभद्र सिंह नेगी ने ही जंगी लाट से अलग गढ़वाली बटालियन बनाने की सिफारिश की। अंतत: अप्रैल 1887 में गोरखा राइफल्स की दूसरी बटालियन बनाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने आदेश दिए। जिसमें 6 कंपनी गढ़वाली सैनिकों की और दो गोरखों की शामिल की गई। 5 मई 1887 को कुमांऊ के अल्मोड़ा में लेफ्टिनेंट कर्नल ईपी मेनवारिंग के नेतृत्व में पहली गढ़वाली बटालियन खड़ी कर दी गई। चार नवंबर 1887 को ये बटालियन पहली बार लैंसडौन पहुंची। कहा जाता है कि लैंसडौन में छावनी बसाने का सुझाव भी सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी ने ही दिया था। पहले इस स्थान का नाम कालौडांडा था। तब के वाइसराय लैन्सडाउन के नाम पर ‘लैन्सडाउन’ रखा गया। जो आज भी गढ़वाल रेजिमेंटल सेंटर है। इस तरह सन् 1887 में गढ़वालियों के लिए  सेना में अलग से रेजीमेंट अस्तित्व में आ ही गई।इससे गढ़वाल के वीरों के लिए सेना में जाने का रास्ता आसान हो गया।

पांचवी गोरखा राईफल में सिपाही से लाट सूबेदार  बनने तक का उनका शानदार सैनिक सफर उत्कृष्ट साहस, दूरदर्शिता और कर्तव्य परायणता का रहा। उनकी अदम्य साहसिक सैनिक सेवाओं का उल्लेख लंदन गजेटियर में दर्ज है। 1887 में सेना से अवकाश ग्रहण करने के बाद बिट्रिश सरकार ने उनकी सराहनीय सैनिक सेवाओं का सम्मान करते हुए कोटद्वार क्षेत्र में सम्मान स्वरूप निःशुल्क भूमि दी थी। जहां उनके नाम पर बलभद्रपुर बसा है। लाट सूबेदार बलभद्र सिंह नेगी का जन्म सन् 1829 में गलकोट, असवालस्यूं पौड़ी गढ़वाल में हुआ था। इनके पिता धन सिंह नेगी म्वाड़ से गलकोट में रहने लगे थे।1847 में आज के पाकिस्तान के एबटाबाद पहुंचकर वे पांचवीं गोरखा राइफल्स में भर्ती होकर आगे बढ़ते चले गए और ऑर्नरी कैप्टन पद तक पहुंचे।

अफगानिस्तान के बारे में यह जानना आवश्यक  है कि भारत पर आक्रमण करने वाले अधिकतर लुटेरे उसी क्षेत्र के थे। मुस्लिम आक्रमणकारियों ने अफगान शाहों की मदद  से ही भारत पर आक्रमण किए। इनमें बाबर, नादिर शाह, तैमूर लंग तथा अहमद शाह अब्दाली शामिल है। इन बर्बर लोगों ने सदियों पहले जो कुछ किया वही आज भी कर रहे हैं। अफगान शब्द पुराना हो सकता है, परंतु इतना साफ है कि 1700 इस्वी से पहले दुनिया में अफगानिस्तान  नाम का कोई देश नहीं था।इस भूभाग का अधिकतर क्षेत्र कभी भारतवर्ष का हिस्सा रह चुका है। महाभारत काल का गांधार ही आज का कांधार है।

दोस्तों यह था गढ़वाल और अफगान का संबंध तथा वीर बलभद्र सिंह की गाथा। अगली कड़ियों में भी इसी तरह के जानकारी लाऊंगा।  यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। इसके टाइटल सांग को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है।  इसी चैनल में है।जै हिमालय, जै भारत।

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