गढ़वाल उत्तराखंड के ब्राह्मणों का इतिहास

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         परिकल्पना- डा. हरीश चन्द्र लखेड़ा

                   हिमालयीलोग की प्रस्तुति /   नई दिल्ली
 हिमालय की  जातियों के इतिहास के क्रम में इस बार आपके लिए उत्तराखंड के गढ़वाल मंडल के  ब्राह्मणों के इतिहास की  जानकारी दूंगा। इसके बाद कुमायुं मंडल व अन्य  हिमालयी क्षेत्रों के ब्राह्मणों के इतिहास पर दृष्टि डालूंगा।   मैं  पहले ही साफ कर देता हूं कि मेरा उद्देश्य इतिहास की जानकारी देना  मात्र है,  किसी पुरानी परंपरा को महिमामंडित करने का मेरा कोई इरादा नहीं हैं। यह खुशी की बात है कि  आज उत्तराखंड में ब्राह्मणों के बीच के सभी तरह के आपसी विभेद लगभग मिट से गए हैं। हिमालयीलोग चैनल हिमालयी क्षेत्र की संस्कृति, इतिहास, लोक, सरोकारों को आपके सामने रखता रहा है।

 भारत वर्ष में वैदिक सभ्यता के  विकास के साथ ही हिमालयी क्षेत्रों में ब्राह्मण भी पहुंचने लगे थे । पौराणिक तौर पर रामायण काल भी भगवान राम के  कुल पुरोहित वशिष्ठ जी भी  उत्तराखंड गए थे। वे ब्राह्मण ही थे। महाभारत काल में वेद व्यास जी भी बदरीनाथ जी के पास की गुफा में रहे और उन्होंने वहां रहकर ही भगवान श्री गणेश जी से महाभारत लिखवाई थी। पौराणिक ऋषियों के आश्रम भी गंगा के किनारे थे। गढ़वाल का पौराणिक नाम इसलिए ही भारद्वाज था, क्योंकि वहां महर्षि भारद्वाज का आश्रम था।  महर्षि पाणिनी रचित अष्टाध्याय के अनुसार गंगाद्वार  यानी हरिद्वार के निकट प्रदेश में  भारद्वाज ऋषि और उनके शिष्यों के बस जाने से इस प्रदेश का नाम भारद्वाज पड़ा। गढ़वाल में शासन करने वाले कुलिंदों के समय भी यहां ब्राह्मण थे। उनके बाद कार्तिकेयपुर नरेशों के भी पुरोहित थे। बौद्धकाल में कुछ नरेश बौद्धमत की ओर अवश्य झुके परंतु  ब्राह्मण धर्म का दबदबा बना रहा। आदि शंकराचार्य जी के साथ भी बहुत से ब्राह्मण गढ़़्वाल गए और वहीं बस गए।

पुराणों में गढ़वाल को केदारखंड काह जाता रहा है। केदारनाथ जी और बदरीनाथ जी के दर्शन करने के लिए सदियों ने यहां धार्मिक यात्रा पर संपूर्ण भारतखंड से लोग आते रहे। धार्किम यात्रा पर गए ब्राह्मण वहां बसते रहे। बाद में जब मैदानों में धर्मांध व कट्टर मुसलिम आक्रांता शासन करने लगे तो उनके संकीर्ण सोच व धार्मिक कट्टरता के के कारण भी बड़ी संख्या में ब्राह्मणों ने भी हिमालय की पहाडिय़ों की ओर रुख किया। ११वीं सदी से पहले तक अधिकतर ब्राह्मण राजपरिवारों के साथ आ कर अथवा उनके आग्रह पर केदारखंड में बसे थे।  कुछ ब्राह्मण तीर्थयात्रा पर आए और वहीं बस गए। यह 11वीं सदी से पहले की बात है। बाद में जब मैदानी क्षेत्रों में हमलावर धर्मांध व संकीर्ण मुसलानों ने सत्ता हड़प ली और  धार्मिक कट्टरता फैलाई तो उस आतंक से बचने के लिए भी ब्राह्मण व क्षत्रियों समेत बहुत सी जातियां केदारखंड आईं। वे वहीं की होकर रह गईं। पहले से रह रहे खसों, नागों, किरातों, कोलीय आदि लोगों के साथ मैदानों से गए लोगों ने जिस समाज की रचना की वही आज के गढ़वाली हैं।

गढ़वाल में ब्राह्मण  जातियां विभिन्न श्रेणियों में विभक्त रहे हैं। हालांकि अब यह सभी भेद मिट गए हैं। यह इतिहास का हिस्सा है इसलिए इसे नकार नहीं सकते हैं।  टिहरी रियासत के मंत्री रहे पं. हरिकृष्ण रतूड़ी के अनुसार गढ़वाल में कभी ब्राह्मण सरोला, गंगाड़ी और नाना गोत्री या खस ब्राह्मण में विभक्त हैं। सरोला व गंगाड़ी वे ब्रह्मण हैं, जिनके पुरखे मैदानों से गढ़वाल गए।  हालांकि  ‘गढवाल इंसिएंट एंड माडर्न’ पुस्तक में सर्जन राय बहादुर पाती राम लिखते हैं कि गढवाल में ब्राह्मण दो श्रेणियों में हैं।  सरोला और गंगाड़ी। सरोला उच्च ब्राह्मण माने जाते रहे हैं। जबकि राहुल सांकृत्यायन चार तरह के ब्राह्मण बताते हैं। वे ‘हिमालय परिचय-1 गढ़वाल’ में वे लिखते हैं कि ब्राह्मणों में भी खस और देशी दो तरह के ब्राह्मण हैं। यद्यपि आजकल कोई अपने को खस कहने को तैयार नहीं है। अब गढ़वाल के ब्राह्मण चार श्रेणियों में विक्त हैं। 1- सरोला, 2- गंगाड़ी, 3- दुमागी और 4- देवप्रयागी। सांकृत्यायन खस ब्राह्मणों के लिए दुमागी और पंडों के लिए देवप्रयागी कहते हैं। मेरी पुस्तक – लखेड़ा वंश- सागर से शिखर—में भी गढ़वाल के ब्राह्मणों के बारे में विस्तार से उल्लेख है।

अब सबसे पहले सरोला और गंगाड़ी को लेकर बात करते हैं। इन दोनों के पूर्वज ही मैदानों से गए विद्वान व धार्मिक प्रवृति के ब्राह्मण थे। इन दोनों में  यह विभेद तब पैदा हुआ जब पंवार वंश के संस्थापक व चांदपुर गढ़ी के राजा कनकपाल ने अपने साथ आए ब्राह्मणों को अतिरिक्त अधिकार दे दिए। कनकपाल की राजधानी ऊपरी हिमालयी क्षेत्र चांदपुर गढ़ी में थी।  नौटी के नौटियाल चूंकि राजा के  साथ पुरोहित और रसोइया के तौर पर आए थे। गैरोला,थापली, रतूड़ा, लखेड़ी, डिम्मर आदि जो गांव  चांदपुर गढ़ी के निकट थे, वहां के ब्राह्मण भी खुद को राजवंश के पुरोहित बताने लगे थे। शादी ब्याह के लिए उन्होंने अन्य जातियों को भी सरोला समूह में शामिल कर दिया। उन्होंने  दूसरे ब्राह्मणों की तुलना में खुद को श्रेष्ठ घोषित कर दिया। चूंकि वे राजा के करीब थे, राजकाज में उनका ज्यादा दखल था। राजदरबार के ज्यादातर पद उन्हीं के पास थे। इसलिए समाज में उनका प्रभाव भी ज्यादा था। यह गढ़वाल की सर्वप्रथम प्रमाणिक ब्राह्मण व्यवस्था थी। उसे राजा से मान्यता प्राप्त थी।

बाद में 14वीं सदी में जब इसी वंश के राजा अजयपाल राजधानी को चांदपुर गढ़ी से  श्रीनगर लाए तो उन्होंने एक बेतहर सेना की आवश्यकता महसूस हुई। उनकी सेना में हर जाति व समुदायों के  लोग थे। उन्होंने सेना के लिए भोजन बनाने की जिम्मेदारी सरोला ब्राह्मणों को सौंप दी। यह व्यवस्था पूरे गढ़वाल के लिए भी सामूहिक भोज बनाने के लिए कर दी गई। राजा के इस निर्णय ने सरोलाओं को दूसरों से खुद को श्रेष्ठ बताने का अवसर दे दिया था। उत्तराखंड के सरोला और गंगाड़ी में  सभी धार्मिक रीति रिवाज एक जैसे रहे हैं लेकिन सिर्फ यही अंतर है कि सरोला के बनाए भात को सभी जातियों के लोग खा लेते हैं जबकि गंगाड़ी के हाथ का बनाया भात उनके रिश्तेदार ही खाते रहे हैं। हालांकि अब यह भेद खत्म हो गया है। जबकि रोटी सभी के हाथ का बनाया सभी खा लेते हैं।

 सरोला और गंगाड़ी 8 वीं और 9वीं शताब्दी के दौरान मैदानी क्षेत्रों से केदारखंड आए थे। पंवार शासक के राजगुरु, राजपुरोहित, रसोइया, वैद्य आदि के रूप में काम करने वाले ब्राह्मण सरोला कहलाए। पंवार राजवंश के वजीर रह चुके हरिकृष्ण रतूड़ी के अनुसार सरोला जाति पहले 12 थान (स्थान) अर्थात 12 जातियों में विभक्त थीं। अर्थात इनके 12 थान (स्थान)1- नौटी, 2-मैटवाणा, 3- खंडूड़ा, 4- रतूड़ा, 5-थापली, चमोला , 7- सेमा, 8-लखेसी या लखेड़ी, 9 -सेमल्टा, 10-सिरगुरी , 11 कोटी और 12- डिम्मर थे। कोई नवं स्थान सेमल्टा के बजाए गैराला बतलाते हैं। इन गांवों के नाम पर ही यहां के ब्राह्मणों का जाति संज्ञानाम पड़ गया। उदाहरण के तौर पर नौटी के नौटियाल, खंडूड़ा से खंडूड़ी, डिम्मर से डिमरी,लखेड़ी से लखेड़ा। आदि। उत्तराखंड के हम लखेड़ाओं के प्रथम पुरखु पुरुष श्री भानुवीर नारद जी बंगाल के वीरभूम से सन १०६० में बदरीनाथ धाम की यात्रा पर आए थे। वे वैद्य थे और तब के चांदपुर गढ़ी के राजा अनंत पाल के आग्रह पर लखेड़ी में बस गए। वे राजा के राजवैद्य थे।  इसी तरह की गाथाएं अन्य ब्राह्मणों की भी हैं। डिमरी ब्राह्मणों के पुरुख पुरुष राजेंद्र बलभद्र जी  आदि शंकराचार्य जी के साथ बदरीधाम आए थे। वे कनार्टक के संतोली से थे और डिम्मर गांव में बसने से डिमरी कहलाए। यह तो उदाहरण मात्र हैं,  इस विषय पर अलग से वीडियो लाऊंगा।

 

 सरोलाओं के शुरू में १२ थान यानी स्थान थे।फिर 21 थान (स्थान) पाए जाते हैं। बाद महाराजा महीपत शाह (1629- 1646ई.) ने इनमें और जातियों को शामिल कर दिया। इस तरह अब कुल 33 जातियां सरोलाओं की पाई जाती हैं।  सरोला और गंगाड़ी शब्दों की उत्पति के बारे में भी बता देता हूं।  गढ़वाल में जो भूभाग हिमालय के निकट है और जिसकी ऊंचाई सात हजार फिट से ऊपर है उसे ऊपर का देश कहते हैं। इससे नीचे का जो भूभाग  नदियों की घाटियों में है, उसे गंगाड़ कहते हैं। चांदपुर गढी ऊपरी क्षेत्र में है और मैदानों से आकर सबसे पहले ब्राह्मण उसी क्षेत्र में बसे। वे सरोला कहलाए। बदरीनाथ धाम चांदपुर गढ़ी के तहत रहा है और बाद में पंवार राजवंश ने पूरे गढ़वाल को अपने नियंत्रण में ले लिया था। चांदपुर गढ़ी में राजधानी रहने पर पंवार राजवंश के राजगुरु, राजपुरोहित, मंत्री, वैद्य, रसोइया आदि सरोला ब्राह्मण ही रहे। इसलिए उन्हें समाज में उच्च दर्जा मिल गया। इस तरह चांदपुर गढ़ी सरोलाओं का नया मूल निवास बन गया।गंगा आदि नदियों की घाटियों यानी गंगाड़ क्षेत्र में रहने वाले ब्राह्मण गंगाड़ी कहलाए। बाद में जब राजधानी श्रीनगर आ गई तो राजदरबार में गंगाड़ी ब्राह्मणों का दबदबा भी बढऩे लगा था। 

नाना जाति के ब्राह्मण वहां के मूल आदिम निवासी हैं जिन्हें खस ब्राह्मण कहा जाता है। गढ़वाल में आने के बाद जन सरोला और गंगाड़ी ब्राह्मणों ने नाना गोत्र के ब्राह्मणों से भी शादी की, उनकी संतानें नाना गोत्र के ब्राह्मण कहलाए। कुछ क्षेत्रों में शिव मंदिरों के पुजारी ब्राह्मणों को भी अलग श्रेणी माना जाता रहा है। माना जाता है कि वे किरात मूल के हैं। उनके साथ सरोला और गंगाड़ी लंबे समय तक नातेदारी नहीं करते थे।

 सरोलाओं और गंगाडी के अलावा गढ़वाल में ब्राह्मणों की नागपुरी व्यवस्था भी रही है। हालांकि राजा ने उनको मान्यता नहीं दी। सरोलाओं और अन्य ब्राह्मणों के बीच लंबे समय तक आपसी रिश्ते-नाते नहीं हो पाए। सरोला जातियां पहले आपस में ही विवाह करते थे लेकिन बाद में वे गंगाड़ी और नाना जाति के ब्राह्मणों से भी रिश्तेदारी करने लगे। हालांकि पहले यह भी प्रथा थी कि यदि कोई सरोला दूसरी जाति गंगाड़ी या नाना ब्राह्मणों से रिश्ता करता था तो उसकी संतानों को सरोला नहीं माना जाता था। उनको गंगाड़ी माना जाता था। इसलिए भी सरोला दूसरे ब्राह्मणों से रिश्ते करने से कतराते रहे। बाद में जब दूसरे क्षेत्रों में सरोला प्रवास करने लगे तो वहां रिश्ते बनाने के लिए सरोला नहीं मिले। इस कारण गंगाड़ी व अन्य ब्राह्मणों से रिश्तेदारी करनी पड़ी। इसके अलावा राजधानी श्रीनगर आ जाने के बाद राजदरबार में गंगाड़ी ब्राह्मणों का दबदबा बढऩे लगा था। सरोलाओं को फिर उनसे रिश्ते करने में संकोच नहीं रहा।
सरोले के हाथ की बना भात सभी लोग खा लेते थे, लेकिन सरोला और किसी के हाथ का बना नहीं खा सकता था। कहा जाता है कि सरोलों को गढ़वाल का समाज पर्वतों के शिखरों जैसी ऊंचाइयों पर मानता आया है और जो ब्राह्मण सरोले नहीं रह जाते हैं उनका दर्जा घट जाता है और वे गंगाड़ी मान लिया जाता है।

 अब नागपुर में हसली और कमसली प्रथा के बारे में बताता हूं।  गढ़वाल के नागपुर क्षेत्र में सरोला -गंगाड़ी जैसी प्रथा से मिलती जुलती व्यवस्था ही रही है। जिसमें भात बनाने वाले ब्राह्मणों को हसली और भात नहीं बनाने वालों को कमसली कहा जाता रहा। ये नियम गढ़वाल के राजाओं और पट्टियों के थोकदारों, जमींदारों  ने बनाए थे। नागपुरी व्यवस्था के तहत सिर्फ 72 गांवों में ही आपस में रिश्ते नाते होते रहे हैं। बाकी के साथ रिश्ते नाते करने पर प्रतिबंध रहा है। इस नियम का पालन नहीं करने पर उस परिवार को कमतर मान लिया जाता था। इस क्षेत्र में जब दूसरे क्षेत्र के ब्राह्मणों ने बसना शुरू किया तो नागपुरी ब्राह्मणों ने उनके साथ रिश्ते नहीं किए।

कत्यूरियों  और अन्य राजाओं के शासन में प्रमुख पदों पर रहे ब्राह्मणों को जब पंवार वंश के उदय होने पर उनके राजाओं ने जब खास प्रमुखता नहीं दी तो वे नाराज रहने लगे थे। नागपुर-पट्टी के निरोला ब्राह्मणों की भी यही कहानी है। चांदपुर गढ़ी का ताज कनकपाल के सिर पर सुशोभित होने के साथ प्रशासन में भी बदलाव होने लगा था। राजा कनकपाल ने अपने साथ आए नए गौड़ ब्राह्मणों को पुरोहित, मंत्रिपद से लेकर रसोई बनाने तक का काम दे दिया।  इन नए गौड़ ब्राह्मणों ने राजदरबार में पहले से स्थापित ब्राह्मण मंत्रियों की जगह ले ली थीं। पहले से सत्ता में रहे ब्राह्मणों को यह फैसला पसंद नहीं आया।  इससे वे नाराज हो गए। इन नाराज ब्राह्मणों में ज्यादातर नागपुर क्षेत्र के ब्राह्मण  थे। नये आए ब्राह्मणों को सरोला कहा जाने लगा था। सरोलाओं ने नागपुरी ब्राह्मणों के साथ विवाह संबन्ध बनाने से भी इनकार कर दिया था। दरअसल, राजदरबार के नए ब्राह्मणों ने नागपुरी ब्राह्मणों को गौड़ मानने से भी इनकार कर दिया था। वे नागपुरी ब्राह्मणों पर मांसाहार करने व दुमागी यानी खस ब्राह्मणों व क्षत्रियों से अंतर जातीय विवाह का आरोप भी लगाते थे। राजदरबार में प्रभाव होने के कारण राजपूत और खसों ने भी ब्याह आदि समारोहों में सरोलों के पकाए भात को ही खाने के अधिकार को मान्यता देना प्रारंभ कर दिया। सरोला ब्राह्मण तब तक  मांसाहार  नहीं करते थे। जबकि पहले से स्थापित ब्राह्मणों के बारे में कहा जाता है कि पहाड़ी जलवायु तथा खस राजा के प्रभाव में उन्होंने मांसाहार प्रारंभ कर दिया था। इससे भी दोनों में विभेद बढ़ता चला गया। इसके बाद नागपुरी ब्राह्मणों ने भी सरोलाओं के साथ नातेदारी  बनाने से इनकार कर दिया था। नागपुरी ब्राह्मणों ने सरोलाओं के भात पकाने के एकाधिकार को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने अपना भात अलग कर दिया। वे खुद को निरोला ब्राह्मण कहलाने लगे थे।  यह सरोलों का विरोध ही था।
बाद में राजधानी देवलगढ़ व फिर श्रीनगर आ जाने पर हालात बदलते चले गए। श्रीनगर वैसे तो छटी शताब्दी के पहले से ही एक प्रमुख व्यापारिक क्षेत्र था। देवलगढ़ और श्रीनगर में  शुरुआती दौर में सरोला ब्राह्मण और उनके संबंधियों को प्रमुख स्थान मिलता रहा। बाद में स्थानीय ब्राह्मण जातियों के साथ विवाह संबंध बनाने पर उन्होंने श्रीनगर क्षेत्र में भी अपना प्रभाव जमा लिया। इधर, सरोलाओं के साथ ही गंगाड़ी भी राजदरबार में अपना प्रमुख स्थान बनाते चले गए। इनमें डोभाल,बहुगुणा, उनियाल तथा डंगवाल  तथा गढ़वाल के कायस्थ ब्राह्मण माने जाने वाले नैथानी शामिल थे। बाद में सरोलाओं की बजाए इन जातियों का दबदबा बढ़ता चला गया। राहुल सांकृत्यायन भी ‘ हिमालय परिचय-1 गढ़वाल’ में लिखते हैं कि कोटयाल, खंडूड़ी, गैरोला, डोभाल, बहुगुणा राजाओं के समय उच्च पदों पर नियुक्त थे।

दरअसल, श्रीनगर राजधानी आने पर पंवार राजाओं ने नेपाल से लेकर विभिन्न राज्यों के राजघरानों से शादी विवाह के संबंध बनाए।  दूसरे प्रदेशों से ब्याह कर आई रानियों के साथ उनके भाई भी गढ़वाल आते रहे। उनका भी रादरबार में दबदबा होता था। श्रीनगर में ब्राह्मण जातियों में नौटियाल ब्राह्मण ही राजपुरोहित थे जबकि अन्य सरोला ब्राह्मण राजा की रसोई का कार्य पहले की तरह संभालते रहे।  यहां चौथिकी ब्राह्मणों यानी डोभाल,बहुगुणा, उनियाल तथा डंगवाल ने मंत्रिपदों पर अधिकार जमा लिया। इन चार जातियों को चौथिकी  कहा गया। नैथानी भी प्राभवशाली भूमिका में थे। वे कार्यालय में असरदार थे।

दोस्तों यह है उत्तराखंड गढ़वाल के ब्राह्मणों का इतिहास।अगली कड़ियों में कुमायुं के बड़ी व छोटी धोती के ब्राह्मणों समेत वहां के ब्राह्मणों से लेकर उत्तराखंड के क्षत्रिय, शिल्पकार समेत विभिन्न जातियों के इतिहास को भी यहां देखिएगा। नेपाल समेत पूरे हिमालयी क्षेत्र की जातियों को लेकर भी आपको जानकरी दूंगा। यह वीडियो कैसी लगी, अवश्य लिखें। हिमालयीलोग चैनल को लाइक व सब्सक्राइब करना न भूलना। जै हिमालय, जै भारत।

 

 

 

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