कौन हैं उत्तराखंड के पहाड़ी मुसलमान

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परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति / नई दिल्ली

www.himalayilog.com / www.lakheraharish.com

दोस्तों, मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश लखेड़ा इस बार आपके लिए उत्तराखंड के पहाड़ी मुसलमानों को लेकर जानकारी लेकर आया हूं। मैं जब तक इस बारे मे आगे बढ़ूं, आप सभी से आग्रह है कि हिमालयीलोग चैनल को लाइक और सब्सक्राइब अवश्य कर दीजिए। आप जानते ही हैं कि  हिमालयी क्षेत्र की संस्कृति, इतिहास, लोक, भाषा, सरोकार आदि विषयों को देश-दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। इस जानकारी को आप वेबसाइट हिमालयीलोग में पढ़ सकते हैं।

यहां मैं उत्तराखड के उन मुसलमानों की बात कर रहा हूं, जो सदियों से पहाड़ी गांवों में रहते हैं। अर्थात पहाड़ी मुसलमान। रुहेलखंड और मेरठ क्षेत्र से उत्तराखंड के शहरों-कस्बों में बसे मुसलमानों की बात नहीं कर रहा हूं। यह सब मैं उत्तराखंड के प्रमुख इतिहासकारों की पुस्तकों और वहां के बुजुर्ग लोगों से मिली जानकारी के आधार पर दे रहा हूं।

उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों के 63 गावों में मुसलमान हैं। इनमें से कई तो  मुस्लिम बहुल गांव हैं या इनमें बड़ी संख्या में मुसलमान  रहते हैं। ये सदियों से पहाड़ों में रह रहे हैं। इनमें से कई तो यहां के वे लोग  हैं जो कि मुसलमान धर्म में गए। जबकि कई मुसलमान यहां के राजाओं के समय आए थे। उत्तराखंड के गांवों में जो मुसलमान रहते हैं वे पहाड़ में सदियों से रहते आए हैं।इनमें बड़ी संख्या में वे हैं जो मैदानों से गए मुसलमान नहीं हैं। उनकी भाषा, चेहरा-मोहरा,रहन-सहन सभी कुछ पहाड़ के अन्य लोगों की तरह है। हालांकि पिछले कुछ दशकों से उनका पहनावा मैदानी मुसलमानों की तरह  होता जा रहा है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि १९वीं सदी तक उनके नाम हिंदुओं के जैसे होते थे। खासतौर पर गढ़वाल के गांवों में बसे मुसलमान तो  बाकायदा जागर भी लगाते थे, देवी-देवताओं की पूजा करते थे और उनके पुरोहित भी होते थे। जिनसे वे अपनी जन्मकुंडली भी बनवाते थे। गढ़वाल नरेश के मंत्री रहे पं. हरिकृष्ण रतूड़ी अपनी पुस्तक — गढ़वाल के इतिहास — में लिखते हैं कि उत्तराखंड के ब्रिटिश गढ़वाल और टेहरी गढ़वाल में में वर्ष 1910-11  में 5,344  मुसलमान थे। तब भी यह संख्या बहुत आंकी गई थी। क्योंकि तब पूरे गढ़वाल की आबादी 7.80  लाख  थी। मुसलमानों की संख्या  बढ़ जाने का मुख्य कारण वह जाति है जो कि चुरैड़- मनिहारकही जाती है । इनकी भाषा गढ़वाली, लिपि देवनागरी और रीति रिवाज सभी गढ़वाली हिंदुओं के जैसे थे । केवल इनके बीच पुरानी प्रथा पाई जाती थी कि वे  मुर्दों को जलाने की बजाए  भूमि में दफनाते थे।  बहुत समय व्यतीत नहीं हुआ है कि डेढ़ शताब्दी से ये अपने को मुसलमान बताने लगे और नाम भी मुसलमानों के रखने लगे।  यद्दपि नामकरण हिंदू संज्ञक और मुसलमान संज्ञक खिचड़ी की प्रतीत होती थी।  ये लोग चूड़ी चूड़ी  बनाने और  बेचने का काम  करते थे।  लोग खेती भी करते थे।  गढ़वाल में ऐसे  बहुत से गांव हैं जहां यही लोग रहते हैं, कुछ गांव ऐसे भी हैं जहां ये अन्य जातियों के लोगों के साथ मिले-जुल कर रहते हैं । उनके रहन-सहन और रीति-रिवाजों से प्रतीत होता था कि ये गढ़वाल के बहुत पुराने रहने वाले हिंदू हैं। क्योंकि जैसी चूड़ी यह लोग बनाते हैं ठीक उसी तरह की चूड़ियों के टुकड़े पर प्राय: प्राचीन किलों- गढ़ों के खंडहरों में पाए जाते हैं । जिनका बाद रहना  शताब्दियों पहले का प्रतीत होता है।  इनके अतिरिक्त कोई अन्य जाति यहां  नहीं पाई जाती है ।संभवत: यह  प्राचीन काल से चूड़ी बनाने वाली जाति रही है।यही चुरैड़ जाति है। यह जाति वर्तमान में मुसलमान कैसे हो गई? यह जाति समाज में सबसे निचले पायदान पर थी।इसलिए इनका हिंदुओं के उच्च वर्ण में दाखिल होने के लिए का मार्ग अवरुद्ध था इसलिए यह सीधे मुसलमान धर्म में दाखिल हो गए। चूंकि वे शवों को दफनाते थे, मात्र इसी कारण हिंदू भी उनको मुसलमान मानने लगे थे।

इसी मामले में प्रसिद्ध इतिहासकार  डा. शिवप्रसाद डबराल चारण अपनी पुस्तक उत्तराखंड का राजनैतिक व सांस्कृतिक इतिहास –चार गढ़वाल का इतिहास में लिखते हैं कि   1827 तक अर्थात ब्रिटिश राज्य की स्थापना के 12 वर्ष पश्चात तक भी दून उपत्यका में कोई मसजिद नहीं थी। नजीबुद्दौला ने दून उपत्यका में कुछ रोहिला-अफगान परिवारों को बसाया था। उसकी मृत्यु हो जाने पर गढ़ नरेश प्रदीप शाह ने उनमें से कई को जाविता खां का  समर्थक समझ कर अपने राज्य से हटा दिया था।  फिर भी कुछ परिवार वहां कृषि और व्यापार करते रहे । गढ्रवाल श्रीनगर में मुसलमानों के 60-70 परिवार थे।  इनमें से अधिकांश दलित दुकानदार थे जिनकी दुकान पर प्यार से लेकर रेशमी वस्त्र तक मिलते थे । गढ़राज्य में कोई मस्जिद नहीं थी।

मुसलमानों पर राज्य के अंतर्गत कोई प्रतिबंध नहीं था। वे  आपस में अथवा हिंदू दलित जाति की लड़कियों से विवाह कर सकते थे। वह किसी भी जाति में उत्पन्न दास- दासियों को खरीद सकते थे और उनका निर्यात कर सकते थे।  गढ़नरेशों की सेना में तुफंग, बंदूक, तोप तथा बान चलाने के लिए मुसलमानों को भर्ती किया जाता था।गढ़वाल के सलाण में खोह और और मालिनी नदी की घाटी में कुछ मुसलमान गुर्जर पशु चारक बस गए थे। कुछ  स्थानों पर मुसलमान जोगी भी बस गए थे।  जिनकी संतान अब तक जोगीबेटा और चौटीकट कहलाती हैं। वह मृतकों को दफनाते थे। श्रीनगर में तेली मुसलमान भी थे। जो संभवतः सुगंधित तेलों का व्यापार करते थे । गढ्र नरेश श्यामशाह की प्रेयसी भी मुसलिम तेली थी। जिसका नाम जवनी या तुरकानो तेलन था। यही से कुछ परिवार टिहरी में भी बस गए थे। गढ्रवाल के चांदपुर व नागपुर क्षेत्र में  भी चुरैड़ यानी चूड़ी निर्माता मुसलमान परिवार भी थे ।

डा.  चारण लिखते हैं कि गांवों में बसे ये चुरैड़, कृषक व पशुचारक मुसलमा अपने पड़ोसी हिंदुओं के साथ जीवन बिताने से उनके जैसे हो गए थे। मुसलमानों के संपर्क में नहीं रहने के कारण उन्हें मैदानों के कट्टर रोहिला मुसलमानों के धार्मिक ग्रंथ और रीति रिवाज और त्योहारों के बारे में भी कोई जानकारी नहीं थी । उन की जातियां भी हिंदू के समान थी । कई के जातियां मूलग्राम के नाम पर आधारित थी । उनकी एक हो जाति का नाम नेगी भी था। वे हिंदुओं के ग्राम देवता नरसिंह, नागराजा , आंछरी, माछरी,  चंद्र बदनी, भगवती आदि की पूजा करते थे । देवी देवताओं को नचाने के लिए वे अपने घरों में जाकर लगवाते थे। वे अपने ब्राह्मण पुरोहितों से  जन्म पत्री भी  बनवाते थे। वर- कन्या की जन्मपत्री मिलवाते थे। ग्रह पूजा करवाते थे। स्याहपट्टा, हल्दी हाथ और बाकदान कराते थे। वे सैयदों की भी पूजा करते थे ।उनके सत्संग में हिंदुओं ने भी सैयद पूजा अपना ली थी ।

बाद में गढ़ व कुमायुं नरेश भी मुसलमानों को अपने यहां बसाते रहे।  इनकी फौज में भी मैदानों के मुसलमान रहे। तोप, बंदूक चलाने आदि के लिए इनको रखा जाता रहा। खानमासा के तौर पर भी बसाए  जाते रहे। गढ़ नरेश की एक पलटन मैदानी मुसलमानों की थी।  राहुल सांकृत्यायन अपनी पुस्तक – हिमालय परिचय –एक गढवाल में लिखते हैं कि गढ़वाल में मुसलमान व्यावसायिक स्थलों में मिलते हैं। गढ़वाल के राजाओं ने दिल्ली से संबंध बनाए रखने के लिए कई मुसलमान बसाए। इसी तरह डा. शंतन सिंह नेगी अपनी पुस्तक- मध्य हिमालय का राजनीतिक व सांस्कृतिक इतिहास – में लिखते हैं कि गढ़देश में स्थायी रूप से बसने वाले मुसलमानों की संख्या बहुत कम थी। दून उपत्यका में रोहिलों का अधिकार होने पर वहां मुसलमान बसे, लेकिन उनका अधिकार हटने पर उनको भी हटा दिया गया।

कुमायुं की पहाडियों में मुसलमान लोग अल्मोड़ा में चंद नरेश  बाजबहादुर चंद के समय आए। वैसे  को रोहिलों ने दो-तीन बार  कुमायुं पर हमला किया और लूटपाट करने के साथ ही मंदिर भी तोड़े,लेकिन वे वहां बसे नहीं । कुमायुं केसरी बद्रीदत्त पांडे अपनी पुस्तक– कुमायुं का इतिहास — में लिखते हैं कि  पहाड़ों में मुसलमान बहुत कम हैं। तराई भाबर में नवाबों के समय से मुसलमान  से रहते आए हैं । राजा बाजबहादुर के समय 10-12 नक्कारची, चोपदार, व कुत्तों के टहलिए आए थे। बाद में कुछ  तिजारती लोग आए।   अल्मोड़ा में सन 1821 में 75 घर मुसलमानों के थे। जिनमें  57 घर  तिजातर वालों के और 18 घर नौकर चाकरों के थे।  अल्मोड़ा, रानीखेत, मनिहार गांव, काठगोदाम, ढिकुली, आदि स्थानों पर तब मात्र 494 मुसलमान थे।  कुमायुं में  मुसलमानों की संख्या इ स प्रकार है – शेख, सय्यद, मुगल, पठान, सभी हैं। इनकी मस्जिदें अल्मोड़ा, नैनीताल, रानीखेत, हल्द्वानी, काशीपुर गदरपुर आदि स्थानों पर हैं।

हालांकि उत्तराखंड के शहरों और कस्बों में अब में मुसलमानों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ी है। इनमें अधिकतर रुहेलखंड और मेरठ क्षेत्र से आए मुसलमान हैं। वर्ष 2011  की जनगणना के अनुसार उत्तराखंड में 13.95  फीसदी मुसलमान थे, जबकी अब इनकी आबादी 20 प्रतिशत से अधिक हो जाने का अनुमान है।

दोस्तों यह थी पहाड़ी मुसलमानों की गाथा। अगली कड़ियों में रुहेलखंड व मेरठ से आए मुसलमानों को लेकर भी जानकारी दूंगा। यह वीडियो कैसी लगी, अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। जै हिमालय, जै भारत।

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