क्या है ठुल और नन धोती? कुमांयु के ब्राह्मणों का इतिहास

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परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

हिमालयीलोग की प्रस्तुति /नई दिल्ली

दोस्तों, मैं जर्नलिस्ट डा. हरीश लखेड़ा नयी कड़ी के साथ एक बार फिर आपके सामने हूं। जब तक मैं आगे बढ़ूं, आपसे अनुरोध है कि इस हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब अवश्य कर दीजिए।आप जानते ही हैं कि हिमालयीलोग चैनल हिमालयी क्षेत्र की संस्कृति, इतिहास, लोक, भाषा, सरोकारों को आपके सामने रखता रहा है।

 इस बार मैं हिमालयी ढलानों में बसी जातियों के इतिहास की श्रृंखला की इस कड़ी में  उत्तराखंड के कुमायुं  मंडल के ब्राह्मणों को लेकर जानकारी दे रहा हूं। गढ़वाल के ब्राह्मणों के बाद अब कुमायुं के ब्राह्मणों के इतिहास पर यह वीडियो  लाया हूं। मैं  पहले ही साफ कर देता हूं कि मेरा उद्देश्य इतिहास की जानकारी देना  मात्र है,  किसी पुरानी परंपरा को महिमामंडित करने का मेरा कोई इरादा नहीं हैं। कुमायुं में ब्राह्मण आमतौर पर ठुल धोती यानी बड़ी धोती और नन धोती यानी छोटी धोती में विभक्त हैं। कुमायुं में ब्राह्मणों में भेद भात की बजाए खेतों में हल जोतने को लेकर रहा है। राजा के दरबार के पदों पर रहे ब्राह्मणों ने खुद को श्रेष्ठ घोषित कर दिया और जो ब्राह्मण अपने खेतों में हल जोतते थे, उनको कमतर मान लिया गया। राजशाही के दौरान दोनों तरह के ब्राह्मणों में रोटी-बेटी के रिश्ते भी नहीं होते थे। हालांकि समय बदलने के साथ अब यह भेद भी धीरे-धीरे समाप्त होने लगा है, लेकिन कुमायुं में इस बदलाव की गति धीमी है। यही जानकारी इस वीडियो में दे रहा हूं।

कुमायुं का पौराणिक नाम मानसखंड है।  मानसखंड यानी  यानी कैलाश पर्वत और मानसरोवर तक का क्षेत्र कभी कुमायुं का हिस्सा था। मैदानी क्षेत्रों के धार्मिक प्रवृति के लोग कैलाश-मानसरोवर के दर्शनों के  लिए  यहां कूर्मांचल आते रहे और अधिकतर यहीं के होकर रह जाते थे। इसके अलावा यहां के राजपरिवारों के आग्रह पर भी ब्राह्मण यहां बसते रहे। कई ब्राह्मण मैदानी क्षेत्र में मुस्लिम आक्रांताओं के कट्टरपन  व धर्मांधता से बचने के लिए भी हिमालय की शरण में आए। वैदिक सभ्यता के विकास के साथ ही रामायण काल और महाभारतकाल में भी यहां ब्राह्मण आ चुके थे। खस राजाओं के शासन में भी उनके पुरोहित ब्राह्मण ही थे।

महर्षि पाणिनी रचित अष्टाध्यायी के अनुसार आज के कुमायुं के अधिकतर भाग का नाम आत्रेय या गोविषाण था। पाणिनि ने आत्रेय को भारद्वाज की शाखा माना है। मारकंडेय पुराण की जनपद सूची के अनुसार भारद्वाज और आत्रेय जनपद पड़ोसी थे। भारद्वाज को गढ़वाल माना जाता है।  इस तरह आत्रेय कुमायुं  से लेकर तराई क्षेत्र था। अर्थात आज से लगभग ढाई हजार साल पहले कुमांयु के अधिकतर क्षेत्र का नाम आत्रेय था। इससे साफ है कि उस काल में भी कुमायुं में  ब्राह्मण बस चुके थे। कत्यूरों के प्रारंभिक काल तक गढ़वाल और कुमायुं एक ही शासन व्यस्था के तहत थे। परंतु कत्यूरी शासन के पतन के बाद  कुमायुं में चंद और गढ़वाल में  पवांर शासन करने लगे। ये मैदानों ने आए क्षत्रिय थे और इनके साथ मैदानी क्षेत्रों से बड़ी संख्या में ब्राह्मण व क्षत्रिय समेत विभिन्न जातियों के लोग आए। कुमायुं में  कत्यूरी शासन खत्म हो जाने से यहां के खस राजों का शासन भी खत्म हो गया। यहां  जब मैदानों से आए वैदिक क्षत्रियों ने सत्ता पर कब्जा किया तो उनके साथ आए बहुत से ब्राह्मण भी शासन में प्रमुख पदों पर असीन हो गए।  इससे पहले यहां कुलिंदों, कत्यूरियों, खसों के समय भी ब्राह्मण प्रमुख पदों पर थे। कहा जाता है कि कुमायुं में कई ब्राह्मण जातियां नेपाल से भी आईं। पंत, पांड़े, जोशी की कुछ शाखाओं को लेकर कहा जाता है कि वे महाराष्ट्र, गुजरात से सीधे कुमायुं आने की बजाए नेपाल के रास्ते यहां पहुंची।

कुमायुं के ब्राह्मण मुख्यत: तीन  श्रेणियों में बंटे हैं। एक वे हैं जो मैदानी क्षेत्रों से आए थे और चंद राजाओं के शासन में उच्च पदों पर थे, इसलिए उन्होंने खुद को बड़ा ब्राह्मण घोषित कर दिया। दूसरे वे ब्राह्मण थे जो मैदानी क्षेत्रों से ही आए थे लेकिन राजदरबार तक पहुंच नहीं होने के कारण वे ब्राह्मण की वृति करते रहे, अपने खेत जोतते रहे। तीसरी श्रेणी खस ब्राह्मणों की थी। आज खस ब्राह्मणों की अलग से कोई पहचान नहीं रह गई है। सच तो यह है कि गढवाल हो या कुमायुं, यहां के कोई भी खस अपने को खस कहलाना पसंद नहीं करते हैं। कत्यूरी समेत सभी खसों की सत्ता जाते ही  ये खस ब्राह्मण भी राजदरबार से दूर हो गए। वे भी सामान्यजन की तरह जीवन जीते रहे। जबकि राजसत्ता के दीवान, पुरोहित, मंत्री, रसोइया आदि ने खुद को अन्य ब्राह्मणों से श्रेष्ठ घोषित कर दिया। यही लोग ढुल धोती यानी बड़ी धोती के ब्राह्मण कहलाए। जानने लायक यह है कि कुमायुं में ईसाई मिशनरी के लालच से ईसाई बनने वाले अधिकतर ब्राह्मणों में यही बड़ी धोती के ब्राह्मण थे। इनमें पाकिस्तान के प्रथम प्रधानमंत्री लियाकत अली खान की पत्नी शीला आइरीन पंत उर्फ रआना लियाकत अली खान भी प्रमुख हैं। वह फ़र्स्ट लेडी ऑफ पाकिस्तान थी। इसी तरह विक्टर मोहन जोशी  भी शामिल हैं।

अब कुमायुं में ब्राह्मण आमतौर पर ठुल धोती यानी बड़ी धोती और नन धोती यानी छोटी धोती संबोधन के बारे में बताता हूं।जैसा कि मैंने पहले भी कहा कि  राजदरबार में बड़े पद पाए ब्राह्मणों ने खुद को श्रेष्ठ साबित कर दिया था। चूंकि उनके पास धन था , सत्ता थी, इसलिए  वे अपने खेतों में हल दूसरों से लगवाते थे। हल लगाने वाले ब्राह्मणों को हलिया ब्राह्मण या नन धोती का ब्राह्मण कहा गया। नन यानी छोटी धोती इसलिये कहा गया, क्योंकि हल चलाते समय मिट्टी से अपनी धोती को बचाने के लिये उनको अपनी धोती ऊपर मोड़नी होती थी। यह भी तर्क दिया गया कि बैलों के कंधे पर रखे जाने वाले जुए पर चमड़ा लगा होता है, और ब्राह्मण इसे छू नहीं सकते हैं। हल चलाने वाले ब्राह्मण चूंकि इस चमड़े को छूते हैं इसलिए उनको कमतर कह दिया गया। वैसे इस प्रथा को समाप्त करने के लिए प्रयास भी हुए। कुमायुं परिषद के तहत सवर्णों ने १९२५ में वहां के शिल्पकारों का समर्थन प्राप्त करने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया। इसके तहत  ब्राह्मण समाज में हल जोतने का प्रस्ताव रखा गया।  हर्षदेव ओली, कृष्णानंद उप्रेती और बद्रीदत्त पांडे ने इस प्रस्ताव को पारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। खास बात यह है कि तब इस प्रस्ताव का तीव्र विरोध करने वाले हरगोबिन्द पंत ने बाद में 1929 में बागेश्वर में खेतों में हल चलाया था। हालांकि यह प्रयास सामाजिक परिवर्तन की बजाए एक राजनीतिक कदम ज्यादा साबित हुआ। गढ़वाल के सरोला प्रथा की तरह भात पकाने के लिए कुमायुं में भी बड़ी धोती के ब्राह्मण ही सामूहिक भोज में भात पकाते रहे हैं। उनको रसेरा ब्राह्मण कहते हैं।

 यह भारत खंड व  पूरी हिंदू सभ्यता का बेहद स्याह पक्ष है कि श्रम करने वालों को कमतर माना गया। दरअसल, वे ब्राह्मण गरीब थे या खस थे, इसलिए उनको इन बड़ी धोती के ब्राह्मणों ने कमतम मान लिया। जबकि हिमालयी क्षेत्र के इतिहास के लेखक एटकिंसन  कुमायुं की एक बड़ी धोती की ब्राह्मण जाति के बारे में लिखते हैं कि मैदानों में वे  उत्तर प्रदेश में निम्न स्तरीय ब्राह्मण थे, लेकिन चालाक होने व चंद राजाओं के निकट पहुंच जाने के कारण कुमायुं में वे बड़ी धोती की श्रेणी में आ गए। बहरहाल, समय के बदलाव के साथ अब कुमांयु में भी इन धोतियों की गांठें अब ढीली पड़ने लगी हैं। नयी पीढ़ी इन बंधनों से आगे निकल रही है। हालांकि बदलाव की यह गति धीमी है।

माना जाता है कि कुमायु में  मैदानों से ब्राह्मण छठी से आठवीं शताब्दी के बाद  आए। अधिकतर दक्षिण व पूर्वी भारत से आए। कुमायुं केसरी बद्रीनाथ पांडे अपनी पुस्तक — कुमाऊं का इतिहास– में लिखते हैं कि कूर्मांचल में ब्राह्मणों के अनेक श्रणियां पाई जाती हैं। ब्राह्मणों की मुख्यत: चार  श्रेणियां हैं। इनमें से पहली व दूसरी श्रेणी के ब्राह्मण कत्यूरी  तथा चंद राजाओं के समय में यहां आकर बसे। तीसरी श्रेणी में  कुछ तो यहां मध्यकाल के खस-राजपूतों के समय के रहने वाले हैं । इनका आचार व्यवहार पहली दो श्रेणी के ब्राह्मणों से कुछ भिन्न है। कुछ ब्राह्मण पंजाब, नेपाल तथा गढ़वाल से भी यहां आए।  पांडे जी यह भी लिखते हैं कि काली कुमायुं के राजाओं के समय ब्राह्मणों के चार भेद थे। चार चौथानी, पंचबिड़िया, खतीमन या खटकाला और कुलेमन। काली कुमायुं क्षेत्र चंपावत का है, जहां से चंद राजाओं ने अपना शासन शुरू किया। कहा जाता है कि कुमायुं में चंद नरेश रूद्र चंद ने गढ़वाल में सरोला ब्राह्मणों की तरह अपने राज्य में चौथानी ब्राह्मणों की प्रथा बनाई।  इनमें  झाड़ के जोशी, सिमल्टिया पाण्डे, देवलिया पाण्डे तथा मंडलिया पाण्डे- ये चार ब्राह्मण परिवार चौथानी कहलाए। कुछ कुमायुं के बिष्ट ब्राह्मणों को भी इस समूह में बताते हैं।इस तरह इन चौथानी ब्राह्मणों में जोशी, पांडे, और बिष्ट ब्राह्मण शामिल किए गए। पंत और तिवारी बाद में शामिल किए गए। इस श्रेणी में उप्रेती, कांडपाल, लोहनी, अवस्थी समेत कई जातियां भी शामिल हैं। बाद में यह संख्या बढ़ती चली  गई। कुमायुं में बहुत से ऐसी  ब्राह्मण जातियां हैं, जो मैदानों से आई और अपने सरनेम वही रखे। जबकि बहुत से ऐसे हैं जिनका जाति संज्ञानाम गांवों के नाम पर पड़ गया। ब्राह्मणों की एक श्रेणी वह भी है जो की खसों और वैदिक ब्राह्मणों के मिलन से पैदा हुई।

बड़ी धोती के ब्राह्मणों को लेकर यह बताना आवश्यक है कि सभी जोशी, पांडे आदि बड़ी धोती के ब्राह्मण नहीं हैं। अलग-अलग गोत्र के जोशियों, पंतों व पांडे में अपनी ही जाति में शादी भी हो जाती है। चंद नरेश रुद्र चंद ने चौथानी ब्राह्मणों के नीचे पचबिड़ियेतिथानी व तिथानी के नीचे हलिये या पितलिये ब्राह्मणों के वर्ग भी बनाये। रूपचंद्र का शासनकाल १५६४ से १५९७  माना जाता है। उन्होंने इसी तरह की और भी कई श्रेणियां बनाई थीं। इसके तहत गुरु, पुरोहित, वैद्य, पौराणिक, सईस, बखरिया, राजकोली, पहरी, बाजदार, बजनिया, टम्टा आदि पद निर्धारित किए गए। रुद्र चंद्र ने नए सिरे से सामाजिक व्यवस्था स्थापित की और इसके लिए उसने धर्म निर्णायक नाम की पुस्तक लिखवाई। इस पुस्तक में उसने ब्राह्मणों के गोत्र व उनके पारस्परिक संबंधों का विवरण शामिल किया गया।

दोस्तों यह थी कुमायुं के ब्राह्मणों का इतिहास। आशा है कि कुमायुं में ठुल धोती यानी बड़ी धोती और नन धोती यानी छोटी धोती में विभक्त ब्राह्मणों का यह भेद शीघ्र ही समाप्त हो जाएगा। जैसे कि गढ़वाल में  सरोला व गंगाड़ी ब्राह्मणों का भेद अब लगभग मिट गया है, उसी तरह कुमायुं में भी यह भेद मिट जाएगा। यहां भी इस बदलाव की गति में तेजी आएगी। दोस्तों, अब अगली कड़ियों में नेपाल के ब्राह्मणों को लेकर जानकरी दूंगा। इसके बाद अन्य जातियों के लेकर को भी यहां वीडियों देखिएगा। यह वीडियो कैसी लगी, अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। जै हिमालय, जै भारत।

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