‘इनसाइक्लोपीडिया ऑफ उत्तराखंड’- डा. शिवप्रसाद डबराल ‘चारण’

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परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति ,नई दिल्ली

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डा. शिवप्रसाद डबराल चारण  जी के बारे में उनके वंश से शुरू करते हैं। डबराल उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल के ब्राह्मणों की प्रमुख जाति है। टिहरी रियासत के मंत्री रहे  हरिकृष्ण रतूड़ी की पुस्तक  — गढ़वाल का इतिहास– के अनुसार डबरालों के पुरुख पुरूष रघुनाथ और विश्वनाथ  थे। वे संवत 1833 अर्थात सन् 1376 ईस्वी में महाराष्ट्र से मूलत: महाराष्ट्र से उत्तराखंड आए। ये  दो ब्राह्मण भाई महाराष्ट्र से आकर  पौड़ी गढ़वाल जिले के  डाबर  गांव में बसे। डाबर  गांव से उनके वंशज डबराल कहलाए।  राहुल सांकृत्यायन की पुस्तक हिमालय परिचय  में भी कहा गया है कि गढ़वाल के डबराल मूल रूप से महाराष्ट्र राज्य के निवासी थे। इस्लामी आक्रमण के परिणाम स्वरूप उत्तर में हिमालय की ओर पलायन कर गए। आज डबरालों के कई गांव हैं और गढ़वाल के साथ ही कुमायुं में भी बस गए हैं।

इसी डबराल परिवार में  चारण जी का जन्म हुआ। कहा जाता है कि घुमक्कड़ी स्वभाव के  कारण उनको चारण कहा गया। शिवप्रसाद डबराल का जन्म 13 नवम्बर सन 1912 को पौड़ी के गहली गांव में हुआ। उनके पिता कृष्णदत्त डबराल प्राइमरी स्कूल में प्रधानाध्यापक और मां भानुमती डबराल गृहणी थीं।  डबराल ने मेरठ से बीए और इलाहाबाद से बीएड किया। आगरा विश्वविद्यालय से भूगोल में एमएम और फिर  1962 में पीएचडी की। उनका जो विषय था–  अलकनंदा उपत्यका में घोषयात्रा, प्रवजन और ऋतुकालीन प्रवाह। इसके बाद वे डी.ए.बी. कॉलेज दुगड्डा में 1948 में प्रधानाचार्य बन गए और 1975 में सेवानिवृत होने तक प्रधानाचार्य के पद पर रहे।  24 नवंबर 1999 को उनका देहांत हो गया। यह दुखद  है कि डा. डबराल को  उत्तराखंड के इतिहास को लिखने के लिए अपनी प्रेस और अपनी भूमि तक बेचनी पढ़ गयी थी।  लगभग छह वर्षों तक उनकी आंखों की रोशनी भी चली गई थी। इलाज से मुश्किल से लौट पाई। डा. डबराल का एक ही मंत्र था कि —काम करो बस काम करो। यदि काम करोगे तो जमाना ढूंढेगा।

डा. डबराल की कर्मस्थली दुगड्डा का सुरड़ा गांव रहा। उनकी लेखन यात्रा 1931 से शुरु हुई और उसी साल उनका पहला काव्य संग्रह जन्माष्टमी प्रकाशित हुआ। उन्होंने वीरगाथा प्रकाशन की शुरुआत अपने गांव से ही की। सुरड़ा के विद्यापीठ को उन्होंने 1951 में खरीद लिया और वहां से ही 50 वर्ष तक साहित्य और इतिहास की सेवा में लगे रहे। उन्होंने विद्या भवन में कई साहित्यिक ग्रंथों की रचना की तथा ऐतिहासिक व पुरातात्विक महत्व की पांडुलिपियों और ग्रंथों की खोज की। यह विद्यापीठ ही एक पुस्तकालय और संग्रहालय के तौर पर सामने आया। दुगड्डा स्थित उनके पुस्तकालय में एक समय दो हजार के करीब दुर्लभ पुस्तकें व तीन सौ पांडुलिपियां थीं। उन्होंने इतिहास के साथ ही कई  नाटक, काव्य और बालसाहित्य भी लिखा।  उन्होंने गढ़वाली भाषा की 22 पहले से प्रकाशित दुर्लभ पुस्तकों को पुनः प्रकाशित कर लुप्त होने से बचाया। इनमें मौलाराम की पांडुलिपि भी शामिल है।

डा. शिवप्रसाद डबराल ने लगभग 40 वर्षों तक  हिमालय और उसके इतिहास पर शोध किया। उत्तराखंड का इतिहास 25 भागों में लिखा।  उत्तराखंड के इतिहास से जुड़ी उनकी कुछ किताबें इस तरह हैं। अलकनंदा उपत्यका गोरख्याणी पहला भाग (पर्वतीय राज्यों का विध्वंस),  गोरख्याणी दूसरा भाग (पराजित होकर प्रत्यावर्तन) टिहरी गढ़वाल राज्य का इतिहास भाग पहला टिहरी गढ़वाल राज्य का इतिहास भाग दूसरा श्री उत्तराखंड यात्रा दर्शन उत्तराँचल – हिमांचल का प्राचीन इतिहास- उत्तराखंड का इतिहास (बारह भागों में)। उत्तराखंड के अभिलेख एंव मुद्रा प्राग-ऐतिहासिक। उत्तराखंड कत्युरी राजवंश – उत्थान एंव समापन।  शाक्त मत की गाथा। गढ़वाल पर ब्रिटिश शासन-भाग पहला। गढ़वाल पर ब्रिटिश शासन-भाग दूसरा। भोलाराम गढ़राज वंश उत्तराखंड के भोटान्तिक उत्तराखंड के पशुचारक । उनकी प्रमुख रचनाओं में उत्तराखंड यात्रा दर्शन, उत्तराखंड का इतिहास प्रमुख , उत्तराखंड का इतिहास के साथ ही उत्तराखंड के अभिलेख एवं मुद्रा, गोरा बादल,  गुहादित्य, महाराणा संग्राम सिंह, पन्ना धाय, सतीरामा, राष्ट्ररक्षा काव्य, गढ़वाली मेघदूत, हुतात्मा परिचय,  अतीत स्मृति, संघर्ष गीत आदि शामिल हैं।  डा. डबराल को कुमायुं का इतिहास लिखने के लिए अपनी भूमि बेचनी पड़ी थी। इन सभी कारणों से डा.डबराल को  ‘इनसाइक्लोपीडिया ऑफ उत्तराखंड’ कहते थे।

दोस्तों यह थी ‘इनसाइक्लोपीडिया ऑफ उत्तराखंड’ अर्थात डा. शिवप्रसाद डबराल चारण की गाथा। अगली कड़ियों में इसी तरह अन्य प्रमुख व्यक्तियों के बारे में भी जानकारी दी जाएगी। जै हिमालय, जै भारत। 

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