सवर्णों अब भी बचा लो अपने शिल्पकार —-उत्तराखंड में ईसाइयत का इतिहास व विस्तार

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परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति /नई दिल्ली

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दोस्तों मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश लखेड़ा जातियों के इतिहास की इस श्रृंखला में विभिन्न जातियों और  उत्तराखंडी मुसलमानों के बाद अब पहाड़ के ईसाइयों को लेकर जानकारी ले कर आया । जब तक मैं आगे बढूं, तब तक इस हिमालयी लोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइबअवश्य कर दीजिए। आप जानते ही हैं कि हिमालयी क्षेत्र की संस्कृति, इतिहास, लोक, भाषा, सरोकारों आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए हिमालयीलोग चैनल लाया गया है। आप इस आलेख को हिमालयीलोग वेबसाइट में पढ़ भी सकते हैं।

उत्तराखंड के पहाड़ों में मुसलमानों की तरह ईसाई भी बहुत कम रहे हैं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों के दौरान पहाड़ों में क्रिस्चियन बनाने की घटनाएं बढ़ी हैं। इनमें अधिकतर  शिल्पकार यानी दलित लोग हैं। कुछ ब्राह्मण व क्षत्रिय भी पैसे के लालच में ईसाई बने हैं। यह चिंता का विषय है कि धर्म परिवर्तन की इतनी घटनाएं तो  अंग्रेजों के समय में भी पहाड़ में नहीं हुई थी, जितनी कि अब  उत्तराखंड राज्य बनने के बाद हो रही हैं, जब पहाड़ियों की सरकार है। नेपाल में भी राजशाही समाप्त होने के बाद वहां भी ईसाई मिशनरियों ने अपना प्रचार कार्य बहुत तेज कर दिया है। भारत के आदिवासी  क्षेत्रों, पुर्वोत्तर और दक्षिणी राज्यों के बाद अब हिमालय उनके निशाने पर है। 

 अंग्रेजों के शासनकाल में ईसाई मिशनरियों के भारी प्रयास के बाद भी पहाड़ में गिने चुने गांवों के दलित ही ईसाई बनें। अलबत्ता, अल्मोड़ा में बहुत से ब्राह्मणों  ने  भी ईसाई धर्म ग्रहण किया था। लेकिन अब पहाड़ के शिल्पकार ईसाई मिशनरियों के निशाने पर हैं।  यह सोचनीय विषय है कि प्रदेश सरकार, पहाड़ के राजनीतिक दल, सामाजिक संगठनों से लेकर प्रबुद्ध वर्ग भी इस मामले में  खामोश हैं, निश्चिंत हैं। उन्होंने पहाड़ के दलितों को उनके हाल पर छोड़ दिया है। यह चेतावनी ही समझिए कि यदि हालात यही रहे तो अगले कुछ वर्षों में वहां के जातीय अभिमान के दंभ में जी रहे सवर्ण अपने परंपरागत  शिल्पकारों को खो देंगे। जिन्होंने सदियों से सवर्णों की सेवा की है। इसलिए  अभी भी समय है कि उत्तराखंड के सर्वणों को इन शिल्पकारों की सुध लेनी चाहिए।

उत्तराखंड में अंग्रेजों के समय गढ़वाल से ज्यादा कुमायुं में ज्यादा लोग ईसाई बने। यह शोध का विषय है कि किन कारणों से ईसाई धर्म ने कुमायुं में ज्यादा पांव पसारे। यह तो समझ में आता है कि गरीब लोगों को लालच देकर ईसाई बनाया गया। परंतु जब  कुमायुं के बड़ी धोती के ब्राह्मणों  अपना धर्म छोड़ा तो यह सोचनीय विषय बन जाता है। माना जाता है कि पश्चिभी शिक्षा और सभ्यता की चकाचौंध में आए इन सवर्णों ने अपने पुरखों के धर्म को अलविदा कहा।  उन्होंने सत्तासीन अंग्रेजों के वर्ग में शामिल होने तथा बड़े पद पाने के लालच में ईसाई धर्म अपनाया। 

कुमायुं में ईसाई धर्म को मूंडने का धर्म का नाम दिया गया। कुमायुं केसरी बद्रीदत्त पांडे अपनी पुस्तक — कुमायुं का इतिहास — में लिखते हैं कि  कुमायुं  में ईसाई धर्म तभी फैला जब अंग्रेज १८14 में यहां आए । ईसाई बनाने अर्थात मूंडने का  धर्म अल्मोड़ा में १850 से  तथा नैनीताल में १८५७से चला। १८५० में पादरी बडन ने अल्मोड़ा में स्कूल व गिरजाघर खोला। जबकि  नैनीताल में पादरी बटलर और नोल्स  ने शिक्षा तथा ईसाई धर्म प्रचार का कार्य किया। ईसाईयों ने शिक्षा का अच्छा प्रचार किया । यद्यपि पहले पहल इनके मुंडन नीति से कई स्थानों में विरोध भी हुआ। ईसाइयों ने यत्र-तत्र विशेषकर अल्मोड़ा,  पिथौरागढ़ में शिक्षालय, अस्पताल, अनाथालय, कुष्ट आश्रम खोले। सन 1876 में द्वारहाट में स्कूल खोला और 1881 -१885 से पिथौरागढ़ में कार्य शुरू किया। वहां से धारचूला, चौंदास, व जौहार में काम फैलाया।  इस समय इनके केंद्र कत्यूर, रानीखेत, बेरीनाग, व लोहाघाट में हैं। यद्यपि सबसे बड़ी बस्ती अल्मोड़ा में है । यहां इनके हाथ में लगभग एक मील लंबी और रमणीक पहाड़ी है । पिथौरागढ़ में भी इनकी अच्छी खासी बस्ती है । कुमायुं में साधारण लोगों के अलावा कई जोशी, पंत, पांडे तथा सनवाल  खानदान के लोग भी ईसाई बन गए । पहले अल्मोड़ा में पहले लंदन मिशन था अब यहां अमेरिकी मिशन है।

अल्मोड़ा के ब्राह्मणों में ईसाई बनने वालों में मुसलमान बन चुकी शीला आइरीन रूथ पंत और उनके परिवार का नाम सबसे आगे है। वह भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान के प्रथम प्रधानमंत्री लियाकत अली खान की बेगम थी और इस नाते फ़र्स्ट लेडी ऑफ पाकिस्तान। पूरा नाम था शीला आइरीन पंत उर्फ रआना लियाकत अली खान। शीला के दादा अल्मोड़ा के बड़ी धोती के ब्राह्मण परिवार से आते थे। कहा जाता है आइरीन पंत के दादा तारादत्त पंत ने 1874 में ईसाई धर्म अपनाया था। वे प्रसिद्ध  वैद्य थे। कुमायुं के बड़ी धोती के ब्राह्मण परिवार के ईसाई बन जाने से कुमायुं समेत समूचे उत्तराखंड में तहलका मच गया था। क्योंकि तब अनुसूचित जाति के गिने चुने लोग ही धर्मांतरण करते थे। कुमायुं के ब्राह्मणों ने पंत परिवार के इस कृत्य को कभी भी माफ नहीं किया। लेकिन अभी बात रुकी कहां थी। बात तब और बिगड़ गई जब शीला आइरीन पंत ने १९31 में इस्लाम कबूल कर भारत विभाजन की मांग करने वाले नेताओं में शामिल लियाकत अली से निकाह रचा दिया और वह मुसलमान बन गई थी। कहा जाता है कि उसका भाई नार्मन पंत भी बाद में मुसलमान बन गया और पाकिस्तान चला गया था। इस तरह आइरीन के लिए पहाड़ के ब्राह्मणों के दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो गए। आइरीन के परिवार के ईसाई बनने पर अल्मोड़ा के पंत समाज ने उनके परिवार का सामाजिक बहिष्कार कर दिया था।

दूसरा बड्रा नाम है, विक्टर मोहन जोशी।  विक्टर जोशी ने  स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया था। उनके पिता जयदत्त  जोशी ईसाई बने थे।  ईसाई बन चुके जयदत्त ने अपने बेटे का नाम बचपन में विक्टर जोसेफ रखा था। लेकिन उनकी मां का हिंदू धर्म के प्रति ज्यादा झुकाव था इसलिए उनकी मां ने इनका नाम  मोहन रख दिया। इसलिए इनका नाम विक्टर मोहन जोशी पड़ गया। इस तरह के और भी उदाहरण हैं।

गढ़वाल में पौड़ी के पास के गांव के दलित जब ईसाई धर्म में गए तो इस मामले से पूरे गढ़वाल को उत्तेजित कर दया था। गढ़वाल में तक और  भी कई जगह दलितों ने ईसाई धर्म स्वीकार किया था।  गढ़वाल में ईसाइयों को लेकर  इतिहासकार डा. शिव प्रसाद डबराल चारण अपनी पुस्तक –उत्तराखंड का  राजनैतिक व सांस्कृतिक इतिहास भाग- 4, गढ़वाल का इतिहास– में लिखते हैं कि गढ़राज्य में ईसाइयों का सर्वथा अभाव था।  राजा श्याम शाह ने पादरी एंथोनियो को अपने राज प्रसाद के पास स्थाई निवास स्थान बनाने के लिए भूमि देने को तैयार हो गया था किंतु वह पादरी तिब्बत के ‘ भटके हुए लोगों’ को सन्मार्ग पर लाने के लिए इतना उत्सुक था कि उसने इस सुविधा से लाभ नहीं उठाया । उत्तराखंड में ईसाई मत का प्रचार ईस्ट इंडिया कंपनी का अधिकार हो जाने के बाद प्रारंभ हुआ था । गढ़ नरेश के मंत्र रहे पं.हरिकृष्ण रतूड़ी अपनी पुस्तक गढ़वाल का इतहास में लिखते हैं कि वर्ष १९१०-११ में पूरे गढ़वाल में ईसाइयों की संख्या ८५१ थीं।

परंतु अब हालात बदल गए हैं। उत्तराखंड के तराई के  थारु-बोक्सा की तरह ही पहाड़ों के शिल्पकार भी ईसाई मिशनरियों के निशाने पर हैं। वर्ष  2013 की आपदा के बाद से उत्तराखंड में  कई विदेशी एजेंट सक्रिय हैं। वे राशन आदि की मदद के नाम पर इन गरीबों दलितों का  बड़ी तादाद में धर्मांतरण करने में लगे हैं। कोरोना काल में भी इस तरह की हरकतें ज्यादा देखने को मिली हैं। ऐसी कई घटनाएं हुई हैं जब शिल्पकारों के बच्चों को नौकरी व अन्य सामान देकर उन्हें ईसाई बना दिया गया है।  गांवों में लोगों को लालच देकर उन्हें जीसस की आरतियां बांटी जा रही हैं। गांवों में चंगाई कार्यक्रम हो रहे हैं। इन आयोजनों में पहाड़ के पुरुष और महिलाएं भी शामिल हैं। यह उत्तराखंड के दुर्भाग्य है कि पहाड़ के लोग अपने पारिवारिक ईष्ट देवताओं की पूजा करने की बजाए मैदानों के फर्जी बाबाओं को पूजने में लगे हैं। यही लोग अब गावों में चंगाई कार्यक्रम करा रहे हैं।

अब स्थित यह है कि उत्तराखंड में ईसाइयों की संख्या में तेजी से बढोत्तरी हुई है। उत्तराखंड सरकार ने २०१५ में  जनगणना-२०११ के आंकड़े  जारी किए थे। इनके आंकड़ों के अनुसार उत्तराखंड में ईसाइयों की संख्या में तेजी से बढोत्तरी हुई है। दशकीय वृद्धि दर के हिसाब से 2001 की तुलना में प्रदेश में सबसे तेजी से ईसाई समुदाय बढ़ा है। इनकी दशकीय वृद्धि दर करीब 40 प्रतिशत है। प्रदेश में मुस्लिम समुदाय की दशकीय वृद्धि दर हिंदुओं की तुलना में करीब ढाई गुनी है। प्रदेश में मुस्लिम समुदाय की दशकीय वृद्धि दर करीब 39 प्रतिशत है। वहीं हिंदुओं की यह दर करीब 16 प्रतिशत ही है। इस हिसाब से प्रदेश में मुस्लिम आबादी हिंदुओं की तुलना में ढाई गुना अधिक रफ्तार से बढ़ रही है। यानी उत्तराखंड में मुसलमान और ईसाइयों की आबादी बहुत तेजी से बढ़ रही है।

इसके लिए सिर्फ ईसाई मिशनरियों को कोसने से काम नहीं चलेगा। यदि वे अपना काम कर रहे हैं तो पहाड़ी समाज अपना काम क्यों नहीं कर रहा है। इस ईसाई बनाए जा रहे गरीब लोगों के धर्म परिवर्तन के मामले में उत्तराखंडी समाज बिलकुल शांत है। कोई खास प्रतिक्रया नहीं होती है। पहाड़ियों को अब मात्र  ईसाई मिशनरियों को कोसने की बजाए आत्ममंथन करने की आवश्यकता है। क्या कभी किसी ने अपने औजियों, लोहारों  समेत शिल्पकारों को लेकर सोचा?  उत्तराखंड सरकार भी औजियों से ढोल दमाऊं तो बजवाती रही है। लेकिन कभी उनको टेलरिंग काम नहीं सिखाया। ताकि उनको रोजगार मिलता। उनके भी दिन सुधरते। वे किसी के चंगुल में न फंसते। यह तो एक उदाहरण मात्र है। दिल्ली-एनसीआर, देहरादून, मुंबई, चंड़ीगढ, लखनऊ जैसे शहरों में उत्तराखंडियों के हजारों संगठन हैं। ये लगभग सभी संगठन हर साल पहाड़ी संस्कृति बचाने के नाम पर सांस्कृतिक  कार्यक्रम करते हैं। कौथिग करते हैं। रामलीलाएं करते हैं। नाचते हैं, गाते हैं , खाते-पीते हैं और घर चले जाते हैं, और निश्चिंत होकर घर बैठ जाते हैं। परंतु कभी भी अपने गांव के शिल्पकारों के लिए एक भी कार्यक्रम नहीं चलाते कि उनकी रोजी रोटी चल सके। इन संगठनों के प्रमुख पदों में शायद ही कोई शिल्पकार समाज से हो। उत्तराखंड में आज भी कुछ क्षेत्र बचे हैं जहां  शिल्पकारों को मंदिरों में नहीं आने देते हैं। जौनसार भाबर इसका उदाहरण है।  जहां मंदिर में दलितों के प्रवेश पर एक नेता की पिटाई कर दी गई थी। कभी सोचा कि ऐसे में शिल्पकारों के बास कौन सा रास्ता  बचता है?

खास बात यह है कि शहरों में रह रहे उत्तराखंडी लागों ने अपने  शिल्पकारों के लिए शायद की कुछ किया होगा। पहाड़ के रीडविहीन नेताओं से आशा करना बेकार है। वे बाहरी लोगों के लिए तो जान देने को तैयार रहते है, परंतु अपने लोगों को मिलते तक नहीं हैं। यही हालात रहे तो एक दिन उत्तराखंडी समाज का यह एक प्रमुख  अंग अलग हो जाएगा।  शादी-ब्याह और देव पूजन के लिए ढोल-दमाऊं बजाने के लिए औजी नहीं मिलेंगे। दरांती की धार तेज करने के लिए लुहार नहीं मिलेंगे। यही हाल रहा तो  गरीब शिल्पकार समाज ईसाई समाज की गिरफ्त में आ जाएगा। शिल्पकार समाज के साधन संपन्न लोगों को भी इस मामले में पहल करनी चाहिए। ईसाइयत में दिलचस्पी ले रहे शिल्पकारों को भी यह समझना होगा कि ईसाई बनने के बाद भी उनको सामाजिक तौर पर  बहुत कुछ नहीं मिलने वाला है। केरल समेत दक्षिण भारतीय राज्यों में आज भी दलित क्रिश्चयनों के संगठन भी हैं। उनके चर्च भी अलग हैं। खुद उत्तराखंड के दलित ईसाइयों के संगठन बन चुके हैं। फेसबुक समेत इंटरनेट में आपको मिल जाएंगे। यदि ईसाई बनकर भी दलित ही रहना है तो अपने पुरखों के धर्म को छोड़कर क्या मिलेगा ? उनको आरक्षण के  लाभ से हमेशा के लिए बंचित होना पड़ जाएगा। यदि कोई सवर्ण भी यही कर रहा है तो उसे भी यही सोचना चाहिए।

अंत में एक बात कहना चाहता हूं। बचपन में गांव में रहते हुए मेरा सबसे अच्छा दोस्त हमारे गांव के लुहार का बेटा था। जो अब इस दुनिया में नहीं है। जब १२वीं कर रह था तो सिद्धखाल इंटर कॉलेज चुरानी में भी औजी समाज का मेरा परम मित्र था। मैंने कभी भी जन्म के आधार को प्राथमिकता नहीं दी। क्या हम पहाड़ी ऐसा करते हैं?ईसाई मिशनरियों को कोसने की बजाए शिल्पकारों के साथ अपने संबधों पर पुनर्विचार अवश्य कीजिए।

दोस्तों यह था  उत्तराखंड में ईसाई समाज का इतिहास और उनकी रणनीति। अगली कड़ियों में इसी तरह के सरोकारों को सामने रखा जाएगा।  यह वीडियो कैसी लगी, कमेंट में अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। इसके टाइटल सांग को भी सुन लेना। मेरा ही लिखा है।  इसी चैनल में है।जै हिमालय, जै भारत।

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