शांतिप्रिय परंतु संसार के महान योद्धा हैं पहाड़ के जजमान ….उत्तराखंड के क्षत्रियों का इतिहास

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परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

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हिमालयीलोग की प्रस्तुति / नई दिल्ली 

दोस्तों ब्राह्मणों के बाद अब उत्तराखंड के क्षत्रियों के इतिहास को लेकर जानकारी दे रहा । इस गाथा को  लेकर आगे बढ़ने से पहले आप सभी से अनुरोध है कि हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सकराइब कर दीजिएगा।

दोस्तों, उत्तराखंड की क्षत्रिय   वीर जाति जितनी सौम्य, ईमानदार और शांतिप्रय है, उतनी ही संसार की महान योद्धा भी। इसीलिए अंग्रेजों ने इनको मार्शल रेस माना था।आजादी से पहले तथा आजादी के बाद उत्तराखंड के ये वीर हर क्षेत्र में अपनी बहादुरी के झंडे फहरे आ रहे हैं।  आपको मालूम ही है कि हिमालयीलोग चैनल हिमालयी क्षेत्र की संस्कृति, इतिहास, लोक भाषा, सरोकार आदि को देश- दुनिया के सामने रखने के लिए लाया गया है और आज दूरे संसार में देखा जा रहा है। आप लोग इस गाथा को हिमालयीलोग पोर्टल में पढ़ भी सकते हैं।

उत्तराखंड में क्षत्रियों को राजपूत व जजमान भी कहा जाता है। जजमान शब्द यजमान से निकला है। सबसे पहले पौराणिक और फिर ऐतिहासिक तौर पर  जानकारी दूंगा। भरत खंड के लगभग सभी  पौराणिक शासकों का उत्तराखंड से संबंध रहा है। यह शासक वर्ग ही क्षत्रिय कहलाता है। अर्थात उत्तराखंड में प्राचीन समय से ही क्षत्रिय समाज मौजूद था। स्कंद पुराण में हिमालय के पांच खंडों का इस तरह वर्णन किया है।

खंडा: पंच हिमालयस्य कथिता नेपाल कूर्मांचलौ। 

केदारोथ जलंधरोथ रुचिर  काश्मीर संज्ञोन्तिम।।

पुराणों में गढ़वाल को केदारखंड और कुमायुं को मानसखंड कहा जाता है। हिंदू सभ्यता के अनुसार  मानव जीवन का आरंभ केदारखंड से  ही हुआ। प्रथम पुरुष मनु और प्रथम नारी शतरूपा का मिलन यहीं हुआ था। कुछ इतिहासकार तो यह भी मानते हैं कि  आज का उत्तराखंड ही आर्यों का आदि निवास रहा है। पौराणिक कथाओं में कहा गया है कि भगवान राम ने बद्रीनाथ एवं केदारनाथ की यात्रा की थी। यहां पांडुकेश्वर में ही पांचों पांडवों का जन्म भी हुआ था। राजपाट छोडक़र हस्तिनापुर नरेश महाराज पांडु यहीं अपनी दोनों पत्नियों के साथ रहते थे।  महाभारत युद्ध के बाद भातृदोष से मुक्ति पाने के लिए पांडव भगवान शिव की शरण में केदारनाथ आए थे। श्रीपुर यानी श्रीनगर के राजा सुबाहु ने महाभारत युद्ध में भाग लिया था। यहां के जौनसार के राजा विराट की बेटी उत्तरा से अभिमन्यु का विवाह हुआ था। पांडवों ने स्वर्गारोहण भी इसी हिमालयी क्षेत्र से किया। हमारे देश का नाम भारत जिन सम्राट भरत के नाम पर पड़ा है, उनका जन्म भी यहां गढ़वाल के कोटद्वार शहर के निकट मालिनी नदी के तट पर कण्वाश्रम में हुआ था। इसी आश्रम में हस्तिनापुर नरेश दुष्यंत और कुलिंद कन्या शकुंतला का मिलन हुआ था। शकुंतला को भले  ही महर्षि विश्वामित्र और मेनका की पुत्री कहा जाता हो, लेकिन वह वास्तव में कुलिंद- खस कन्या थी। यह सब बातें प्रमाण करती हैं कि इस हिमालयी क्षेत्र में सृष्टि के आरंभ से ही मानव सभ्यता फल फूल रही थी। और यहां सुसंस्कृत लोग रहते थे। क्षत्रिय भी थे।

अब पौराणिक काल से आगे  ऐतिहासिक तौर पर बात करते हैं। डा.  शिवप्रसाद डबराल, चारण अपनी पुस्तक कुलिंद जनपद प्राचीन इतिहास दो भाग में लिखते हैं कि यहां क्षत्रिय राजा या शासक वर्ग था। धन-संपत्ति से संपन्न तथा किसी जनपद या भूभाग पर अधिपत्य वाले जन को प्राचीन काल से ही क्षत्रिय वर्ण का माना जाने लगा था। उत्तराखंड में कुलिंदों के शासन काल से  प्रमाणिक जानकारी मिलती है। जबकि यहां इनसे पहले कोल, नाग, किरात, तंगण आदि जातियां भी रहती थी।  कुलिंदों के वर्तमान वंशज हिमाचल में कनैत व उत्तराखंड में कठैत आदि जातियों को माना जाता है। महाभारत काल में उत्तराखंड में कुलिंद, खस, नाग, किरात  आदि जातियां रहती थीं।तब से उत्तराखंड के  ये क्षत्रिय वीर ही तिब्बत और मध्य एशिया लुटेरों से भारतीय मैदानों को बचाते थे।  वे मैदानी राजाओं की सेनाओं में भी शामिल होकर उनकी व उनके राज्यों की रक्षा करते थे।  उत्तराखंड में  तपस्या करने आए  ऋषि-मुनियों, चिंतकों एवं अनेक विद्वानों  की सुरक्षा देते रहे। आचार्य चाणक्य ने हिमालय के आयुधजीवियों की मदद से ही नंद साम्राज्य को परास्त कर चंद्रगुप्त मौर्य का शासन स्थापित किया था।

उत्तराखंड में क्षत्रिय मुख्यतौर पर दो श्रेणियों में विभक्त थे।  यहां के खस राजपूत और मैदानों से आए वैदिक क्षत्रिय। हालांकि अब यह भेद समाप्त हो चुका है।डीडी शर्मा अपनी पुस्तक – हिमालय के खस- में कहते हैं कि आर्य और खस एक ही परिवार के थे। सदियों बाद जब दोनों यहां दूसरे के निकट आए तो इनका मिलन भी  सफलतापूर्वक हो गया। प्रागैतिहासिक काल में भी इन दोनों ने हिमालय क्षेत्र में संगठित होकर नागों, कोलों व किरातों के साथ  मिलकर संघर्ष किया तथा उन्हें पराजित कर उनके क्षेत्र पर अधिकार भी कर लिया था।

उत्तराखंड में कुलिंदों के बाद कत्यूरियों का शासन आया। कत्यूरी शासन तक लगभग  पूरा उत्तराखंड लगभग एक ही प्रशासनिक इकाई में था। कुलिंदों से लेकर कत्यूरियों शासन काल में ही मैदानों से गए क्षत्रियों ने पहाड़ में छोटी-छोटी ठकुरई  यानी राज्य स्थापित कर दिए थे। कत्यूरियों के शासन के  पतन के बाद उत्तराखंड  कई छोटे-छोटे राज्यों में बंट गया। इसी दौरान गढ़वाल में पंवार और कुमायुं में चंद राजवंशों का उदय हुआ।  गढ़वाल में पंवार और कुमायुं में चंद राजाओं का शासन आने पर  उनके काल में भी मैदानों से कई राजपूत जातियां उत्तराखंड आईं। उत्तराखंड में चूंकि धार्मिक तौर पर भी पूरे भरतखंड से लोग आते रहे, ऐसे में दूसरे क्षेत्रों के क्षत्रिय भी यहां सदियों से आते रहे और कई तो यहां बस भी जाते थे। मैदानी क्षेत्रों से गए ये क्षत्रिय यहां छोटी- छोटी ठकुराई यानी राज्य बनाते रहे।  गढ़वाल के राजाओं के शादी- विवाह के संबंध हिमाचल के राजाओं से तथा कुमायुं के राजाओं के संबंध डोटी समेत आज के नेपाल के राज परिवारों से होते थे। इनके साथ भी बहुत से  क्षत्रिय इन क्षेत्रों से भी उत्तराखंड आए। इसके बाद मैदानी क्षेत्रों में जब क्रूर व धर्मांध मुसलमानों का राज कायम हो गया तो उनके अत्यचारों से बचने के लिए भी अन्य जातियों की तरह क्षत्रिय भी हिमालय की शरण में आए। इसी दौर में राजस्थान, दिल्ली, मध्य प्रदेश आदि क्षेत्रों से बड़ी संख्या में राजपूत उत्तराखंड आए। इसके बावजूद उत्तराखंड के खस क्षत्रियों के मुकाबले वे मात्र १० प्रतिशत तक ही रहे। जैसा कि मैंने पहले बताया कि उत्तराखंड के दोनों मंडलों गढ़वाल और कुमायुं में क्षत्रिय समाज दो श्रेणियों में विभक्त रहा है| पहला,  मैदानों से आए क्षत्रिय राजपूत और दूसरा खस राजपूत। मैदानों से गए वैदिक ब्राह्मणों के प्रयासों से अब  यह भेद खत्म हो गया है।  राहुल सांकृत्यायन अपनी किताब में लिखते हैं कि लगभग 80 फ़ीसदी क्षत्रिय खस मूल के हैं, लेकिन कोई यह स्वीकार करने को तैयार नहीं है। इस तरह उत्तराखंड में कुलिंदों, खसों, नागों, कोलिय  समाजों से लेकर आज के शिल्पकारों व जन जातीय लोगों के साथ मैदानों से गए वैदिक आर्यों यानी ब्रह्मणों व क्षत्रियों ने मिलकर जो समाज बनाया वही आज का उत्तराखंडी समाज है। ब्राह्मणों की तरह क्षत्रियों में भी बड़े राजपूत और छोटे राजपूत जैसा विभाजन रहा है। कई तो आपस में शादी –ब्याह भी नहीं करते थे। परंतु अब समय के साथ यह सब लगभग समाप्त हो गया है।

अब क्षत्रियों ने सरनेम यानी जाति संज्ञानाम पर बात करते हैं। यहां जजमानों की जातियों के नाम विभिन्न कारणों से पड़े हैं।  पहले तो  मैदानों से गए क्षत्रियों ने अपने सरनेम वही रखे, तो पहले से थे। इनमें  एक तो पंवार, चंद,चौहान, तोमर समेत कई जातियां हैं, लेकिन आज बहुत से खस जजमान की इनके सरनेम लिखते हैं। कुछ सरनेम राजदरबार में मिले पदों के नाम से पड़े। इन राजपूतों में रावत, बिष्ट , नेगी, भंडारी  आदि उपजातियां प्रमुख हैं। ये नाम  राज दरबार में मिले पदों से बने हैं। इसी तरह कई जाति संज्ञानाम गांवों के आधार पर भी पड़े हैं। कुछ जातियों के नाम उनके कार्यों के कारण भी पडे हैं। इसके अलावा कुछ जातियों के नाम उनके विशेषता पर पड़े। उदाहरण के तौर पर असवाल जाति को लें तो उनको चौहानों की शाखा माना जाता है, लेकिन वे अश्व यानी घोड़े रखते थे। इसलिए अश्ववाल से असवाल कहलाए। अब इनको लेकर विस्तार से जानकारी देता हूं। यह भी जानने लायक है की उत्तराखंड के  ब्राह्मणों की तरह यहां के अधिकतर जजमानों के पूर्वजों को मैदानी क्षेत्रों से आया बताया जाता है,। इसका बाकायदा पुस्तकों में उल्लेख भी है। परंतु यह भी सत्य है कि अधिकतर क्षत्रिय उत्तराखंड मूल के हैं व उनके पुरखे मैदानों से नहीं आए।

कत्यूरियों के आरंभिक शासनकाल तक गढ़वाल और कुमायुं जैसी विभाजन रेखा नहीं थी। इसलिए लोग एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में लगातार प्रवास करते रहे। यही कारण है कि गढ़वाल और कुमायुं में कई प्रमुख जातियां ऐसी हैं जो दोनों मंडलों में पाई जाती हैं। इनमें रावत, नेगी, बिष्ट, भंडारी, रौतेला समेत कई जातियां शामिल हैं। इनकी भी कईउप जातियां हैं।   रावत वास्तव में रौत शब्द से निकला है। पहाड़ में आज भी इनको रौत ही कहते हैं। रावत सरनेम को लेकर मुख्यत: दो मान्यताएं प्रचलन में हैं। पहली मान्यता इतिहासकार डॉ. शिव प्रसाद डबराल चारण की है। चारण अपनी पुस्तक उत्तराखंड का राजनीतिक तथा सांस्कृतिक इतिहास- भाग- 4 गढ़वाल का इतिहास में लिखते हैं कि रौत राज्य की रक्षा हेतु प्राण देने वाले या विशिष्ट सहायक एवं वीरता दिखाने वाले व्यक्तियों के परिवारों को राजा जो भूमि देता था वह रौत कहलाती थी। रौत में भूमि प्राप्त करने वालों के वंशज रौत यानी रावत कहलाते थे। इनमें बहुत से ऐसे व्यक्ति भी मिल गए जिनके पूर्वजों को कभी रौत में भूमि नहीं मिली थी। यानी रावत ऐसे वीर योद्धा को कहा जाता था जो राजा की सेना में थे और देश के लिए त्याग और बलिदान के हर समय तत्पर रहते थे। दूसरी मान्यता यह है कि राजस्थान के रावतभाटा क्षेत्र से पहाड़ आए राजपूत बाद में रावत कहलाने लगे थे।

इसी तरह नेगी तब राजदरबार का एक पद होता था। डॉ शिव प्रसाद चारण नेगी जाति को लेकर लिखते हैं कि प्राचीन संभ्रांत परिवारों के प्रतिनिधियों के रूप में उन्हें मंत्रिमंडल में स्थान दिया गया था। महत्वपूर्ण कार्यों के अवसर पर उनसे परामर्श लिया जाता था । उनकी आजीविका के उन्हें विभिन्न प्रबंधों के राजस्व का कुछ अंश नेगीचारी के रूप में मिलता था। नेगी सरनेम लिखने वाले लोग विभिन्न जातियों के क्षत्रिय हैं। इनमें खस भी हैं और वैदिक आर्य भी।  डा. शंतन सिंह नेगी अपनी पुस्तक मध्य हिमालय का राजनीतिक व सांस्कृतिक इतिहास में  नेगियों को लेकर लिखते हैं कि राज्य की ओर से नेगियों को  राजस्व का कुछ भाग मिलता था। इसे नेगीचारी कहते थे । बिष्ट उत्तराखंड के राजाओं के शासन में एक पद होता था। बद्रीदत्त पांडे अपनी पुस्तक कुमांयु का इतिहास में लिखते हैं कि राजा सोमचंद ने जब कुमांयु में राज्य स्थापित किया तो  सेना व छोटे कर्मचारियों के ऊपर जो बड़ा अफसर होता था, वह विशिष्ट अथवा विष्ट कहलाता था। यानी बिष्ट राजाओं के अफसर थे। बाद में यह एक जाति सरनेम बन गया। इसी तरह भंडारी अन्न का भंडार रखने वाले या खजांची को कहा जाता था। ये पद कालांतर में उप जातियों के नाम से प्रचलित हो गए। बाद में पूरे गांव के लोग भी यही सरनेम लिखने लगे थे।

उत्तराखंड के क्षत्रियों की वीरगाथा पूरा संसार जानता है। गढ़वाल राइफल्स रेजीमेंट और कुमायुं राजमेंट के वीरों के किस्से सभी जानते हैं। प्रथम विश्व युद्ध में देश में विक्टोरिया क्रास जीतने वाले वीर नायक दरबान सिंह नेगी को 1914 और  राइफलमैन गबर सिंह नेगी को 1915  में यह पदक मिला।  इसी तरह गढ़वाल राइफल्स के जसवंत सिंह रावत ने  1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान अरुणाचल प्रदेश के तवांग के नूरारंग की लड़ाई में अहम भूमिका निभाई थी। उन्होंने अकेले ही 72 घंटे तक चीनी सैनिकों का डटकर मुकाबला किया था और 300 से ज्यादा चीनी सैनिकों को मार गिराया था। उन्होंने जिस चौकी पर आखिरी लड़ाई लड़ी थी उसका नाम बाद में जसवंतगढ़ रख दिया गया। वहां उनकी याद में एक मंदिर बनाया गया है।  इनसे पहले अफगायुद्ध के दौरान शौर्य के लिए  1879 में ऑर्डर ऑफ मेरिट यानी  ऑर्डर ऑफ ब्रिटिश इंडिया और सर्वोच्च सैनिक के पदक से सम्मानित  वीर सूबेदार बलभद्र सिंह भी शामिल हैं।   ये जितने वीर हैं उतने ही दयावान भी। इसका उदाहरण स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान वीर चंद्रसिंह गढ़वाली हैं।  गढ़वाल राइफल्स के इस वीर के नेतृत्व में जवानों ने पेशावर में निहत्थी जनता  पर गोली चलाने से इनकार कर दिया था। तिब्बती हमलावरों को भी  उत्तराखंड के वीर क्षत्रिय मार भगाते रहे हैं। हैवान जैसे क्रूर व धर्मांध मुसलिम आक्रांता तैमूर लंग को भी हरिद्वार के पास इन वीरों ने मार भगाया था। था।इस तरह के बहुत से उदाहरण हैं।

दोस्तों यह है उत्तराखंड के जजमानों का इतिहास।  अगली कड़ियों में अन्य जातियों के इतिहास को भी यहां देखिएगा। यह वीडियो कैसी लगी, अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। वेबसाइट हिमालयीलोग को भी देखते रहा।  जै हिमालय, जै भारत।

 

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